"नीलिमा..तुम मेरी बेटी जैसी हो....मैं तुम्हे बिलकुल ही गलत नहीं समझ रही....इन हालातो में ऐसा हो सकता है...मुझे ही देखो...आज पहला दिन है...बेटे -बहू का फोन भी आ चुका है..पति से भी बात हो चुकी है...पर इतना अकेलापन था....ये कुछ घंटे भी काटना मुश्किल लग रहा था ....तुमने तो महीने काटे हैं ऐसे....मुझे अच्छा लगेगा अगर तुम खुलकर अपने मन की बात मुझसे कहोगी....किसी के कुछ काम आ सकी ये ख़ुशी तो होगी.
"आंटी आप किसी से ये सब कहेंगी तो नहीं ना..अपनी बहू से...प्लीज़ आंटी..."उसके आवाज़ से डर छलक छलक पड़ रहा था
"नहीं बेटा....इत्मीनान रखो...मैं किसी से कुछ नहीं कहने वाली.."मैं उठकर उसके पास सोफे पर बैठ गयी....उसे भी लग रहा था, वह संकट की घड़ी में अचानक मेरे पास चली आई..तो सारी बातें बताना उसका फ़र्ज़ है. थोड़ी देर रुक कर... जैसे खुद को ही समझाकर उसने फिर कहना शुरू किया.
एक दिन मैं गुड़िया को स्कूल बस में चढ़ाकर वापस लौट ही रही थी कि एक आवाज़ आई..'एक मिनट सुनिए.."
मुड कर देखा...वो लड़का ही था, हलके से मुस्कुरा कर आँखें झुका कर जैसे नमस्ते की उसने और बोला.."आपके पास ठंढे पानी की बॉटल है क्या...यहाँ दुकान में ठंढा पानी है ही नहीं.."
मेरी समझ में नहीं आया क्या बोलूँ....पर एकदम से झूठ नहीं कहा गया मुझसे...और मैने कह दिया.."हाँ... है.."
वो मेरे बिना कुछ कहे ही मेरे साथ चलने लगा...इधर-उधर की बातें करता रहा.."अच्छी बिल्डिंग है...साफ़-सफाई है..यहाँ...अच्छा मेंटेन किया है..."
मैने कुछ भी नहीं बोला......फिर लिफ्ट में अपने बारे में बताने लगा..'वो क्या है ना.....अकेला रहता हूँ...फ्रिज नहीं रखा मैने...जब ठंढा पानी पीना हो...दुकान से ले लेता हूँ...आज उनके पास थी ही नहीं...और जैसे मेरा गला सूख रहा था...सोचा,आपसे मांग लूँ...आपको बुरा तो नहीं लगा.."
.मैने ना में सर हिलाया...अब भी मुझसे कुछ कहते नहीं बन रहा था....मैने कमरे का दरवाज़ा खोला...वो बाहर ही खड़ा रहा ..जेब में हाथ डाले...इधर-उधर देखता रहा...जब मैने बॉटल पकडाई तो बोला.."मैं आज शाम को बॉटल लौट दूंगा.."
मैने घबरा कर कहा.."नहीं..नहीं...आप इसे रख लीजिये...बहुत सारी बॉटल है मेरे पास..."मैं नहीं चाहती थी ,उसे दुबारा आने का बहाना मिले...और वो भी जैसे भांप गया,एक चौड़ी मुस्कान के साथ बोला..."ओके ...थैंक्यू..."..और लिफ्ट का बटन दबा दिया उसने. मैने तुरंत दरवाज़ा बंद कर लिया...डर से मन ही मन काँप गयी थी मैं...ये मेरी जिंदगी में पहला मौका था...जब मैने ऐसे अकेले में किसी अजनबी लड़के से बात की थी
जल्दी से मैने परदे खींच दिए. एक दो दिन मैं खिड़की के पास गयी ही नहीं...मैने गौर किया था...वो शाम को चला जाता था...पता नहीं गए रात को या शायद सुबह लौटता और ग्यारह-बारह बजे तक सोता रहता था. मैं सुबह ही समय निकाल कर कपड़े डाल देती...और शाम ढलने के बाद निकालती. पर कितने दिन??..फिर वही वापस रूटीन शुरू हो गया...अब वह सामने दिख जाता तो मुस्कुरा भी देता....पर मुझे डर लगता और मैं वहाँ से हट जाती. ...हालांकि मन को समझाती कि 'मैं एक बच्ची की माँ हूँ....कोई छोटी लड़की थोड़े ही हूँ...जो डर रही हूँ.'दसेक दिन बीत गए...बस वही...जब कभी सामने दिख जाता, एक मुस्कान उसके चेहरे को छो कर निकल जाती और एक दिन फिर वही बारह बजे मिला...सीधा ही मुस्कुरा कर पूछा.."हलो..कैसी हैं आप."
"ठीक हूँ.."मेरे मुहँ से इतना ही निकला. शायद फिर से पानी की बॉटल मांगेगा .यही सोच रही थी कि बोला..."आज फिर आपको तंग करने वाला हूँ...बहुत तेज सरदर्द हो रहा है...शायद थोड़ा बुखार भी है....कोई दवा है क्या...मेडिकल शॉप तक जाने की हिम्मत ही नहीं हो रही...यहाँ किसी को जानता नहीं....बस एक आपको चेहरे से पहचानता हूँ...सोचा आपसे ही पूछ लूँ.."
मैने आँखें उठा कर देखा ..उसके चहरे पर सचमुच दर्द था...आँखें लाल लग रही थीं..फिर मुझसे झूठ नहीं बोला गया..."हाँ.. है..आइये देती हूँ.."
शायद सचमुच उसके सर में बहुत दर्द था..वो रास्ते में कुछ नहीं बोला...लिफ्ट में भी चुप रहा..दरवाजे के बाहर कपाल को हथेलियों से दबाता खड़ा था...और फिर मैने कुछ नहीं सोचा..उसे अंदर बुला लिया...उसने कहा भी..."नहीं.. ठीक हूँ..."
"आ जाइए दो मिनट...कोई बात नहीं...बैठिये.."
वो आकर बैठ गया...मैने दवा और एक ग्लास पानी पकडाया..फिर एकदम से ध्यान आया...उसने कुछ खाया है या नहीं...खाली पेट दवा नहीं खानी चाहिए. पूछा..तो उसने 'ना'में सर हिला दिया और बोला..."कोई बात नहीं..आप बस दवा दे दीजिये."
पर मैने जिंदगी में आजतक किसी को खाली पेट दवा खाते देखा भी नहीं..घंटो गुड़िया को मनुहार करती हूँ...एक से एक वो फरमाइश करती है...सब पूरा करती हूँ...तभी दवा देती हूँ....सास और माँ के बीमार होने पर भी...जबरदस्ती उन्हें कुछ खिलाकर ही दवा देती थी..इसे ऐसे कैसे खाने दूँ...और मैने सख्ती से कहा..."नहीं...बिस्किट लाती हूँ..बिस्किट खा कर ही दवा लीजियेगा. "
मैं बिस्किट ले आई...उसने बड़े संकोच से एक बिस्किट उठाया..और खा कर दवा खा ली...उसे इस हालत में देखकर मेरा सारा संकोच, सारा डर उड़नछू हो गया था और लग रहा था..किसी भी तरह इसे आराम आ जाए. और मैने चाय के लिए पूछ लिया....वो ना कहता हुआ उठ खड़ा हुआ...पर मैने ही जबरदस्ती की...'दो मिनट में बन जायेगी..पी लीजिये....अच्छा लगेगा "
वो संकोच से भर उठा.."आप रहने दीजिये....दवा से आराम आ जायेगा.."
"आप बैठिये....मैं बनाती हूँ.."कहती मैं किचन में चली गयी....चाय लेकर आई तो ऐसे लगा ही नहीं..मैं किसी अजनबी के सामने बैठी हूँ....शायद महीनो से उसका चेहरा देखते रहने के आदी मन ने उसे अपरिचित मानने से इंकार कर दिया था.
जिस लड़के से मैं इतना संकोच करती थी...पर्दा खींच दिया करती थी....बातचीत की शुरुआत मैने ही की...और कुछ ही मिनटों में उसने सब बता दिया...'वो एक कॉल सेंटर में काम करता है...अकेला रहता है.....खाना-पीना बाहर ही खाता है..चाय तक नहीं बनाता'. और मैं उसे किसी पुराने परिचित की तरह सलाह देने लगी...'कम से कम एक हीटर ही रख लीजिये...चाय तो बन सकती है.....कभी मैगी भी बना सकते हैं.."
"वो तो रख लूँ...पर बर्तन भी तो धोना पड़ेगा..फिर चाय के लिए दूध लाओ ..उबालो..वो कहाँ रखो...ये सब झंझट मुझसे नहीं हो पाता "
"हाँ...कभी जिंदगी में किया नहीं होगा ना...घर पर तो राजशाही ठाठ होगी..सबकुछ हाथों में मिलता होगा....."जैसे मैं अपने किसी कजिन को डांट रही थी..
वो मुस्कुरा कर चुप हो गया...जैसे घर की यादों में खो गया हो..फिर थोड़ी देर बाद बोला.."सच कहा आपने..एक छोटी बहन है.. ऋचा. ..बहुत ख्याल रखती थी..बिना कहे सब कुछ हाज़िर...कभी-कभी तो मन होता है सब कुछ छोड़कर चला जाऊं...बहुत मिस करता हूँ...सबको..माँ .पापा.. ऋचा .."और अचानक चुप हो गया..लगा जैसे आगे बोलेगा तो गला रुंध जाएगा...या फिर आँखों में पानी आ जायेगा...मैं समझ सकती थी बीमारी में घर बड़े जोरों से याद आता है....मेरी शादी को छः साल हो गए...सासू माँ बहुत अच्छी हैं फिर भी जरा सा बुखार भी आए तो माँ याद आती थी...मैं भी चुप रही.
चाय के बाकी घूँट उसने ख़ामोशी में ही भरे और कप रखकर खड़ा हो गया..."थैंक्स तो बहुत छोटा सा शब्द है...आपने दवा भी दी..और चाय भी पिलाई...अभी से ही बेटर फील कर रहा हूँ...डोंट हैव एनफ वर्ड्स टु थैंक यू.....रियली आई मीन इट "
उसके जाने के बाद मन जाने कैसा हल्का-फुल्का हो आया...एक ख़ुशी सी तारी थी...बड़े दिनों बाद इस दैनंदिन एकरसता से अलग कुछ किया था. किसी के काम आई थी...किसी की छोटी सी मदद की थी या फिर बस रूटीन से कुछ अलग किया था...पता नहीं किस बात का संतोष था...पर मैने बड़े मन से साफ़-सफाई की..घर की सजावट बदली...हालांकि सजावट भी क्या बदलनी...बस इधर की चीज़ें उधर कर दो हो गया बदलाव..फ़्लैट में जगह ही कहाँ होती है...हर चीज़ की जगह फिक्स्ड है. बड़े शौक से आलू-पराठे बनाए...'वरना रोज़ दाल-सब्जी रोटी बना कर रख देती थी. कभी नरेश शिकायत भी करते तो कह देती....'इतनी आरामदायक लाइफस्टाइल है, आपकी.. कोई वाक नहीं...एक्सरसाइज़ नहीं..सादा खाना ही ठीक है.'नरेश ने भी शायद अतिरिक्त उत्साह को लक्ष्य किया...एकाध बार मेरी तरफ देखा..पर फिर रिमोट उठा कर चैनल बदलने लगे. मेरे मन में उहा-पोह थी..नरेश को बताऊँ या नहीं...पता नहीं शायद डांट दें...पर आजतक कभी कुछ छुपाया भी नहीं...और मैंने सोचा ,'बता देती हूँ..एक बीमार की मदद की है...अगर डांट भी खाई तो किसी अच्छे काम के लिए "
सोफे पर बैठ कुशन गोद में रख लिया..'सोच ही रही थी कैसे शुरू करूँ कि नरेश का मोबाइल बज उठा...इतना गुस्सा आया...हर बार यही होता है...कुछ भी कहने जाती हूँ और मोबाइल पहले उन्हें अपनी तरफ खींच लेता है...और मैं गुस्से में कुशन फेंक उठ गयी ..गुडिया पर चिल्लाने लगी..'चलो सो जाओ अब..उठने में देर करोगी.."नरेश के चेहरे पर गुस्सा झलक उठा इशारे में कहा.."बात कर रहा हूँ न'और कमरा जोर से बंद कर लिया...
दूसरे दिन मैं बार-बार खिड़की से झांकती आखिर एक बजे के करीब वह नज़र आया...इस बार मुझे उसकी तरफ सीधा देखने में कोई झिझक नहीं हुई. मैने ही हाथ के इशारे से पूछा.."कैसा है अब?"
उसने आँखें बंद कर सर हिलाया..'बिलकुल ठीक..."
अगर जरा जोर से पूछती तो उस तक आवाज़ जरूर चली जाती पर पता नहीं कितने कानो से होकर गुजरती. थोड़ी देर टेरेस पर टहल कर वह चला गया. मैं भी अपने काम में लग गयी...अब वो लुका-छिपी का खेल बंद हो गया था. दूसरे दिन वह नीचे बस स्टॉप पर फिर मिला और थोड़ा झिझका हुआ था...पहले दिन वाली आत्मविश्वास से भरी मुस्कराहट मिसिंग थी. गुड़िया की बस जाते ही पास आकर बोला..."आपको शुक्रिया कहना चाहता था...बहुत फायदा हुआ उस दवा से...और हाँ चाय से भी.."
"थैंक्स तो आपने उस दिन ही कह दिया था.."
"हाँ....उस दिन का थैंक्स दवा देने के लिए...और आज का थैंक्स असर करने वाली दवा देने के लिए.."मुस्कुरा रहा था वह.
"अरे..तो अगर दवा असर नहीं करती तो थैंक्स कैंसल.."बड़े दिनों बाद या शायद इस शहर में पहली बार मैं इतना चहक कर बात कर रही थी....
उसने भी शैतानी से कहा...."पता नहीं..."
और मैं जोर से हंस पड़ी...उसने भी साथ दिया...अपनी हंसी की आवाज़ ही बेगानी सी लगी....कितने दिनों बाद मैं खुलकर हंसी थी..."चलिए अपना ख्याल रखिए...."कहती मैं आगे बढ़ गयी....मन तो हो रहा था..फिर से चाय के लिए बुला लूँ...और खूब गप्पे मारूँ...पर इतनी हिम्मत नहीं थी.
"श्योर मैम एन थैंक्स अगेन.."
उसके फिर से थैंक्स कहने पर गुस्से में देखा उसे तो वह खिसियानी सी हंसी हंस दिया.
अभी भी वो टेरेस पर नज़र आता...कपड़े उठाते डालते दिख जाता .मैं मुस्कुरा देती....प्रत्युत्तर में वो भी मुस्कुरा देता...बस.
और एक सप्ताह भी नहीं गुजरे...कि एक दिन फिर से दिखा.... "हलो..कैसी हैं?"
"ठीक...और आप.."
"ठीsssक ही हूँ मैं भी"....उसने ठीssक को लम्बा खींचते हुए कहा....और बोला..'बिटिया बड़ी प्यारी है....क्या नाम है उसका...?"
"मेघना...घर में उसे गुड़िया बुलाते हैं..."
"है भी बिलकुल गुड़िया सी....अच्छा टाइम पास हो जाता होगा..आपका....देखता हूँ...बहुत चंचल है.."
"हाँ....बहुत शैतान है...पर स्कूल चली जाती है तो पूरा दिन काटना मुश्किल हो जाता है....बोर हो जाती हूँ,बिलकुल.."
"हम्म....मैं भी बहुत बोर हो रहा था.....पर आप एक बात बताइए...सिर्फ सरदर्द होने पर ही आप चाय पिलाती हैं. '
मैं मुस्कुरा उठी...पर एकदम से हाँ नहीं कह सकी....दिल कह रहा था...'हाँ'कह दो..दिमाग कह रहा था..'क्या जरूरत है?'पर इस रस्साकस्सी में जीता दिल ही...'हम्म तो चाय पीनी है आपको.."
'अदरक इलायची डली....पर अगर आप अनकम्फर्टेबल हैं... तो रहने दीजिये.."
"नहीं..नहीं...कोई बात नहीं...आइये "
कहते मैं आगे तो बढ़ गयी...पर दिमाग कोंचे जा रहा था...'क्या जरूरत थी...मैं उसे जानती ही कितना हूँ....ये ठीक है क्या'...और दिल उसे बराबर जबाब दिए जा रहा था...'इसमें गलत भी क्या है....पिछले छः महीने से रोज ही तो दिखता है....घर पर भी आ चुका है...क्या इतना चेहरा नहीं पढ़ सकती...बदमाश तो नहीं दिखता...एक कप चाय पी लेगा...कोई बात करने वाला मिल जाएगा...थोड़ा समय काट जाएगा...इसमें बुराई क्या है..."
मुझे यूँ चुप देख वो बोल पड़ा..."आप रहने दीजिये...लगता है आप कम्फर्टेबल नहीं हैं....वैसे भी एक अजनबी को ऐसे घर में नहीं आने देना चाहिए...बट थैंक्स.. हाँ कहने के लिए....चलता हूँ..."
"आप अजनबी नहीं हैं...और थैंक्स चाय पी कर ही दीजियेगा..."मैने एक निश्चय के साथ कहा.... मन की दुविधा हट चुकी थी.
चाय बनाने गयी तो मन हुआ ब्रेड रौल भी सेंक दूँ....अकेला रहता है..उसे कहाँ मिलता होगा...अभी तो सो कर उठा है...कुछ खाया भी नहीं होगा...गुड़िया को टिफिन में बना कर दिया था सब कुछ सामने ही पड़ा था पर फिर रुक गयी...उसे कहीं ऐसा ना लगे ज्यादा ही स्वागत कर रही हूँ..और प्लेट में बस बिस्किट डाल कर ले गयी.
चाय की चुस्कियों के साथ जो बात शुरू हुई..पूरे दो घंटे चली...और मैने उसके बारे में सब जान लिया....ग्रेजुएशन के बाद वो कॉल सेंटर में जॉब करके एम.बी.ए. करने के लिए पैसे जमा कर रहा है. उसके घर में माता-पिता और एक छोटी बहन है. बहन को लेकर बहुत अरमान हैं उसके. माता-पिता को भी जिंदगी के सारे सुख देना चाहता है...खुद भी बड़ा आदमी बनान चाहता है..मेहनत करना चाहता है. यहाँ बिलकुल अकेला है...जानबूझकर ज्यादा दोस्ती भी नहीं करता ..ऑफिस से हर वीकेंड लड़के घूमने-घामने फिल्मे देखने..पिकनिक-पार्टी का प्लान बनाते हैं..पर यह पैसे बचाने के लिए अक्सर कन्नी काट जाता है.
बातों बातों में मेरे बारे में भी उसे काफी कुछ पता चल ही गया कि मायके और ससुराल एक ही शहर में है. शादी के बाद अब तक सास-ससुर के साथ ही थी .अपनी हथेली की रेखाओं की तरह जाना-पहचाना अपना शहर...जहाँ बचपन से अब तक का समय गुजारा...इस बड़े शहर के तौर-तरीके समझ नहीं पा रही थी.
उसने आश्वस्त भी किया..."बहुत जल्दी ये शहर भी अपना लगने लगेगा..इस शहर की खासियत है...लोग इसे अपनाएँ या नहीं...यह लोगों को बड़ी जल्दी अपना लेता है.
"आsss मीन ."
'अरे वाह!
बड़े दिनों बाद किसी के मुहँ से ये शब्द सुना..."
"मैने भी बड़े दिनों बाद ये शब्द कहा है...."कहते एक उदासी सी तिर आई आवाज़ में ...उसने भी लक्ष्य किया....थोड़ी देर चुप रहा...फिर बोला..."आप दिन में काफी अकेलापन महसूस करती हैं ना....देखता हूँ...आप कहीं आती -जाती नहीं...सर तो सिर्फ सन्डे को ही दिखते हैं...."
"हाँ..कहाँ जाऊं....आस-पास सब जॉब वाली हैं....और किसी से कोई परिचय नहीं....बस सब्जी लेने जाती हूँ.."चाह कर भी मैं उदासी झटक नहीं पा रही थी...स्वर से..
उसने हँसते हुए कहा..."अगर आप ऐसी ही बढ़िया चाय पिलाती रहें तो मैं कभी-कभी गप्पे लगाने आ सकता हूँ...पर इत्मीनान रखिए रोज नहीं धमकुंगा ."
'आपसे सच में बात करके बहुत अच्छा लगा..."मैने सारा संकोच परे रख कर कह डाला.
वो मुस्कुरा कर चुप हो गया और बोला..."मुझे भी याद नहीं जमाने के बाद किसी से यूँ खुलकर बातें की हैं...पर अब मुझे जाना होगा....कपड़े साफ़ करने हैं...शाम को ऑफिस की तैयारी करनी है. एन थैंक्स अलॉट..चाय सचमुच बहुत बढ़िया थी..आपको अगर बुरा ना लगे तो मेरा नंबर ले लीजिये....जब भी आपका दिल करे आप एक कॉल कर लीजिये...दिन में तो मैं फ्री ही रहता हूँ...बातें भी हो जायेंगी...और आपको चाय भी नहीं पिलानी पड़ेगी.."
"आप मुझे इतना कंजूस समझते हैं... "मैने नकली गुस्से से कहा
"जस्ट जोकिंग बाबा..."उसने जेब से पेन निकाला और एक लौंड्री के बिल पर अपना नंबर लिख कर पकड़ा दिया...नाम लिखा था..'रोहित'
अब जाकर मुझे ध्यान आया मैं एकदम से माथे से हाथ लगा कर बोल पड़ी..."हे भगवान....मैंने अब तक आपका नाम तक नहीं पूछा था..."
"ना तो मेरा नाम जानती हैं आप, ना पता....और घर बुलाकर चाय पिला दिया...सोच लीजिये कहीं मैं कोई चोर डाकू निकला तो.."शरारत झलक रही थी उसके स्वर में...मुझे गुस्सा आ गया...जोर से बोली
"एक्सक्यूज़ मी...मैने आपको नहीं बुलाया था...आप खुद आए थे...और इतना मुझे लोगों की पहचान है.."
उसने मुस्कुरा कर बोला.."सच में..."
उसकी ये मुस्कान मुझे असहज कर गयी....मुझे चुप देख वो सीरियस हो गया और बोला..."दुनिया में इंसानियत भी कोई चीज़ होती है.....और शायद वही असली पहचान है......जी 'हाथ घुमा कर उसने मेरा नाम पूछा....
'नीलिमा..."
"नीलिमा जी..अपना ख्याल रखें....और जब भी चाहे मुझसे बात कर सकती हैं....फिर थोड़ा रुक कर बोला.."मुझे अच्छा लगेगा ..बाय.."
"बाय..."और वह चला गया.
मैने तुरंत ही उसका नंबर सेव कर लिया....रोज ही स्क्रीन पर नंबर निकाल कर घूरती रहती...और एक दिन नंबर मिला ही दिया...उसकी 'हलो' सुनते ही घबरा कर फोन रख दिया...
दो मिनट बाद ही फिर उसका कॉल आया...जब मैने अपना नाम बताया तो चौंक गया...ओह!! ..आss प ..गलती से तो नहीं लग गया...क्यूंकि आपने तुरंत काट दिया था फोन.."
"नहीं अपने आप कट गया था.."
"ओके..क्या कर रही हैं..."
और फिर बातों का सिलसिला चल निकाला...करीब आधे घंटे तक बातें हुईं...फिर मैने फोन रख दिया...
दूसरे दिन साढ़े बारह के करीब एक स्माइली के साथ गुड़ मॉर्निंग का उसका एस.एम.एस आया....और फिर तो यह रूटीन ही हो गया...वो रोज दोपहर में एक एस.एम.एस करके जता देता कि जाग गया है...फिर कभी मैं फोन कर लेती...कभी वो...कभी-कभी वो मेरा फोन नहीं उठाता और तुरंत ही कॉल बैक करता...मैं समझ जाती सोचता है..सिर्फ मेरे ही पैसे क्यूँ खर्च हों....फिर ये रोज का ही सिलसिला हो गया. रोज फोन करके वो अपनी पूरी बात बताता....उसके बॉस...उसके फ्रेंड्स... साथ काम करने वाली लडकियाँ....सबको मैं जान गयी थी. एक नई दुनिया सी खुल रही थी मेरे सामने...ऑफिस की ऐसी -ऐसी बातें बताता कि मैं दंग रह जाती. लड़कियों का यूँ खुलेआम सिगरेट-शराब पीना मेरे लिए नई बात थी. लिव-इन रिलेशन के बारे में मैने सिर्फ सुना भर था..उसके ऑफिस के दो कुलीग लिव-इन-रिलेशन में थे.
मैं भी...गुड़िया का खांसी-जुकाम....उसकी पढ़ाई...स्कूल टेस्ट...प्रोजेक्ट वर्क...सबकी चिंता उसी के साथ बांटती...कभी-कभी नरेश की शिकायत भी कर देती....कि जरा भी ध्यान नहीं देते घर की तरफ .. तो मुझे समझाता...'आपको नहीं पता...इस शहर में ऐसे कम्पीटीशन के युग में सर्वाईव करना कितना मुश्किल है...सर को काम का प्रेशर रहता है...ऑफिस की टेंशन..फिर आप पर उन्हें भरोसा भी है कि आप सब संभाल लेंगी..."
कभी कभी तो मैं कह भी देती.."तुम उनके दोस्त हो या मेरे...??"
"दोस्त तो आपका ही हूँ...इसीलिए आपको दुखी नहीं देख सकता...."
उसका इतना कहना मुझे अंदर तक भिगा जाता. इसके पहले कभी किसी ने मेरा इतना ख्याल नहीं रखा था. मेरे सुख-दुख की नहीं सोची थी...मेरी बातें इतनी ध्यान से नहीं सुनी थीं...ना ही अपने जीवन की हर छोटी बड़ी बात शेयर की थी.
कब आप से तुम पर अ आगई थी..पता ही नहीं चला...उसके लिए आप मेरी जुबान पर चढ़ता ही नहीं..."
अब वो घर पर नहीं आता..हमारी बात फोन पर ही होती.
गुड़िया कब से पानी-पूरी बनाने की जिद कर रही थी. अक्सर कहती 'हेतल' की मम्मी हमेशा बनाती है..तुम नहीं बनाती...पर उनलोगों का तो वो रात का डिनर ही हो जाता . नरेश को ये चाट-पानी पूरी जैसी खट्टी चीज़ीं पसंद नहीं थीं. और गुड़िया तो बस दो-चार ही खाएगी. इतना ताम-झाम करो और फिर रात का पूरा खाना भी बनाओ....इतना झंझट करने का मेरा मन नहीं होता,पर गुड़िया की फरमाइश कब तक टालती. बनाना ही पड़ा. नरेश ने बड़ी मुश्किल से अहसान करके पाँच पानी-पूरी खाई बस...सारा बच गया और मैने रोहित को दूसरे दिन बुला लिया. रोहित ने इतने पसंद से खाया और इतनी तारीफ़ की कि मेरा बनाना सार्थक हो गया. इसके बाद तो कोई भी अच्छी चीज़ बनाती तो रोहित के लिए रख देती....
वो थोड़ी ना-नुकुर भी करता आने में पर जो भी दो बड़े पसंद से खाता और कहता.."आप मेरी आदतें बिगाड़ रही हैं"
"शादी के बाद अपनी बीवी से अच्छी अच्छी चीज़ें बनवा कर खिलाना....हिसाब बराबर हो जायेगा "
वो संजीदा हो जाता.."पता नहीं....कैसी लड़की मिले....डर लगता है कभी-कभी..अगर ना निभे तो.."
"तुम कोई नई बात नहीं कह रहे...सब लड़के शुरू में ऐसे ही डरते हैं....और शादी के बाद बीवी के पालतू बन जाते हैं.."
"एक्सपीरियंस बोल रहा है..."वो मजाक करता..
"हमारी बात छोडो..हमारा जमाना अलग था.."
"आप एक मिनट में छलांग लगा कर दादी माँ का लबादा ओढ़ लेती हैं...जैसे सौ साल बड़ी हैं मुझसे.."
'बड़ी तो हूँ ही..."
"आपकी जल्दी शादी हो गयी...बच्ची आ गयी इसीलिए??...मेरी हमउम्र ही होंगी आप..."
"हाँ, मेरी शादी हो गयी है.... एक बच्ची है...मैं तुमसे बड़ी हूँ...बस बात ख़तम...."एक-एक शब्द पर जोर देते हुए मैने झूठे रोष से कहा तो वो एकदम से हंस पड़ा...
"'आप एक मिनट में दादी माँ से छोटी सी बच्ची भी बन जाती हैं..."
मन हुआ कुछ उठा कर कुछ दे मारूँ...पर ध्यान आया उसके हाथ में खीर की कटोरी है...गिर जायेगी और फिर मुझे ही साफ़ करना पड़ेगा.
ऐसी ही बेमतलब की बातों में समय गुजर जाता...अगर पलट कर याद करना चाहो तो याद भी ना आए..क्या बातें की थीं...
"एक दिन उसका फोन आया.."मुझे आपकी मदद चाहिए....प्लीज़ ना मत कहियेगा.."
"काम तो बोलो.."
"नहीं.. पहले आप हाँ कहिए..."
"हाँ बाबा...बोलो तो सही..."और मुझे पता नहीं था..किस बात के लिए मैने हाँ कह दी थी...रोहित का कोई दोस्त उसके शहर जा रहा था और रोहित उसके हाथ से ऋचा के लिए ड्रेस और माँ के लिए साड़ी भेजना चाहता था...खरीदने में मेरी मदद चाहिए थी उसे. मैं एकदम सकते में आ गयी. फोन पर बात करना...कभी-कभार उसका घर आ जाना अलग बात थी...पर साथ में बाज़ार जाना...उसकी ये जिद स्वीकार करना मुश्किल हो रहा था...और वो था कि मान नहीं रहा था..
."आपकी हेल्प के बगैर नहीं खरीद पाऊंगा..ऋचा कितनी खुश हो जाएगी..प्लीज़ बस घंटे भर के लिए...समय निकालिए...अभी तो दो ही बजे हँ...गुड़िया तो छः बजे आएगी..कुल चार घन्टे हैं...प्लीज़..प्लीज़ ....यहीं से मुझे ऋचा का खुश खुश चेहरा दिख रहा है...महल्ले भर को दिखाती फिरेगी..और इतरा कर कहेगी 'मेरे भैया ने भेजा है '
अब मेरे लिए मना करना मुश्किल हो गया. मैने भी कई पहलू से सोचा..'जाने में कोई हर्ज़ तो नहीं...यहाँ कोई मुझे पहचानता भी नहीं...जो रोहित के साथ देख कर उल्टा-सीधा सोचे. फिर मेरा भी फायदा है...खुद के लिए भी कुछ ले लूंगी...आजकल मॉल्स में जाना हो ही नहीं पाता.
और मैं पास के एक मॉल में रोहित के साथ चली गयी . ऋचा के लिए जींस सेलेक्ट करते समय अचानक रोहित ने कहा.."आप भी क्यूँ नहीं अपने लिए एक जींस ले लेतीं.."
"ना बाबा...मैने तो शादी के बाद से कभी पहना ही नहीं.."
"तो अब पहन लीजिये...यहाँ कौन से आपके ससुराल वाले हैं.."
"नरेश को भी पसंद नहीं.."मैने बात टालनी चाहिए पर वो पीछे ही पड़ गया...
"आपने जब कभी पहना ही नहीं...तो आपको कैसे पता..उन्हें नहीं पसंद....ऑफिस से आएँ तो उन्हें सरप्राइज़ कर दीजियेगा...जींस-टॉप में दरवाज़ा खोल कर...एकदम रानी मुखर्जी की तरह,...वो फिल्म याद है..'कभी अलविदा ना कहना "
मुझे हंसी आ गयी....पर वो जान छोड़ने वाला नहीं था..."रानी मुखर्जी ने दरवाज़ा खोला तो उसके ससुर जी सामने थे...आपका तो यहाँ कोई नहीं...इसलिए नो खतरा..अब बस एक लीजिये...और ट्राई कर के देखिए "..
"रोहित, यहाँ तुम ऋचा और माँ के लिए कपड़े लेने आए हो ना..."
"हाँ..तो ऐसा नियम है क्या कि दूसरों के लिए नहीं लिया जा सकता...?"
उस से बहस ही बेकार थी...चुप ही रही...ऋचा के लिए जींस और टॉप देखते रहे हम...मुझे लगा...बात आई-गयी हो गयी...पर उनमे से ही एक जींस और टॉप सेलेक्ट कर उसने मुझे पकड़ा दी..."जाइए ट्रायल रूम में ट्राई कर के देखिए "
"रोहित ..प्लीss ज़ .."
"ट्रायल रूम उस तरफ है...और हाँ मुझे भी दिखा लीजियेगा...नहीं अच्छा लगेगा तो बता दूंगा..वरना बेकार में आपके पैसे बर्बाद होंगे ." .मुझे बता कर वो फिर हैंगर में लगे कपड़े देखने लगा...मुझे जाना ही पड़ा.
आइने में जैसे मैं खुद को ही नहीं पहचान पा रही थी...मुझ पर सूट ही कर रहा था...फिर भी आशंकित थी...शायद रोहित कह दे नहीं अच्छा लग रहा..तो झंझट ख़तम...
बाहर निकल धीरे से पुकारा..'रोss हित ."
देख कर ,रोहित ने कहा कुछ नहीं..बस तर्जनी और अंगूठे को मिलाकर इशारा किया...'बढ़िया.'....और किसी फैशन डिज़ाईनर की तरह मुआयना करता रहा..."दिस पिंक कलर टॉप इज टू गर्लिश....ब्लू कलर अच्छा लगेगा..और ये टॉप ज्यादा लॉन्ग नहीं है? "
"नहीं...मैं एकदम से शॉर्ट नहीं पहन सकती "
"ओके...पर टॉप ब्लू कलर का ले लीजिये...ज्यादा अच्छा दिखेगा..." और फिर वो कपड़ों के रैक की तरफ मुड गया.
मुझे अपनी बहनों की याद आ गयी...शादी से पहले ऐसे ही हम एक दूसरे को अपने कपड़े पहन कर दिखाया करते थे और मीन-मेख भी निकालते..सराहना भी करते...जमाना हो गया...वो सारी आदतें छूट गयी .
ऋचा के लिए कपड़े..माँ के लिए साड़ी लेकर वापस लौटते हुए हम कैफे के सामने से गुजरे और रोहित ने कहा..'एक कप..चलेगी?...अभी तो टाइम है.."
वहाँ बड़ी-बड़ी आरामदायक कुर्सियों पर सब ऐसे फ़ैल कर बैठे थे कि मेरे दुखते पैर ललचा उठे...नथुनों में कॉफी की महक भर रही थी..और दिमाग ने सोचना बंद कर दिया. मेरे कदम अपनेआप उधर मुड गए. रोहित कॉफी ऑर्डर करने के लिए काउंटर पर ही रुक गया....मैं एक खाली मेज ढूंढ कर बैठ गयी.... यूँ पहली बार मैं इतना निश्चिन्त हो किसी कैफे में बैठी थी. नरेश के साथ जाती तो पूरे समय हम गुड़िया की देखभाल में ही लगे होते. नरेश नाराज़ होते रहते..'उसने ये गिरा दिया है..देखो..उसका मुहँ साफ़ करो.."और गुड़िया का रोना उसकी जिद...नरेश का मूड ख़राब कर देती...वे मुहँ बनाये बैठे रहते...और वहाँ बैठना एक बोझ सा लगने लगता. इस मारे अब बाहर चलने के लिए उनकी खुशामद करना भी छोड़ दिया था...पैसे भी बिगाड़ो और मूड भी खराब करो..
पर मैं आज पूरे आत्मविश्वास के साथ अकेली बैठी थी. खुद को जैसे पहली बार पहचान रही थी. कोई डर नहीं..संकोच नहीं...इन सारी आधुनिक वेशभूषा में सजे लड़के-लड़कियों के बीच मैं जरा भी असहज नहीं महसूस कर रही थी. ये इतना बड़ा परिवर्तन कैसे आ गया मेरे व्यक्तित्व में ?..कुछ ही दिनों पहले...अगर भीड़-भाड़ में नरेश आँखों से ओझल हो जाते तो मैं कितना घबरा जाती थी ..बेचैनी से निगाहें उन्हें ढूँढने लगतीं थीं . पर अब तो लगता है...रोहित साथ ना भी हो तो भी अकेले कॉफी पी सकती हूँ,यहाँ . आजकल दिल में एक उत्साह सा भरा होता है...कुछ करने की तमन्ना होती है. और यह सब मेरे चेहरे पर भी जरूर दिखाई देता होगा. जब पार्क में गुड़िया के साथ जाती....तो कभी उसके पीछे भागती..कभी दूसरे बच्चे की बॉल उठा उसे दे देती...दूसरी लेडीज़ भी थैंक्यू कहते बात शुरू कर देती हैं. पहले जरूर मेरे चेहरे पर खीझ, ऊब..नाराज़गी के मिले-जुले भाव होते होंगे जो अनजान लोगों को भी थोड़ी दूर पर ही रोक देते होंगे.
एक दिन उस बच्चे को बस स्टॉप पर आने में देर हो गयी..और मैने बस रुकवा कर रखा...वो बच्चा भागता हुआ आया तो मैने उसे सहारा देकर बस में चढ़ा दिया..पीछे से उसकी थ्री फोर्थ में रहनेवाली माँ ..शुक्रिया कहते नहीं थक रही थी...ऐसे भी बुरे लोग नहीं हैं यहाँ के...एक कोशिश करने की जरूरत है. इन्हीं ख्यालों में खोयी थी कि रोहित आ गया. उसकी तरफ एक मुस्कान फेंक फिर मैं बाहर देखने लगी...अभी कुछ भी बात करने की इच्छा नहीं हो रही थी...जो भी बदलाव मेरे साथ हो रहे थे ..उसे बूँद-बूँद महसूस करने की कोशिश कर रही थी.
थोड़ी देर बाद नज़रें घुमाई तो पाया रोहित भी खोया हुआ सा है. उसकी नज़रों का अनुसरण कर देखा...दूर एक टेबल पर दो सुन्दर सी लड़कियां बैठीं थीं...उन पर ही उसकी नज़रें जमी हैं. यूँ ही टेबल पर खट-खट किया..तो रोहित चौंक गया...मुझे मुस्कुराते देख...झेंप कर कहा.."लोग कहते हैं लडकियाँ डायटिंग करती हैं...पर वे दोनों कितना सारा खा रही हैं...यही देख रहा था.."
"मैने कब कहा...कि तुम कुछ और देख रहे थे..."हंसी आ गयी थी,मुझे.
"चलिए कॉफी पर कंसंट्रेट कीजिए..."खिसिया कर रोहित बोला...कॉफी आ गयी थी.
रोहित से मुश्किल से दिन में एक घंटे बात होती पर बाकी के तेइस घन्टों को नई उर्जा दे जातीं.कभी-कभी बात नहीं भी होती...फिर भी मैं पहले सा उदास...डिप्रेस्ड नहीं महसूस करती. आज गुड़िया को बस स्टॉप पर छोड़कर कुछ खरीदने गयी तो वहाँ रोहित भी था...हम थोड़ी देर बाहर बात करते रहे...पर बड़ी धूप थी...मैने कहा...."चलो घर पे बैठ कर बात करते हैं.."
"मुझे कपड़े साफ़ करने हैं...डिटर्जेंट लेने आया था...."
"तुम और तुम्हारे कपड़े....एक वाशिंग मशीन ले लो...बस ऑफिस के बाद एक ही काम करते हो..कपड़े साफ़ करना...चलो कोल्ड कॉफी बनाती हूँ...मेरा मन हो रहा है....तुम साथ दे देना.."
आजकल मैं उस पर बहुत रौब भी जमाने लगी थी. रोहित चला आया....
कमरे में ए.सी. चला कर मैं कॉफी बनाने चली गयी....रोहित सी.डी. उलट-पुलट रहा था...."अच्छा इसी सी. डी. की बात कर रही थीं आप....यही ली उस दिन??
"हाँ लगाओ न..बड़ी अच्छी गज़लें हैं .."मैं किचन में से ही चिल्लाई..
कॉफ़ी लेकर आयी तब तक रोहित ने स्विच ढूंढ कर कर सी.डी. लगा दी थी...
जब जगजीत सिंह की आवाज़ में पुरानी ग़ज़ल कमरे में तैरने लगी तो रोहित ने सर पर हाथ मार लिया.."ओह! आपलोग भी न....किसी भी कवर में कोई सी.डी. डाल देती हैं...ये नए कवर में पुरानी सी.डी है. "
मैंने उसे रोक लिया..."यही चलने दो न..."'तुमको देखा तो ये ख्याल आया....."मेरी पसंदीदा ग़ज़ल थी.
कॉफी के घूँट भरते हम गज़लें सुनते रहे...रोहित कपड़ों की चिंता में ही उलझा हुआ था....और मैं उसे डांट रही थी..."क्या ग़ज़लों की वाट लगा रहे हो.."
"अरे वाह .तरक्की...यहाँ की भाषा भी जुबान पर चढ़ गयी."
"जैसा देश वैसा वेश की जगह जैसा देश वैसी भाषा...चलो बाबा तुम्हारे कपड़े तुम्हारा इंतज़ार कर रहे होंगे"...रोहित भी उठ गया...मैं कप्स उठाने के लिए झुकी ही थी कि .जाने कैसे कारपेट में पैर उलझ गया...
"अरे संभालिये...."रोहित ने गिरने से थाम लिया....और एक सनसनाहट सी दौड़ गयी नसों में....ये कैसा अनचीन्हा सा अहसास था. महज किसी स्पर्श से ऐसी सुरक्षा...इतना लगाव महसूस किया जा सकता है...नया था मेरे लिए और मानो खुद पर ही वश नहीं रहा...इस अनजाने अहसास ने अपने गिरफ्त में ले लिया था...और इसके तिलस्म में घिरे हम क्षण भर को अपना अस्तित्व भुला बैठे थे...पता नहीं...पहले रोहित की बाहें मेरे गिर्द लिपटीं या पहले मेरे हाथ उसके कंधे पर टिके......पर ना मैं नीलिमा रह गयी थी...ना वो रोहित...तिलस्म टूटा...उसने मेरे बालों पर हाथ फेर मेरा चेहरा उठाया और एक दूसरे की आँखों में झांकते ही हमारी पहचान लौट आई..मैने रोहित को धक्का दे दिया...और उसने भी हडबडाकर सॉरी कहते अपने हाथ पीछे कर लिए...इस क्रम में कुर्सी से टकरा गयी...गिरते-गिरते बची..फिर से रोहित ने ओह! कहकर बचाना चाहा और मैने उसे जोर से धक्का दिया...वो मेज से टकरा कर गिरने ही वाला था..किसी तरह उसने मेज थाम लिया और मैं भागती हुई बाहर चली आई...
बाहर आपको देखा तो आपके पास चली आई...पर मैं आपके पास..रोहित से भागकर नहीं आई थी....अपनेआप से भाग कर आई थी...रोहित की हिम्मत नहीं थी...मेरे करीब आने की...पर मुझे अपनेआप से डर लग रहा था..कहीं कमजोर ना पड़ जाऊं.....कहीं वापस ना चली जाऊं....रोहित की छुअन मुझे बुरी क्यूँ नहीं लगी...एकदम से मैने क्यूँ नहीं उसका हाथ झटक दिया...पल भर के लिए ही सही..पर मैं कैसे भूल गयी कि मैं शादी-शुदा हूँ...रोहित तो लड़का है...मैं उस से बड़ी हूँ..समझदार हूँ..फिर ऐसा कैसे होने दिया...मुझे अपनेआप से घिन आ रही है....समझ नहीं पा रही...मैने अपना संयम कैसे खो दिया....मैं बुरी हूँ..सच में बहुत बुरी हूँ...मुझे रोहित से कभी मिलना ही नहीं चाहिए था...उस से कभी बात ही नहीं करनी चाहिए थी...मैं खुश थी..या दुखी थी..जो भी थी,अपनी दुनिया में थी..वहाँ ये ग्लानि तो नहीं थी.
उसकी बड़ी-बड़ी आँखों से टप टप बूँदें टपकने लगीं...दया आ गयी मुझे..."देखो खुद पर इतनी कठोर मत बनो....जो हो गया..उसे भूल जाओ...और कुछ ऐसी अनहोनी हुई भी नहीं...तुम दोनों ही समझदार हो..तुरंत संभल गए. अब इसे एक दुस्वप्न की तरह भूल जाओ...जितना तुम्हारी बातों से पता चला है....रोहित भी एक शरीफ लड़का है...वो भी तुम्हारी तरह ही शर्मिंदा हो रहा होगा...किसी को दोष देने की जरूरत नहीं...एक पल था जो गुजर गया..बस अब ये सोचो..ऐसा पल दुबारा ना आए...अच्छा लगा सुन...रोहित की सहायता से ही पर तुमने खुद को पहचान लिया है....तुम्हारा आत्मविश्वास लौट आया है....वो तुम्हारे भीतर ही था...पर सोया हुआ था...अब इसे दुबारा सोने मत देना...और अपनी जिंदगी बोझिल..उदासी भरी मत बनाओ...अपनी खुशियों के लिए किसी पर निर्भर मत रहो..पति पर भी नहीं......कोई हॉबी अपना लो...छोटा-मोटा कोर्स कर लो...खुद को व्यस्त रखो...और कुछ सार्थक करो...किसी भी नई जगह में एडजस्ट करने में समय लगता है..."मैं पता नहीं कब तक उसे भाषण देती रहती पर जोर-जोर से कहीं दरवाज़ा पीटने और ममी-मम्मी की आवाज़ ने चौंका दिया...
"ओह!!! गुड़िया आ गयी..छः बज गए..."और नीलिमा दुपट्टे से मुहँ पोंछती..उठ कर भागी.
मैं भी पीछे-पीछे उठ कर आ गयी....नीलिमा बेटी को गोद में उठाये उसे प्यार कर रही थी.."अरे आज मेरी बिटिया खुद से आ गयी...बड़ी हो गयी अब तो..."
"और क्या..मैं तो लिफ्ट में भी भी अकेली आ जाती...पर वो गौरव की मम्मी हमारे फ्लोर तक छोड़ गयीं...पता है..आज गौरव को टीचर ने पनिशमेंट दी...ही ही बड़ा मजा आया...उसने रोली की स्केल तोड़ दी थी..."गुड़िया की बातों का पिटारा खुल चुका था..और उसकी बातें सुनतीं नीलिमा अब सिर्फ एक माँ रह गयी थी.
अपना दरवाज़ा बंद करते नीलिमा ने आँखों में ही आभार जताया...मैने भी मुस्कुराकर सर हिलाया...और वापस आ कर सोफे पर ढह गयी. दिमाग में हलचल मची थी. मेरे विचार गड्ड-मड्ड हो रहे थे . मेरी सारी सोच की नींव हिल चुकी थी.किन- किन परिस्थितियों से लोग गुजरते हैं और हम तुरंत जजमेंट पास कर देते हैं. हमें उन हालातों का कुछ पता नहीं होता हम बस परिणाम देखते हैं और फैसला सुना देते हैं... कई नाम याद आ गए..जिन्हें बदचलन...आवारा...कुलक्षनी जैसे विशेषण दिए गए थे..पर पीछे की कहानी किसी को पता थी??....या किसी ने देखने की कोशिश की??... या देखी भी तो उनकी नज़रों से समझने की कोशिश की??....आसान है किसी पर इलज़ाम लगा देना...उसे बदनाम कर देना..
पर हर किसी को तो एक ही जिंदगी मिलती है...उसे भी जिंदगी के हर रंग को महसूस करने का...हर पल को जीने का अधिकार है...वो अपनी जिंदगी बेरंग ही गुज़ार दे...क्यूंकि उसके लिए समाज द्वारा स्वीकृत मसीहा को कोई दिलचस्पी नहीं रंग - कूची और कैनवास में. हर इंसान के दिल में ये तमन्ना रहती है ..कि कोई उसे सराहे..उसकी प्रशंसा करे....उसकी सुने....अपनी कहे..और जब ये सब मनोवांछित जगह नहीं मिलता तो मन रस्सी तुड़ा भटकने लगता है ..पर क्या ये भटकन जायज है?... इस भटकन की कोई मंजिल है?...मंजिल नज़र भी आए तो वो मरीचिका सरीखी ही होती है....जो दर्द के सिवा और कुछ नहीं दे सकती...कुछ लोगों को इस दर्द का आभास हो जता है...या उन्हें अपनी भटकन ही सही नहीं लगती...और वे अपने कदम वापस खींच लेते हैं...लेकिन जो इस से बेखबर रहते हैं...उनकी भटकन को दोष दिया जा सकता है? मैं कोई विचार नहीं बना पा रही थी...मेरे संस्कार...मेरे विचारों को एक जोर का झटका लग चुका था. सुना था यह शहर लोगों की जिंदगी बदल देता है.....आज नीलिमा से मुलाकात ने मेरी सोच को भी पूरी तरह बदल दिया था. यही कल तक शायद मैं इस वाकये को सतही तौर पर देखती और नीलिमा को ही दोषी ठहरा देती...पर जिस तरह से पति की बेरुखी ने उसे निराशा के गर्त में धकेल दिया था और रोहित के साथ ने उसमे आत्मविश्वास भरा....उसे जीने का सलीका सिखाया...मेरा मन संस्कारी होने पर भी उसे गलत नहीं कह पा रहा था .
(समाप्त )
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