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Channel: मन का पाखी
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दो वर्ष पूरा होने की ख़ुशी ज्यादा या गम....

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२३ सितम्बर को इस ब्लॉग के दो साल हो गए. पर इस बात की ख़ुशी नहीं बल्कि अपराधबोध से मन बोझिल है.  पिछले साल इस ब्लॉग पर सिर्फ दो लम्बी कहानियाँ और एक किस्त,वाली बस एक कहानी लिखी.

जबकि sept 2009 -sept 2010  के अंतराल में आठ-सोलह-चौदह किस्तों वाली तीन लम्बी कहानियाँ  और चार छोटी कहानियाँ लिखी थीं. मन दुखी इसलिए है कि  ऐसा नहीं कि  प्लॉट   नहीं सूझ रहा...कम से कम पांच-छः प्लॉट और दो लम्बी कहानियाँ अधूरी लिखी पड़ी हुई हैं. पर पता नहीं वक्त कैसे निकल जा रहा है...शायद दूसरे ब्लॉग की सक्रियता कहानियों की राह में रोड़े अटका रही है...एक मित्र से यही बात शेयर की तो उनका कहना था...."कहानियाँ तो खुद को लिखवा ही लेंगी...दूसरे ब्लॉग पर सक्रियता कायम रखें...वो ब्लॉग लोगो को ज्यादा पसंद है..".. ..हाँ, कहानियाँ शायद लिखवा ही लें खुद को...पर इस अपराधबोध का क्या करूँ...जो जब ना तब मन को सालता रहता है. 

खासकर तब,जब मेरी बहन शिल्पी ने कहा..., "आज भी पहले 'मन का पाखी'ही खोल कर देखती हूँ...नई कहानी आई है या नहीं"...और उसने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही...कि "कहानियाँ, पाठकों की कल्पना को विस्तार देती हैं...वे अपनी दृष्टि  से किसी भी कहानी को देखते हैं.." . कुछ और पाठक हैं..जो यदा-कदा टोकते रहते हैं..'कहानी नहीं लिखी कब से आपने 'और मैने सोच लिया....लम्बी कहानियाँ तो जब पूरी होंगी तब होंगी...एक कहानी तो पोस्ट कर दूँ..

और मैने "
हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी                          "लिख डाली.
 अब पाठकों को  बता दूँ कि ये कहानी ,जब मैं कॉलेज में थी,तभी लिखा था. दुबारा टाइप करते वक्त कुछ चीज़ें जुड़ गयीं...क्यूंकि हाल-फिलहाल की कहानी हो और टीनेजर्स से जुड़ी  हो तो फिर उसमे मोबाइल और एस.एम.एस. का जिक्र कैसे ना हो. 

मैने समीर जी से वादा भी किया था...कि डा. समीर के नाम के विषय में  पूरी कहानी पोस्ट करने के बाद लिखूंगी. जब मैने यह कहानी लिखी थी तो पात्रों के यही नाम थे. ब्लॉग में पोस्ट करते वक्त मुझे इस बात का ध्यान था कि समीर जी एक नामी ब्लोगर हैं और मेरी कहानियों के पाठक भी. फिर भी मैं यह नाम नहीं बदल पायी. दूसरे कहानी लेखकों का नहीं पता..पर मेरे साथ हमेशा ऐसा होता है कि कहानी के हर पात्र का नाम ही नहीं एक अस्पष्ट सी तस्वीर भी मेरे सामने बन जाती है. ऐसा लगता है..उसे कहीं देखूं तो पहचान लूंगी. और वो नाम...उनका व्यक्तित्व उस कहानी से कुछ ऐसे जुड़ जाते हैं कि फिर उन्हें बदलना मेरे लिए तो नामुमकिन है. आज भी शची-अभिषेक, नेहा-शरद, पराग-तन्वी, मानस-शालिनी .सब जैसे मेरे जाने-पहचाने हैं. प्रसंगवश ये भी बता दूँ कि ये 'नाव्या' नाम मैने कहाँ से लिया था??..अमिताभ बच्चन  के छोटे भाई की बेटी का नाम उनके पिता हरिवंश राय बच्चन ने रखा था, 'नाव्या नवेली'. मैने कहीं ये पढ़ा और ये नाव्या नाम तभी भा गया.

वैसे अब, जब कहानियाँ लिखती हूँ...तो सबसे बड़ी समस्या नामों की  होती है. परिचय का दायरा दिनोदिन विस्तृत होता जा रहा है...और कोई भी परिचित नाम रखने से बचती हूँ. ऐसे में बेटों को कहती हूँ...'जरा अपने सेल की कॉल लिस्ट पढो...वे नाम पढ़ते जाते हैं...और उनमे से ही नाम चुन लेती हूँ..'तन्वी'...मानस' ... 'पराग' नाम ऐसे ही चुना था :) 

हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी से जुड़ी कुछ और बातों का जिक्र करने की इच्छा है...ये कहानी शायद मैने बीस साल पहले लिखी थी . {कोई सबूत चाहे तो पन्नो को स्कैन करके भी लगा सकती हूँ..पर एक वादा करना होगा...मेरी लिखावट पर कोई हंसेगा नहीं.,...वैसे इतनी बुरी भी नहीं है कि हँसे कोई ..पर हंसने वालो का क्या पता :( } 
ये साधारण सी कहानी है....मैं भी इसे अपनी प्रतिनिधि कहानियों में नहीं गिनती. कई  वर्षों बाद, 'विक्रम सेठ'ने  एक महा उपन्यास " Suitable  Boy  " लिखा . इसे Booker's Prize के लिए भी नामांकित किया गया. कई सारे अवार्ड मिले. मैने भी इस उपन्यास की चर्चा अपनी एक पोस्ट में की थी...जिसमे नायिका बहुत ही कन्फ्यूज्ड है कि वो किस से शादी करे. एक उसका कॉलेज का पुराना प्रेमी है. एक बौद्धिकता के स्तर पर बिलकुल सामान, कवि-मित्र और एक उसकी माँ के द्वारा चुना गया, सामान्य सा युवक जो बुद्द्धिजिवी नहीं है परन्तु अपने काम के प्रति पूरी तरह समर्पित है. 

मैने यह पोस्ट लिखने एक बाद अपने एक मित्र से चर्चा की कि मैने भी बरसो पहले एक कहानी लिखी थी...जिसमे नायिका  समझ नहीं पाती कि वो किसे पसंद करती है. (हालांकि दोनों स्थितियों में बहुत अंतर है....मेरी कहानी में  तो प्यार का इजहार ही नहीं हुआ). संक्षेप में उस मित्र को कहानी सुनाई तो उन्होंने कहा कि "ये कहानी तो बहुत आगे तक बढ़ाई जा सकती है...जिसमे नायिका को तीनो युवक को जानने का अवसर मिलता है..उसके बाद उसे पता चलता है कि किसके लिए उसके दिल में जगह है. मैने उनसे कहा , "ठीक है....यहाँ तक ये कहानी मैने लिखी...अब इस से आगे की आप लिखिए ..एक नया प्रयोग होगा "

{वैसे भी ब्लॉगजगत में बहुत पहले 'बुनो कहानी 'लिखी जाती थी. जिसे दो लोग मिलकर लिखते थे. मैं जब अपनी पहली लम्बी कहानी पोस्ट कर रही थी,तभी किसी ने ये प्रस्ताव रखा था  कि "आप इस कहानी को पूरा कर लीजिये तो दुसरो के साथ मिलकर 'बुनो कहानी''के अंतर्गत एक कहानी लिखिए. उन्होंने कुछ नाम भी सुझाए कि  उनके साथ  मिलकर लिखिए ". तब उन्हें भी पता नहीं था और शायद मुझे भी कि  अभी तो मेरे झोले से ही नई नई कहानियाँ निकलती जा रही हैं..और कुछ निकलने को बेकरार हैं :)}

मेरे मित्र ने  बड़े उत्साह से 'हाँ'कहा. लेकिन वे युवा लोग...अभी जिंदगी शुरू ही हुई है...जिंदगी की सौ उलझनें....नौकरी बदल ली...नई नौकरी की डिमांड...और भी बहुत कुछ होगा...ये बात वहीँ रह गयी...वैसे आप सबो को खुला निमंत्रण है...जो भी चाहे इस कहानी को आगे बढ़ा सकता है...:)


सभी पाठकों का बहुत बहुत शुक्रिया ...जिन्होंने मेरी कहानियाँ पढ़ीं...और टिप्पणी देकर उत्साह बढाया ...मार्गदर्शन भी किया...आशा है आने वाले वर्ष में आप सबो को निराश नहीं करुँगी...और सारी अधूरी कहानियाँ लिख डालूंगी...शुक्रिया फिर से...लगातार दो वर्ष तक साथ बने रहने के लिए...:)

बंद दरवाजों का सच

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(काफी दिनों बाद कहानी पोस्ट कर रही हूँ....पर साथ में इसे दूसरे ब्लॉग'अपनी-उनकी-सबकी बातें'पर भी पोस्ट करनी पड़ रही है वरना वहाँ मैं अन्य विषयों पर लिखना शुरू कर देती हूँ और कहानियों की बारी आती ही नहीं. यहाँ कमेन्ट ऑप्शन बंद कर दे रही हूँ. पर एक ही जगह सारी कहानियाँ सहेज कर रखने की भी इच्छा है और कई पाठक ऐसे भी हैं जो एक साथ कई कहानियाँ पढ़ लेते हैं और फिर मुझे मेल पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं. नए पाठक मेल ना भी करें पर अगर कुछ  कहानियाँ एक साथ पढना चाहें तो उन्हें सुविधा होगी )



आज रवि और शालू दोनों ही ऑफिस चले गए हैं...मुझे आए हुए आठ दिन हो गए..आखिर कब तक छुट्टी ले सकते थे, वे. जिस सूनेपन से डर कर मैं यहाँ आना नहीं चाहती थी...वही सूनापन मेरे चारो तरफ पसरा हुआ था. पर बच्चों की भी जिद, उनका स्नेह..उनका आग्रह.. अपने मन को समझाकर आना ही पड़ा. उनका भी मन था..माँ हमारी नई गृहस्थी देखे..माँ को हम नई जगह दिखाएँ. देख कर ख़ुशी ही हुई...ये कल के बेखबर, बेलौस से बच्चे आज जिम्मेदार गृहस्थ बन चुके हैं. दोनों ने मिलकर अच्छी गृहस्थी जमाई है..लगता ही नहीं....बस छः महीने पहले ही शादी हुई है...किचन- ड्राइंगरूम-बेडरूम..यहाँ तक कि बाथरूम भी सारी सुख-सुविधाओं से लैस. एक हमारा जमाना था...शादी के बाद पहली बार, बस एक बड़ा सा काला बक्सा एक अटैची और एक बेडिंग ले कर आई थी...पति के घर. बर्तन के नाम पर सिर्फ एक ग्लास एक प्लेट और एक पानी का जग था,घर में. हर महीने हम पैसे जोड़-जोड़ कर थोड़े थोड़े बर्तन खरीदते. पलंग,कुर्सी, गैस का चूल्हा, फ्रिज ,टी.वी...इतनी सारी चीज़ें जुटाने में बीस बरस  लग गए थे. हर चीज़ को खरीदने के पीछे की तैयारी... महीनो की प्लानिंग..खरीदने का दिन....सब एक कहानी सा याद है. और इन बच्चों को देखो...इतनी  जल्दी सब जुटा लिया...बताया तो था रवि ने, एंगेजमेंट के बाद से ही दोनों ने सामान जुटाना शुरू कर दिया था और शालू भी तो कमाती है...कौन सा अपनी पसंद की चीज़ खरीदने के लिए उसे रवि का मुहँ देखना था. मुझे  तो लम्बी मनुहार करनी पड़ती थी...उसके बाद भी कई बार पति  मेरी  पसंद को खारिज कर देते थे. वे हैं ही इतने जिद्दी...अभी ही कौन सा साथ आए...बहाना बना कर गाँव चले गए. आज साथ होते तो कम से कम मैं यूँ डांव डांव इस कमरे से उस कमरे तो ना डोलती...उनके चाय -नाश्ते का ख्याल रखने में ही समय निकल जाता. शालू खाना बना कर फ्रिज में रख गयी हैं....रवि ,अवन में गरम करके खाना खाने की ताकीद भी कर गया है...बचपन से वो देखता आ रहा है,.खुद के लिए कुछ करने में मैं हमेशा आलस कर जाती हूँ. पर अकेले खाने का मन नहीं हो रहा. भूख भी तो नहीं लगती...बैठे बैठे भूख भी क्या लगे...कितनी देर से बालकनी में खड़ी थी...पर कुछ नज़र भी तो नहीं आता बालकनी से...जहाँ तक नज़र जाए बस ऊँची-ऊँची  बिल्डिंग्स हैं...और सामने गेट...गेट पर बैठा वाचमैन हाथों पर खैनी मलता..रेडियो सुन रहा है. इन वाचमैन की भी ऐश की नौकरी है...जब भी बालकनी से देखती हूँ...या तो वह रेडियो सुनता रहता है या..पड़ोस की बिल्डिंग वाले से गप्पे लड़ाता रहता है. इक्का-दुक्का औरतें आती-जाती दिख जाती हैं...कोई थैले में सब्जी लिए होती..तो कोई बच्चों की बैग उठाये. शालू बता रही थी, आस-पास ज्यादातर नौकरी वाली ही हैं...वे सब तो शाम को ही नज़र आएँगी,अब.

 वापस ड्राइंग रूम में आ गयी. ये बंद दरवाज़ा देख-देख कर कोफ़्त होती है...ऐसे कैसे लोग सारा दिन दरवाजे बंद कर के बैठ सकते हैं. नीचे आते जाते देखा था ...सारे फ्लैट्स के दरवाजे बंद रहते हैं...और उन बंद दरवाजों के पीछे एक सारा संसार होता होगा. इस शहर को तो बंद दरवाजों का शहर कहना चाहिए. मन बिलकुल ही उद्विग्न  हो उठा..और मैने बाहर का दरवाज़ा खोल दिया....थोड़ा आगे बढ़ कर झाँका तो देखा...गोल-गोल सीढियां दूर तक उतरती चली गयी हैं..मानो किसी तहखाने में जा रही हों...रवि का फ़्लैट  है भी तो नवीं मंजिल पर...देर तक उन सीढियों को ताकती रही तो चक्कर ही आ जायेगा. नज़रे हटाकर आस-पास दौड़ाया तो वही नज़ारा. इस फ्लोर पर चार फ़्लैट थे...बाकी तीनो दरवाजे बंद थे, पता भी नहीं चलता किसी फ़्लैट में  कोई है या यूँ ही दरवाज़ा बंद है...ताला भी तो नहीं लटकता कि पता चले कुछ. बस जोर से खींचो और दरवाज़ा बंद. दरवाजे में ही चाभी  घुमाओ और दरवाज़ा खुल जाएगा..अजीब है सब कुछ. अभी कुछ ही पल हुए थे, मुझे वहाँ खड़े हुए कि सामने वाले फ़्लैट  के भीतर से कुछ  आवाजें आने लगीं...पर सिर्फ तेज़ भागते कदमो की..कुर्सी खडखडाने की....इतनी जोर से मन डर गया...पूरी बिल्डिंग सुनसान...और इस बंद दरवाजे से ये आवाजें...कोई आदमी अपनी पत्नी को पीट तो नहीं रहा...पर चिल्लाने..नाराज़ होने का कोई स्वर नहीं सुनाई पड़ रहा...या कहीं दो बच्चे धमाचौकड़ी मचा रहे हों...या लड़ रहे हों...पर बच्चे इतना चुप रह कर कैसे लड़ सकते हैं. मन हुआ अंदर जाकर दरवाज़ा बंद कर लूँ...पर पैर जैसे वहीँ जम गए थे..इतने में ही भड़ाक से वो दरवाज़ा खुला और एक लड़की सीधी दौड़ती हुई..मुझे भी पार कर मेरे पीछे, मेरे फ़्लैट का दरवाज़ा पकड़ कर हांफती हुई सी खड़ी हो गयी. एक छाया सी दीखी उसके फ़्लैट में और फिर सब शांत...बीस-पच्चीस के आस-पास की उम्र होगी...ख़ूबसूरत सी थी....नीली सलवार कमीज पहन रखी थी..पर दुपट्टा नहीं था...बाल बिखरे हुए थे और वह एक हाथ से दरवाज़ा थामे नीचे सर झुकाए जोर -जोर से हांफ रही थी. 

"क्या हुआ.."मैने पूछा...उसने नज़रें उठा कर मुझे देखा...और उन हिरणी सी बड़ी बड़ी आँखों में तेजी से पानी भरना  शुरू हो गया. होंठ काँप से रहे थे...ध्यान दिया...उसका पूरा बदन ही थरथरा रहा था . मैने उसके कंधे पर हाथ रखा...और उसकी आँखों से धार बंध गयी...तभी उसके फ़्लैट में कुछ आहट हुई...और वह डर कर थोड़ी सी और सिमट गयी...मेरी पीठ थी उसके दरवाजे की तरफ...पलट कर देखा..तो एक छाया सी दीखी जो तेजी से सीढियां उतर गयी...नवीं मजिल से सीढियां??... पर लिफ्ट के लिए उसे मेरे सामने आना पड़ता. मेरा  हाथ अभी भी उसके कंधे पर ही था...हाथ के अंदर ही एक कम्पन सा महसूस हुआ.

"क्या हुआ...बेटी?" ..कौन था ये??..तुम्हारा पति?"

"ना..."उसने सिर्फ सर हिलाया....और कन्धा जोर से हिला..उसने एक सिसकी ली थी.

"ओह! तो कोई अजनबी था...." ..पल भर में अखबारों में पढ़े किस्से आँखों के सामने घूम गए...जिसमे कहीं गैस का सिलेंडर देनेवाला..तो कहीं सामान लाने वाला..घर में अकेली औरत को देख कर छेड़खानी पर उतर आया था. अगर ऐसा कुछ है..तब तो शोर मचा कर उस आदमी को तुरंत पकडवा देना चाहिए.

पर उसने इस बार भी.."ना "कहा..और गर्दन थोड़ी और झुका ली.

अब मैं असमंजस  में थी...ये लड़की ना तो कुछ बोल रही थी...ना वहाँ से हिल रही थी..चुपचाप रोये जा रही थी.
 कुछ पल ऐसे ही  गुजर गए...फिर मैने पूछा.."पानी पियोगी..आओ बैठो थोड़ी देर मेरे पास..."

अब जैसे वो भी होश में लौटी...कुछ पल अनिर्णय की स्थिति में खड़ी  रही...फिर नज़रें झुकाए ही बोली "आती हूँ....चाभी  ले आऊं " .  ऐसी मनःस्थिति में भी उसे ये होश था कि चाभी  नहीं लिया तो उसके फ़्लैट का दरवाज़ा बंद हो जाएगा...और फिर वो बाहर ही रह जायेगी. रवि और शालू मुझे भी कई बार ताकीद कर गए थे...अगर नीचे गार्डेन में जाना तो चाभी  लेना मत भूलना. शालू ने तो अपनी ऑफिस की महिलाओं के कितने सारे किस्से सुना दिए थे कि कैसे कई बार वे महज कूड़ा देने को दरवाजे के बाहर निकलती हैं...और हवा के जोर से दरवाज़ा बंद हो जाता है...नंगे पैर...गाउन में..घर के बाहर...पड़ोसी भी ना हों तो घंटों उन्हें बाहर खड़े रहना पड़ता है....फिर तो चाभी  वाले को बुलाकर नई चाभी बनवानी पड़ती है...मनमाने पैसे ऐंठते हैं ,वे ..कई लोग एक दूसरे के यहाँ अपने घर की चाभियाँ  रखते हैं. अच्छा है..इस महानगर में एक दूसरे पर लोगों का इतना विश्वास तो है. 

चाभी  लाने के साथ उसने दुपट्टा भी ले लिया था..और चेहरा भी धो कर बालों को समेट कर पीछे एक क्लिप लगा ली थी. फिर भी आँखें वैसी ही भरी भरी सी थी...'जाने क्या हुआ है...अपने मन की  बात बताए या ना बताए..पर उस लड़की को उस समय किसी के साथ की सख्त जरूरत थी.' ..

 उसके आते ही मैने कहा.."आओ अंदर आओ..थोड़ी देर बैठो..मैं भी अकेली हूँ...मुझे भी अच्छा लगेगा"
सर झुकाए ही वो सोफे पर बैठ गयी. 
"पानी  लोगी?"
उसने सिर्फ सर हिला कर ना कहा..नज़रें वैसे ही जमीन से लगी रहीं. लगा...बहुत ही असहज महसूस कर रही थी वो...मानो डर रही हो..मैं जाने क्या पूछ लूँ..
मैने कुछ बात करने के गरज से पूछा..."क्या नाम है तुम्हारा.."
"नीलिमा..."फंसी हुई सी आवाज़ निकली.
'बहुत प्यारा नाम है...कब से हो यहाँ.."
"जी..दो साल  हो गए.."सर झुकाए हुए ही जबाब दिया..उसने.
अब और क्या पूछूं....कहीं पुलिस की पूछ-ताछ  सा ना लगे.
 थोड़ी देर ख़ामोशी पसरी रही हमारे दरम्यान..और जैसे उसने भी महसूस किया..और कर्तव्य समझ धीरे से सर उठा कर पूछा..."आपको पहले कभी नहीं देखा...यहाँ "
"हाँ.. मैं हाल में ही आई हूँ...मेरे बेटे-बहू रहते हैं यहाँ...दोनों ऑफिस गए हैं "
"ओह.."..कहकर वो फिर चुप हो गयी...नज़रें फिर जमीन ताकने लगीं...और नीचे ताकते हुए ही उसने जैसे जमीन से ही कहा..."सब नौकरी वाले ही हैं यहाँ.."
मुझे कुछ क्लू मिला..बात करने का..."हाँ..शायद...सुबह-सुबह कई औरतों को ऑफिस जाते देखती हूँ..."
पूछने का मन था...'तुम घर में ही रहती हो?'...पर कहीं उसे बुरा ना लग जाए...ये सोचकर नहीं पूछा...

पर शायद उसने मेरे मन की बात भांप ली...और खुद ही बोल उठी..."मैं तो हाउसवाइफ ही हूँ '

"फिर तो तुम्हे बहुत अकेलापन लगता होगा...कोई मिलने जुलने वाला हो..तो समय अच्छा कट जाता  है.."...बातों के सिरे को मैं हाथ से छूटने नहीं देना चाहती थी.

उसने तड़प कर मेरी तरफ देखा....आँखों में जमे  पानी में  नाराज़गी की एक लहर उठी हो जैसे....  फिर सामने दीवार टोहती हुई बोली..."बहुत ज्यादा अकेलापन है यहाँ...जब हसबैंड  ने यहाँ ज्वाइन किया  तो मैं बहुत खुश हुई थी..इतने बड़े शहर में रहूंगी..कितना नाम सुन रखा था,इस शहर का . आस-पड़ोस वाले भी जल गए थे सुनकर. मुझमे भी जैसे थोड़ा घमंड आ गया था...जब यहाँ फ़्लैट  नहीं मिल रहा था और हसबैंड हमें यहाँ लाने में देर कर रहे थे...तो गुस्से में जल-भुन गयी थी मैं...रोज जैसे दिन गिन रही थी..और अब सोचती हूँ..काश उन्होंने ये नई नौकरी नहीं ली होती...हम वहीँ उस कस्बे में रहते...पैसे कम थे..पर ख़ुशी थी...एक जिंदगी थी."

मैने उसे बोलते रहने दिया.....वो भी जैसे मुझसे नहीं....अपनेआप से कह रही थी सब कुछ......"शुरू शुरू में तो मुझे बहुत अच्छा लगता...इतनी बड़ी -बड़ी बिल्डिंग्स....ये लिफ्ट से आना-जाना ...सुपर मार्केट में शॉपिंग...मॉल्स...शुरू में नरेश घुमाने भी ले जाते...समंदर का किनारा...सब मुझे जैसे  इक सपने सा लगता..पर सपना तो सपना ही होता है..कभी ना कभी आँख खुलनी ही है..और सच्चाई की धरातल पर आना ही है...एक महीना घूमते घामते..घर संवारते बीत गया. फिर बेटी का स्कूल शुरू हो गया."

"तुम्हारी बेटी भी है..."..मैने आश्चर्य से पूछा...मुझे तो वो न्यूली वेड सी लग रही थी..

"हाँ ..पांच साल की... गुड़िया के लिए ही नरेश और भी यहाँ आने को उत्सुक थे. कस्बे का स्कूल उन्हें पसंद नहीं था. वे गुड़िया को बढ़िया स्कूल में पढ़ाना  चाहते थे. स्कूल तो बहुत अच्छा है..पर मेरे लिए बहुत मुश्किल है. टीचर्स के साथ साथ सारे बच्चों की माएँ भी इंग्लिश में ही बात करती हैं और मैं हूँ छोटे शहर की...आदत रही नहीं कभी...कोशिश करते भी एक संकोच सा होता है और जुबान जैसे तालू से चिपक जाती है. इसलिए मेरी दोस्ती भी नहीं हो पाती. वैसे भी यहाँ खुद आगे बढ़कर कोई बात नहीं करता....नहीं तो हमारे यहाँ...कोई नया चेहरा दिखा नहीं कि
लोग सारा इतिहास-वर्तमान खंगाल डालते हैं...मायके ससुराल..परिवार में कौन हैं..पति की नौकरी..यहाँ तक कि पति की तनख्वाह तक पूछ डालते हैं....वो भी खलता था...और यहाँ का अनदेखापन भी खलता है. 
हम  तीन बहने हैं....और फिर पड़ोस की मेरी सहेली पहली कक्षा से लेकर कॉलेज  तक हम साथ पढ़े...कभी खुद आगे बढ़कर दोस्ती करने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई. शादी भी उसी शहर में हुई. पड़ोस के कितने  ही लोगों को मैं पहले से जानती थी. कभी कुछ अजनबीपन लगा ही नहीं.वाहन  गुड़िया को स्कूल-छोड़ने लाने जाती तो कितने ही पहचाने चेहरे मिल जाते....गेट के पास इंतज़ार करते ही कितने लोगो से बात हो जाती.... यहाँ तो गुड़िया के बस स्टॉप पर  ज्यादातर बच्चों के साथ उनकी आया होती हैं ... थोड़े बड़े बच्चे तो अकेले ही आते हैं. बस एक बच्चे की माँ आती है  पर वो घुटनों तक की पैंट और शर्ट पहने मोबाइल फोन पर ही लगी होती है....उस से कुछ बात करने में भी हिचक होती है. गार्डेन में शाम को गुड़िया को लेकर जाती हूँ..वहाँ भी वही माहौल है...सारी लेडीज़ जींस में होती हैं और चिल्ला-चिल्ला कर बच्चों को अंग्रेजी में ही डाँटती रहती हैं. वो तो अच्छा है...बाहर गुड़िया ज्यादा शरारत नहीं करती.....नहीं तो मुझे उसे डांटा भी नहीं जाता.."हल्की सी मुस्कराहट खेल गयी उसके होठों पर. थोड़ी देर पहले का हादसा जैसे भूल गयी थी वह.

मैं भी मुस्कुरा दी..पर कुछ कहा नहीं...नीलिमा के  अंदर जैसे बरसों का गुबार जमा था..."जिंदगी में बहुत सूनापन आ गया था...नरेश सुबह आठ बजे के गए रात के दस बजे आते...थक कर चूर....उसके बाद भी कभी फोन पर लगे होते तो कभी लैप टॉप पर. टोको तो कह देते हैं...'तुम्ही लोगों के लिए सब कुछ कर रहा हूँ...फ़्लैट लेना है...गाड़ी लेनी है...बेटी के हायर एडुकेशन के लिए पैसे जमा करने हैं...काम नहीं करूँगा तो कैसे होगा सब कुछ'...अब बात तो सही ही कहते हैं..मैं क्या कहूँ...सन्डे भी बस सोने और खाने में निकल जाता है. कहीं चलने को कहो तो कह देते हैं...'एक दिन तो आराम करने को मिलता है...आज के दिन मुझे तंग मत किया  करो... यहाँ सारी लेडीज़ अकेले ही सारा काम करती हैं..तुम भी आदत डाल लो'....अब तो आदत पड़ ही गयी है...और काम भी क्या है..जरूरत की सारी चीज़ें तो पास में मिल जाती हैं....मुझे मार्केट गए भी जमाना गुजर जाता है. जाती भी हूँ तो बस गुड़िया के खिलौने या कपड़े लेने.पता नहीं कब से ...खुद के लिए कुछ नहीं लिया..लेकर भी क्या करती ..कहाँ  जाती पहन कर...कोई सखी-सहेली नहीं...कोई रिश्तेदार नहीं. और नरेश यह समझते ही नहीं...उन्हें लगता है...रहने -पहनने -खाने की सुविधा है...पति है..बेटी है..मन लगाने को टी.वी. है..किसी को और क्या चाहिए.."कहते उसका गला रुंध सा गया. मेरा भी मन भर आया..अधिकांशतः पुरुष यही समझते हैं..उन्हें नारी मन की थाह ही नहीं होती...कि दो मीठे बोल...दो पल के साथ के सामने ये सब फीके हैं. 

उसने आंसुओं को अंदर ही घोटने की कोशिश की...और गला साफ़ करते हुए बोली..."पता नहीं आप सब सुनकर क्या सोचेंगी मेरे बारे में.....पर अब भी तो कुछ सोच ही रही होंगी....कि क्या बात हुई...."
सोच तो रही थी...पर उस से  कैसे कह दूँ...या फिर क्या कहूँ...अच्छा हुआ मेरे उत्तर का इंतज़ार किए बिना वो बोल पड़ी..."मेरा यहाँ बिलकुल मन नहीं लगता था...धीरे-धीरे हर काम एक बोझ सा लगने लगा...ना तो घर संभालने का मन होता...ना खुद को संवारने का...पर नरेश का कभी ध्यान ही नहीं जाता... मेज पर धूल पड़ी होती...अखबार बिखरे होते...मैं उधड़ी हुई रंग उड़ी कमीज पहने होती..पर तब भी नरेश नोटिस नहीं करते...कई बार तो मैं जान-बूझ कर उनके सामने एक ही गाउन पहने होती...सुबह धो कर डाल देती..शाम को वही पहन लेती...पूरे एक हफ्ते तक एक गाउन में देख कर भी नरेश ने कुछ नहीं टोका....या शायद उन्होंने गौर  ही नहीं किया . उन्हें सिर्फ थाली में खाना मनपसंद चाहिए था. खाने में नमक-मिर्च कम होने पर जरूर चिल्ला पड़ते...कोई शर्ट या मोज़े नहीं मिलते..तो घर सर पर उठा लेते...समझ ही नहीं आता....वे सचमुच कपड़े ना मिलने पर ही नाराज़ हो रहे हैं या ऑफिस की किसी टेंशन की वजह से....सच क्या था...पता नहीं....पर उनका यह रूप मैने यहीं आकर देखा...जबकि वहीँ पहले सास-ससुर के साथ रहने की वजह से नहीं चिल्लाते  थे या फिर वहाँ इतनी टेंशन ही नहीं थी...कुछ समझ में नहीं आता. गुडिया की देखभाल की भी सारी जिम्मेवारी मुझपर ही डाल दी थी...रात  में आते तो गुड़िया अक्सर सो जाती या नींद में होती...सुबह नरेश ऑफिस जाने की जल्दी में होते...बस आते-जाते उसके गाल थपथपा दिए..इतना सा ही बाप-बेटी का रिश्ता रह गया है...गुड़िया तो अपने कार्टून अपने खिलौनों में मगन रहती है..पर मुझे बहुत खलता है....पर करूँ तो क्या...अगर मैं कभी उसकी पढ़ाई की चर्चा करती तो कहते 'इन सब झंझट में मुझे मत घसीटो...काम का पहले ही बहुत प्रेशर है....और कभी झल्ला पड़ते...'पढ़ी-लिखी बीवी रखने  से क्या फायदा...फर्स्ट स्टैण्डर्ड को भी नहीं पढ़ा सकती?"..पढ़ा तो मैं लेती थी...मैं तो बस उनसे कुछ बात करने के बहाने के लिए चर्चा करती....कि कुछ बात भी हो जाए और वे गुड़िया से भी जुड़े रहें.  ऑफिस की बातें वे करते नहीं....यहाँ पड़ोसी रिश्तेदार कोई है नहीं...जिनके विषय में बात की जाए....पसंद भी एक नहीं हमारी...वे टी.वी. पर या तो न्यूज़ देखते हैं...या फिर अंग्रेजी फिल्मे...जो मेरी समझ में नहीं आतीं. यहाँ आने से पहले भी नरेश मुझसे बहुत बात नहीं करते थे...पर तब लगता था..'अपने माँ-पिता के सामने असहज महसूस करते हैं'...और फिर समय भी कहाँ मिलता था...रात का खाना निबटाते...रसोई समेटते...जब मैं कमरे में आती, नरेश सो चुके होते. इतवार को तो वे देर तक सोते रहते और फिर अपने दोस्तों से मिलने चले जाते....मैं भी अक्सर इतवार को मायके जाने के फिराक में रहती....रोज किसी ना किसी का आना-जाना लगा ही रहता...इसलिए कभी ये कमी महसूस भी  नहीं हुई  कि सिर्फ हम दोनों बैठकर आपस में बातें नहीं करते हैं........यहाँ जब सिर्फ हम दोनों हैं...तो समझ में ही नहीं आता...बात क्या की जाए...बस देह-धर्म पर ही रिश्ते की बुनियाद टिकी है. 

मैं सोच रही थी..'पता नहीं ,ये कितने बंद दरवाजों के पीछे का सच  है...ज़माना बदल गया है...माहौल  बदल गया है...पर इंसान के बदलने में अभी वक़्त है.."और जहाँ दरवाजे खुले रहते हैं वहाँ की कथा भी कितनी अलग है?? कभी इस  तरफ ध्यान नहीं गया..पर आज नीलिमा की बातों ने उस कोने-कतरे में छुपे सच को खींचकर सामने ला खडा किया  था ज्यादातर तो पति-पत्नी के रिश्तों में बस देह-धर्म ही रहा गया है. पत्नी घर संभालती है...पति ऑफिस से आकर टी.वी. देखता है या अखबार पढता है...या फिर मिलने-जुलने वालों से गप्पें."चाय दे दो...नाश्ता दे दो...मेरी कमीज़ कहाँ है.....बच्चों के स्कूल की फीस देनी है...अमुक की शादी तय हो गयी है... डॉक्टर के यहाँ जाना है..'पति-पत्नी के बीच बस इन सरीखे संवाद ही कायम होते हैं. उम्र के पडाव निकलते जाते हैं और ये व्यवस्था बदस्तूर चलती रहती है. मन खिन्न हो आया और मैने नीलिमा से सहानुभूति जताई .

"समझ सकती हूँ....ऐसे में दिन बिताना कितना मुश्किल होता है...."

"कोई नहीं समझ  सकता...आंटी...."फिर से उसकी आवाज़ की तुर्शी बढ़ गयी थी. "बहनों..रिश्तेदारों के फोन आते हैं तो एक ईर्ष्या सी होती है,उनके स्वर में...उन्हें इन हालात का क्या पता...."उसने एक गहरी सांस ली और कहना जारी रखा..."मेरे किचन और बेडरूम की खिड़की के सामने एक बिल्डिंग का टेरेस पड़ता है. दोपहर में अक्सर एक लड़के को मैं वहाँ टहलते देखती. कभी-कभी वो मेरी खिड़की की तरफ नज़र उठा कर देखता...मैं पर्दा खींच देती...पर सामने का दरवाज़ा भी बंद और खिड़की पर भी परदे खींच कर कब तक रखती...मेरा दम घुटने लगा था...और मैने परदे हटा दिए...देखना है तो देखे...मुझे क्या..पर जैसे मेरे लिए भी एक खेल सा हो गया था...मैं जब-तब दीवार से सट कर छुपकर देखने की कोशिश करती....वो देख तो नहीं रहा....एकाध बार उसने मुझे झांकते हुए देख भी लिया...हमारी नज़र भी मिल गयी....फिर मैं एकाध दिन जी कड़ा कर उस तरफ देखती भी नहीं...पर वो भी थोड़ा ढीठ हो गया था...जब भी मैं कपड़े फैलाने या उतारने जाती तो देखती वो हाथ बांधे खड़ा नज़रें इधर ही जमाये रहता...आंटी...पता नहीं आप क्या सोचें...पर मैं जैसे यह सब किसी से नहीं कहूंगी तो मेरा सर फट जाएगा....एक दिन कपड़े फैलाते मुझे ध्यान आया...मेरे नाखून तो बड़े टेढ़े-मेढ़े हैं...मैने ढंग से कब से उन्हें शेप नहीं दिया...कितना गँवार समझेगा मुझे...और मैने नेल फाइलर से घिसकर नाखूनों  को शेप दिया...और गहरे गुलाबी रंग की नेलपौलिश भी लगाई...पता नहीं उसने ध्यान दिया या नहीं...पर मैने उस दिन खूब समय लगा कर धीरे-धीरे कपड़े फैलाए. घर में  मैं कभी भी कपड़ों पर ध्यान नहीं देती थी...किसी भी रंग की सलवार किसी भी रंग की समीज पहन लेती थी...बाल भी नहीं संवारती...गुड़िया का स्कूल बारह बजे का है...तब तक तो काम ही ख़त्म नहीं होते...जल्दी से एक क्लिप लगा...उसे छोड़ने को उतर जाती....आने के बाद भी इतना आलस आता....टी.वी. का चैनल सर्फ़ करते...अखबार पलटते ही..कभी यूँ ही छत देखते...छः बज जाते और फिर से मैं जल्दबाजी में वैसे ही भागती उसे लेने. ..पर अब मैं मैचिंग सलवार समीज पहनने लगी थी...बाल अच्छे से कंघी करने लगी थी....आंटी ,मैं ये सब कोई उसे लुभाने के लिए नहीं कर रही थी....ऐसा कुछ भी नहीं था मेरे मन में....बस यही लगता कि बाल बिखेरे ....मुझे उलटे सीधे कपड़े पहने देख,पता नहीं कहीं मुझे गँवार ना समझ ले....आंटी प्लीज़ मुझे गलत मत समझिएगा...मैं बिलकुल भी वैसी लड़की नहीं हूँ......कभी लड़कों की तरफ आँख उठा कर भी नहीं देखा...मेरे महल्ले में भी कई लड़के थे...कुछ ने दोस्ती की कोशिश भी की थी....ग्रीटिंग कार्ड्स भेजे थे...ख़त भेजे थे...पर मैं उन्हें बिलकुल ही इग्नोर कर देती थी...बी .ए. पास किया और शादी हो गयी...नरेश को छोड़कर मैने किसी दूसरे आदमी की तरफ कभी देखा तक नहीं.....पर यहाँ पता नहीं मुझे क्या होता जा रहा था....मैं ऐसे क्यूँ बिहेव कर रही थी...."फिर से उसका गला रुंध गया और वह चुप हो गयी.
क्रमशः 
चाहें तो अपनी प्रतिक्रिया यहाँ दे सकते हैं 

बंद दरवाजों का सच (समापन किस्त )

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"नीलिमा..तुम मेरी बेटी जैसी हो....मैं तुम्हे बिलकुल ही गलत नहीं समझ रही....इन हालातो में ऐसा हो सकता है...मुझे ही देखो...आज पहला दिन है...बेटे -बहू का फोन भी आ चुका है..पति से भी बात हो चुकी है...पर इतना अकेलापन था....ये कुछ घंटे भी काटना मुश्किल लग रहा था ....तुमने तो महीने काटे हैं ऐसे....मुझे अच्छा लगेगा अगर तुम खुलकर अपने मन की बात मुझसे कहोगी....किसी के कुछ काम आ सकी ये ख़ुशी तो होगी. 

"आंटी आप किसी से ये सब कहेंगी तो नहीं ना..अपनी बहू से...प्लीज़ आंटी..."उसके आवाज़ से डर छलक छलक पड़ रहा था 
"नहीं बेटा....इत्मीनान रखो...मैं किसी से कुछ नहीं कहने वाली.."मैं उठकर उसके पास सोफे पर बैठ गयी....उसे भी लग रहा था, वह संकट की घड़ी में अचानक मेरे पास चली आई..तो सारी बातें बताना उसका फ़र्ज़ है. थोड़ी देर रुक कर... जैसे खुद को ही समझाकर  उसने फिर कहना शुरू किया.

एक दिन मैं गुड़िया को स्कूल बस में चढ़ाकर वापस लौट ही रही थी कि एक आवाज़ आई..'एक मिनट सुनिए.."
मुड कर देखा...वो लड़का ही था, हलके से मुस्कुरा कर आँखें झुका कर जैसे नमस्ते की उसने और बोला.."आपके पास ठंढे पानी की बॉटल है क्या...यहाँ दुकान में ठंढा पानी है ही नहीं.."
मेरी समझ में नहीं आया क्या बोलूँ....पर एकदम से झूठ नहीं कहा गया मुझसे...और मैने कह दिया.."हाँ... है.."
वो मेरे बिना कुछ कहे ही मेरे साथ चलने लगा...इधर-उधर की बातें करता रहा.."अच्छी बिल्डिंग है...साफ़-सफाई है..यहाँ...अच्छा मेंटेन किया है..." 
मैने कुछ भी नहीं बोला......फिर लिफ्ट में अपने बारे में बताने लगा..'वो क्या है ना.....अकेला रहता हूँ...फ्रिज नहीं रखा  मैने...जब ठंढा पानी पीना हो...दुकान से ले लेता हूँ...आज उनके पास थी ही नहीं...और जैसे मेरा गला सूख रहा था...सोचा,आपसे मांग लूँ...आपको बुरा तो नहीं लगा.." 
.मैने ना में सर हिलाया...अब भी मुझसे कुछ कहते नहीं बन रहा था....मैने कमरे का दरवाज़ा खोला...वो बाहर ही खड़ा रहा ..जेब में हाथ डाले...इधर-उधर देखता रहा...जब मैने बॉटल पकडाई तो बोला.."मैं आज शाम को बॉटल लौट दूंगा.."
मैने  घबरा कर कहा.."नहीं..नहीं...आप इसे रख लीजिये...बहुत सारी बॉटल है मेरे पास..."मैं नहीं चाहती थी ,उसे दुबारा आने का बहाना मिले...और वो भी जैसे भांप गया,एक चौड़ी मुस्कान के साथ बोला..."ओके ...थैंक्यू..."..और लिफ्ट का बटन दबा दिया उसने. मैने तुरंत दरवाज़ा बंद कर लिया...डर से मन ही मन काँप गयी थी मैं...ये मेरी जिंदगी में पहला मौका था...जब मैने ऐसे अकेले में किसी अजनबी लड़के से बात की थी

जल्दी से मैने परदे खींच दिए. एक दो दिन मैं खिड़की के पास गयी ही नहीं...मैने गौर किया था...वो शाम को चला जाता था...पता नहीं गए रात को या शायद सुबह लौटता और ग्यारह-बारह बजे तक सोता रहता था. मैं सुबह ही समय निकाल कर कपड़े डाल देती...और शाम ढलने के बाद निकालती. पर कितने दिन??..फिर वही वापस रूटीन शुरू हो गया...अब वह सामने दिख जाता  तो मुस्कुरा भी देता....पर मुझे डर  लगता और मैं वहाँ से हट जाती. ...हालांकि मन को समझाती कि  'मैं एक बच्ची की माँ हूँ....कोई छोटी लड़की थोड़े ही हूँ...जो डर रही हूँ.'दसेक दिन बीत गए...बस वही...जब कभी सामने दिख जाता, एक मुस्कान उसके चेहरे को छो कर निकल जाती  और एक दिन फिर वही बारह बजे मिला...सीधा ही मुस्कुरा कर पूछा.."हलो..कैसी हैं आप."

"ठीक हूँ.."मेरे मुहँ से इतना ही निकला. शायद फिर से पानी की बॉटल मांगेगा .यही सोच रही थी कि बोला..."आज फिर आपको तंग करने वाला हूँ...बहुत तेज सरदर्द हो रहा है...शायद थोड़ा बुखार भी  है....कोई दवा है क्या...मेडिकल शॉप तक जाने की हिम्मत  ही  नहीं हो रही...यहाँ किसी को जानता नहीं....बस एक आपको चेहरे से पहचानता हूँ...सोचा आपसे ही पूछ लूँ.." 
मैने आँखें उठा कर देखा ..उसके चहरे पर सचमुच दर्द था...आँखें लाल लग रही थीं..फिर मुझसे झूठ नहीं बोला गया..."हाँ.. है..आइये देती हूँ.."

शायद सचमुच उसके सर में बहुत दर्द था..वो रास्ते में कुछ नहीं बोला...लिफ्ट में भी चुप रहा..दरवाजे के बाहर कपाल को हथेलियों से दबाता खड़ा था...और फिर मैने कुछ नहीं सोचा..उसे अंदर बुला लिया...उसने कहा भी..."नहीं.. ठीक हूँ..."
"आ जाइए दो मिनट...कोई बात नहीं...बैठिये.."
वो आकर बैठ गया...मैने दवा और एक ग्लास पानी पकडाया..फिर एकदम से ध्यान आया...उसने कुछ खाया है या नहीं...खाली पेट दवा नहीं खानी चाहिए. पूछा..तो उसने 'ना'में सर हिला दिया और बोला..."कोई बात नहीं..आप बस दवा दे दीजिये."
 पर मैने जिंदगी में आजतक किसी को खाली पेट दवा खाते देखा भी नहीं..घंटो गुड़िया को मनुहार करती हूँ...एक से एक वो फरमाइश करती है...सब पूरा करती हूँ...तभी दवा देती हूँ....सास और माँ के बीमार होने पर भी...जबरदस्ती उन्हें कुछ खिलाकर ही दवा देती थी..इसे ऐसे कैसे खाने दूँ...और मैने सख्ती से कहा..."नहीं...बिस्किट लाती हूँ..बिस्किट खा कर ही दवा लीजियेगा. "

मैं बिस्किट ले आई...उसने बड़े संकोच से एक बिस्किट उठाया..और खा कर दवा खा ली...उसे इस  हालत  में देखकर मेरा सारा संकोच, सारा डर उड़नछू हो गया था और लग रहा था..किसी भी तरह इसे आराम आ जाए. और मैने चाय के लिए पूछ लिया....वो ना कहता हुआ उठ खड़ा  हुआ...पर मैने ही जबरदस्ती की...'दो मिनट में बन जायेगी..पी लीजिये....अच्छा लगेगा " 
वो संकोच से भर उठा.."आप रहने  दीजिये....दवा से आराम आ जायेगा.."

"आप बैठिये....मैं बनाती हूँ.."कहती मैं किचन में चली गयी....चाय लेकर आई तो ऐसे लगा ही नहीं..मैं किसी अजनबी के सामने बैठी हूँ....शायद महीनो से उसका चेहरा देखते रहने के आदी मन ने उसे अपरिचित मानने से इंकार  कर दिया था. 
जिस लड़के से मैं इतना संकोच करती थी...पर्दा खींच दिया करती थी....बातचीत की शुरुआत मैने ही की...और कुछ ही मिनटों  में उसने सब बता दिया...'वो एक कॉल सेंटर में काम करता है...अकेला रहता है.....खाना-पीना बाहर ही खाता है..चाय तक नहीं बनाता'. और मैं उसे किसी पुराने परिचित की तरह सलाह देने लगी...'कम से कम एक हीटर ही रख लीजिये...चाय तो बन सकती है.....कभी मैगी भी बना सकते हैं.."
"वो तो रख लूँ...पर बर्तन भी तो धोना पड़ेगा..फिर चाय के लिए दूध लाओ ..उबालो..वो कहाँ रखो...ये सब झंझट मुझसे नहीं हो पाता "
"हाँ...कभी जिंदगी में किया नहीं होगा ना...घर पर तो राजशाही ठाठ होगी..सबकुछ हाथों में मिलता होगा....."जैसे मैं अपने किसी कजिन को डांट रही थी..
 वो मुस्कुरा कर चुप हो गया...जैसे घर  की यादों में खो गया हो..फिर थोड़ी देर बाद बोला.."सच कहा आपने..एक छोटी बहन है.. ऋचा. ..बहुत ख्याल रखती थी..बिना कहे सब कुछ हाज़िर...कभी-कभी तो मन होता है सब कुछ छोड़कर चला जाऊं...बहुत मिस करता हूँ...सबको..माँ .पापा.. ऋचा .."और अचानक चुप हो गया..लगा जैसे आगे बोलेगा तो गला रुंध जाएगा...या फिर आँखों में पानी आ जायेगा...मैं समझ सकती थी बीमारी में घर बड़े जोरों से याद आता है....मेरी शादी को छः साल हो गए...सासू माँ बहुत अच्छी हैं फिर भी जरा सा बुखार भी आए तो माँ याद आती थी...मैं भी चुप रही.
चाय के बाकी घूँट उसने ख़ामोशी में ही भरे और कप रखकर  खड़ा हो गया..."थैंक्स तो बहुत छोटा सा शब्द है...आपने दवा भी दी..और चाय भी पिलाई...अभी से ही बेटर फील कर रहा हूँ...डोंट हैव एनफ वर्ड्स टु  थैंक यू.....रियली आई मीन इट "

उसके जाने के बाद मन जाने कैसा हल्का-फुल्का हो आया...एक ख़ुशी सी तारी थी...बड़े दिनों बाद इस दैनंदिन एकरसता से अलग कुछ किया था. किसी के काम आई थी...किसी की छोटी सी मदद की थी या फिर बस रूटीन से कुछ अलग किया था...पता नहीं किस बात का संतोष था...पर मैने बड़े मन से साफ़-सफाई की..घर की सजावट बदली...हालांकि सजावट भी क्या बदलनी...बस इधर की चीज़ें उधर कर दो हो गया बदलाव..फ़्लैट में जगह ही कहाँ होती है...हर चीज़ की जगह फिक्स्ड है. बड़े शौक से आलू-पराठे बनाए...'वरना रोज़ दाल-सब्जी रोटी बना कर रख देती थी. कभी नरेश शिकायत भी करते तो कह देती....'इतनी  आरामदायक  लाइफस्टाइल  है, आपकी.. कोई वाक नहीं...एक्सरसाइज़ नहीं..सादा खाना ही ठीक है.'नरेश ने भी शायद अतिरिक्त उत्साह को लक्ष्य किया...एकाध बार मेरी तरफ देखा..पर फिर रिमोट उठा कर चैनल बदलने लगे. मेरे मन में उहा-पोह थी..नरेश को बताऊँ या नहीं...पता नहीं शायद डांट दें...पर आजतक कभी कुछ छुपाया भी नहीं...और मैंने सोचा ,'बता देती हूँ..एक बीमार की मदद की है...अगर डांट भी खाई तो किसी अच्छे काम के लिए "
सोफे पर बैठ कुशन गोद में रख लिया..'सोच ही रही थी कैसे शुरू करूँ कि नरेश का मोबाइल बज उठा...इतना गुस्सा आया...हर बार यही होता है...कुछ भी कहने जाती हूँ और मोबाइल पहले उन्हें अपनी तरफ खींच लेता है...और मैं गुस्से में कुशन फेंक उठ गयी ..गुडिया पर चिल्लाने लगी..'चलो सो जाओ अब..उठने में देर करोगी.."नरेश के चेहरे पर गुस्सा झलक उठा इशारे में कहा.."बात कर रहा हूँ न'और कमरा जोर से बंद कर लिया...

दूसरे दिन मैं बार-बार खिड़की से झांकती आखिर एक बजे के करीब वह नज़र आया...इस बार मुझे उसकी तरफ सीधा देखने में कोई झिझक नहीं हुई. मैने ही हाथ के इशारे से पूछा.."कैसा है अब?"
उसने आँखें बंद कर सर हिलाया..'बिलकुल ठीक..." 
अगर जरा जोर से पूछती तो उस तक आवाज़ जरूर चली जाती पर पता नहीं कितने कानो से होकर गुजरती. थोड़ी देर टेरेस पर टहल कर वह चला गया. मैं भी अपने काम में लग गयी...अब वो लुका-छिपी का खेल बंद हो गया था. दूसरे दिन वह नीचे बस स्टॉप पर फिर मिला और थोड़ा झिझका हुआ था...पहले दिन वाली  आत्मविश्वास से भरी मुस्कराहट मिसिंग थी. गुड़िया की बस जाते ही पास आकर बोला..."आपको शुक्रिया कहना चाहता था...बहुत फायदा हुआ उस दवा से...और हाँ चाय से भी.."
"थैंक्स तो आपने उस दिन ही कह दिया था.."
"हाँ....उस दिन का थैंक्स दवा देने के लिए...और आज का थैंक्स असर करने वाली दवा देने के लिए.."मुस्कुरा रहा था वह.
"अरे..तो अगर दवा असर नहीं करती तो थैंक्स कैंसल.."बड़े दिनों बाद या शायद इस शहर में पहली बार मैं इतना चहक कर बात कर रही थी....
उसने भी शैतानी से कहा...."पता नहीं..."
और मैं जोर से हंस पड़ी...उसने भी साथ दिया...अपनी हंसी की आवाज़ ही बेगानी सी लगी....कितने दिनों बाद मैं खुलकर हंसी थी..."चलिए अपना ख्याल रखिए...."कहती मैं आगे बढ़ गयी....मन तो हो रहा था..फिर से चाय के लिए बुला लूँ...और खूब गप्पे मारूँ...पर इतनी हिम्मत नहीं थी. 
"श्योर मैम एन थैंक्स अगेन.."
उसके फिर से थैंक्स कहने पर गुस्से में  देखा उसे तो वह खिसियानी सी हंसी हंस दिया.

अभी भी वो टेरेस पर नज़र आता...कपड़े उठाते डालते दिख जाता .मैं  मुस्कुरा देती....प्रत्युत्तर में वो भी मुस्कुरा देता...बस. 
और एक सप्ताह भी नहीं गुजरे...कि एक दिन फिर से दिखा.... "हलो..कैसी हैं?"
"ठीक...और आप.."
"ठीsssक  ही हूँ मैं भी"....उसने ठीssक  को लम्बा खींचते हुए कहा....और बोला..'बिटिया बड़ी प्यारी है....क्या नाम है उसका...?" 
"मेघना...घर में उसे गुड़िया बुलाते हैं..."
"है भी बिलकुल गुड़िया सी....अच्छा टाइम पास हो जाता होगा..आपका....देखता हूँ...बहुत चंचल है.."
"हाँ....बहुत शैतान  है...पर स्कूल चली जाती है तो पूरा दिन काटना मुश्किल हो जाता है....बोर हो जाती हूँ,बिलकुल.."
"हम्म....मैं भी बहुत बोर हो रहा था.....पर आप एक बात बताइए...सिर्फ सरदर्द होने पर ही आप चाय पिलाती हैं. '
मैं  मुस्कुरा उठी...पर एकदम से हाँ  नहीं कह सकी....दिल कह रहा था...'हाँ'कह दो..दिमाग कह रहा था..'क्या जरूरत है?'पर इस रस्साकस्सी में जीता दिल ही...'हम्म तो चाय पीनी है आपको.."
'अदरक इलायची डली....पर अगर आप अनकम्फर्टेबल हैं... तो  रहने दीजिये.."
"नहीं..नहीं...कोई बात नहीं...आइये "
कहते मैं आगे तो बढ़ गयी...पर दिमाग कोंचे जा रहा था...'क्या जरूरत थी...मैं उसे जानती ही कितना हूँ....ये ठीक  है क्या'...और दिल उसे बराबर जबाब दिए  जा रहा था...'इसमें गलत भी क्या है....पिछले छः महीने से रोज ही तो दिखता है....घर पर भी आ चुका है...क्या इतना चेहरा नहीं पढ़ सकती...बदमाश तो नहीं दिखता...एक कप चाय पी लेगा...कोई बात करने वाला मिल जाएगा...थोड़ा समय काट जाएगा...इसमें बुराई क्या है..."

मुझे यूँ चुप देख वो बोल पड़ा..."आप रहने दीजिये...लगता है आप कम्फर्टेबल नहीं हैं....वैसे भी एक अजनबी को ऐसे घर में नहीं आने देना चाहिए...बट थैंक्स.. हाँ कहने के लिए....चलता हूँ..."
"आप अजनबी नहीं हैं...और थैंक्स चाय पी कर ही दीजियेगा..."मैने एक निश्चय के साथ कहा.... मन की दुविधा हट चुकी थी.
चाय बनाने गयी तो मन हुआ ब्रेड रौल भी सेंक दूँ....अकेला रहता है..उसे कहाँ मिलता होगा...अभी तो सो कर उठा  है...कुछ खाया भी नहीं होगा...गुड़िया को टिफिन में बना कर दिया था सब कुछ सामने ही पड़ा था पर फिर रुक गयी...उसे कहीं ऐसा ना लगे ज्यादा ही स्वागत कर रही हूँ..और प्लेट  में बस बिस्किट डाल कर ले गयी.

चाय की चुस्कियों के साथ जो बात शुरू हुई..पूरे दो घंटे चली...और मैने उसके बारे में सब जान लिया....ग्रेजुएशन के बाद वो कॉल सेंटर में जॉब करके एम.बी.ए. करने के लिए पैसे जमा कर रहा है. उसके घर में माता-पिता और एक छोटी बहन है. बहन को लेकर बहुत अरमान हैं उसके. माता-पिता को भी जिंदगी के सारे सुख देना चाहता है...खुद भी बड़ा आदमी बनान चाहता है..मेहनत करना चाहता है. यहाँ बिलकुल अकेला है...जानबूझकर ज्यादा दोस्ती भी नहीं करता ..ऑफिस से हर वीकेंड लड़के घूमने-घामने फिल्मे देखने..पिकनिक-पार्टी  का प्लान बनाते हैं..पर यह पैसे बचाने के लिए अक्सर कन्नी काट जाता है.
 बातों बातों में मेरे बारे में  भी उसे काफी कुछ पता चल ही गया कि मायके और ससुराल एक ही शहर में है. शादी के बाद अब तक सास-ससुर के साथ ही थी .अपनी हथेली की रेखाओं की तरह जाना-पहचाना अपना शहर...जहाँ बचपन से अब तक का समय गुजारा...इस बड़े शहर के तौर-तरीके समझ नहीं पा रही थी. 
 उसने आश्वस्त भी किया..."बहुत जल्दी ये शहर भी अपना लगने लगेगा..इस शहर की खासियत है...लोग इसे अपनाएँ या नहीं...यह लोगों को बड़ी जल्दी अपना लेता है. 
"आsss मीन ."
'अरे वाह!
 बड़े दिनों बाद किसी के मुहँ से ये शब्द सुना..."
"मैने भी बड़े दिनों बाद ये शब्द कहा है...."कहते एक उदासी सी तिर  आई आवाज़ में ...उसने भी लक्ष्य किया....थोड़ी देर चुप रहा...फिर बोला..."आप दिन में काफी अकेलापन महसूस करती हैं ना....देखता हूँ...आप कहीं आती -जाती नहीं...सर तो सिर्फ सन्डे को ही दिखते हैं...."
"हाँ..कहाँ जाऊं....आस-पास सब जॉब वाली हैं....और किसी से कोई परिचय नहीं....बस सब्जी लेने जाती हूँ.."चाह कर भी मैं उदासी झटक नहीं पा रही थी...स्वर से..
उसने हँसते हुए कहा..."अगर आप ऐसी ही बढ़िया चाय पिलाती रहें तो मैं कभी-कभी गप्पे लगाने आ सकता हूँ...पर इत्मीनान रखिए रोज नहीं धमकुंगा ."
'आपसे सच में बात करके बहुत अच्छा लगा..."मैने सारा संकोच परे रख कर कह डाला. 
वो मुस्कुरा कर चुप हो गया और बोला..."मुझे भी याद नहीं जमाने के बाद किसी से यूँ खुलकर बातें की हैं...पर अब मुझे जाना होगा....कपड़े साफ़ करने हैं...शाम को ऑफिस की तैयारी करनी है. एन थैंक्स अलॉट..चाय सचमुच बहुत बढ़िया थी..आपको अगर बुरा ना लगे तो मेरा नंबर ले लीजिये....जब भी आपका दिल करे आप एक कॉल कर लीजिये...दिन में तो मैं फ्री ही रहता हूँ...बातें भी हो जायेंगी...और आपको चाय भी नहीं पिलानी पड़ेगी.." 
"आप मुझे इतना कंजूस समझते हैं... "मैने नकली गुस्से से कहा 
"जस्ट जोकिंग बाबा..."उसने जेब से पेन निकाला और एक लौंड्री के बिल पर अपना नंबर लिख कर पकड़ा दिया...नाम लिखा था..'रोहित' 
अब जाकर मुझे ध्यान आया मैं एकदम से माथे से हाथ लगा कर बोल पड़ी..."हे भगवान....मैंने अब तक आपका  नाम तक नहीं पूछा था..."
"ना तो मेरा नाम जानती हैं आप, ना पता....और घर बुलाकर चाय पिला दिया...सोच लीजिये कहीं मैं कोई चोर डाकू निकला तो.."शरारत झलक रही थी उसके स्वर में...मुझे गुस्सा आ गया...जोर से बोली 
"एक्सक्यूज़ मी...मैने आपको नहीं बुलाया था...आप खुद आए थे...और इतना मुझे लोगों की पहचान है.."
उसने मुस्कुरा कर बोला.."सच में..."
उसकी ये मुस्कान मुझे असहज कर गयी....मुझे चुप देख वो सीरियस हो गया और  बोला..."दुनिया में इंसानियत भी कोई चीज़ होती है.....और शायद वही असली पहचान है......जी 'हाथ घुमा कर उसने मेरा नाम पूछा....
'नीलिमा..."
"नीलिमा जी..अपना ख्याल रखें....और जब भी चाहे मुझसे बात कर सकती हैं....फिर थोड़ा रुक कर बोला.."मुझे अच्छा लगेगा ..बाय.."
"बाय..."और वह चला गया.

मैने तुरंत ही उसका नंबर सेव कर लिया....रोज ही स्क्रीन पर नंबर निकाल कर घूरती रहती...और एक दिन नंबर मिला ही दिया...उसकी 'हलो' सुनते ही घबरा कर फोन रख दिया...
दो मिनट बाद ही फिर उसका कॉल आया...जब मैने अपना नाम बताया तो  चौंक गया...ओह!! ..आss प ..गलती से तो नहीं लग गया...क्यूंकि आपने तुरंत काट दिया था फोन.."
"नहीं अपने आप कट गया था.."
"ओके..क्या कर रही हैं..."
और फिर बातों का सिलसिला चल निकाला...करीब आधे घंटे तक बातें हुईं...फिर मैने फोन रख दिया...

दूसरे दिन साढ़े बारह के करीब एक स्माइली के साथ गुड़ मॉर्निंग का उसका एस.एम.एस आया....और फिर तो यह रूटीन ही हो गया...वो रोज दोपहर में  एक एस.एम.एस करके जता देता कि जाग गया है...फिर कभी मैं फोन कर लेती...कभी वो...कभी-कभी वो मेरा फोन नहीं उठाता और तुरंत ही कॉल बैक करता...मैं समझ जाती सोचता है..सिर्फ मेरे ही पैसे क्यूँ खर्च हों....फिर ये रोज का ही सिलसिला हो गया. रोज फोन करके वो अपनी पूरी बात बताता....उसके बॉस...उसके फ्रेंड्स... साथ काम करने वाली लडकियाँ....सबको मैं जान गयी थी. एक नई दुनिया सी खुल रही थी मेरे सामने...ऑफिस की ऐसी -ऐसी बातें बताता कि मैं दंग रह जाती. लड़कियों का यूँ खुलेआम सिगरेट-शराब पीना मेरे लिए नई बात थी. लिव-इन  रिलेशन के बारे में मैने सिर्फ सुना भर था..उसके ऑफिस के दो कुलीग लिव-इन-रिलेशन में थे. 

मैं भी...गुड़िया का खांसी-जुकाम....उसकी पढ़ाई...स्कूल टेस्ट...प्रोजेक्ट वर्क...सबकी चिंता उसी के साथ बांटती...कभी-कभी नरेश की शिकायत भी कर देती....कि जरा भी ध्यान नहीं देते घर की तरफ .. तो मुझे समझाता...'आपको नहीं पता...इस शहर में ऐसे कम्पीटीशन के युग में सर्वाईव करना कितना मुश्किल है...सर को काम का प्रेशर रहता है...ऑफिस की टेंशन..फिर आप पर उन्हें भरोसा भी है कि आप सब संभाल लेंगी..." 
कभी कभी तो मैं कह भी देती.."तुम उनके दोस्त हो या मेरे...??" 
"दोस्त तो आपका ही हूँ...इसीलिए आपको दुखी नहीं देख सकता...."
उसका इतना कहना मुझे अंदर तक भिगा जाता. इसके पहले कभी किसी ने मेरा इतना ख्याल नहीं रखा था. मेरे सुख-दुख की नहीं सोची थी...मेरी बातें इतनी ध्यान से नहीं सुनी थीं...ना ही अपने जीवन की हर छोटी बड़ी बात शेयर की थी. 
कब आप से तुम पर अ आगई थी..पता ही नहीं चला...उसके लिए आप मेरी जुबान पर चढ़ता ही नहीं..."
अब वो घर पर नहीं आता..हमारी बात फोन पर ही होती. 

गुड़िया कब से पानी-पूरी बनाने की जिद कर रही थी. अक्सर कहती 'हेतल' की मम्मी हमेशा बनाती है..तुम नहीं बनाती...पर उनलोगों का तो वो रात का डिनर ही हो जाता  . नरेश को ये चाट-पानी पूरी जैसी खट्टी चीज़ीं पसंद नहीं थीं. और गुड़िया तो बस दो-चार ही खाएगी. इतना ताम-झाम करो और फिर रात का पूरा खाना भी बनाओ....इतना झंझट करने का मेरा मन नहीं होता,पर गुड़िया की फरमाइश कब तक टालती. बनाना ही पड़ा. नरेश ने बड़ी मुश्किल से अहसान करके पाँच पानी-पूरी खाई बस...सारा बच गया और मैने रोहित को दूसरे दिन बुला लिया. रोहित ने इतने पसंद से खाया और इतनी तारीफ़ की कि मेरा बनाना सार्थक हो गया. इसके बाद तो कोई भी अच्छी चीज़ बनाती तो रोहित के लिए रख देती....

वो थोड़ी ना-नुकुर भी करता आने में पर जो भी दो बड़े पसंद से खाता और कहता.."आप मेरी आदतें बिगाड़ रही हैं"
"शादी के बाद अपनी बीवी से अच्छी अच्छी चीज़ें बनवा कर खिलाना....हिसाब बराबर हो जायेगा "
वो संजीदा हो जाता.."पता नहीं....कैसी लड़की मिले....डर लगता है कभी-कभी..अगर ना निभे तो.."
"तुम कोई नई बात नहीं कह रहे...सब लड़के शुरू में ऐसे ही डरते हैं....और शादी के बाद बीवी के पालतू बन जाते हैं.."
"एक्सपीरियंस बोल रहा है..."वो मजाक करता..
"हमारी बात छोडो..हमारा जमाना अलग था.."
"आप एक मिनट में छलांग लगा कर दादी माँ का लबादा ओढ़ लेती हैं...जैसे सौ साल बड़ी हैं मुझसे.."
'बड़ी तो हूँ ही..."
"आपकी जल्दी शादी हो गयी...बच्ची आ गयी इसीलिए??...मेरी हमउम्र ही होंगी आप..."
"हाँ, मेरी शादी हो गयी है.... एक बच्ची है...मैं तुमसे बड़ी हूँ...बस  बात ख़तम...."एक-एक शब्द पर जोर देते हुए मैने झूठे रोष से कहा तो वो एकदम से हंस पड़ा...
"'आप एक मिनट में दादी माँ से छोटी सी बच्ची भी बन जाती हैं..."
मन हुआ कुछ उठा कर कुछ दे मारूँ...पर ध्यान आया उसके हाथ में खीर की कटोरी है...गिर जायेगी  और फिर मुझे ही साफ़ करना पड़ेगा.

ऐसी ही बेमतलब की बातों में समय गुजर जाता...अगर पलट कर याद करना चाहो तो याद भी ना आए..क्या बातें की थीं...
"एक दिन उसका फोन आया.."मुझे आपकी मदद चाहिए....प्लीज़ ना मत कहियेगा.."
"काम तो बोलो.."
"नहीं.. पहले आप हाँ कहिए..."
"हाँ बाबा...बोलो तो सही..."और मुझे पता नहीं था..किस बात के लिए मैने हाँ कह दी थी...रोहित का कोई दोस्त उसके शहर जा रहा था और रोहित उसके हाथ से ऋचा के लिए ड्रेस और माँ के लिए साड़ी भेजना चाहता था...खरीदने में मेरी मदद चाहिए थी उसे. मैं एकदम सकते में आ गयी. फोन पर बात करना...कभी-कभार उसका घर आ जाना अलग बात थी...पर साथ में बाज़ार जाना...उसकी ये जिद स्वीकार करना मुश्किल हो रहा था...और वो था कि मान नहीं रहा था..
."आपकी  हेल्प के बगैर नहीं खरीद  पाऊंगा..ऋचा  कितनी खुश हो जाएगी..प्लीज़ बस घंटे भर के लिए...समय निकालिए...अभी तो दो ही बजे हँ...गुड़िया तो छः बजे आएगी..कुल चार घन्टे हैं...प्लीज़..प्लीज़ ....यहीं  से मुझे ऋचा का खुश खुश  चेहरा दिख रहा है...महल्ले  भर को दिखाती फिरेगी..और इतरा कर कहेगी 'मेरे भैया ने भेजा है '

अब मेरे लिए मना करना मुश्किल हो गया. मैने भी कई पहलू से सोचा..'जाने में कोई हर्ज़ तो नहीं...यहाँ कोई मुझे पहचानता भी नहीं...जो रोहित के साथ देख कर उल्टा-सीधा सोचे. फिर मेरा भी फायदा है...खुद के लिए भी कुछ ले लूंगी...आजकल मॉल्स में जाना हो ही नहीं पाता. 
और मैं पास के एक मॉल में रोहित के साथ चली गयी . ऋचा के लिए जींस सेलेक्ट करते समय अचानक रोहित ने कहा.."आप भी क्यूँ नहीं अपने लिए एक जींस ले लेतीं.."
"ना बाबा...मैने तो शादी के  बाद से कभी पहना ही नहीं.."
"तो अब पहन लीजिये...यहाँ कौन से आपके ससुराल वाले हैं.."
"नरेश को भी पसंद नहीं.."मैने बात टालनी चाहिए पर वो पीछे ही पड़ गया...
"आपने जब कभी पहना ही नहीं...तो आपको कैसे पता..उन्हें नहीं पसंद....ऑफिस से आएँ तो उन्हें सरप्राइज़ कर दीजियेगा...जींस-टॉप में दरवाज़ा खोल कर...एकदम रानी मुखर्जी की तरह,...वो फिल्म याद है..'कभी अलविदा ना कहना " 
मुझे हंसी आ गयी....पर वो जान छोड़ने वाला नहीं था..."रानी मुखर्जी ने दरवाज़ा खोला तो उसके ससुर जी सामने थे...आपका तो यहाँ कोई नहीं...इसलिए नो खतरा..अब बस एक लीजिये...और ट्राई कर के देखिए "..
"रोहित, यहाँ तुम ऋचा और माँ के लिए कपड़े लेने आए हो ना..."
"हाँ..तो ऐसा नियम है क्या कि दूसरों के लिए नहीं लिया जा सकता...?"
उस से बहस  ही बेकार थी...चुप ही रही...ऋचा के लिए जींस और टॉप देखते रहे हम...मुझे लगा...बात आई-गयी हो गयी...पर उनमे से ही एक  जींस और टॉप सेलेक्ट कर उसने मुझे पकड़ा दी..."जाइए ट्रायल रूम में ट्राई कर के देखिए "
"रोहित ..प्लीss ज़ .."
"ट्रायल रूम उस तरफ है...और हाँ मुझे भी दिखा लीजियेगा...नहीं अच्छा लगेगा तो बता दूंगा..वरना बेकार में आपके पैसे बर्बाद होंगे ." .मुझे बता कर वो फिर हैंगर में लगे कपड़े देखने लगा...मुझे जाना ही पड़ा.
आइने में जैसे मैं खुद को ही नहीं पहचान पा रही थी...मुझ पर सूट ही कर रहा था...फिर भी आशंकित थी...शायद रोहित कह दे नहीं अच्छा लग रहा..तो झंझट ख़तम...
बाहर निकल धीरे से पुकारा..'रोss हित ."
 देख कर ,रोहित ने  कहा कुछ नहीं..बस तर्जनी और अंगूठे को मिलाकर  इशारा किया...'बढ़िया.'....और किसी फैशन डिज़ाईनर की तरह मुआयना करता रहा..."दिस  पिंक कलर  टॉप इज टू गर्लिश....ब्लू कलर अच्छा लगेगा..और ये टॉप ज्यादा लॉन्ग नहीं है? "
"नहीं...मैं एकदम से शॉर्ट नहीं पहन  सकती "
 "ओके...पर टॉप  ब्लू कलर का ले लीजिये...ज्यादा अच्छा दिखेगा..." और फिर वो कपड़ों के रैक की  तरफ मुड गया.

मुझे अपनी बहनों की याद आ गयी...शादी से पहले ऐसे ही हम एक दूसरे को अपने कपड़े पहन  कर दिखाया करते थे और मीन-मेख भी निकालते..सराहना भी करते...जमाना हो गया...वो सारी आदतें छूट गयी .
ऋचा के लिए कपड़े..माँ के लिए साड़ी लेकर वापस लौटते हुए हम कैफे के सामने से गुजरे और रोहित ने कहा..'एक कप..चलेगी?...अभी तो टाइम है.."

वहाँ बड़ी-बड़ी आरामदायक कुर्सियों पर सब ऐसे फ़ैल कर बैठे थे कि मेरे दुखते पैर ललचा उठे...नथुनों में कॉफी की महक भर रही थी..और दिमाग ने सोचना  बंद कर दिया. मेरे कदम अपनेआप उधर मुड गए. रोहित कॉफी ऑर्डर करने के लिए काउंटर पर ही रुक गया....मैं एक खाली मेज ढूंढ कर बैठ गयी.... यूँ पहली बार मैं इतना निश्चिन्त हो किसी कैफे में बैठी थी. नरेश के साथ जाती तो पूरे समय हम गुड़िया की देखभाल में ही लगे होते. नरेश नाराज़ होते रहते..'उसने ये गिरा दिया है..देखो..उसका मुहँ साफ़ करो.."और गुड़िया का रोना उसकी जिद...नरेश का मूड ख़राब कर देती...वे मुहँ बनाये बैठे रहते...और वहाँ बैठना एक बोझ सा लगने लगता. इस मारे अब बाहर चलने के लिए उनकी खुशामद करना भी छोड़ दिया था...पैसे भी बिगाड़ो और मूड भी खराब करो..
पर मैं आज पूरे आत्मविश्वास के साथ अकेली बैठी थी. खुद को जैसे पहली बार पहचान  रही थी. कोई डर नहीं..संकोच नहीं...इन सारी आधुनिक वेशभूषा में  सजे लड़के-लड़कियों के बीच मैं जरा भी असहज नहीं महसूस कर रही थी. ये इतना बड़ा परिवर्तन कैसे आ गया मेरे व्यक्तित्व में ?..कुछ ही दिनों पहले...अगर भीड़-भाड़ में नरेश आँखों से ओझल हो जाते तो मैं कितना घबरा जाती थी ..बेचैनी से निगाहें उन्हें ढूँढने लगतीं थीं . पर अब तो लगता है...रोहित  साथ ना भी  हो तो भी अकेले कॉफी पी सकती हूँ,यहाँ . आजकल दिल में एक उत्साह सा भरा होता है...कुछ करने की तमन्ना होती है. और यह सब मेरे चेहरे पर भी जरूर दिखाई देता होगा. जब पार्क में गुड़िया के साथ जाती....तो कभी उसके पीछे भागती..कभी दूसरे बच्चे की बॉल उठा उसे दे देती...दूसरी लेडीज़ भी थैंक्यू कहते बात शुरू कर देती हैं. पहले जरूर मेरे चेहरे  पर खीझ, ऊब..नाराज़गी  के मिले-जुले भाव होते होंगे जो अनजान लोगों को भी थोड़ी दूर पर ही रोक देते होंगे. 
एक  दिन उस बच्चे को बस स्टॉप पर आने में देर हो गयी..और मैने बस रुकवा कर रखा...वो बच्चा भागता हुआ आया तो मैने उसे सहारा देकर बस में चढ़ा दिया..पीछे से उसकी थ्री फोर्थ में रहनेवाली माँ ..शुक्रिया कहते नहीं थक रही थी...ऐसे भी बुरे लोग नहीं हैं यहाँ के...एक कोशिश करने की जरूरत है. इन्हीं ख्यालों में  खोयी थी कि रोहित आ गया. उसकी तरफ एक मुस्कान फेंक फिर मैं बाहर देखने लगी...अभी कुछ भी बात करने की इच्छा नहीं हो रही थी...जो  भी बदलाव मेरे साथ हो रहे थे ..उसे बूँद-बूँद महसूस करने की कोशिश कर रही थी. 

थोड़ी देर बाद नज़रें घुमाई तो पाया रोहित भी खोया हुआ सा है. उसकी नज़रों का अनुसरण कर देखा...दूर एक टेबल पर  दो सुन्दर सी लड़कियां बैठीं थीं...उन पर ही उसकी नज़रें जमी हैं. यूँ ही टेबल पर खट-खट किया..तो रोहित चौंक गया...मुझे मुस्कुराते देख...झेंप कर कहा.."लोग कहते हैं लडकियाँ डायटिंग करती हैं...पर वे दोनों कितना सारा खा रही हैं...यही देख रहा था.."
"मैने कब कहा...कि तुम कुछ और देख रहे थे..."हंसी आ गयी थी,मुझे.
"चलिए कॉफी पर कंसंट्रेट कीजिए..."खिसिया कर रोहित बोला...कॉफी आ गयी थी.

रोहित से मुश्किल से दिन में एक घंटे बात होती पर बाकी के तेइस घन्टों को नई उर्जा दे जातीं.कभी-कभी बात नहीं भी होती...फिर भी मैं पहले सा उदास...डिप्रेस्ड नहीं महसूस करती. आज गुड़िया को बस स्टॉप पर छोड़कर कुछ खरीदने गयी तो वहाँ रोहित भी था...हम थोड़ी देर बाहर बात करते रहे...पर बड़ी धूप थी...मैने कहा...."चलो घर पे बैठ कर  बात करते हैं.."
"मुझे कपड़े साफ़ करने हैं...डिटर्जेंट लेने आया था...."
"तुम और तुम्हारे कपड़े....एक वाशिंग मशीन ले लो...बस ऑफिस  के बाद एक ही काम करते  हो..कपड़े साफ़ करना...चलो कोल्ड कॉफी बनाती हूँ...मेरा मन हो रहा है....तुम साथ दे देना.."
आजकल मैं उस पर बहुत रौब भी जमाने लगी थी. रोहित चला आया....

कमरे में ए.सी. चला कर मैं कॉफी बनाने चली गयी....रोहित सी.डी. उलट-पुलट रहा था...."अच्छा इसी सी. डी. की बात कर रही थीं आप....यही ली उस दिन??
"हाँ लगाओ न..बड़ी अच्छी गज़लें हैं .."मैं किचन में से ही चिल्लाई..
कॉफ़ी लेकर आयी तब तक रोहित ने स्विच ढूंढ  कर कर सी.डी. लगा दी थी...
जब जगजीत सिंह की आवाज़ में पुरानी  ग़ज़ल कमरे में तैरने लगी तो रोहित ने सर पर हाथ मार लिया.."ओह! आपलोग भी न....किसी भी कवर में कोई सी.डी. डाल देती हैं...ये नए कवर में पुरानी सी.डी है. "
मैंने उसे रोक लिया..."यही चलने दो न..."'तुमको देखा तो ये ख्याल आया....."मेरी पसंदीदा ग़ज़ल थी.
कॉफी के घूँट भरते हम गज़लें सुनते रहे...रोहित कपड़ों की चिंता में ही उलझा हुआ था....और मैं उसे डांट रही थी..."क्या ग़ज़लों की वाट लगा रहे हो.."
"अरे वाह .तरक्की...यहाँ की भाषा भी जुबान पर चढ़ गयी."
"जैसा  देश वैसा वेश की जगह जैसा देश वैसी भाषा...चलो बाबा तुम्हारे कपड़े तुम्हारा इंतज़ार कर रहे होंगे"...रोहित भी उठ गया...मैं कप्स उठाने के लिए झुकी ही थी कि .जाने कैसे कारपेट में पैर उलझ गया...
"अरे संभालिये...."रोहित ने गिरने से थाम लिया....और एक सनसनाहट  सी दौड़ गयी नसों में....ये कैसा अनचीन्हा सा अहसास था. महज किसी स्पर्श से  ऐसी सुरक्षा...इतना लगाव महसूस किया जा सकता है...नया था मेरे लिए और मानो खुद पर ही वश नहीं रहा...इस अनजाने अहसास ने अपने गिरफ्त में ले लिया था...और इसके तिलस्म में घिरे हम क्षण भर को अपना अस्तित्व भुला बैठे थे...पता नहीं...पहले रोहित की बाहें  मेरे गिर्द लिपटीं या पहले मेरे हाथ उसके कंधे पर टिके......पर ना मैं नीलिमा रह गयी थी...ना वो रोहित...तिलस्म टूटा...उसने मेरे बालों पर हाथ फेर मेरा चेहरा उठाया और एक दूसरे की आँखों में झांकते ही हमारी पहचान लौट आई..मैने रोहित को धक्का दे दिया...और उसने भी हडबडाकर सॉरी कहते अपने हाथ पीछे कर लिए...इस क्रम में कुर्सी से टकरा गयी...गिरते-गिरते बची..फिर से रोहित ने ओह! कहकर बचाना चाहा और मैने उसे जोर से धक्का दिया...वो मेज से टकरा कर गिरने ही वाला था..किसी तरह उसने मेज थाम लिया और मैं भागती हुई बाहर चली आई...

बाहर आपको देखा तो आपके पास चली आई...पर मैं आपके पास..रोहित से भागकर नहीं आई थी....अपनेआप से भाग कर आई थी...रोहित की हिम्मत नहीं थी...मेरे करीब आने की...पर मुझे अपनेआप से डर लग रहा था..कहीं कमजोर ना पड़ जाऊं.....कहीं वापस ना चली जाऊं....रोहित की छुअन मुझे बुरी क्यूँ नहीं लगी...एकदम से मैने क्यूँ नहीं उसका हाथ झटक दिया...पल भर के लिए ही सही..पर मैं कैसे भूल गयी कि मैं शादी-शुदा हूँ...रोहित तो लड़का है...मैं उस से बड़ी हूँ..समझदार हूँ..फिर ऐसा कैसे होने दिया...मुझे अपनेआप से घिन आ रही है....समझ नहीं पा रही...मैने अपना संयम कैसे खो  दिया....मैं बुरी हूँ..सच में बहुत बुरी हूँ...मुझे रोहित से कभी मिलना ही नहीं चाहिए था...उस से कभी बात ही नहीं करनी चाहिए थी...मैं खुश थी..या दुखी थी..जो भी थी,अपनी दुनिया में थी..वहाँ ये  ग्लानि तो नहीं थी. 

उसकी बड़ी-बड़ी आँखों से टप टप बूँदें टपकने लगीं...दया आ गयी  मुझे..."देखो खुद पर इतनी  कठोर मत बनो....जो हो गया..उसे भूल जाओ...और कुछ ऐसी अनहोनी हुई भी नहीं...तुम दोनों ही समझदार हो..तुरंत संभल गए. अब इसे एक दुस्वप्न की तरह भूल जाओ...जितना तुम्हारी बातों से पता चला है....रोहित भी एक शरीफ लड़का है...वो भी तुम्हारी तरह ही शर्मिंदा हो रहा होगा...किसी को दोष देने की जरूरत नहीं...एक पल था जो गुजर गया..बस अब ये सोचो..ऐसा पल दुबारा ना आए...अच्छा लगा सुन...रोहित की सहायता से ही पर तुमने खुद को पहचान लिया है....तुम्हारा आत्मविश्वास लौट आया है....वो  तुम्हारे भीतर ही था...पर  सोया हुआ था...अब इसे दुबारा सोने मत देना...और अपनी जिंदगी बोझिल..उदासी भरी मत बनाओ...अपनी खुशियों के लिए किसी पर निर्भर मत रहो..पति पर भी नहीं......कोई हॉबी  अपना लो...छोटा-मोटा कोर्स कर लो...खुद को व्यस्त रखो...और कुछ सार्थक करो...किसी भी नई जगह में एडजस्ट करने में समय लगता है..."मैं पता नहीं कब तक उसे भाषण  देती रहती पर जोर-जोर से कहीं दरवाज़ा पीटने और ममी-मम्मी की आवाज़ ने चौंका दिया...

"ओह!!! गुड़िया आ गयी..छः बज गए..."और नीलिमा दुपट्टे से मुहँ पोंछती..उठ कर भागी.
मैं भी पीछे-पीछे उठ कर आ गयी....नीलिमा बेटी को गोद में उठाये उसे प्यार कर रही थी.."अरे आज मेरी बिटिया खुद से आ गयी...बड़ी हो गयी अब तो..."
"और क्या..मैं तो लिफ्ट में भी  भी अकेली आ जाती...पर वो गौरव की मम्मी हमारे फ्लोर तक छोड़ गयीं...पता है..आज गौरव को टीचर ने पनिशमेंट दी...ही ही बड़ा मजा आया...उसने रोली की स्केल तोड़ दी थी..."गुड़िया की बातों का पिटारा खुल चुका था..और उसकी बातें सुनतीं नीलिमा अब सिर्फ एक माँ रह गयी थी. 

अपना दरवाज़ा बंद करते नीलिमा ने आँखों में ही आभार जताया...मैने भी मुस्कुराकर सर हिलाया...और वापस आ कर सोफे पर ढह गयी. दिमाग में हलचल मची थी. मेरे विचार गड्ड-मड्ड हो रहे थे . मेरी सारी सोच की नींव हिल चुकी थी.किन- किन  परिस्थितियों से लोग गुजरते हैं और हम तुरंत जजमेंट पास कर देते हैं. हमें उन हालातों का कुछ पता नहीं होता हम बस परिणाम देखते हैं और फैसला सुना देते हैं... कई नाम याद  आ गए..जिन्हें बदचलन...आवारा...कुलक्षनी जैसे विशेषण दिए गए थे..पर पीछे की कहानी किसी को पता थी??....या किसी ने देखने की कोशिश की??... या देखी भी तो उनकी नज़रों से समझने की कोशिश की??....आसान है किसी पर इलज़ाम लगा देना...उसे बदनाम कर देना..
पर हर किसी को तो एक ही जिंदगी मिलती है...उसे भी जिंदगी के हर रंग को महसूस करने का...हर पल को जीने का अधिकार है...वो अपनी जिंदगी बेरंग ही गुज़ार दे...क्यूंकि उसके लिए समाज द्वारा स्वीकृत मसीहा को कोई दिलचस्पी नहीं रंग - कूची और कैनवास में. हर इंसान के दिल में ये तमन्ना रहती है ..कि  कोई उसे सराहे..उसकी प्रशंसा करे....उसकी सुने....अपनी कहे..और जब ये सब मनोवांछित जगह नहीं मिलता तो मन रस्सी तुड़ा भटकने लगता है ..पर क्या ये भटकन जायज है?... इस भटकन की कोई मंजिल है?...मंजिल नज़र भी आए तो वो मरीचिका सरीखी ही होती है....जो दर्द के सिवा और कुछ नहीं दे सकती...कुछ लोगों को इस दर्द का आभास हो जता है...या उन्हें अपनी भटकन ही सही नहीं  लगती...और वे अपने कदम वापस खींच लेते हैं...लेकिन जो इस से बेखबर रहते हैं...उनकी भटकन को दोष दिया जा सकता है? मैं कोई विचार नहीं बना पा रही थी...मेरे संस्कार...मेरे विचारों को एक जोर का झटका लग चुका था. सुना था यह शहर लोगों की जिंदगी बदल देता है.....आज नीलिमा से मुलाकात ने मेरी सोच को भी पूरी तरह बदल दिया था. यही कल तक शायद मैं इस वाकये को सतही तौर पर देखती और नीलिमा को ही दोषी ठहरा देती...पर जिस तरह से पति की बेरुखी ने उसे निराशा के गर्त में धकेल दिया था और रोहित के साथ ने उसमे आत्मविश्वास भरा....उसे जीने  का सलीका सिखाया...मेरा मन संस्कारी होने पर भी उसे गलत नहीं कह पा रहा था .
(समाप्त )
{अपनी प्रतिक्रिया यहाँदे सकते हैं)

दुःख सबके मश्तरक हैं पर हौसले जुदा

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(जब अपने दुसरे ब्लॉग अपनी, उनकी, सबकी बातें पर कहानी पोस्ट करना शुरू किया तब ये सोचा था बाद में वो कहानी इस ब्लॉग पर भी पोस्ट कर दूंगी ताकि मेरी कहानियां एक जगह संकलित रहें ,पर आज-कल में टलता रहा . आज एक साल बाद  बाद पुनः इस ब्लॉग पर कहानी पोस्ट कर रही हूँ )


मौसम बदल रहा था, ठंढ के दिन शुरू होने वाले थे .हलकी सी खुनक थी हवा में। मालती हाथों में चाय का कप लिए बालकनी में खड़ी  थी। सूरज डूबने वाला था। आकाश सिंदूरी रंग से नहाया हुआ था। आकाश में अपने घोसलों की तरफ लौटती चिड़ियों की चहचाहट और नीचे मैदान में खेल रहे बच्चों का शोर मिलकर एक हो रहे थे। बहुत ही ख़ूबसूरत दृश्य था . मालती को ऐसे दृश्य बहुत ही पसंद थे  और वह रोज शाम को नियम से चाय का कप लेकर बालकनी में आ खड़ी  होती । 

थोड़ी देर में हल्का हल्का अँधेरा घिरने लगा।  बच्चों की माएं आवाजें , लगाने लगीं बच्चे घर की तरफ चल पड़े, पक्षी भी अपने घोसलों में दुबक गए। वातावरण बिलकुल शांत हो गया।
और मालती को अपना बचपन याद आ गया, अंधियारा घिरते ही उसकी गली में आवाजें ही आवाजें होतीं . महिलायें -पुरुष काम से लौटते और उनके बीच झगडा शुरू हो जाता . चारो तरफ शोर ही शोर होता .  उसका अतीत रह रह कर उसकी आँखों  के समक्ष  घूम जाता। कभी सपने में भी नहीं सोचा था उसने, यूँ एक अच्छी सी सभ्य कॉलोनी में अकेली पूरी इज्जत के साथ रह पाएगी वह।
एक बजबजाती खुली नाली के पास उसका उसके बचपन का घर था  घर क्या  एक छोटा सा गन्दा सा कमरा , जिसमे मालती अपने माता-पिता और दो छोटे भाइयों  के साथ रहती थी । एक कोने में खाना बनता,...दुसरे कोने में थोड़ी सी पक्की जगह थी, जहाँ पानी भरी बाल्टी रखी  होती, वहाँ बर्तन धुलते और उसकी माँ स्नान करती। मालती और उसके दोनों भाई तो गली में लगे नल के नीचे ही नहा लिया करते और बापू तो हफ्ते दस दिन में एक दिन नहाया करता।  एक तरफ  टीन  के पुराने बक्से रखे थे जो आधे से ज्यादा खाली ही रहते। बीच में माँ की फटी हुई साडी बिछा वे तीनो भाई बहन सो जाते। सो क्या जाते सहमे से पड़े रहते . क्यूंकि थोड़ी रात बीतते  ही उसका पिता शाराब पीकर गालियाँ देते  हुए घर में आता। कभी खाना उठा कर फेंक देता , कभी माँ के लम्बे बाल घसीट कर उसे पीटता। एकाध बार मालती और उसके छोटे भाई माँ  को बचाने गए तो उन्हें भी पीट दिया। माँ भी बापू को जोर जोर से गालियाँ देती । पर उस गली के हर मकान का यही  किस्सा था। माएं दिन भर घर घर में बर्तन मांज कर पैसे कमा कर  लातीं , बच्चों को पालतीं, खाना बनातीं और फिर शाम को पति से पिटतीं । माँ के पैसे भी बापू छीन कर ले  जाता। 

ऐसे ही  माहौल में वो बड़ी हो रही थी। माँ की ज्यादा से ज्यादा मदद करने की कोशिश करती। पांच साल की उम्र से ही, घर में झाड़ू लगा देती। कच्ची -पक्की रोटी बनाने की कोशिश करती। माँ  के साथ काम पर भी चली जाती। उनके छोटे मोटे काम कर देती। वे लोग कुछ खाने को देतीं तो छुपा कर भाइयों के लिए ले आती। भाई सारा दिन धूल धूसरित गलियों में कंचे खेला करते या फिर साइकिल की टायर को पूरी गली में घुमाते रहते। 

जैसे तैसे दिन कट रहे थे वह आठ या नौ साल की थी जब कहर टूट पड़ा उस पर। एक दिन बापू माँ को पीट रहे थे, माँ भी गालियाँ दे रही थी। बस उस दिन पता नहीं बापू को क्या हो गया, उसने बगल में रखा केरोसिन तेल का डब्बा उठाया और माँ  के ऊपर डाल  कर आग लगा दी। माँ  चिल्लाने लगी, वो छोटे छोटे कटोरे से पानी डालकर आग बुझाने की कोशिश  करने लगी। गली के लोग भी आ गए। किसी ने दरी  डाला, किसी ने पानी और आग बुझा दिया। बापू बाहर भाग गया। बगल वाली  काकी माँ को अस्पताल ले गयी। कुछ दिन अस्पताल में रहकर माँ  वापस घर आ गयी। पर बेहद कमजोर हो गयी थी। वह ठीक  से चल भी नहीं पाती। नौ साल की उम्र  में घर का सारा भार उस पर आ पड़ा । माँ  जिनके यहाँ काम करती थीं वो शर्मा मालकिन एक दयालु महिला थीं। उन्होंने छोटे छोटे कामों के लिए मालती को रख लिया 

अब मालती सुबह उठती , घर का सारा काम करती। घर में जो भी राशन पड़ा होता आटा , चावल  बना कर रख देती। , कभी कभी कुछ भी नहीं होता। तो बगल के बनिए की दूकान से उधार डबल रोटी लाकर रख देती। उसमे से थोडा सा निकाल कर माँ के तकिये के पास छुपा देती .वरना पता था, दोनों भाई ,माँ   के लिए कुछ नहीं छोड़ेंगे। बाहर से बाल्टी में पानी भर भर कर लाती, माँ  को नहलाती,स्टूल पर खड़े होकर उनके लम्बे बाल धो देती  उनके कपडे साफ़ कर देती।  कुछ ही दिनों में छलांग लगा कर एक लम्बी उम्र पार कर ली थी, मालती ने। .माँ  आंसू पोंछती रहती। मैं किसी काम की नहीं, मर जाती तो अच्छा होता .वो भी साथ में रोने लगती तो माँ  चुप हो जातीं। इतना काम करने के बावजूद भी वो खुश रहती क्यूंकि घर में शान्ति थी। बापू पुलिस के डर  से उन्हें छोड़कर भाग गया था . मालती ,भगवान  से मनाती, वो कभी लौट कर ही  न आये।

लेकिन भगवान् ने उसकी नहीं सुनी।
करीब  एक साल के बाद एक रात बापू धड़धडाता हुआ घर में  घुस आया, "बहुत मजे कर रहे हो, तुमलोग मेरे बिना ?? तू मरी नहीं, अब तक ?? कितना कमाती है तेरी बेटी, ला पैसा ला। "

"इतनी छोटी उम्र में इतना काम  कर रही है, पूरा घर संभाल रही है, उसे तो छोड़ दे, "माँ  ने कराहते हुए कहा। 

"जुबान लड़ाती है।"कहता वो माँ की तरफ बढ़ा ही था कि वो बीच में आ गयी, "बापू बस बीस रूपया है, ले लो पर माँ को मत मारो।।"
"ला, जल्दी ला और वो थोड़ी सी जमा पूंजी बापू लेकर चलता बना 

माँ जो थोड़ी ठीक होने लगी थी, सब्जी काट देतीं, चावल बीन देतीं। किसी तरह खिसक कर दरवाजे के पास  बैठने लगी थी। बापू के आने के बाद ही फिर से  बीमार पड़ गयी। 

शर्मा मालकिन को बताया तो वे कहने लगीं, "सदमा लग गया है तेरी माँ को, डर गयी है बापू को  देखकर ।"
माँ  की सेहत दिन ब दिन गिरती गयी, उसने खाना -पीना छोड़ दिया और एक दिन उसकी मौत हो गयी। 

***

वह छोटे भाइयों को गले लगाकर बहुत रोई। बापू से उसे बहुत डर  लगता था। पर अच्छा था  
 बापू दिन भर गायब रहता,देर रात घर आता और थोड़ी बक झक के बाद शराब के नशे में सो
 जाता। उसने अब एक दो और घरों में काम करना शुरू कर दिया। वह मन लगाकर मेहनत  से काम करती। कभी किसी का कोई सामना नहीं छूती। साफ़ सुथरी रहती। सलीके से कपडे पहनती बाल बनाती, सभी मालकिन उसके काम से बहुत खुश रहतीं। अपनी बेटियों के चप्पल, कपडे, उसके भाइयों के लिए भी पुराने शर्ट -पैंट दे देतीं। 

दिन गुजर रहे थे। कुछ दिन से बापू बड़े प्यार से बातें करता  घर में डांट डपट नहीं करता। उस से पैसे भी नहीं मांगता। उसे थोडा आश्चर्य हो रहा था। एक दिन बापू दो आदमियों के साथ आया।
 उस से कहा, "पानी ला ..चाय बना।"
 उसने डरते डरते चाय बना कर दे दिया। पर गौर कर रही थी, चाय बनाते हुए भी वे दोनों आदमी  उसे गौर  से देख रखे थे। दुपट्टे से उसने खुद को जितना हो सकता था, ढक लिया। उसे लगा बापू शायद उसकी शादी करने की सोच रहा है। वो तो कभी नहीं करेगी शादी। उसे कमा कर पैसे नहीं लाने और पति से मार नहीं खानी । उसकी बिरादरी में सब ऐसा ही करते हैं।

चाय पीने के बाद, बापू उन आदमियों के साथ बाहर चला गया। थोड़ी ही देर बाद उसका छोटा भाई  दौड़ता हुआ घर में  आया। 

"दीदी, बापू तुझे उन आदमियों के हाथों बेच रहा है"

"क्या  "आश्चर्य से उसका मुहं  खुला रह गया।

"हाँ .. दीदी, उस आदमी ने बापू को बड़े बड़े नोट दिए हैं। मैं अँधेरे में से छुप कर सब देख रहा था। और उसने कहा कि  बाकी पैसे लड़की को ले जाने आऊंगा तब दूंगा।"
अब  वो क्या करे  उसका दिमाग तेजी से चलने लगा। उसने दोनों भाइयों को पास बिठाया और कहा,"देखो शर्मा मालकिन की बहन आयी थी  बम्बई से वे मुझसे कह  रही थीं, साथ चलने को, उनके यहाँ बम्बई में काम करने के लिए। मैं नहीं गयी कि  तुमलोगों का ख्याल कौन रखेगा। पर अब अगर नहीं गयी तो बापू मुझे बेच देगा, तुम दोनों बड़े हो गए हो , अब अपना ध्यान रख सकते हो .मैं शर्मा मालकिन को हाँ बोल देती हूँ।"

दोनों भाई रुआंसे हो गए। छोटा भाई तो डर कर उस से लिपट गया, 'ना दीदी मुझे भी अपने साथ लेती जाओ।।"

चौदह साल के बड़े भाई ने बड़े-बुजुर्ग सा समझाया , "नहीं दीदी को जाने दे छोटे। जब हम और बड़े हो  जायेंगे अच्छा कमाने लगेंगे तो अलग घर में रहेंगे फिर दीदी को बुला लेंगे। "


उसका मन भर आया। पर यह कमजोर पड़ने का समय नहीं था। उसने तेजी से अपनी चीज़ें इकट्ठी करनी शुरू कर दीं। बापू का क्या ठिकाना , उसे सुबह सुबह ही निकल जाना होगा, शर्मा मालकिन बहुत भली हैं।जबतक बम्बई  जाने का इंतजाम नहीं हो पाता । वे उसे अपने घर में  रहने की इजाज़त दे देंगीं। काम में देर हो जाने पर कितनी बार तो कहती हैं, "रुक जा रात को यहीं।'वो उसकी मुश्किल जरूर समझेंगी।
शर्मा मालकिन तो बापू की बात सुनते ही आग बबूला हो गयीं। उसके कुछ कहने से  पहले ही कहा, "अब तू उस घर में पैर मत रखा रखना, यहीं रह मेरे पास। पीछे आँगन  में जो कमरा है, उसे साफ़-सूफ करके उसी  में रह जा। अब उस राक्षस के घर में मत जा "

उसने बताया कि यहाँ  रहना ठीक नहीं होगा । बापू शायद आपसे भी झगडा करे। मुझे शेफाली दीदी के यहाँ बम्बई  भेज दीजिये। वो जब यहाँ आयी थीं तो बार बार कहती थीं  न , "दीदी इसे मुझे दे दो।।"
"हम्म ये ठीक रहेगा, शेफाली के पास रहेगी तो मुझे भी चिंता नहीं होगी। वो तो कई बार कह चुकी है। आज ही उसे फ़ोन करती हूँ। पर तुम चिंता मत करो।""
शर्मा मालकिन का माँ का सा स्नेह देखकर उसका मन पिघल गया। अगर भगवान एक  तरफ से कष्ट देता है तो दूसरी तरफ से कई हाथ उस कष्ट से बचाने के लिए भी देता है। 

दो दिन बाद ही नीलिमा दीदी के यहाँ जाने के लिए शर्मा मालकिन ने उसे बम्बई  की ट्रेन में लेडीज़ कूपे में  बिठा दिया। आस-पास वालों को उसका ख्याल रखने को कह दिया अपना फोन नंबर भी दे दिया ताकि वो जब चाहे भाइयों से बात करती रहे। 

नीलिमा दीदी उसे स्टेशन  पर लेने आयी थीं। नीलिमा दीदी भी शर्मा मालकिन की तरह ही दिल की बहुत अच्छी थीं। उसका बहुत ख्याल रखतीं पर उसे उनके घर का माहौल रास नहीं आता। शेफाली दीदी के पति फिल्मो में कुछ करते थे। हमेशा उनके यहाँ लोगों की भीड़ लगी होती। देर रात तक पार्टियां होतीं। दिन- रात  का कोई भेद ही नहीं होता। अजीब अजीब से लोग उनके घर आते, फटी जींस वाले ,लम्बे बालों वाले, लगातार सिगरेट फूंकते हुए। सबलोग शराब पीते, देर रात तक उनके ठहाके गूंजते। उसे बहुत अजीब सा लगता . कई लोग कभी-कभी उसे घूर कर भी देखते, उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगता। वो इस माहौल  से निकल जाना चाहती थी। 
वो जब सब्जियां लेने जाती तो पास की एक आंटी भी अक्सर मिलतीं  . वो उस से बड़े प्यार से बातें करतीं और एक दिन उसने अपने मन की उलझन उनके सामने रख दी और पूछ लिया , "आप मुझे कहीं और काम दिलवा दीजियेगा ?" 

उन्होंने उसकी समस्या समझी और कहा, "कोशिश करेंगे " 

और एक हफ्ते बाद ही वे रास्ते में उसके इंतज़ार में ही खड़ीं  थीं। उनकी एक सहेली को पूरे दिन के लिए एक लड़की चाहिए थी। सहेली और उसके पति दोनों नौकरी करते थे , उनकी एक छोटी सात साल की बेटी थी , जिसकी देखभाल के लिए उन्हें कोई अच्छी सी लड़की चाहिए थी। आंटी बार बार अपनी सहेली के अच्छे  स्वभाव की बात कर रही थीं। 

मालती को भी ऐसा ही शांत माहौल चाहिए था। इस घर में आकर उसे बहुत अच्छा लगा। शालिनी प्यारी सी शांत सी लड़की थी। लड़की की माँ  जिन्हें वो शोभा दीदी कहा करती थी। वे भी मीठा बोलने वाली थीं। किसी बात पर डांटती नहीं। घर का सारा  भार उसे सौंप दिया था। वे सुबह सुबह ऑफिस चली जातीं, शाम में घर वापस आतीं, पूरे घर की जिम्मेवारी मालती की ही थी अब । वह भी बहुत मन लगाकर काम करती। शोभा दी भी उसके काम में मीन-मेख नहीं निकालतीं। उसे अपनी बेटी जैसा ही मानती .  बेटी के लिए चॉकलेट , आइसक्रीम  लातीं  तो उसके लिए भी लातीं । शनिवार रविवार जब उनकी छुट्टी रहती तो  घर के  कामों में भी हाथ  बटाती । शोभा दी के पति अपने काम से मतलब रखते अखबार पढ़ते, फोन पर बात करते या फिर कंप्यूटर पर कम करते रहते । वे अक्सर टूर पर भी जाया करते . 

दो साल के बाद शोभा  दी का ट्रांसफर एक छोटी सी जगह पर हो गया। वहां उनकी बेटी शालिनी के लिए अच्छे स्कूल नहीं थे। शोभा  दी नयी जगह पर चली गयीं। उनके पति भी अक्सर टूर पर चले जाते . पूरा घर मालती अकेले संभालती। सीमा दी पूरे घर के खर्च के पैसे उसके हाथों में दे देतीं . मालती एक एक पैसे का हिसाब रखती । घर की देखभाल करती । शालिनी का ख्याल रखती .

मालती बहुत निडर और हिम्मती भी थी। किसी से नहीं डरती .  एक बार बिल्डिंग के वाचमैन ने कुछ छींटाकशी की उसपर, मालती ने वहीँ चप्पल निकाली और दो चप्पल लगा दिए। पूरे इलाके में यह बात फ़ैल गयी । अब आस-पास की बिल्डिंग के वाचमैन , ड्राइवर सब उस से डर कर रहते। वो नीचे सब्जी भी  लेने भी जाती तो सब उस से सहम कर नज़रें नीची कर के बात करते। मालती भी यह  दिखाने के लिए कि वह किसी से नहीं डरती , सबसे बहुत रूखे स्वर में बात करती। मुश्किल ये हो गयी कि यह उसकी आदत में शुमार हो गया।
अब वह घरवालों से भी रुखा ही बोलती। खुद को घर की मालकिन समझती, क्यूंकि शोभा दी महीने में एक बार ही आतीं। घर के  सारे निर्णय वही लेती, कौन से परदे लगेंगे, कौन सी चादर बिछेगी, कौन सी चीज़ कहाँ कहाँ रखी जायेगी शोभा दी को ये सब अच्छा नहीं लगता। पर उसकी ईमानदारी , काम के प्रति लगन, अपना घर समझकर काम करना , पूरी जिम्मेवारी उठाना, शालिनी को बहुत सारा प्यार देना, ये सब देखकर वे चुप रहतीं।

अब मालती के पास काफी समय रहता। शालिनी ने उसे पढना-लिखना सिखाना शुरू किया। उसे भी पढने में बहुत दिलचस्पी हो गयी। जरा सा भी खाली वक़्त मिलता तो वह किताबें लेकर बैठ  जाती। शालिनी भी अच्छी टीचर थी, उसे बहुत मन से पढ़ाती। स्कूल जाती तो उसे होमवर्क  देकर जाती। और अगर वो होमवर्क नहीं करती तो उसे सजा देने के लिए शालिनी  खुद खाना नहीं खाती। फिर उसे शालिनी का घंटों मनुहार करना पड़ता। अब वो जल्दी से घर का  काम ख़त्म कर होमवर्क करने लगी। धीरे धीरे वह अंग्रेजी के कॉमिक्स, चंदा मामा , चम्पक से शुरुआत कर , पत्रिकाएं , अखबार सब पढने लगी। शालिनी के साथ अंग्रेजी के प्रोग्राम देखते हुए वो अच्छी तरह अंग्रेजी समझने लगी। शालिनी भी उसे सिखाने के लिए ,उस से ज्यादातर अंग्रेजी में ही बात करती। अब मालती बाहर जाती तो अंग्रेजी में ही बोलने की कोशिश करने लगती। शोभा  दी की सहेलियां, या उनके पति के दोस्त घर आते तो उसे देख दांग रह जाते। कई लोग तो उसे घर का सदस्य ही समझ लेते। 

जब तीन साल बाद शोभा दी का ट्रांसफर वापस इस शहर में हो गया तो शोभा दी ने मालती  से कहा कि  'अब वो उसकी शादी कर देना  चाहती हैं '. उसकी रूह काँप गयी। उसके  अपने माता-पिता का जीवन आँखों के सामने आ गया और गली के और लोगों का जीवन भी। महिलायें हाड तोड़ कर कमाती और उनके पति शराब के नशे में उन्हें मारते भी और उनके पैसे भी छीन कर ले जाते। उसे नहीं चाहिए थी ऐसी ज़िन्दगी। और उसने शोभा  दी से साफ़ कह दिया, उसे शादी नहीं करनी ,अगर वे उसे नहीं रखना चाहतीं तो वह दूसरी जगह कोई काम देख लेगी पर आजीवन शादी नहीं करेगी  । ये उसका अंतिम फैसला है।


शोभा दी ने उसकी बात मान ली । मालती बीच बीच में अपनी  शर्मा मालकिन के यहाँ फोन करके भाइयों का हालचाल लेती रहती। पता चला दोनों भाई एक कारखाने में नौकरी करने लगे हैं और पिता से अलग रहते हैं। दोनों ने शादी भी कर ली। उसे बहुत बुला रहे थे, 'एक बार आकर मिल जा'। शोभा दी ने भी ख़ुशी ख़ुशी उसे छुट्टी दे दी और  भाइयों के लिए ढेर सारे उपहार भी खरीद कर दे दिए। अब तक का उसका सारा वेतन भी जोड़ कर दे  दिया।

वहां जाकर उसने सारे पैसे भाइयों को दे दिए। उपहार तो दिए ही,  भाभियों को उसके जो भी कपडे पसंद आते, वो दे देती। जब लौटने का समय आया तो उसने पाया उसके पास बस दो जोड़ी कपडे बचे हैं। फिर भी उसने सोचा, उसके लिए काफी हैं। अभी जायेगी तो शोभा दी खरीद ही देंगीं और दो महीने के बाद उसके पास भी उसके वेतन के काफी पैसे जमा हो जायेंगे . वह जो चाहे खरीद लेगी। पर जब वापस काम पर आयी उसके दस दिन बाद ही उसकी भाभी ने एक पत्र भेजा अब  खुद लिखा या किसी और से लिखवा कर भेजा पर पत्र   का मजमून था कि  "'आप इतने दिन यहाँ रहीं, आपको अच्छा खिलाने-पिलाने के लिए हमें क़र्ज़ लेना पड़ा। अब उनके पैसे लौटाने हैं। आप पैसे भेज दो।"उसने वो पत्र  फाड़ कर फेंक दिया और फिर भाइयों के घर कभी  नहीं गयी। शोभा दी का घर ही ,अब उसका घर था।

 शालिनी बड़ी होती गयी। उसने कॉलेज पास किया और नौकरी भी करने लगी। उसकी शादी हो गयी। मालती बहुत अकेलापन महसूस करने लगी और उसी दरम्यान एक हादसा हो गया . सीढियों से फिसल कर उसने अपनी कमर की  हड्डी तुडवा बैठी। शोभा दी ने उसके इलाज़ का पूरा खर्च उठाया। हॉस्पिटल में उसके साथ रहीं। शालिनी ने भी ऑफिस से छुट्टी लेकर ,उसकी अच्छी देखभाल की . घर पर भी उसे पूरा आराम दिया। पर पूरी तरह ठीक होने के बाद भी अब वह पहले की तरह काम नहीं कर पाती। झुक नहीं पाती। जल्दी जल्दी काम नहीं निबटा पाती । मालती को बहुत बुरा लगने लगा। उसे लगने लगा , वो शोभा दी पर बोझ बन गयी है। मालती बार-बार उनसे मिन्नतें करने लगी  कि अब उसे छुट्टी दे दें . अब वो पहले की तरह उनके काम नहीं आ पाती। उसकी इलाज़ पर भी इतना खर्च हो गया है। वो कहीं और काम  करके अपना जीवन गुजार लेगी। उनपर बोझ  नहीं बनना चाहती  

पर उसने नाजुक वक़्त में शोभा दी की गृहस्थी संभाली थी ,उनकी अनुपस्थिति में उनकी बच्ची की प्यार से देखभाल की थी।  ये वो नहीं भूल पायीं थीं और उन्होंने एक छोटा सा फ़्लैट खरीद कर मालती को रहने के लिए दे दिया। शालिनी और शोभा दी ने फ़्लैट में सारा सामान भी जुटा दिया। उसे हर महीने खर्च के पैसे भी देतीं। शालिनी की गोद में एक नन्हा मुन्ना भी आ गया। मालती रोज शालिनी के घर जाकार उसके बच्चे की देखभाल करती  , घर के कामों में हाथ बंटाती। पर यह सब वह अपनी ख़ुशी से करती । उस पर किसी किस्म की बाध्यता नहीं थी।  इस छोटे से घर में वो अब अपनी मर्जी की मालकिन थी। 

चाय कब की ख़त्म हो चुकी थी। बाहर अँधेरा घिर चुका था। मालती सोचने लगी, कितने भी कष्ट आयें जीवन में अगर अपने कर्म अच्छे रखो तो अच्छे लोगों का साथ मिल ही जाता है।  अगर उसने सही समय पर सही निर्णय लेने की हिम्मत नहीं दिखाई होती अपना काम  मेहनत ,लगन और ईमानदारी  से नहीं किया होता तो आज वह इस शांतिपूर्ण जीवन की हक़दार नहीं होती।

उस दिन मालती को पार्क में रोज आ कर बैठने  वाले एक उम्रदराज़ अंकल ने एक शेर सुनाया था ,उसे पूरा समझ तो नहीं आया पर अपने पर सही लगा 

"दुःख  सबके मश्तरक हैं पर हौसले  जुदा 
कोई बिखर गया तो कोई मुस्करा दिया "

ख़ामोश इल्तिज़ा

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तन्वी बालकनी में खड़ी सामने फैले स्याह अँधेरे को घूंट घूंट पीने की कोशिश कर रही थी ,सोचती कुछ ऐसा जादू हो कि वो स्याह अँधेरे में गुम हो जाए और फिर कोई उसे देख न पाए. तभी मोबाईल पर मैसेज टोन बजावो चेक करने नहीं गयीपता था सचिन का मैसेज होगा, "पढ़ लिया न मेरा मैसेज ,अब जरा मुस्करा दो . सचिन का पहला मैसेज पढने के बाद ही बालकनी में आयी थी. और पता था वो दूसरा मैसेज यही भेजेगा . सचिन उसके ऑफिस में हाल में ही आया है ,पर अक्सर टूर पर रहता है. पूरे देश में घूमता रहता और जहां भी जाता है वहां से उसे मैसेज जरूर करता है, कुछ ख़ास नहीं बस उसकी खिडकी से जो भी नज़ारा उसे दिखता है ,वो लिख भेजता है .कभी लिखता , ‘बर्फीली चोटियों पर चाँद की किरणें ऐसे पड़ रही हैं कि सबकुछ नीले रंग में नहा उठा  है ,काश तुम देख पाती कभी राजस्थान के सैंड ड्यून्स का वर्णन करता , कभी काले घुमड़ते बादलों का ,कभी दहकते गुलमोहर का तो कभी पछाड़ खाती समुद्र की लहरों का . एक बार ताजमहल देखने गया तो सिर्फ इतना मैसेज लिखा...वाह ताज !!  ताजमहल को देखा और तुम याद आयी वो किसी मैसेज का जबाब नहीं देती .और सचिन ये बात जानता था .एक बार मैसेज में ही लिखा था , ‘मेरा फोन तो उठाओगी नहीं पर जानता हूँ मैसेज जरूर पढ़ोगी और पढ़ कर मुस्कुराओगी भी ‘.

सचिन बहुत ही जिंदादिल और हंसमुख लड़का था . जितने दिन भी ऑफिस में रहता रौनक आ जाती ऑफिस में. लडकियां तो उसके आस-पास ही मंडराती रहतीं. लड़के भी उसके अच्छे दोस्त थे. अक्सर शाम उन सबका  किसी पार्टी का प्लान बन जाता. वो हमेशा की तरह बस अपने काम से काम रखती और फिर ऑफिस के बाद सीधा घर . शुरू में सबने उसे भी शामिल करने की कोशिश की थी. पर हर बार उसकी ना सुन कर उसे अपने हाल पर छोड़ दिया था .सचिन ने भी हर संभव कोशिश की ,साथ चाय कॉफ़ी लंच का आग्रह ,उसे घर छोड़ देने की पेशकश पर हर बार वो सिर्फ हल्का सा मुस्कुरा कर सर हिला कर ना कर देती . एक बार सचिन ने उसे कह ही दिया , “आपको पता है, आपने अपने चारो तरफ एक  दीवार उठा रखी है, पर यह दीवार दूसरों  को बाहर रखने से ज्यादा आपको अन्दर बंद रखेगी...बहुत घुटन होगी...एक छोटी सी खिड़की तो खोलिए ,थोड़ी ताज़ी हवा आने दीजिये
आपकी बातें मेरी बिलकुल समझ में नहीं आ रहीं...ये काम निबटा लूँ ज़रा कब से पेंडिंग पड़ा है और तन्वी ने कंप्यूटर स्क्रीन पर नज़रें गड़ा दीं.
कोई बात नहीं ,हम भी छेनी हथौड़ा लेकर इस दीवार को गिरा कर ही रहेंगे .उसकी तरफ एक मुस्कुराहट उछालता सचिन चला गया वहाँ से .

वो बेतरह डर गयी , अगर सचिन ज्यादा से ज्यादा टूर पर नहीं होता तब शायद वो रिजाइन ही कर देती. अब किसी के करीब जाने या किसी को अपने करीब आने देने की हिम्मत नहीं बची थी उसमे. दो दो बार धोखा खा कर उसका दिल छलनी हो चुका था.

*** 

सिड तन्वी की बिल्डिंग में रहता था और उसके ही स्कूल में था . कब साथ खेलते पढ़ते उनके बीच प्रेम का अंकुर फूटा, अहसास भी नहीं हुआ. पर धीरे धीरे वो अंकुर एक पौधे का रूप ले चुका था और उसमे फूल खिल आये थे, जिसकी खुशबु पूरी बिल्डिंग में फ़ैल गयी थी . सबको पता चल गया था , बात तन्वी के माता-पिता तक भी पहुंची .लेकिन तन्वी की शादी को लेकर उसके माता- पिता ने बड़े बड़े ख्वाब बुन रखे . लम्बे बालों वाला, कलाई में ब्रेसलेट पहने ,हाथों पर टैटू बनवाये ,म्युज़िक को ही अपनी ज़िन्दगी समझने वाला सिड कहीं से भी उन सपनों पर खरा नहीं उतरता था .तन्वी ने हिम्मत दिखाई , ‘सिड के साथ भाग जाने को भी तैयार थी .पर सिड ने ही कदम खींच लिए .उलटा उसे समझाने लगा , ‘हम कहाँ रहेंगे ,कैसे घर चालायेंगे ,मेरे कैरियर  का क्या होगा?’ तन्वी ने कहा भी, ‘वो नौकरी कर लेगी, सिड आराम से अपना कैरियर बना सकता हैलेकिन सिड उलटा उसे समझाने लगा , “तुम कितना कमा लोगी कि हम अलग रह कर घर भी चला सकें और मैं अपने शौक भी पूरे कर सकूँ. एक गिटार की कीमत पता है?? और उसकी क्लासेज़ की फीस ?? मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है तन्वी...कितनी मिन्नतें करनी पड़ती हैं ,तब जाकर पापा पैसे देते हैं. अगर तुम्हारे पैरेंट्स नहीं मान रहे तो फिर हमें एक दुसरे को गुडबाय कह देना चाहिए

सिड की ये बातें सुनकर तन्वी ने फिर कुछ नहीं कहा, ‘उसे भीख में प्रेम नहीं चाहिए था ‘ .पर इस घटना ने पता नहीं उसके पैरेंट्स पर क्या असर डाला कि वे तन्वी की शादी के लिए जल्दबाजी मचाने लगे. चुपचाप रिश्तेदारों से मिलकर एक लड़का ढूंढा गया और मुम्बई से बहुत दूर वह इस शहर में ब्याह दी गयी. तन्वी के एतराज जताने पर माँ से सुनने को मिला, “पहले ही बहुत गुल खिला चुकी हो...इसके पहले कि हमारे मुहं पर कालिख पुते, अपना घर –बार संभालो “.

तन्वी को भी अपने पैरेंट्स पर बहुत गुस्सा आया और उसने भी सोच लिया..ठीक है वह ,अब अपना घर बार ही संभालेगी ,पलट कर उन्हें नहीं देखेगी उसने पूरे तन-मन से अपने पति को अपनाया . पर उसकी किस्मत ने यहाँ भी धोखा दिया. उसके पति को एक साथी नहीं एक केयर टेकर चाहिए थी. उनकी ज़िन्दगी शादी से पहले जैसी चल रही थी, उसमे शादी के बाद भी कोई बदलाव नहीं आया . वही ऑफिस के बाद दोस्तों के साथ समय बिताना . शनिवार की रात जमकर शराब पीना और फिर सारा सन्डे सो कर निकालना . अगर तन्वी कुछ कहती तो गालियाँ मिलतीं . एक बार तन्वी ने तेज आवाज़ में एतराज जताया तो पति ने हाथ भी उठा दिया . इसके बाद तन्वी सहम सी गयी , अपने माता-पिता से शिकायत की तो उन्होंने कहा , “वक़्त के साथ सब ठीक हो जाएगा थोड़ा बर्दाश्त करो पर वक़्त के साथ ठीक कुछ भी नहीं हुआ बल्कि पति और भी ढीठ हो गया .तन्वी के पति को खुद के एक छोटे शहर से होने का बहुत कॉम्प्लेक्स था .वे अक्सर तन्वी को बड़े शहर वाली , बॉम्बे वाली कहकर ताना दे जाते. फिर भी तन्वी इस शादी को कामयाब बनाने की कोशिश में जुटी रही. पर जब उसका मिसकैरेज हुआ और उसके बाद भी पति ने एक दिन भी छुट्टी नहीं ली, उसे हॉस्पिटल में छोड़ वैसे ही ऑफिस चला गया तब तन्वी बुरी तरह टूट गयी. उसे इस शादी से कोई उम्मीद नहीं बची.

दो तीन महीने तो वो डिप्रेशन में ही रही. फिर उसके बाद खुद को ही धीरे धीरे समेट कर ज़िन्दगी पटरी पर लाने की कोशिश करने लगी. रोज अखबार में नौकरी वाले कॉलम देखती,लाल निशान लगाती और बिना पति को बताये इंटरव्यू दे आती. पर कहीं उसे नौकरी पसंद नहीं आती कहीं क्वालिफिकेशन के अभाव में वो रिजेक्ट कर दी जाती. कहीं दोनों पसंद आते तो सैलरी इतनी कम होती कि इतना मर खप कर नौकरी करना उसे नहीं जमता. फिर उसे इस कंपनी में मनलायक नौकरी मिली.

पति से पूछा नहीं बस उन्हें बताया . सुनने को मिला, “हमारे खानदान की औरतें नौकरी नहीं करतीं

उसने पलट कर तुरंत ही कहा और हमारे खानदान के पुरुष शराब पीकर औरतों को नहीं पीटते
शायद नयी जॉब ने ही उसे इतना कहने की हिम्मत दे दी थी . पर पति का इगो बहुत हर्टहुआ और वे रोज सुबह शाम ताने कस कर बदला लेने लगे , तैयार होते देख व्यंग्य करते ,”इतना सजा धजा किसके लिए जा रहा है ,बॉस  बहुत हैंडसम है क्या ?”
रोज देर से आने वाले पति अब जल्दी आने लगे थे . जिस दिन उसे देर हो जाती सुननेको मिलता, “ ऑफिस के बाद कॉफ़ी-शॉफी पीने चली गयी होंगी , नौकरी बचाए रखने को ये सब करना पड़ता है...रोज देखता हूँ मैं, यह सब  “

अपने होंठ सिल कर वो सारे काम किये जाती. अपने माँ-बाप के मन का हाल जानती थी . उन्हें अगर पता चल जाता कि उसके पति को उसका जॉब करना पसंद नहीं तो शायद जबरदस्ती छुड़वा देते. इसलिए बिना पति के किसी ताने  का जबाब दिए वह सारे काम करती और ज्यादा से ज्यादा उनसे दूर रहती. बस ऑफिस का काम ही उसके लिए जीने का सहारा था. उसने बहुत मन लगाकर काम सीखा. ऑफिस के पौलिटिक्स, गॉसिप से भी दूर रहती, मेहनत से काम करती. इस वजह से ऑफिस में उसकी बहुत इज्जत भी थी .

कभी कभी तलाक लेने के विषय में सोचती भी पर फिर खुद को ही समझा देती, “क्या फर्क पड़ जाएगा तलाक लेने से ,आज भी एक छत के नीचे अजनबी की तरह ही रह रहे हैं, आगे भी अजनबी ही रहेंगे पर एक दिन वो घर की चाबी ले जाना भूल गयी थी. ऑफिस में ऑडिट चल रहा था, उसे घर आने में देर हो गयी. कई बार घंटी बजायी पर उसके पति ने दरवाजा नहीं खोला. पूरी रात उसने सीढियों पर बैठ कर बिताई . और वहीँ बैठे बैठे एक निर्णय ले लिया. सुबह दूध वाले, पेपर वाले न देख लें इस डर से पति ने दरवाजा खोल दिया . वह अपने कमरे में जाकर सो गयी . उस दिन ऑफिस से छुट्टी ले ली. और सारा दिन घर ढूँढने में बिताया . शाम को सामान बाँधा पति के आने का इंतज़ार किया पति का रिएक्शन था ,“ हाँ ,ठीक है..जाइए जाइए..मैं भी डिवोर्स दे दूंगा..दूसरी शादी करूंगा

आप शौक से दूसरी तीसरी जीतनी मर्जी हो शादी कीजिये मुझे आपके डिवोर्स पेपर का इंतज़ार रहेगा “  कह वह बाहर निकल आयी.

उसके बाद से ही उसकी ज़िन्दगी एक शांत झील की तरह हो गयी है. सीमित दायरे में कैद...न उसमें कोई तरंग उठती है न किनारे  टूटने का कोई डर होता है. ऑफिस से आना देर रात किताबें पढना , गज़लें सुनना .इतना सुकून शायद उसकी ज़िन्दगी में कभी रहा भी नहीं. पर जब से सचिन ने ऑफिस ज्वाइन किया है वो लगातार इस शांत झील में कंकड़ फेंकता जा रहा  है. थोड़ी देर को तरंगें उठती हैं पर फिर झील की सतह वैसे ही शांत हो जाती है. पर अब झील के तल में इतने कंकड़ जमा हो गए थे कि उनकी चुभन , झील को तकलीफ दे रही थी .

***

सचिन भला लड़का था, तन्वी को उसका अटेंशन पाकर अच्छा लगता था.पर प्यार और शादी में दो बार धोखा खा चुकी तन्वी, सचिन को करीब आने देने से डर रही थी. उसे यह भी लगता, सचिन को उसके पास्ट के बारे में मालूम नहीं है, इसीलिए वह उसकी तरफ आकर्षित है. जैसे ही सचिन को सच्चाई पता चलेगी ,वह उस से खुद ब खुद दूर हो जाएगा ,इसीलिए वह सचिन से दूर दूर ही रहती पर सचिन के बार बार आते sms ने उसे उलझन में डाल दिया था. और उसने सचिन से मिलकर उसे सबकुछ साफ़ साफ़ बता देने का फैसला किया. उसे विश्वास था सचिन को उसके बारे में कुछ भी पता नहीं अगर वो अपना सारा पास्ट उसे बता देगी तो वो बात समझ जाएगा और फिर उस से दूर हो जाएगा . कुल जमा अपनी चौबीस साल की ज़िन्दगी में तन्वी ने इतना कुछ देख लिया था कि उसे अब अपनी ज़िन्दगी में और उथल-पुथल गवारा नहीं थे.

उसने सचिन को मैसेज किया , “कब वापस आ रहे हो टूर से ?”

वाsssऊ... कांट बीलीव, तुम पूछ रही हो...बस अभी एयरपोर्ट की तरफ निकलता हूँ , सुबह तक कोई न कोई फ्लाईट मिल ही जायेगी और फिर डेढ़ घंटे में आपके सामने हाज़िर
मजाक छोडो ..सच बताओ...तन्वी ने फिर से मैसेज किया .
आई शपथ...सच कह रहा हूँ
ठीक है मैं कल ऑफिस में पता कर लूंगी...
और इस बार सचिन ने मैसेज की जगह कॉल ही किया. थोड़ी देर फोन घूरती रही तन्वी फिर उठा कर जैसे ही हलोकहा, सचिन का चिंता भरा स्वर सुनायी दिया, “क्या बात है तन्वी...कुछ परेशानी है...मैं मजाक नहीं कर रहा ,सच में कल आ सकता हूँ “ 
दिल भर आया तन्वी का थोडा रुक कर बोली , कि कहीं आवाज़ का कम्पन पता न चल जाए . कोई परेशानी नहीं बाबा....बस ऐसे ही कुछ बात करनी है
आज तो मेरे सितारे खुल गए ...तुम्हे मुझसे बात करनी है ?? जो सामने देख कर भी मुहं घुमा लेती है आज उसे मुझसे बात करनी है...ओह!! सचमुच यकीन हुआ, खुदा है इस जहां में वरना मेरी दुआ कैसे क़ुबूल हो जाती...
अब ये डायलॉगबाज़ी बंद करो...तुम्हारे आने के बाद कॉफ़ी पर मिलते हैं..चलो गुडनाईट
अरे !! इतनी जल्दी क्या गुडनाईट...अभी तो बात की शुरुआत है..फिर मुलाक़ात होगी और फिर...
मैं सोने जा रही हूँ..गुडनाईट
मैं परसों आ रहा हूँ तन्वी...सीधा ऑफिस ही आउंगा उसके बाद मिलते हैं...गुडनाईट एन यू प्लीज़ टेक केयर...बाय इस बार सचिन का स्वर गंभीर था .
यू टू...बाय तन्वी ने फोन रख दिया पर अब आँखों में नींद कहाँ थी. पहली बार सचिन से इस  तरह खुलकर बात हुई थी और दोनों ही अपनेआपतुम पर आ गए थे . शायद उसके लगातार आते मैसेज ने आप वाली अजनबियत हटा दी थी .देर रात तक ताने बाने बुनती रही कि कैसे बात की शुरुआत करेगी क्या क्या बताएगी, सचिन का क्या रिएक्शन होगा.

सचिन दोपहर बाद ऑफिस में आया . बाल बिखरे हुए थे . चेहरे पर थोड़ी परेशानी की लकीरें दिख रही थीं अब वे सचमुच थीं या तन्वी की कल्पना कहना मुश्किल था. दूर से ही उसकी तरफ बड़ी गहरी नज़रों से देखते हुए बहुत ही अपनेपन से मुस्कुरा दिया .लेकिन उसकी डेस्क के पास नहीं आया ,शायद उसकी असहजता भांप रहा था . छः बजे के करीब उसके पास आकर धीरे से बोला, “कहीं इरादा बदल तो नहीं दिया ?”
उसने भी मुस्करा कर सर हिला कर कह दिया .
फिर कहाँ चले कॉफ़ी के लिए
वो बीन्स एंड बियोंड ‘ है न ..ऑफिस से ज्यादा दूर भी नहीं.
दूर के लिए कोई बात नहीं, कार लेकर आया हूँ...अब इतनी मुश्किल से मौक़ा मिला है ,जितनी देर का साथ मिल जाए ,घर भी  छोड़ दूंगा ..इसी बहाने घर भी देख लूंगा...फिर तो जब मन हुआ डोरबेल बजायी जा सकती है शरारत से मुस्कराया सचिन .
तन्वी ने त्योरियां चढ़ाईं तो हंस दिया  ,”मजाक था बाबा ..समझा करो .अब सब समेटो मैं बाहर इंतज़ार कर रहा हूँ .
सचिन के जाने के बाद तन्वी सोचती रह गयी, पहली बार ऐसे भरपूर नज़र डाली थी सचिन के चेहरे पर सचमुच दिलकश है मुस्कान उसकी..इसीलिए लडकियां मरी जाती हैं..फिर कंधे उचका दिए..उसे क्या , आज तो उसे सब बता देगी फिर सच जानकार सचिन खुद ही उस से सौ फीट की दूरी रखेगा

सचिन कार में वेट कर रहा था .जगजीत सिंह की नज़्म बज रही थी, “बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी...”तन्वी कहने वाली थी ,’मेरी फेवरेट नज़्म है यह ‘ फिर खुद को ही झिड़क दिया, “वह दोस्ती बढाने नहीं, ख़त्म करने आयी थी. फिर एक ठंढी सांस भी ली, “अब बात दूर तलक क्या जायेगी...हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेगी .सचिन ड्राइव करते हुए चुप सा था. शायद उसके भी मन में चल रहा था, क्या कहने वाली है वह रास्ते में बस ट्रैफिक मौसम की बाते होती रहीं. जब बीन्स एंड बियोंडनिकल गया तो तन्वी ने उसकी तरफ देखा .सचिन ने सड़क पर नज़रें जमाये हुए ही कहा, ‘यहाँ बहुत भीड़ होती है...आगे चलते हैं न सुकून से दो पल बैठेंगे

अच्छी जगह चुनी थी सचिन ने, बड़े बड़े आरामदायक चेयर्स थे . हलकी सी रौशनी थी और लोग भी बहुत ज्यादा नहीं. वो भी पैर फैलाकर रिलैक्स होकर बैठी थी . बस बात कैसे शुरू करे यही सोच रही थी . 
सचिन ने मेन्यु कार्ड पर नज़र घुमाते हुए पूछा , “क्या लोगी...
बस कॉफ़ी...
चिली टोस्ट ट्राई करो बड़ी अच्छी होती है यहाँ की"कहते उसने चिली टोस्ट और और कॉफ़ी ऑर्डर कर दिया था .तन्वी ने बात जारी रखने को कहा, ‘अक्सर आते हो यहाँ ?”
अब कहाँ वक़्त मिलता है..महीनों बाद आया हूँ, कॉलेज के दिनों में अक्सर आता था
गर्ल फ्रेंड्स के साथ ?” उसने छेड़ा
हाँ, गर्लफ्रेंड्स के साथ...जलन हो रही है ? “ सचिन ने भी हंस कर उसी सुर में जबाब दिया .
मुझे क्यूँ जलन होगी ? “,उसने तेजी से कहा .
हाँ, तुम्हे क्यूँ जलन होगी...ऐसा है ही क्या हमारे बीच सचिन कुछ गंभीर हो गया था .
तन्वी को सूझा नहीं क्या जबाब दे ..अच्छा हुआ उसी वक़्त कॉफ़ी आ गयी.
टोस्ट कुतरते कॉफ़ी के घूँट भरते दोनों ही चुप थे सचिन शायद इंतज़ार कर रहा था ,वो अपनी बात शुरू करे
आखिर तन्वी ने बात शुरू की , “सचिन तुम्हारे एस.एम.एस आते हैं..मैं रिप्लाई नहीं करती...मुझे अच्छा नहीं लगता
मुझे भी ये अच्छा नहीं लगता ...सचिन ने कप रखते हुए उसकी आँखों में सीधा देख मुस्कराते हुए कहा. 
वो थोड़ी असहज हो गयी लेकिन फिर संभाल लिया खुद को , “ देखो इसकी एक वजह है ...मैं सिंगल नहीं हूँ
ओह! आई सी...
नहीं मेरा मतलब सिंगल तो हूँ..पर वैसी सिंगल नहीं ...एक्चुअली आयम अ डीवोर्सी
सो ??”..सचिन ने कंधे उचका दिए
तुम्हे कोई फर्क नहीं पड़ता ???” उसे अचरज हुआ
क्या फर्क पड़ना चाहिए ...और ये बात मुझे पता है “ सचिन ने कंधे उचका दिए .
क्याsss ??..वो जैसे आसमान से गिरी . तुम्हे कैसे पता ??”
मैडम हमलोग इन्डियन हैं और हमारा फेवरेट टाईमपास है गॉसिप...याद नहीं पर किसी ने बहुत पहले ही बताया था
और तुम्हे लगा ये तो अवेलेबल है ,इसपर चांस मारा जा सकता है ?“ ये जानकार कि सचिन को ये बात पहले से पता है तन्वी को बहुत गुस्सा आ रहा था
व्हाssट ??..सचिन इतने जोर से चौंका कि थोड़ी कॉफ़ी उसके पैंट पर छलक ही गयी .
हाँ !! तुमने यही सोचा ये तो डीवोर्सी है...अकेली रहती है....इसके साथ टाईमपास किया जा सकता है ...रात बिरात मैसेज भेजा जा सकता है ऑफिस में उसके पीठ पीछे लोग उसकी बातें करते हैं ये जान उसे बहुत गुस्सा आ रहा था और वो इसका बदला सचिन से ले रही थी.
तन्वी..आयम सॉरी... आयम रियली रियली सॉरी...मैं तुम्हें कैसे यकीन दिलाऊं मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा...और मुझे भी नहीं पता तुम मुझे इतना अवॉयड करती थी फिर भी मुझे तुमसे बात करना ,अच्छा लगता था. पता नहीं तुम्हे देख कर क्यूँ लगता कि तुम एक शांत झील सी हो, एक सीमित दायरे में कैद जबकि तुम्हे एक चंचल नदी बनकर बहना चाहिए. मैसेज इसलिए भेजता कि कहीं भी कुछ अच्छा  देखता तो मुझे तुम्हारा ख्याल आ जाता. मन होता ,वो जगह तुम्हारे साथ देखूं, बस इतनी सी बात है तन्वी और कुछ नहीं
यही होता है... डीवोर्सी के साथ अवेलेबल का टैग अपने आप लग जाता है....इसीलिए मैं सबसे इतनी दूरी बना कर रखती हूँ और देखो तुम्हें भी मालूम था फिर भी तुम मेरे करीब आने की कोशिश करते रहे, मुझसे दोस्ती बढाते रहे तन्वी की आँखें छलछला आयीं .
सचिन कुछ कहने जा रहा था पर उसकी भीगी आँखें देख चुप हो गया , कुर्सी से पीठ टिका दी ...एक गहरी सांस ली...फिर पूछा , “तो तुम क्या चाहती हो...मैं तुमसे दूर रहूँ ??”
हाँ ..आँखों में जलते हुए आंसू लिए हुए जैसे बच्चों की तरह एक जिद से कहा .
ठीक है डन.... अब नो मैसेजेस...नो बातचीत.. दूर रहूँगा, तुमसे ..इतनी बड़ी बात कह दी...बहुत हर्ट किया है मुझे...ऐसा कैसे सोच लिया तुमने...सचिन ने हैरानी से सर हिलाया
क्यूंकि यही सच है ...वो कड़वी होती जा रही थी .
फिर सचिन ने वेटर के बिल लाने का भी इंतज़ार नहीं किया काउंटर पर जाकर बिल चुकाया . वो भी साथ ही उठ आयी.
 बाहर निकल कर तन्वी ने कहा ,”मैं ऑटो ले लूंगी..
ओके.. कहता सचिन आगे बढ़ कर ऑटो रोकने लगा . ऑटो में बैठते हुए , सचिन की तरफ देखने की हिम्मत नहीं हुई तन्वी की ..बाय भी नहीं कहा...उसकी आँखें तो गंगा जमुना बनी हुई थीं.
घर आकर भी देर तक रोती रही . पर समझ नहीं पा रही थी ,वो तो सचिन को खुद से दूर रहने के लिए कहने गयी थी. सचिन ने उसकी बात मान भी ली ,फिर भी क्यूँ उसके आंसू यूँ उमड़े चले आ रहे थे .
***

सचिन ने अपना वायदा निभाया भी. उसकी तरफ कभी देखता भी नहीं , ऑफिस में भी थोडा बुझा बुझा सा रहता, लोगो ने भी नोटिस किया तो उसने टाल दिया..अरे, इतना टूर रहता है,यार ...आज यहाँ, कल वहाँ थक जाता हूँ पर अब तन्वी की नज़रें हर वक़्त सचिन पर रहतीं. वो कब टूर पर जा रहा है, कब वापस आ रहा है, सारी  खबर रहती उसे. मोबाइल कंपनी वालों का भी कोई मेसेज आता तो चौंक जाती , और फिर सचिन के पुराने मैसेज कई कई बार पढ़ती. अपने उस दिन के व्यवहार का गिल्ट उसके मन में घर कर गया था . वो सचिन को कुछ और कहना चाहती थी पर कुछ और ही कह गयी. उसने सारा दोष सचिन पर डाल दिया ,जबकि इतना वो भी जानती थी ,सचिन के मन में ऐसा ख्याल नहीं रहा होगा. पर तन्वी को समझ नहीं आ रहा था, यह जानते हुए भी कि वह एक डीवोर्सी है सचिन उस से प्यार कैसे कर सकता है? जबकि वो हैंडसम है, काबिल है, उसे कितनी ही सिंगल लडकियां मिल जायेंगी. फिर ये भी सोचती ,अगर सचिन सचमुच सिर्फ उसके साथ टाइम पास करना चाहता था तो फिर उसके बात करने से मना करने पर इतना उदास क्यूँ रहने लगा है?और तन्वी ने सोचा, उस से मिलकर ,अपने उस दिन के व्यवहार के लिए माफ़ी तो मांग ही लेनी चाहिए. उसे अपनी बीती ज़िंदगी की सारी बातें बता देगी कि क्यूँ वह इतनी कड़वी हो गयी थी.
और उसने सचिन को मैसेज कर दिया..क्या बहुत नाराज़ हो ?“
मैं तुमसे कभी नाराज़ नहीं हो सकता...इस जनम में तो नहीं सचिन का जबाब पढ़ फिर से उसकी आँखें भर आयीं .
कल, चलें कॉफ़ी पीने ?“
ठीक है एक स्माइली के साथ सचिन का सादा सा जबाब आया ,फिर से कोई मजाक कर के वो रिस्क नहीं लेना चाहता था .

ऑफिस के बाद सचिन उस दिन की तरह ही कार में उसका वेट कर रहा था . पर आज गाड़ी में कोई ग़ज़ल या गाना नहीं बज रहा था हलके से मुस्कुरा कर उसने उसके लिए दरवाजा खोल दिया .
बैठते ही तन्वी ने कहा.. सॉरी मुझे वो सब नहीं कहना चाहिए था...मैं कुछ ज्यादा ही बोल गयी ..
कोई बात नहीं...मैं समझता हूँ ..
सचिन मुझे तुमसे ढेर सारी बातें करनी है...
बोलो..आयम ऑल इयर्स जरा सा मुस्कुरा कर उसकी तरफ देख फिर नज़रें सड़क पर जमा दीं.
छोडो कहीं नहीं जाते हैं ...लॉन्ग ड्राइव पर चलो..यहीं प्राइवेसी है ..मैं सब बताती हूँ
ठीक है..”..इतना बोलने वाले सचिन के दो दो शब्द के जबाब तन्वी को बड़े अजीब लग रहे थे पर वो समझ रही थी..वो बहुत हर्ट है और अब कुछ भी बोलकर मुसीबत में नहीं पड़ना चाहता .

वो चुन चुन कर सुनसान रास्ते पर धीरे धीरे गाड़ी घुमाता रहा और तन्वी परत दर परत अपनी ज़िन्दगी के गुजरे लम्हे उसके सामने खोलती गयी . सचिन ध्यान से सुन रहा था जब कभी उसकी तकलीफ से बहुत आहत होकर उसकी तरफ देखता तो तन्वी सामने नज़रें टिका देती. पति से अलग होकर अकेले रहने की बात तक पहुँचते पहुँचते तन्वी की आवाज़ आंसुओं में डूब चुकी थी . सचिन ने एक किनारे गाड़ी लगाकर, तन्वी का सर अपने कंधे से टिका लिया. आंसुओं से चिपके उसके बाल समेट कर पीछे कर दिए और उसका सर सहलाते हुए बस इतना कहा, “भरोसा कर सकती हो तो इतना भरोसा करो मुझपर, अब इसके बाद एक आंसू नहीं आने दूंगा तुम्हारी आँखों में ..बहुत झेल लिया तुमने, अब और नहीं, मेरे होते अब और नहीं ..तन्वी थोड़ी और पास सिमट आयी , आज तक सब कुछ उसने अकेले झेला था ,सारी लड़ाई अकेले लड़ी थी ,अब तक कोई उसकी तकलीफ को यूँ अपनी तकलीफ समझ दुखी नहीं हुआ था. और तन्वी ने अपनी आँखें मूँद लीं . सब कुछ कह कर उसका मन हल्का हो गया था .साड़ी कडवाहट आंसुओं में धुल चुकी थी और अब उसका मन बीते दिनों के गहरे अँधेरे से निकल कर ,इस निश्छल प्रेम की नर्म रौशनी के स्वागत के लिए तैयार था .
(समाप्त )

अंजलि

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साहिल दौड़ता-भागता प्लेटफॉर्म पर पहुंचा तो  पता चलाट्रेन दो घंटे लेट है . ऑफिस से तो समय पर ही निकला था पर ट्रैफिक में बुरी तरह फंस गया . सोच रहा था ,पहली बार अंजलि ने उस से कोई मदद चाही है और वह समय पर पहुँच नहीं पायेगा. अजनबी शहर ,अनजान चेहरों के बीच अंजलि परेशान हो जायेगी. ऐसा न हो वो अकेले ही चल पड़े. पर आज मन ही मन भारतीय रेलवे का शुक्रिया अदा किया , आज ट्रेन के लेट होने से खीझ नहीं हुई बल्कि सुकून की सांस ली उसने. एक नीम्बू पानी लिया और प्लेटफॉर्म पर टहलने लगा. अच्छा हुआ थोड़ा समय मिला और बिखरी यादें अपने आप सिमटने लगीं. अंजलि उसकी छोटी बहन साक्षी की सहेली थी . दोनों एक ही क्लास में थीं और अक्सर साक्षी के साथ अंजलि भी घर पर आ जाया करती. साक्षी जब छोटी थी तो उस से बहुत डरती थी (अब तो दादी अम्मा बन कर सलाह दिया करती है ) उसकी देखा देखी अंजलि भी उस से डरने लगी. वो घर में घुसता और दोनों सहेलियां या तो छत पर भाग जातीं या घर के किसी महफूज़ कोने में छुप जातीं. और अगर सामने पड़ जातीं वो भी रौब जमाने को जोर से साक्षी को किसी न किसी बात पर डांट देता , “सारा दिन खी खी करके घूमती रहती हो...इम्तहान पास आ रहे हैं...पढ़ाई नहीं करनी “ “हाँ.. भैया” कहती साक्षी सहम जाती और अंजलि जल्दी से अपने घर चली जाती. 

जब साहिल को पता चला कि गली के कोने पर जो बड़ा सा आलीशान मकान हैवो अंजलि का घर है और वो अपने माता- पिता की इकलौती बेटी है तो उसने साक्षी को बहुत मना किया कि इतने बड़े घर की लड़की से दोस्ती न करे ,उनलोगों का रहन-सहन ..बात व्यवहार सब अलग होता है. दोस्ती बराबर वालों में ही अच्छी लगती है “ पर इस बार माँ ने साक्षी का साथ दिया बोलीं, “अंजलि बहुत अच्छी लड़की है ...घमंड ज़रा सा छू नहीं गया है...बहुत घुल मिल कर रहती है...बड़ों की इज्जत करती हैसब पैसे वाले खराब नहीं होते बेटा“ माँ ने उसे समझाने की कोशिश की. उसने कंधे उचका दिए...” उसे क्या...जिस से चाहे दोस्ती रखे....बस अमीर सहेली की देखादेखी कोई उटपटांग मांग न करे.” अब साक्षी उसके सामने कभी अंजलि को अपने घर पर नहीं बुलाती . काफी दिनों तक उसने अंजलि को देखा नहीं. और भूल ही गया .

 साक्षी कॉलेज में आ गयी थी. एक दिन कॉलेज में उसका साड़ी डे था . दो दिन से उसकी तैयारी चल रही थी और साहिल उसे चिढाये जा रहा था , “ये कॉलज जाने की तैयारी हो रही है या किसी शादी में जाने की ..कॉलेज में पढाई की जगह ये सब होता है....कैसा कॉलेज है तुम्हारा 
 “भैया परेशान मत करो..तैयार होने दो मुझे...” माँ ने भी उसे डांट कर बाहर वाले कमरे में भेज दिया, "जब तक ये तैयार होकर चली नहीं जातीमुझे कोई काम नहीं करने देगी..तंग मत कर इसे “.वो ड्राइंग रूम में टेबल पर पैर फैलाए टी.वी देखने लगा .तभी डोर बेल बजी. सामने एक परी सी ख़ूबसूरत लड़की नीली साडी में ख़ड़ी थी . वो बिना पलकें झपकाए देखता रह गया तो धीरे से बोली, “साक्षी है ? “
वह झेंप गया हाँ है...साक्षीsss...” उसने जोर से आवाज़ दी....और दरवाजा खुला छोड़ अन्दर चला गया . पर बरामदे से देखता रहा..ये कौन सी सहेली है साक्षी की ..इसे तो कभी नहीं देखा .साक्षी साडी संभालती हुई कमरे में आयी और चीख पड़ी..अंजलिss हाय तू कितनी सुन्दर लग रही है...” तो ये अंजलि थी. पर इतनी बदल कैसे गयी वो तो दो पोनिटेल बांधे फ्रॉक पहने रहती थी...इतनी बड़ी कैसे हो गयी ?? दोनों सहेलियां घर से निकल गयी और वह खिड़की के पास आ गया . उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि ये अंजलि ही थी. दूर तक उसे जाते देखता रहा . बाद में साक्षी से पूछ भी लिया , “ वो अंजलि थी तुम्हारे साथ..तुम्हारी अंजलि से अब भी दोस्ती है 
लो हमारी दोस्ती ख़त्म कब हुई थी...हम तो स्कूल से ही पक्की सहेलियां हैं ...
कभी देखा नहीं न घर पर ...
वो तुमने डांट दिया था न कि अमीर लड़कियों से दोस्ती मत करोइसलिए तुम जब घर में होतेमैं अंजलि को नहीं लाती और अच्छा ये है कि तुम घर में रहते ही कितनी देर हो...कभी क्रिकेट...कभी दोस्त..कभी कॉलेज ...पर मेरी  सहेली के बारे में इतना क्यूँ पूछ रहे हो...ऊँ..
नहीं...वो तो यूँ ही...पहचाना नहीं न इसलिए...” कहकर उसने बात टाल दी .

पर अब वो अक्सर साक्षी से अंजलि के बारे में पूछ लेता...साक्षी भी सहज होकर सब बता देती . कभी कभी उसके लिए सहायता भी मांग लेती, “भैया तुम्हारे किसी दोस्त के पास इकोनौमिक्स के नोट्स हैं ? साक्षी के लिए ला दो न...या अमुक राइटर की कोई किताब लाने को कहती. वह कहीं से भी ढूंढ कर ला देता. धीरे धीरे साक्षी भी समझ गयी थी. अंजलि के लिए उसके मन में एक सॉफ्ट कॉर्नर है. पर अंजलि जब भी उसके सामने पड़ती..घबरा कर चली जाती. उसके मन में शायद उसके बचपन वाली डांट का अब तक असर था . पर साक्षी बताती कि अंजलि भी उसके बारे में अक्सर पूछती रहती है.

पर फिर वो गंभीर हो जाता, उसे पता था अंजलि और उसका कोई मेल नहीं . जब पढाई ख़त्म कर उसे एक अच्छी नौकरी मिल गयी तब साक्षी ने ही बात शुरू की , “भैया...अंजलि की शादी की बात चल रही है “ उसे एक धक्का सा लगा पर उसने जाहिर नहीं किया . बस एक छोटी सी ‘हम्म’ कही .साक्षी ने फिर से कहा भैया तुम भी अच्छी जॉब में हो और अंजलि बहुत बहुत अच्छी लड़की है... कितना अच्छा हो अंजलि हमारी भाभी बन जाए 
“साक्षी..बहुत पटर पटर बोलने लगी है तू,..ऐसा कुछ नहीं है और मैं चार-पांच साल शादी की सोच भी नहीं सकता. बहुत सारे काम करने हैं. घर की मरम्मत करवानी है...पूरा रिनोवेट ही करवाऊंगा...फिर घर के फर्नीचर बदलने हैं, गाड़ी लेनी है ..मामी-पापा को पूरा देश घुमाना है...लोन चुकाना है...तेरी शादी करनी है...अभी बहुत वक्त है 
पर तब तक अंजली के पैरेंट्स...इंतज़ार थोड़े ही करेंगे “ रुआंसी हो गयीसाक्षी
“इसीलिए तो कह रहा हूँ ,बेफजूल की बातें सोचना छोड़ दे...वैसे भी अंजलि को उसके स्टैण्डर्ड का घर ही मिलना चाहिए.
अंजलि वैसी लड़की नहीं है...हर जगह एडजस्ट कर लेगी 

“बेकार की बातें माँ मत कर..चल चाय बना...” उसे साक्षी से यह सब डिस्कस करने का मन नहीं हो रहा था . अंजलि उसे अच्छी लगती थी. माँ और साक्षी से उसकी तारीफ़ भी सुनता रहता था. अब कॉलेज ख़त्म हो जाने के बाद उसकी आवारागर्दी भी कम हो गयी थी. वीकेंड्स पर अक्सर घर पर ही होता, अंजलि कभी रास्ते में मिल जाती, कभी छत पर से नज़र आ जाती . साहिल को देखते ही अंजलि के चेहरे पर एक घबराहट सी छा जाती, उसके केश की जड़ें पसीने की नन्ही नन्ही बूंदों से लद जातीं .और लाला चेहरा लिए वो कतरा कर निकल जाती . वो कभी मुस्करा देता , कभी सोचने लगता, ‘ इतना भी क्या घबराना ,इतने दिनों में उसे नहीं पहचाना ..क्या वो कोई बदतमीजी कर बैठेगा “ एक बार उसने उसे थोड़ा और परेशान करने के लिए पूछ भी लिया , “वो नोट्स साक्षी ने दिए न...ठीक थे ?”
“हाँ, अच्छे थे “ सपाट स्वर में कहा उसने और फिर थोडा रुक कर कहा “थैंक्यू ‘ और चली गयी.
फिर उसने खुद को ही रोक लिया...क्या फायदा जिस राह की कोई मंजिल नहीं उस पर क्यूँ कदम बढ़ाना . उसने मन ही मन एक दुआ कर डालीकि अंजलि को खूब अच्छा घर और वर मिलेउसे जीवन की सारी खुशियाँ मिले. 

कुछ महीनों बाद सुना अंजलि की शादी ठीक हो गई  है . उसके कुछ दिन बाद एक दिन वो घर की तरफ आ रहा था और अंजलि जा रही थी. अंजलि ने नज़रें उठा कर बहुत गुस्से में उसे देखा...वो उन नज़रों का मतलब देर तक तलाशता रह गया. अंजलि नाराज़ है उस से पर उसने तो हमेशा उसकी मदद ही की है फिर उन नाराज़ निगाहों का माजरा क्या था. उसे समझ नहीं आया. अंजलि की शादी के दिन नजदीक आते जा रहे थे साक्षी की तैयारियां जोरों पर थीं . बस एक ही विषय था उसके पास, ‘कब क्या पहनेगी ‘ जब दो दिन रह गए तो उसका मन डूबने लगा और वो ऑफिस के काम का बहाना बना शहर से दूर चला गया. अंजलि की विदाई के बाद ही लौटा .अंजलि का घर वैसा ही था पर सूना सूना लग रहा था. छत पर से देखा अंजलि की छत पर बने मंडप की सजावट धूप में फीकी पड़ गयी थी. छत पर अक्सर अंजलि के रंग  बिरंगे  कपडे-दुपट्टे सूखते रहते थे ,आज छत वीरान लग रहा था, उसके मन के एक कोने जैसा. साक्षी से अंजलि की शादी के किस्से उसके दूल्हे की हाज़िरजबाबी सुनता रहा. मन में एक टीस तो उठती पर वह मन को समझा देता ,यही दुआ तो की थी अंजलि के लिए. वो हमेशा खुश रहे.

दो साल बाद साक्षी की भी शादी हो गयी . साक्षी की शादी में अंजलि अपने एक साल के बेटे के साथ शामिल हुई थी. अब वो पहले से भी ख़ूबसूरत हो गयी थी. बेटा भी बहुत प्यारा था . अपने घर में हमेशा अंजलि को सहमे-सकुचाये हुए सा देखा था .पर इस बार माँ के साथ वो बहुत सारा काम संभाल रही थी. साक्षी के सारे काम वही कर रही थी. अच्छा था ,वह काम में इतना व्यस्त था कि ज्यादा आमना-सामना नहीं हुआ. पर दूर से उसने कई बार अंजलि को देखा इस बार अंजलि के चहरे पर कोई सल्लजता नहीं थी. आत्मविश्वास से भरी वो बहुत खुलकर हंसती थी . अच्छा लगा देख, चलो उसकी दुआ क़ुबूल हुई. अंजलि बहुत खुश है.

 अब उसे नौकरी करते हुए कई साल हो गए थे ,उसने अपनी सारी जिम्मेवारियां पूरी कर दी थीं. पुराने घर की ऐसी कायापलट कर दी थी कि लोग पहचान नहीं पाते. माँ-पापा- साक्षी  कब से उसके पीछे पड़े थे ,”शादी कर लो” रोज ही माँ कोई न कोई तस्वीर दिखातीं और उस लड़की के गुण गातीं. वो बहाने बना कर टाल देता ,पर अब कोई बहाना भी शेष नहीं बचा था . उसने भी हाँ कहने की सोच ही ली थी कि साक्षी के एक फोन ने जैसे उसे सुन्न सा कर दिया. रोती हुई साक्षी कह रही थी...भैया..अंजलि की दुनिया उजड़ गयी ..एक एक्सीडेंट में अंजलि के पति की मौत हो गयी “ सुन कर उसकी आँखों के आगे अन्धेरा सा छ गया. वो सोफे पर गिर पड़ा...अंजलि और उसके बेटे का चेहरा बार बार सामने नज़र आ जाता . कैसे सह पाएगी, अंजलि  ये पहाड़ सा दुःख. माँ को जैसे ही खबर पता चली...वे अंजलि के घर चली गयीं . अंजलि को उसके माता-पिता अपने पास लेकर आ गए थे ..साक्षी भी अपनी सहेली का दुःख बांटने आ गयी थी. सुबह होते ही अंजलि के घर चली जाती. रोज रात में रुंधे स्वर में अंजलि की दशा का वर्णन करती, ”बड़ी मुश्किल से उसे एक रोटी खिलाई है..अंजलि तो पत्थर हो गयी है....आंसू भी नहीं बहते उसके बस सारा समय छत घूरती रहती है.” यह सब सुनकर उसका कलेजा टूक टूक हो जाता. एक नज़र अंजलि को देखने की उत्कट इच्छा जाग जाती .उसे पता था ,वो कुछ कह नहीं पायेगा पर एक बार अंजलि के सामने जाकर ये तो जता दे कि उसके दुःख से वह भी कितना दुखी है.  एक दिन उसने साक्षी से कह ही दिया, “ मुझे लगता है...एक बार मुझे भी जाना चाहिए अंजलि के माता-पिता जब भी मिलते हैं  मेरा हाल-चाल पूछते रहते हैं...उनके ऐसे दुःख के समय मुझे भी उनसे मिलना चाहिए 
“और क्या बिलकुल जाना चाहिए...कल ही चलना तुम मेरे साथ 

दूसरे दिन साक्षी के साथ अंजलि के घर गयापैर मन मन भर के हो रहे थे पर किसी तरह जी कड़ा कर गेट के अन्दर प्रवेश किया. अंजलि की माँ बाहर वाले कमरे में ही अंजलि के तीन साल के बेटे को गोद में लेकर बैठी थीं. उसे देखते ही पल्लू आँखों पर रख लिया...बेटा मेरी बिटिया की दुनिया वीरान हो गयी...कैसे जियेगी अब वह.. ये छोटा  सा बच्चा किसे कहेगा अब पापा “अंजलि का बेटा उनकी गोद से कूद कर अन्दर की तरफ भागा और दरवाजा बंद करने की कोशिश करने लगा  “आपलोग अन्दर नहीं आओ...आपको देख के मम्मी रोती है...” पर उसके छोटे छोटे हाथो से दरवाजा बंद नहीं हो रहा था साक्षी ने उसे गोद में उठा लिया...अच्छा ऐसा है...चलो हमलोग मम्मी को गुदगुदी करके हंसाते हैं...ऐसे ऐसे...और साक्षी अनय को गुदगुदी करने लगी... अनय  हंसता हुआ..उसकी गोद से उतरने को छटपटाता रहा . साक्षी अन्दर चली गयी. वह अंजलि की माँ के पास बैठा रहा ...थोड़ी देर बाद अंजलि की माँ उठीं ,”देखूं..अंजलि ने कुछ खाया या नहीं...साक्षी का बड़ा सहारा है...अनय और अंजलि को बहुत संभाला है उसने “ तुम भी आओ बेटा और उसे अन्दर बुला कर ले गयीं. अंजलि एक कुर्सी पर निस्पंद बैठी थी. साक्षी पलंग पर अनय को एक पिक्चर बुक दिखा रही थी...” अंजलि ने आँखें उठा कर उसे देखा और थोड़ी देर देखती रही...पत्थर सी आँखें थीं उसकी ,उनमें कोई भाव नहीं था जैसे एक वीरानी सी ठहर गयी हो ” फिर खिड़की के बाहर नज़रें टिका दीं ,अंजलि ने . अंजलि की माँ ने साक्षीसे पूछा“अंजलि ने खाया कुछ 
खाया क्या.. छुआ भर 
अंजलि की माँ ने ही दूसरी कुर्सी खींच कर उसे बैठने के लिए कहा और बोली..चाय के लिए बोल कर आती हूँ..
नहीं चाहिए....चाय रहने दीजिये..
“अरे तुमलोगों के बहाने इसके गले में भी दो घूँट उतर जाएगा...
वो अपनी हथेलियों को घूरते जड़ बना बैठा रहा, कुछ भी नहीं बोल पाया . अंजलि खिड़की से बाहर देखती रही...अनय  ही उसे शांत बैठा देख अपनी किताब उसके पास लेकर आ गया “अंकल ये देखो..जिराफ “ फिर वो जानवरों के नाम पूछने लगाअंजलि वैसे ही बाहर देखती रही...चाय पीने के बाद वो बाहर निकल आया और एक संकल्प लिया..इन वीरान आँखों में नए सपने उगा कर रहूँगा...

कुछ दिनों बाद साक्षी भी चली गयी .पर वह सुबह शाम अंजलि को फोन करती .और उसे भी अंजलि का हाल पता चलता रहता. साहिल ने साक्षी से ही अंजलि को आगे पढने के लिए प्रोत्साहित करने को कहा. पर साक्षी का कहना था, “अंजलि बिलकुल तैयार नहीं 
आखिर एक दिन वह अंजलि की माँ से मिलने गया...और उन्हें बोला, “अंजलि को एम.ए. करने के लिए बोलिए...घर से बाहर निकलेगी तो उसका दिल भी बहलेगा...”
“साक्षी ने तो कितनी बार कहा है...मुझसे भी कहा..पर ये सुनती ही नहीं..कहती है, “मेरा पढने में मन नहीं लगेगा..,इसके पापा भी कहते हैं ,अभी रहने दो..उसे तंग मत करो “अंजलि की माँ ने मजबूरी जताई .
“चाची पर अगले महीने  सेशन शुरू होने वाला है...अभी एडमिशन नहीं लिया गया तो फिर पूरा एक साल रुकना पड़ेगा और तब तक अंजलि क्या करेगी...ऐसे ही  दुःख में डूबी रहेगी.”
“पर क्या करूं ,बेटा ये सुनती ही नहीं...और अपने पापा की लाडली है, वे जोर डालते नहीं “
चाची, मैं बात करूँ..?”
हाँ बेटा..तुम्ही समझा कर देखो...मुझे भी उसका यूँ सारे दिन कमरे में अकेले पड़े रहना देखा नहीं जाता ..इसके पापा तो सारा दिन घर पर नहीं रहते न....अपनी बेटी को ऐसे हाल में देख कर क्या  गुजरती है, वे क्या  जाने..” उनका गला भर आया था 
अंजलि ने नीचे नज़रें किये पर दृढ स्वर में उस से भी यही कहा..” आगे पढने में मेरी कोई रूचि नहीं है...और मुझे नौकरी करने की जरूरत नहीं है, इतना है पास में कि अनय के भविष्य के लिए सोचना नहीं पड़ेगा “
“नौकरी के लिए कौन कह रहा है, पर वो बाद की बात है..अभी एडमिशन तो ले लो..चाहे यूनिवर्सिटी मत जाना “
“मुझे कहीं नहीं जाना ...कुछ नहीं पढ़ना “..अंजलि ने जैसे एक जिद से कहा .
“फिर क्या करोगी...यूँ ही उदास बैठे रहा करोगी . अनय  की तरफ देखो.. तुम्हे यूँ उदास देखउसका बचपन कैसे गुजरेगा. उसे भी एक हंसती मुस्कुराती मम्मी चाहिए या नहीं ..तुम्हारी कोई जिम्मेवारी है उसके प्रति या नहीं ? बचपना छोडो..मैं एम. ए.  का एडमिशन फॉर्म लेकर आता हूँ ..तुम उसे भर दो और पढाई शुरू करो..
अंजलि कुछ नहीं बोली ..दूसरे दिन  ही उसने फॉर्म लाकर अंजलि की माँ को दे दिया . हर दूसरे तीसरे दिन जाकर पूछताछ करता .पता चला ,’ अंजलि ने फॉर्म नहीं भरा है और जब लास्ट डेट बिलकुल नजदीक आ गयी. तो उसने अंजलि की माँ से कहा , “मुझे फॉर्म दीजिये...मैं भरवा कर लाता हूँ .वो खुद फॉर्म लेकर अंजलि के कमरे में गया और बोला..जैसे साक्षी  को डांट सकता हूँ ,वैसे ही  तुम्हे भी...चलो फॉर्म भरो...” और पेन आगे कर दिया ” शायद अंजलि ने गुस्से में कुछ कहने को सर उठाया पर साथ ही अपनी माँ को और उनकी साडी पकड़ कर सहमे से अनय को खड़े देख कुछ कहा नहीं .और फॉर्म भरने लगी .

साहिल पता करता रहता कि कब से क्लास शुरू होने वाले हैं और जब क्लास शुरू हो गए तो उसने साक्षी को बुलवा लिया. शुरू में कुछ दिन साक्षी ही जबरदस्ती अंजलि को यूनिवर्सिटी लेकर गयी . अंजलि  सिर्फ पढाई शुरू करने में आनकानी कर रही थी. एक बार पढ़ना शुरू किया तो फिर उसमे ही रम गयी . पर उस से वैसी ही दूरी बनी रही. एकाध बार अंजलि के घर गया भी ,पूछा ,”पढ़ाई ठीक से चल रही है न ...कुछ जरूरत हो तो कहना ” पर अंजलि ने बड़ी रुखाई से कहा , “ हाँ ,ठीक चल रही है...मैं खुद मैनेज कर लूंगी“ उसके बाद वह फिर नहीं गया . कभी कभी रास्ते में अनय के साथ मिल जाती तो वो अनय से बातें कर लेता उस से भी औपचारिकता वश पूछ लेता ,”कैसी हो ?“ अक्सर तो वो ,”ठीक हूँ ,चलो अनय देर हो रही है..कह आगे बढ़ जाती .
एक दिन अंजलि ने कुछ गुस्से में ही कहा, “ आजतक तो कभी बात भी नहीं की आपने...अब इतनी हेल्प क्यूँ कर रहे हैं..मैं अपना ख्याल रख सकती हूँ “ और फिर आगे बढ़ गयी. वो अबूझ सा खड़ा रह गया .समझ नहीं पाया ,उसकी नाराजगी इस बात पर थी कि उसने अब तक उस से बात नहीं की थी या इस बात पर कि उसकी हेल्प क्यूँ करना चाहता है “

अंजलि ने खुद को पढाई में झोंक दिया था और उसकी मेहनत रंग लाई .उसने फर्स्टक्लास से एम.ए. पास किया और फिर पी.एच डी. करने लगी . उसे यह सब देख बहुत ख़ुशी होती. उसने जो राह दिखाई ,उस पर अंजलि आगे ही बढती जा रही है.

माँ अब भी अक्सर साहिल पर शादी के लिए जोर डालतीं . पर अब अंजलि  को यूँ अकेला देखउसे अपनी दुनिया बसाने की इच्छा नहीं होती. साक्षी समझती थी. अब वह कुछ नहीं कहती. इसी बीच साहिल को एक कंपनी में बहुत अच्छी जॉब मिल गयी और उसे शहर से दूर जाना पड़ा. अनय के स्कूल की छुट्टियां चल रही थीं और अंजलि उसे लेकर ससुराल गयी हुई थी. मन में एक कसक तो रहती कि आते वक़्त अंजलि को एक नज़र देख भी नहीं पाया. मिल पाता या नहीं...कुछ कह पाता या नहीं,ये तो अलग बात पर एक नज़र देख तो लेता. अंजलि की मनस्थिति समझता था ,इसीलिए वो कोई जल्दबाजी नहीं करना चाहता था .

साक्षी के जरिये अंजलि की खबर मिलती रहती थी. अंजलि की पी.एच डी पूरी हो गयी और अब वह एक कॉलेज में लेक्चरार नियुक्त हो गयी.
कभी अपने शहर जाता और अंजलि पर नज़र पड़ जाती तो उसे आत्मविश्वास से भरपूर देख अच्छा लगता . हाल चाल पूछ लेता, अब अंजलि की आँखों में उतना गुस्सा नहीं नज़र आता फिर भी वो ज्यादा बात नहीं करती . छोटा सा जबाब दे आगे बढ़ जाती. पर इतना सा बदलाव भी उसे भला लगता वह अंजलि को भरपूर समय देना चाहता था . उसे अपने दिल की बात कहने की कोई जल्दी नहीं थी. वह पहले अंजलि को अपने दुःख से उबरने देना चाहता था .उसे अपने पैरों पर खड़े देखना चाहता था ताकि अंजलि को ये न लगे कि वह उसे कोई सहारा देने के उद्देश्य से यह सब कह रहा है.

और कल जैसे एक राह मिल गयी. साक्षी का फोन आया “भैया तुम्हारे शहर के कॉलेज में एक सेमीनार है जिसमे अंजलि  को भाग लेना है. ठहरने का इंतजाम कॉलेज में ही है..पर वहाँ ट्रेन शाम को पहुँचती है . नया शहर है और अंजलि ने कभी अकेले सफ़र नहीं किया...वो थोडा डर रही है...तुम उसे स्टेशन से लेकर कॉलेज तक पहुंचा देना 
अंजलि तैयार है,इसके लिए...? “
हाँ भैया..अंजलि ने ही मुझे फोन पर बताया है, कि तुम्हारे शहर उसे जाना है  और जब मैंने कहा भैया तुम्हे स्टेशन से रिसीव कर कॉलेज पहुंचा देंगे तो वह मान गयी 
ट्रेन की डिटेल्स ,कोच नंबर सीट नंबर सब उसे एस.एम.एस. करने की ताकीद कर ..अंजलि का नंबर ले फोन रख दिया . पर अंजलि को फोन करने की हिम्मत नहीं हुई. बार बार नंबर घूरता और फिर मोबाइल बंद कर देता . उसे रात भर नींद नहीं आयी . ऑफिस में भी जैसे तैसे काम निबटाया और अब यहाँ था .क्या पता अंजलि कैसे बात करेगी . अब तक अजनबी जैसे ही थे दोनों .पर एक  तसल्ली थी, जब खुद ही साक्षी से कहा है तो रूखेपन से तो बात नहीं ही करेगी.



दूर से ट्रेन की सीटी सुनायी दी . ट्रेन पास आती जा रही थी और उसके दिल की धडकनें बढती जा रही थीं. ट्रेन रुकी .वो कोच के सामने ही खडा था .अंजलि गेट पर ही बैग थामे खड़ी थी...उसे देखते ही मुस्कुरा दी...और इस मुस्कराहट ने अजनबीपन की पहली दीवार गिरा दी .

उदास आँखों में छुपी झुर्रियों की दास्तान (भाग -10)

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(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे,अपना  पुराना जीवन याद करने लगती हैं.उनकी चार बेटियों  और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजीनियरिंग और छोटा बेटा,मेडिकल पढ़ रहा था. ससुर जी और सास का निधन हो गया और सारी जिम्मेवारी पति पर आ पड़ी.बड़े बेटे ने उनलोगों की रजामंदी से प्रेम-विवाह किया)

धीरे धीरे,ननदें,रिश्तेदार सब विदा हो गए. ममता भी ससुराल चली गयी, उसका बेटा अब स्कूल जाने लगा था और अब उसके स्कूल खुल गए थे. स्मिता भी ससुराल चली गयी,बम्बई लौटने से पहले कुछ दिन वहाँ रहना भी जरूरी था. आठ दिन कहकर प्रकाश गया था, वे रोज उसकी और बहू की बाट जोहतीं, रोज दाल भरी पूरी, खीर और पांच तरह की सब्जी बनाने का निर्देश देतीं,कलावती को. पर निराशा ही हाथ लगती और सुबह सारा बचा,खाना ,गाय को डालना पड़ता.

सिवनाथ माएँ उन्हें डांट भी देतीं, "अरे जब आ जाएंगे, बनवा लेना...रोज केतना गाय के नादी में डालोगी. उसकी भी आदत हो गयी रोज खीर पूरी खाने की तो घास नहीं खाया करेगी "

सिवनाथ माएँ,  अब उनकी सास की जगह पर थी, किसी भी बात पर पूरे हक़ से टोक देती. वे भी उसे पूरी  इज्जत देती ,आखिर वे ब्याह कर आयीं थी, तब से एक साल के सिवनाथ को गोदी में लेके सिवनाथ मायं काम पर आया करती थी.

ग्यारहवें दिन हैरान-परेशान सा प्रकाश अकेले ही आया. वे चौंक गयी..."दुल्हिन  कहाँ है?"

"वो अपने मायके में रुक गयी हैं माँ.....अब मेरे साथ चली जाएगी तो माँ-बाप के साथ रहने का समय नहीं मिलेगा, ना और फिर पैकिंग भी करनी थी."

"तू इतनी जल्दी, नौकरी पर ले जायेगा बहू को?"...उन्हें लग रहा था कुछ दिन बहू उनके साथ ससुराल में रहेगी. फिर प्रकाश अच्छा घर खोजेगा .तब वे भी साथ में जाएँगी. ये कल की लड़की क्या जानेगी,गृहस्थी कैसे जमाते  हैं? कौन सी चीज़ कहाँ रखनी है?. चूल्हा किस दिशा में रखना होगा. मंदिर किस कोने में ठीक होगा, रखना? कल तक किताब कॉपी में घुसी रहने वाले लड़की को ये घर-गृहस्थी  की बातें क्या मालूम?...पर प्रकाश ने तो चौंका दिया एकदम.पर ये सब उस से बोलीं नहीं वे.

"फिर छुट्टी नहीं मिलेगी ना माँ, और मुझे खाने  -पीने की इतनी तकलीफ हो रही है. प्रीति को साथ ही ले जाऊँगा.... सारी छुट्टी ख़तम हो गयी है, कल ही निकलना होगा. घर में फोन भी तो नहीं,नहीं तो मैं फोन पर ही बता देता...पर तुमलोग चिंता करोगी, इसलिए चला आया बताने."और फिर मीरा को आवाज़ दी.

"मीराssss ...जा जरा गोपाल चाचा को बुला ला तो, उन्हें घर पर टेलीफोन लगवाने का जिम्मा देता हूँ. उन्हें ही पैसे थमा देता हूँ, जल्दी से लगवा देंगे. आज फोन ना होने की वजह से लंबा चक्कर पड़  गया"

वे खुश तो हुईं फोन लगने की खबर से ,अब अपनी बेटियों से बात कर सकेंगी.पर जिस वजह से प्रकाश फोन लगवा रहा था. वह खल गयी ,घर ना  आना पड़े, फोन पर ही बात कर छुट्टी पा ले फिर ऐसा फोन किस काम का?

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प्रमोद, स्मिता ,ममता सब बड़े खुश हुए फोन लगने की खबर सुन. ममता ने कहा भी..."देखा माँ , कमाऊ पूत होने का फायदा. घर में नई चीज़ें आने लगी."

उनसे क्या कहती अपनी सुविधा के लिए लगवा कर गया है.

प्रमोद ने भी चैन की सांस ली, "बहुत अच्छा किया भैया ने, अब मुझे चिट्ठी नहीं लिखनी पड़ेगी. कितना झंझट लगता था..क्या लिखो...अब बस फोन पर हाल-चाल ले लिया करूँगा"मन में आया कहें ,'पहले कौन सा तू हाल-चाल लेने के लिए चिट्ठी लिखता था जब पैसे की जरूरत पड़े, तब ही दो लाइन की चिट्ठी आती थी.और वे घंटो नमिता की मिन्नतें कर उसके स्वास्थ्य की खबर जानने को लम्बी चिट्ठी लिखवाया करती थीं. पर कहा नहीं.

यही कहा ,"हाँ! बेटा तेरी आवाज़ सुन लिया करुँगी,अब "

लेकिन प्रमोद के फ़ोन भी बस पैसों के लिए ही आया करते. और पति के माथे पर चिंता की लकीरों में एक और इज़ाफ़ा कर जाया करते. उन्हें अब प्रमोद की पढ़ाई से ज्यादा चिंता दोनों बेटियों की शादी की हो रही थी. वो तो अच्छा था, कि अभी समय था, पर नमिता भी दसवीं  में आ चुकी थी. बस एक-एक दिन यही सोचते गुजरता कहाँ से आयेंगे  पैसे उसकी शादी के लिए? बेटों पर से भरोसा तो उठी ही चुका था. वे बाग़-बगीचे ,खेत-खलिहान  वापस लौटने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही थी.

उन्होंने कहा भी, "प्रमोद का अभी अंतिम वर्ष है...ना हो, एक साल के लिए  प्रकाश से कह दीजिये, प्रमोद को पैसे  भेज दिया करेगा. आखिर बड़ा भाई है...उसका भी कुछ कर्त्तव्य है. "

लेकिन आदर्शवादी पति ने कहा, "नहीं...प्रमोद मेरी जिम्मेवारी है....उसकी पढ़ाई के पैसे मैं ही दूंगा. चाहे जैस इंतज़ाम  करूँ."

"और बेटियों की शादी??"

"अभी तो सामने का खर्चा निबटाऊँ,ना...जब समय आयेगा देखा  जाएगा..बेच दूंगा सारी जमीन...हम दोनों को बुढापे में क्या चाहिए, मुट्ठी भर अन्न,...उतना जुगाड़ तो मेरी पेंशन से हो ही जाएगा...बेकार की चिंता मत करो"

पर चिंता थी की जाती ही नहीं थी...प्रमोद की डाक्टरी  की पढ़ाई पूरी हो गयी. और एक किसी अनजान आदमी का फोन आया घर पर कि मिलना चाहते हैं, आपके डाक्टर बेटे के बारे में, बात करनी है. मन एक बार धड़का. कौन सी बात?खैर पतिदेव ने बुला लिया.

इनकी कार कुछ और लम्बी थी. कपड़े कुछ और चमकदार. बहू प्रीति के दूर के चाचा लगते थे . इन सज्जन ने बताया कि वे प्रकाश की बारात में ही प्रमोद को देखकर अपनी लड़की के लिए पसंद कर चुके थे. और प्रमोद को आगे की पढ़ाई के लिए विदेश भेजने का खर्चा उठना चाहते हैं .उन्हें समझाने लगे कि खाली साधारण डाक्टरी की डिग्री, कुछ काम नहीं आएगी. विदेश से पढ़कर आएगा, तो बहुत  बड़ा डाक्टर बन जाएगा. आपलोगों की सम्मति हो तो आप लड़के से बात कर के बताइये. वे लड़की का फोटो भी लाये थे. शहर की लड़की लोग का फोटो तो कपड़े और बाल के डिजाइन से
ठीक ही लगता था.

वे सज्जन एक नई चिंता उन्हें सौंप कर चले गए. पति भी असमंजस में थे. उनका तो बिलकुल मन नहीं था कि  बेटे को सात समंदर पार भेजें. फिर मन में दबी हुई ये चाह भी थी कि जब प्रमोद की किसी लड़की से दोस्ती नहीं तो उसके लिए अपनी  जाति वाली लड़की लायें. दो दिन तक पति सोचते रहें ,फिर बोले.."ऐसा मौका प्रमोद को नहीं मिलेगा. हमारी तो औकात नहीं कि हम विदेश भेज सकें. सोचो गाँव का पहला डाक्टर वो भी 'फोरेन रिटर्न '..कितना रुतबा रहेगा....सबलोग ये भूल जाएंगे कि अब हमारे  पास उतनी जमीन जायदाद नहीं. हमारी खोयी हुई इज्ज़त वापस आ जाएगी"

वे ठंढी सांस भर कर रह गयीं..."इस इज्ज़त की चिंता इंसान से क्या क्या नहीं करवाती..."अब तो बेटे की सूरत देखने को भी तरसेंगी. फिर भी एक क्षीण आशा थी कहीं बेटे मना कर दें. बोली, "प्रकाश से तो बात कर लीजिये ,बड़ा बेटा है...उसकी राय जरूरी है"

प्रकाश सुनते ही खुश हो गया, "ये लोग तो प्रीति के पिता से भी कहीं  अमीर हैं.. प्रमोद के तो नसीब खुल गए....लड़की भी ठीक ही है.. "थोड़ा अटकते हुए बोला...फिर जल्दी से कहा, "मैं बताता हूँ..प्रमोद को..आपको बाद में फोन करता हूँ"

फिर सबकुछ प्रकाश और बहू ने ही तय किया. कैसे शादी होगी...कहाँ बारात जाएगी...पति-पत्नी दर्शक से बने  देखते रहें. उनमे पहले वाला उत्साह भी नहीं रह गया था.बस मशीन की तरह सारे रस्म निबटाती रहीं. बेटियाँ भी बारात में गयी थीं. दुल्हन की कार से पहले इनलोगों  की बस आ गयी.लौटीं तो थोड़ी बुझी बुझी थीं..."क्या बात है , बहुत थक गयी हो तुमलोग?"

"हाँ... माँ..."ममता और स्मिता ने एक साथ कहा पर नमिता कहाँ चुप रहती.

"माँ..दीदी लोग दुखी है...भाभी जरा भी भैया की जोड़ी की नहीं....भैया तो राजकुमार सा लग रहा था..भाभी ने इतना लम्बा हील (उसने बित्ता फैला कर दिखाया) पहना था फिर भी भैया के कंधे तक पहुँच रही थी. रंग भी..."...पर आगे कुछ बोलती क़ि ममता ने जोर से डपट दिया..."तू चुप करेगी या कपड़ा ठूंस कर मुहँ बंद कर दूँ, तेरा...बहुत चटर चटर जुबान चलती है....ये सब गलती से भी भाभी  के कान में पड़ गया तो.??...खुद को पता नहीं फिल्म की हिरोईन समझती है..सब भगवान के बनाए होते हैं...पता  नहीं कब अक्कल आएगी इस लड़की को.."

"नमिता,...प्रमोद ने प्रकाश के घर पर देखा है उसे..देख के पसंद किया है...अब एक बार भी इस तरह की बात मत करना "उन्होंने समझाया उसे. और पहली बार नमिता ने बिना बहस किए सीधी गाय की तरह सर हिला दिया. शायद सचमुच थक गयी थी, वह.

लेकिन वे सोचने लगीं, हर लड़के की इच्छा होती है,उसे परी सी ख़ूबसूरत लड़की मिले, प्रेम-विवाह हो तब तो ये चीज़ें मायने नहीं रखतीं. शकल से ज्यादा उसके मन की पहचान होती है.पर यहाँ प्रमोद ने अपनी विदेश की पढ़ाई के लिए, समझौता कर लिया. भगवान करे,लड़की मन की बहुत अच्छी हो. तन का रूप तो दो दिन का होता है.

अच्छा किया लड़कियों ने पहले से बता दिया, जब उन्होंने प्रमोद की दुल्हन को देखा तो अचंभित नहीं हुईं ना ही मन मलिन किया. रंग कम था पर नाक-नक्श कटीले थे और उन्हें ममता ही हो आई उस पर कहीं वो हीन ना समझे ,सबके बीच खुद को.

प्रमोद भी प्रकाश की तरह हनीमून पर गया. अब टेलीफोन था घर में तो चिंता नहीं थी कि  रोज  खाना बना कर रखें. पर इस बार प्रकाश ने छठे  दिन में ही फोन किया कि माँ दोपहर को पहुँच रहा हूँ... जल्दी जल्दी खुद ही चौके में लगीं. खाना बनाया. पूजा की थाली तैयार की. कार की आवाज़ सुन, पूजा की थाली संभालती दरवाजे की तरफ दौड़ीं कि ,बहू की आरती करेंगी ,तिलक  लगाएंगी.पर ये प्रमोद किसके साथ कार से उतर रहा है.? बहू कहाँ है? उस  लड़की ने पैंट पहने थे और लम्बा सा कुरता. मीरा उन्हें अचम्भे में देख  हंस पड़ी.."माँ... भाभी  हैं "

पास आकर  पैर छुए, उन्हें समझ नहीं आ रहा था,बिना सर पर पल्लू के वे टीका कैसे लगाएं?

उसने चप्पल उतारी , हैंडपंप पर पैर धोये और सीधा चौके में चली गयी, "मुझे तो बड़ी भूख लगी है"

बहू  के चौके में जाने की रस्म होती है यह तो बेधड़क अंदर चली गयी. किसी तरह नमिता को बुला कर खाना परोसा. फिर वो खुद ही पूरे घर में घूमने लगी, "दो दिन तक तो आपलोगों ने घर में कैद कर दिया था ..मैने तो कुछ देखा ही नहीं."

जब वो  छत पे जाने लगी तो वे घबरा गयीं, "नमिता उसे रोक किसी बहाने...आस-पास किसी ने देख लिया तो क्या कहेंगे?"

"माँ, सोचेंगे मेरी सहेली है....कौन सोचेगा...नई बहू होगी..जाने दो,ना..मैं भी जाती हूँ,साथ में"नमिता तो जैसे खुश हो रही थी उसके जैसी कोई आ गयी इस घर में.

(क्रमशः)

उदास आँखों में छुपी झुर्रियों की दास्तान (भाग -11)

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(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे,अपना  पुराना जीवन याद करने लगती हैं.उनकी चार बेटियों  और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजिनियर था,उसने प्रेम विवाह किया. छोटा बेटा डॉक्टर था, एक अमीर लड़की से शादी कर वह भी, उसके पिता के पैसों से अब विदेश जा रहा था )

 गतांक से आगे 

 बहू पूजा और नमिता के पीछे मीरा भी चली गयीं..पता नहीं तीनो ऊपर वाले कमरे में क्या क्या बतियाती रहीं. बाद में तीनो नीचे आयीं और नमिता , मीरा उसके स्नान  का इंतज़ाम करने चली गयीं. नहा कर वो लाल रंग के सलवार सूट, बिंदी और और चूड़ियाँ, यहाँ तक कि पायल भी पहन कर आई   तो वे उसे देखती ही रह गयीं. रूप निखर आया था,और चूड़ियाँ ,पायल कुछ ज्यादा ही छनक रहें थे ,लग  रहा था उनकी आवाज़ पर मुग्ध हो खुद ही ज्यादा खनका  रही थी.

अपनी तरफ  यूँ एकटक देखता पा मुस्करा कर बोली.."आप डर गयीं,ना...कि मैं, सिर्फ वैसे  कपड़े ही पहनती हूँ, वो तो रास्ते के लिए पहना था सिर्फ.  मुझे पता है...गाँव में साड़ी पहनते हैं...पर प्लीज़...मुझसे नहीं संभलेगा"...होठ बिसूरते हुए कहा....फिर बड़े आग्रह से उनकी  ओर देखा..."ये चलेगा ना... वैसे तो चुन्नी भी संभालने में कितनी मुश्किल होती है.."दुपट्टा ठीक करती बोली वह.

वे क्या कहतीं...उन्होंने तो उसके पैंट पहनने पर भी कुछ नहीं कहा...जब बेटे को पसंद है तो क्या बोलें वह...वो तो जानता है गाँव के रीती-रिवाज. बोलीं, "तुम्हे जिसमे आराम लगे, वही पहनो.."

उन्होंने सोचा अब तो शायद कमरे के भीतर ही रहेगी, प्रमोद तो खाना खाते ही सो गया था. शाम होने वाली थी. सब काम करनेवालों  के आने का समय  हो रहा था. पर ये तो बरामदे में रखी कुर्सी पर आराम से बैठ गयी. कहा भी.."बहू जाओ, जरा आराम कर लो"

"ना मुझे अच्छा लग रहा है यहाँ बैठना....और आप मुझे पूजा कहें प्लीज़"

स्कूल से पति लौटे तो लपक कर उनके पैर छुए और वहीँ खड़ी रही. पति अंदर चले गए तो फिर वहीँ बैठ गयी. अब वे क्या कहें?  कलावती,सिवनाथ माएँ सब उसे हैरानी से देख रही थीं. मीरा, नमिता तो उसका साथ ही नहीं छोड़ रही थीं. कलावती खाना बनाने लगी तो चौके में जाकर हैरानी से लकड़ी के चूल्हे को देखने लगी."एक दिन मैं भी बनाउंगी ,ऐसे...सिखाओगी  मुझे..?"कलावती घुटनों में मुहँ छुपाये हंसने लगी.
सौ सवाल थे उसके..."ये बर्तन के ऊपर मिटटी का लेप क्यूँ लगाते हैं ?"

"बर्तन में कालिख ना लगे इसके लिए "

"तुम कितने आराम से लकड़ी अंदर डाल  आंच बढ़ा देती हो...और बाहर खींच कम कर देती हो..वाह जैसे गैस सिम करते हैं...पर हाथ नहीं जलता तुम्हारा?"

"हम गरीब लोगों  का हाथ जलेगा...तो काम कैसे करेंगे?"कलावती ने अपना ज्ञान बघारा...तो "हम्म.."करती सोच में पड़ गयी.

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सुबह वे उठकर दातुन कर स्टोव पर पति के लिए चाय बना रही थीं कि पति ने आकर कहा, "बाहर बरामदे में पूजा  खड़ी है..."

"हे भगवान अब क्या करें  वह"....सुबह सुबह सारे राहगीर अचम्भे से देख रहें होंगे उसे. ये सब बातें लड़कियों को सिखाई नहीं जातीं. अपने घर में, अपने  आस-पास देख कर, सब सीख जाती हैं. पर लगता  है, इसके तो दादा-परदादा भी शहर  में ही पैदा हुए थे. इसे कुछ पता ही नहीं. खीझ गयीं वे. जाकर देखा तो दोनों हाथ बांधे वह सुनहरी कोमल धूप में नहाए, सामने फैले खेत-खलिहान,पेड़-पौधे निरख रही थी.

 उन्हें देखते ही बोली..."एकदम हिल-स्टेशन जैसा लग रहा है...कितनी लकी हैं आपलोग, इतनी हरियाली के बीच रहती हैं."

उन्होंने बात बदलते हुए उसे अंदर बुलाने को बहाने से कहा,..."चलो, पूजा अंदर चलो..चाय पियोगी?"

वो साथ में अंदर तो आ गयी...पर बोली.."ना... मैं तो नहा धोकर आपके लिए फूल तोड़ कर लाऊँगी पूजा के लिए"

अब ये और लो...पता नहीं गाँव की कौन सी तस्वीर है इसके मन में..लगता है, फिल्मों में देखा होगा.

"अच्छा पहले नहा तो लो..कलावती आती है तो पानी रख  देती है."..कह कर टाल दिया .

नहाने के बाद पूजा, प्रमोद को उठाने में लग गयी...किसी तरह वो औंघाते हुए , बरामदे में  कुर्सी पर आकर बैठ गया, "अरे हज़ार घंटे की नींद बाकी है, भाई ....पढ़ाई के दौरान रात- रात भर जाग के काटे हैं.....मौका मिला है तो सोने दो,ना...तुम नमिता,मीरा के साथ चली जाओ गाँव घूमने "

उनके काम करते हाथ जहाँ के तहां रुक गए...."गाँव घूमने...."अब ये कौन सा नया  चक्कर शुरू हो गया.

वो नमिता,मीरा को बुलाने उनके कमरे में गयी तो वे भागकर प्रमोद के पास आ गयीं "ये क्या कह रहा है...बहुएं दिन के उजाले में बाहर जाती हैं क्या?...तुझे तो सब पता है."

"पता है माँ...पर क्या करूँ....ये मानेगी नहीं...घूमने गए तो वहीँ से दूसरे दिन से हल्ला...घर चलो..मुझे गाँव देखना है...तभी हम इतनी जल्दी लौट आए . इसे गाँव देखने का बहुत शौक है....पता नहीं किताबों में क्या क्या पढ़ रखा है..और फिल्मों में क्या  देखा है...अगर  इसे उपले पाथने या दूध दुहने को कहोगी ना, तब भी मान जाएगी. जब हमारे आँगन में हैंडपंप देखा तो बड़ी निराश हो गयी...बोली,'कुएं से पानी क्यूँ नहीं लाते..मैं भी बड़े से पीतल के गागर में पानी भर के लाती"

हंस पड़ीं वे, पूजा का 'घर 'का संबोधन कहीं अच्छा भी लगा..फिर भी आशंकित थीं,"बेटा पर दिन  के उजाले में कैसे घूमेगी ? ...गाड़ी से घुमा दे..क्या कहेंगे गांववाले ?"

"कहेंगे ...मास्टर साहब की  छोटी बहू पागल है...और सचमुच वो गाँव देखने के पीछे पागल ही है."फिर थोड़ा सोचता हुआ बोला..."माँ पर एक तरह से ठीक ही है..पूजा की देखा-देखी और भी बहुएं दिन के उजाले में निकल कर घूम सकेंगी. तुम ही बताओ...क्या तुम्हारा मन नहीं हुआ कभी वो आम का बगीचा देखूं..नीम के पेड़ देखूं ?...नहर देखूं ? केवल सब से सुन सुन कर संतोष करती रही.....जाने दो, घूमने दो इसे...और मना करोगी तो वो सत्याग्रह कर देगी...नमिता से कम नहीं...."और हँसता हुआ चला गया...दातुन-कुल्ला करने.

वे लौट आयीं अपनी जगह..पर एक सवाल चलता रहा दिमाग में "क्या तुम्हारा मन नहीं हुआ?" ..क्या सचमुच उनके मन में कभी कोई इच्छा नहीं जागी? बस उन्होंने स्थिति को आँखें  बंद कर स्वीकार कर लिया. उनका एक मन भी है..वह भी कुछ चाह सकता है, मांग सकता है...कभी ऐसे सोचा ही नहीं. जैसे  जैसे सास-ससुर-पति कहते गए करती गयीं. उन्होंने कभी अपने मन से क्यूँ नहीं पूछा कि 'उसे क्या  चाहिए?'शायद कभी मन ने चाहा होता तो कोई राह निकल ही आती. या उनके मन का नहीं हो पायेगा ऐसा सोच वे निराशा से बचने की कोशिश करती रहीं. खुद को दुख और निराशा से बचाने  का  यह कोई अनजाना प्रयास था, क्या?  पता नहीं कब तक सोचती रहतीं अगर नमिता ने आकर आशंकित मन से नहीं पूछा होता, "भाभी को लेकर जाऊं बाग़-बगीचे , नहर दिखाने?"

हँ जाओ..पर नाश्ते के बाद..."

"मीरा मैं ना कहती थी...माँ मना नहीं करेगी..चल जल्दी तैयार हो जा.."कहती नमिता उछलती कूदती चली गयी.

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उन्हें पता था, गाँव में यह खबर आग की तरह फ़ैल गयी होगी और किसी ना किसी बहाने लोग उनके घर आयेंगे टोह  लेने और उलाहना देने.

अच्छा हुआ जब , कैलास की माँ और शम्भू की चाची आयीं तो पूजा थक कर सो गयी थी. "का ममता की माँ, नईकी  बहू के मायके की सब मिठाई अकेले अकेले खा लोगी"

"नहीं, मैं बस आज ही भेजने वाली थी...कलावती से "

"आ... ई का सुन रहें हैं..बिजली बता रहा था कि नईकी बहू खेते खेते....बगीचे  बगीचे...मुहँ उघारे सलवार कमीज़ पहने घूम रही थी."

"हाँ , उसने गाँव नहीं देखा ना...और अब विदेश जा रही है...फिर कब देखना नसीब हो अपना देस, अपनी धरती...इसीलिए भेज दिया "वे कभी भी अपने बच्चों की या घर की  बड़ाई नहीं बघारातीं थीं ...पर यहाँ बात मोड़ने के लिए जरूरी था.

"बिदेस...प्रमोद बबुआ बिदेस जा रहा है...?"उन दोनों का मुहँ खुला का खुला रह गया.

"हाँ, आगे और पढ़ाई करेगा...हमारी कहाँ औकात थी, विदेस भेजने की, दान- दहेज़ नहीं लिया तो बहू के पिताजी ने विदेस भेजने की बात कही...ठीक है, उनकी लड़की ही 'फौरेन  रिटर्न डाक्टर'की बीवी कहलाएगी"

"हाँ वो तो है...पर जो कहो...जोड़ी नहीं है...कहाँ प्रमोद...राम जी जैसा सुन्दर....बहू..उसके सामने तनिक फीकी पड़ जाती है...जोड़ी नहीं जमती "वे लोग कहाँ चूकने वाली थीं.

इस बार दरवाजे से आती सिवनाथ माएँ ने संभाल ली, "शम्भू की चाची...पिरार्थाना  करो कि तुम्हारी बिटिया को भी एहेन दामाद, मिले."

उनकी बेटी का रंग भी दबा हुआ था. सो चुप रहीं दोनों. उन्होंने मिठाई की प्लेट सामने रखी. उसे ख़त्म कर जल्दी से चली गयीं वे लोग.  अब गाँव में पूजा के गाँव घूमने से ज्यादा बड़ी खबर  प्रमोद के विदेश जाने की थी . सबको बताना होगा,जाकर. पहले जानने का सुख लूटने की बात ही अलग.

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पूजा हफ्ते भर  रही. वह रम गयी थी,गाँव की ज़िन्दगी में. बिजली तो गाँव में रहती ही नहीं. वह छत पर देर तक तारों की छाँव में बैठी रहती. दिन में नमिता-मीरा के साथ गोटियाँ खेलना सीखती. नए नए व्यंजन शौक से खाती. कभी कभी उनसे पूछ , अपनी डायरी में भी नोट करती जाती. प्रमोद तो कुम्भकरण का अवतार ही लिए हुए था. सिर्फ खाता और सो जाता.

पति को घर के आस-पास फूल और सब्जियां लगाने का बड़ा शौक था. खुद ही इसकी देखभाल किया करते. पूजा भी अक्सर सुबह और शाम दोनों समय उनके साथ लगी होती और सैकड़ों सवाल पूछती.  वह मटर की फलियाँ, टमाटर,बैंगन,मिर्ची देख खुश हो जाती.और अपने हाथों से तोड़ने की जिद करती. छोटी सी टोकरी लेकर जाती और कुछ सब्जियां तोड़ लाती. एक दिन ढेर सारी मिर्ची तोड़ लाई. इतनी जलन हुई उन मेहँदी रचे हाथों में , शहद का लेप करना पड़ा. कई बार सब्जियां तैयार नहीं हुई होतीं.पर उसका बच्चों सा उत्साह देख पति कुछ नहीं कहते. पति के इस शौक में किसी  बच्चे ने कभी हिस्सा नहीं लिया, उन्हें भी अच्छा लगता.

प्रमोद कभी कह भी देता...'आजतक पापाजी को इतनी देर तक किसी से बतियाते नहीं देखा. पता नहीं क्या सर खाती रहती है'

"अब ये ससुर-बहू जानें, तू क्यूँ परेशान हो रहा है? ..."वे मुस्कुरा कर उसे आश्वस्त करतीं.

पूजा शायद और रुक जाती पर प्रमोद को ही शहर में काम था. विदेश जाने के कागज़ पत्तर तैयार करने थे. पूजा जब विदा होकर गयी तो लगा, ममता या स्मिता ही जा रही हैं. उसकी भी आँखें भरी भरी  थीं.

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नमिता कॉलेज में आ गयी थी. अब तो उसी कॉलेज में बी.ए. की भी पढ़ाई होने लगी थी. पति का बेटियों को बी.ए. पढ़ाने का सपना पूरा होता दिख रहा था. वे सोचतीं, वैसे भी अभी पैसे कहाँ हैं जो शादी हो पायेगी...समय लगेगा तब तक बी.ए. तो कर ही लेगी.

प्रमोद, और पूजा सिर्फ दो दिन के लिए आए इस बार. शादी के पहले से ही सारी लिखा-पढ़ी चल रही थी. अब सब तय हो गया था और उन्हें अगले हफ्ते विदेश के लिए हवाई जहाज में बैठना था. आजतक बस आँगन से आकाश में उड़ते जहाज को देखा  करती थीं. आज उसमे उनके बेटा बहू बैठनेवाले थे. उन्हें गर्व भी हो रहा था और विछोह की पीड़ा से छाती भी ऐंठ रही थी. अब पूरे एक साल बाद ही आ पायेगा. इतने दिन उसका मुहँ देखे बिना कैसे रहेंगी?

पूजा,मीरा और नमिता के लिए एक टी.वी. लेकर आई थी. मीरा खुश हो गयी पर दूसरे ही पल बुझी आवाज़ में बोली, ..."पर भाभी,बिजली कहाँ रहती है, यहाँ?"

"मैं बाज़ार से बैटरी और चार्जर का  इंतज़ाम कर देता हूँ,...तुमलोग देखा करो...दीन दुनिया की खबरें  मिलेगी,पर नमिता..सिर्फ फिल्मे और गाने ही मत देखना."

प्रमोद और नमिता तो चले गए, उनके पापाजी और मीरा शहर तक उनके साथ गए. इस बार नमिता  ने ही कहा, माँ अकेली कैसे रहेगी? मीरा को ले जाइए.

प्रमोद तो नमिता को हिदायत दे गया, ज्यादा फिल्मे मत देखना.पर नमिता की नज़र तो टी.वी.से हटती  ही नहीं.चाहे कुछ भी आ रहा हो,वह देखा करती. और अब उसे बनने संवारने का भी शौक होने लगा था.

उनकी सारी बेटियाँ सुन्दर थीं. पर ममता और स्मिता का रूप बदली में छुपे चाँद जैसा था. जबकि नमिता का रूप पूरनमासी की चाँद की तरह चमकता रहता. वह टी.वी. में देख देख के दरजी काका को अपने कपड़े की डिजाइन  बताती. उन्हें लगा दरजी काका खुद ही टाल देंगे.पर वे भी शायद सीधा -सादा सलवार कुरता सिल कर तंग आ गए थे. नमिता की बात ध्यान से सुनते और देर तक उस से डिजाइन  समझते.फिर वैसा ही सिल कर ला देते. बाल बनाने के तरीके में भी  वो टी.वी. में बोलने वाली लड़कियों की  नक़ल करती.लगता ही नहीं उनकी बेटी कभी गाँव से बाहर नहीं गयी.

इंटर पास करके बी.ए. पार्ट वन में आ गयी नमिता. ब्लॉक  में एक नए अफसर आए थे. उनकी बेटी नमिता की अच्छी सहेली बन गयी. पर उसका एक बड़ा भाई भी था.इंजीनियरिंग पढ़ रहा था, छुट्टियों में घर आता तो नमिता और अपनी बहन नीना के साथ ही बाग़-बगीचे में घूमता रहता. उसके गाँव में कोई दोस्त नहीं थे.पर उन्हें नमिता का उसके यहाँ जाना अच्छा नहीं लगता.

(क्रमशः)

उदास आँखों में छुपी झुर्रियों की दास्तान (भाग -9)

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(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे,अपना  पुराना जीवन याद करने लगती हैं.उनकी चार बेटियों  और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजीनियरिंग और छोटा बेटा,मेडिकल पढ़ रहा था. ससुर जी और सास का निधन हो गया और सारी जिम्मेवारी पति पर आ पड़ी.)

गतांक से आगे

अम्मा जी के जाने के बाद ..घर में अंदर-बाहर सब सन्नाटा सा छाया रहता. बाबूजी के जाने से ही अहाता सूना हो गया था.शाम होते ही शंकर की आदत थी,चार-पांच,कुर्सियां  अहाते में रख देता,बाज़ार आते-जाते कोई ना कोई  बैठ बाबूजी से गप्पें किया करता,ऊँची आवाज़ में उनलोगों के ठहाके गूंजते रहते. उनके जाने के बाद भी यह क्रम टूटा नहीं, बस बुजुर्गों के ठहाके की जगह,बच्चों की खिलखिलाहटों ने ले ली. अम्मा जी कुर्सी पर बैठी होतीं और ढेर सारे बच्चे अहाते में खेला करते. रौनक बनी रहती.

दिन में भी अम्मा जी,बरामदे में चौकी पर बैठी होतीं और गाँव की कोई ना कोई घास काटने वाली,या गाय - भैंस चराने वाले पाए से पीठ  टिकाये सुस्ताते होते. गाँव भर के हाल-चाल..अपने घर के पड़ोसी के किस्से, सुनाया करते. अक्सर अम्मा जी सिवनाथ  माएँ को आवाज़ देतीं और वह उनके लिए कुछ खाने-पीने का लेकर हाज़िर  होती. वे भी काम से खाली होतीं  तो चौखट के पास एक मचिया लिए बैठी जातीं और सबकी बातें,सुना करतीं.
शाम को तो उन्हें बिलकुल समय नहीं मिलता. शाम को पति स्कूल से लौटते, तो उनके चाय-नाश्ते,फिर रात के खाने की तैयारियों में लगी होतीं. अब दिन भर वह सूना बरामदा और शाम को सूना अहाता देख,उनकी आँखें भर आतीं.पर वे यह सोच आँसू अंदर ही अंदर  पी लेतीं कि शाम को आँसू गिराना  अपशकुन माना  जाता है.

वे पति को कहतीं,शाम को बाहर बैठने के लिए.पर पति ज्यादा सामाजिक नहीं थे, वे गाँव वासियों से ज्यादा मिलते जुलते नहीं थे...तुरंत ही ऊब जाते  और कमरे में आकर कोई किताब खोल लेते. एक उनका नया साथी भी बन गया था. गोपाल जी ,वह भी कमरे मे आकर ही बैठा रहता. अम्मा जी के श्राद्ध कर्म में काफी मदद की थी. अब भी जब पैसों की जरूरत पड़ती और जमीन या बगीचा गिरवी रखना या निकालना होता तो मदद करता. सही लोगों  से पहचान करवाता . पति तो एकदम अनाड़ी थे. बाबूजी के रहते कभी कुछ जानने की कोशिश ही नहीं की. फिर भी इतना मीठा बोलता कि उन्हें पसंद नहीं आता. उन्होंने अम्मा जी से उसके बारे में एक बार पूछा भी था कि उसका खर्च कैसे चलता है? सुन्दर पक्का मकान था, उसका. बीवी बड़ी सुन्दर  साड़ियाँ  पहना करती,बेटा दूर शहर में पढता था और जमीन जायदाद या नौकरी कुछ थी नहीं. सात भाई था ,सबके हिस्से बस टुकड़े भर जमीन आई थी. अम्मा जी ने बड़ी विद्रूपता से कहा था..."क्या करेगा...तेला-बेला करता है"

पर वे समझ नहीं पायी थीं. पर अब समझ रही थीं. उसका यही काम था और कमीशन से उसके घर के खर्चे चलते. मन में शंका भी जन्मी ...ना जाने कितना कमा लेता है ,बीच में. पति से भी जिक्र किया...पर उन्होंने  कहा..."अब मुफ्त में आगे-पीछे थोड़े ही ना करेगा...कोर्ट कचहरी सब जगह साथ जाता है,मुझे भी तो कोई साथ चाहिए."

और ये कोर्ट कचहरी का चक्कर   बढ़ता ही गया. रोज ही बेटों की मांगें सुरसा की तरह मुहँ बाए खड़ी रहतीं. जिनमे  सुन्दर खेत - खलिहान ,बाग़ बगीचे समाहित होते जा रहें थे.. एक बार प्रमोद से कहा  भी था, कि जरा खर्चे संभाल कर किया करो. तो उसने कह दिया था,"पता है एक एक किताब कितने की आती है? अब डाक्टर बनाने का शौक है तो खर्चा तो करना पड़ेगा."

पति के सामने चिंता व्यक्त करतीं तो कहते..."अरे बस बेटों की नौकरी भर  लगने की देर है, देखो ..कैसे सब छुड़ा लेता हूँ "

पर उन्हें थोड़ा शक  होने लगा था, दोनों बेटे जैसे शहरी रंग ढंग में ढल रहें थे और घर से दूर होते जा रहें थे.उन्हें नहीं लगता था कि उनको कोई फिकर थी कि उनकी पढ़ाई के पैसे कहाँ से आ रहें हैं ? जब भी छुट्टियों में आठ- दस दिनों के लिए आते और साथ में आते उनके दोस्त. जिन लोगों  ने गाँव नहीं देखा होता. दिन भर बेटे फरमाईशी चीजें बनवाते और सारा दिन बागों में घुमा करते. रात को देर तक छत पर उनकी हंसी -मजाक चलती रहती. कभी दो पल, अपने पापा जी के पास या उनके पास बैठ उनका हाल-चाल लेने की जरूरत नहीं समझते.

नमिता से तो पहले ही नहीं बनती थी उनकी. और नमिता को भी उसके दोस्त फूटी आँखों नहीं सुहाते. प्रकाश का एक दोस्त साथ आया था और गले में कैमरा लटकाए सारे दिन गाँव में घूमता रहता और तस्वीरें उतारता रहता. एक बार उन्हें लगा  भी कि ये पेड़ पर चढ़ी नमिता की तस्वीर उतार रहा है या पेड़ की?? फिर उन्होंने सोचा...पत्तों में छिपी नमिता वैसे भी  नहीं दिख रही. क्या फोटो  लेगा.

लेकिन जब पुआल के ऊँचे ढेर पर बैठी, ईख चबाती नमिता की तस्वीर वो सामने से खींचने लगा तो उनका माथा ठनका....वे बाहर निकल,प्रकाश को बताने ही जा रही थीं कि देखा नमिता उस लड़के की तरफ बढ़ रही है. वे खिड़की के और करीब आ गयीं सुनने कि आखिर करती क्या है,लड़की? नमिता ने सीधा पूछा, "आपने मेरी फोटो  क्यूँ खींची??"

"वो मैने ऐसी लड़की कभी देखी  नहीं, ना ,पेड़ पर चढ़ने वाली....इतने ऊँचे ढेर पर बैठी ईख चबाने वाली...इसीलिए खींची..सब नया है मेरे लिए"

"अच्छा और भी नए तरह के फोटो  खींचने हैं आपको?"

हाँ.... जरूर"

और नमिता ने बगल की सड़क से गुजरते, भैंस  की पीठ पर लेटे किसना को आवाज़ दी.."किसना चल..भैंस को इधर लेके  आ"
उसके करीब आने पर बोला उसे .."उतर नीचे"और प्रकाश के दोस्त की तरफ मुड़ी..."आपको एकदम नए तरह का फोटो चाहिए ना?"

"हाँ..."

और आगे बढ़कर उसने उस लड़के के  हाथ से कैमरा ले लिया.."चलिए मैं खींच देती हूँ..एकदम नए तरह का फोटो...."

"क्या मतलब ...मेरा कैमरा दे दीजिये...अरे संभाल के"अब उसे कुछ आशंका होने लगी थी.

"मुझे पता है..कैसे फोटो  खींचते हैं,कैमरे से...मेरी बम्बे वाली दीदी के पास है"अब बाहर कहीं भी वो छोटकी दीदी की बजाए स्मिता को बम्बे वाली दीदी ही कहती थी.

"आप भैंस की पीठ पर बैठ जाइए...बुशर्ट पैंट में भैंसा  पर बैठा शहरी लड़का..एकदम नए तरह का फोटो लगेगा"...किसना और मीरा दोनों हाथों से मुहँ दबाये खी खी करके हंस रहें थे.

नमिता ने घुड़का..."हंस क्या रही है...ले ईख पकड़...."और कैमरा संभालने लगी.

"मेरा कैमरा दीजिये...अब मुझे नहीं खींचना..."

"क्यूँ नहीं खींचना...आपने मेरा खिंचा..हिसाब तो बराबर होना चाहिए...चलिए चलिए....किसना भैंस को भैया साब के करीब ला"

और उसने भैंस के साथ उस लड़के की फोटो  ले ली
तभी भैंस ने जोर से रम्भा कर  पूंछ हिलाई और थोड़े गोबर के छींटे लड़के के ऊपर पड़ गए और वह  डर कर दूर छिटक गया.

"अरे डरिए मत....वो थैंक्यू बोल रही है,आपको..आपने उसके साथ फोटो खिंचवाया ना."मीरा और किसना फिर से हंस पड़े.

"चल मेर ईख दे...ये लीजिये अपना कैमरा...सबको जरूर दिखियेगा..एकदम नए तरह का फोटो है"

वो लड़का...मुहँ लटकाए कैमरा लिए घर में वापस आ गया. और प्रकाश से कहने  लगा, अब उसे जाना है...शाम को कितने बजे बस मिलेगी?"

वे हंसती हुई वापस अपने काम में लग गयी..."ये लड़की है या अगिया बैताल...सारे मामले खुद सलट लेती है. किसी की मदद की जरूरत नहीं उसे.

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प्रकाश की एक बड़ी कंपनी में नौकरी लगने की खबर से आनंद की हिलोरें मचल उठीं घर में. हर आने जाने वाले का मुहँ  मीठा करातीं. पति भी जानबूझकर शाम को बाहर बैठने लगे थे. राह से गुजरते लोग, आकर बधाई दे जाते. और पति मीरा को आवाज़ देते, "अरे जा मिठाई लेकर आ,चाचा  का मुहँ मीठा करा दे."अंदर से  भले जल-भुन कर ख़ाक हो रहें हों...पर ऊपर से ढेरों आशीष दे जाते.

कोई -कोई व्यंग कर ही जाते, "क्या मास्साब अब तो अगुआ झूलेगा दरवाज़े पे....जम के दहेज़ लोगे अब तो..."

पति हाथ जोड़ लेते..."ना ना भगवान का दिया सब कुछ  है..बस सुशील लड़की और संस्कारी घर मिल जाए"

पर लोगों   का कहना सच हो गया.... जंगल की आग भी क्या फैलेगी,जैसी प्रकाश की नौकरी लगने की खबर फैली...रोज कोई  ना लड़की के पिता,फोटो,टीपन लेकर हाज़िर हो जाते. पति कितनी बार कह देते अभी शादी नहीं करनी..दो साल बाद करेंगे.पर लोग जबरदस्ती मेज पर फोटो.टीपन  रख कर चले जाते.

पति ने डब्बे भर भर के  बिस्कुट और शहर से सरबत की बोतल लाकर रख दी थी. सख्त हिदायत दी कि ख़तम होने के पहले ही बता दिया जाए और लाकर रख देंगे. कोई भी दरवाजे से बिना सरबत पानी के नहीं लौटना चाहिए. दूर से आने वालों के लिए तो बाकायदा नाश्ता और कभी कभी खाना भी बनता. वे भी रसोई के डब्बे हमेशा देख लेतीं,कि सूजी,घी चीनी सब हमेशा मौजूद रहें.

मीरा और नमिता का अच्छा मनोरंजन होता. लड़कियों के फोटो देख मीन-मेख निकालती, इसकी नाक मोटी है, इसकी आँखें छोटी  हैं.

वे फोटो छीनकर घुड़क देतीं, "ई मत भूलो ,तुमलोग का फोटो भी अईसही कहीं जाएगा और लोग मीन-मेख निकालेंगे. "

दोनों एक सुर से बोलतीं, "हमें नहीं करनी सादी"

अबकी सिवनाथ माएँ,बोलतीं, "त का..माँ -बाप के छाती पे मूंग दलोगी जिंदगानी भर?"

"क्यूँ..पढेंगे लिखेंगे बड़ा आफिसर बनेंगे...पर तुमको  क्या पता..तुमको तो बस लड़की लोग सादी के लिए ही जनम लेती है...ये ही लगता है..चल मीरा बाहर चलते हैं...इन्हें समझाने का कोई फायदा नहीं."और नमिता उछलती कूदती बाहर चल देती.

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पति कहते, अभी कुछ दिन उसे मौज करने दो..तुरंत ही गृहस्थी में मत जोतो. एक बार मन में आता ,कहीं ये कारण तो नहीं कि 'अभी से अपनी गृहस्थी बसा लेगा तो फिर पैसे कैसे भजेगा..और कुछ बाग़ बगीचे बस प्रकाश की नौकरी लगने की बाट जोह रहें थे कि कब आज़ाद हों अपने असली मालिक के पास लौटें.'पर पति से यह सब पूछने की हिम्मत नहीं हुई. कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं कि खुद भी जिनका सामना करने की हिम्मत नहीं  होती, मन में आए विचार को भी झट से झटक दिए जाते हैं. जुबान पर लाकर पति से कैसे पूछतीं?

प्रकाश सिर्फ एक दिन के लिए घर आया.हॉस्टल का समान घर पर रखा. दुनिया भर का अल्लम गल्लम समान था. बोरी भर कर तो किताबें थीं. सिर्फ एक अटैची और बेडिंग ले कर चला गया. इतना समय भी नहीं दिया की वे ज्यादा कुछ बना पातीं. निमकी खजूर बना कर बाँध दिए. चिवड़ा देने लगीं तो मना कर दिया, फिर से एक नई चिंता सवार हो गयी.पता नहीं कहाँ रहेगा,रोज होटल में खायेगा. क्या सेहत रहेगी?

नमिता ने लड़कियों की तस्वीरें दिखानी चाहीं  तो प्रकाश ने एक नज़र नहीं डाली. और उन  से बोला,
 "माँ ये फोटो  वगैरह ना लिया करो और किसी से कोई वादा मत किया करो"

"अरे हमलोग कहाँ लेते हैं...वे लोग जबरदस्ती रख के चले जाते हैं."

"तो उठाकर वापस पकड़ा दिया करो..मुझे ये सब नहीं पसंद.."..उसे क्या  पता..कितना मुश्किल है, ये ...कितने लोग तो इतनी दूर से बार बार आते हैं और कहते हैं...बस आपलोगों से मिलने का मन हो आया...शादी की कोई बात नहीं करते, इधर उधर की  बातें करके चले जाते हैं....कोई कोई तो घंटों गाड़ी में ही बैठ, पति का इंतज़ार करते कि कब वे स्कूल से आएं. मीरा ,किसना ..गाँव के और बच्चे बताते कि दूर एक पेड़ के नीचे गाड़ी लगा कोई अंदर बैठा है"

इसे क्या  पता बेटी का  बाप होना क्या होता है...वे मन ही मन सोचतीं.

प्रकाश के पत्र आते, एक दोस्त के साथ मिलकर घर ले लिया है. होटल में खाता हूँ. बहुत ही महंगा शहर है, एक पैसा नहीं बचता. पति कहते, 'बेचारे के खुद के ही खर्च पूरे नहीं पड़ रहें,घर पर  क्या भेज सकेगा...और मुझे चाहिए भी नहीं...बस वो सुखी रहें"

छः महीने के बाद प्रकाश घर आया, उपहारों से लदा फंदा. बहनों के लिए सुन्दर सी घड़ी लाया था. उनके लिए कीमती साड़ी, पति के लिए बढ़िया  पोलिस्टर के शर्ट-पैंट का कपडा. यहाँ तक कि सिवनाथ काकी, राम-खिलावन काका के लिए भी साड़ी और कुरता लेकर आया था. बहुत खुश लग रहा था. उसकी  पसंद की सारी चीज़ें बनाईं. जब दोपहर को वो उनके पास आकर लेटा तो मन भर आया उनका.अब तक ये सब लाड़ वो दादी से ही करता था. उनसे ही अपनी फरमाईश की चीज़ें बनवाने को कहता. शहर की चीज़ों की बखान करता. मालूम है दादी, वहाँ दूध कैसे आता  है???...मशीन से..
लडकियां कैसे कैसे कपड़े  पहनती हैं,बताऊँ?"

और अम्मा जी डाँटती रहतीं, "तू यही सब करने गया है शहर में...पराई लड़की का केवल पैर का अंगूठा  देखना  चाहिए..."

"क्या दादी....मैं कहाँ देखता हूँ.....अब आँखें बंद कर चलूँ क्या सड़क पे...किसी गाड़ी के नीचे आ गया तो,..."
"भाग तू यहाँ से...जो मुहँ  में आता है..बोलता है.."अम्मा जी सचमुच नाराज़ हो जातीं.

आज उनके पास लेटा नए शहर, अपने ऑफिस अपनी नौकरी  के बारे में बता रहा था .फिर अचानक बोला, "अभी भी लड़कियों के फोटो लेकर लोग आते हैं?"

"आते तो हैं ही बेटा..लड़की वाले भी मजबूर हैं..कहाँ बात बन जाए,क्या पता,इसलिए कोशिश करते रहते हैं "
"माँ...असल में मैने इसलिए मना किया था क्यूंकि मैने एक लड़की पसंद कर ली है. उसके माँ-बाप भी मान गए हैं....और जब से नौकरी लगी है...शादी के लिए जोर दे रहें हैं "

अब बेटे के सारे लाड़ की वजह समझ में आ गयी.वो उसकी साड़ी,घड़ी लाने की ख़ुशी एकदम से तिरोहित हो गयी. क्या क्या सपने देखे थे...अब पता नहीं...कहाँ की  ,किस जात की, किस बिरादरी की लड़की है"

"तुम्हारे पिताजी मानेंगे?"

"पापा जी क्या अनपढ़ गँवार हैं  जो नहीं मानेंगे....टीचर हैं....टीचर तो समाज को नया रास्ता दिखाता है...मुझे पता है...वो ना नहीं करेंगे , पर ये बात तुम्हे ही वहाँ तक पहुंचानी होगी...मुझे अच्छा नहीं लगेगा...बात करते"

"ठीक है बेटा...चलूँ जरा आँगन में देखूं...मिर्चा सूखने को डाला था..शाम होने से पहले उठा लूँ"....कहती वे उठ आयीं.

रात में जब पति को बताया...तो वे चौंक गए फिर एकदम हताश हो, सर पर हाथ रखकर बैठ गए, "अब क्या कर सकते हैं...कोई बच्चा तो है नहीं...अगर मना करेंगे  तो बेटा भी हाथ से जायेगा...अब जो करे...हमने अपना धरम निभाया..अच्छी शिक्षा दी...अभी तक एक पैसा उसका नहीं जाना..खेत-बाग़-बगीचा सब गिरवी रख दिए ,का उसको पता नहीं कि खाली टीचर की तनखाह में ई सब नहीं हो सकता. जब वो अपनी जिम्मेवारी खुद नहीं समझता तो हमारे समझाने से क्या  समझेगा..जाने दो..सबूर करो, ममता की माँ...हम अपने कर्त्तव्य से नहीं चुके...बस यही  संतोष है"

फिर थोड़ी देर बाद पूछे..."कौन जात है?"

"मैने नहीं पूछा "

"हाँ ठीक है..... क्या फरक पड़ता है."...और थके क़दमों से बिस्तर पर चले गए सोने ,पर उन्हें  पता था आज नींद उनकी आँखों से दूर ही रहेगी.

प्रकाश  ने कुछ नहीं पूछा,कि बाबूजी ने क्या बोला...बस इतना बताया कि कुछ दिनों में लड़की के पिता आयेंगे. सब बात कर लेना. यानि कि उनलोगों की सहमति-असहमति की कोई गुंजाईश ही नहीं छोड़ी  थी. दूसरे दिन ही वह चला गया, यह कहते कि छुट्टी नहीं है और फिर छुट्टी बचानी भी है. उसका इशारा वे समझ गयीं थीं.

उसके जाने के बाद, नमिता उनके पास आई और बड़े गहरे  राज़ भरे स्वर में बोली, "माँ नाराज़ तो नहीं होगी...कुछ दिखाऊं तुम्हे ?"

उनके 'क्या'का इशारा करने पर पीछे छुपे हाथ आगे कर दिए, "ये देखो अपनी बड़की पुतोह का फोटो..."

सुन्दर सी शहरी लड़की लग  रही थी,जैसे शहर में खाने को नहीं मिलता..सींक सलाई सी

उन्होंने कुछ नहीं बोला, तो नमिता बोली..."माँ भैया कह गए हैं...माँ को मनाना तुम्हारी जिम्मेवारी...क्या फर्क पड़ता है, माँ ज़िन्दगी तो भैया को बितानी है,ना..."

"मैने कहाँ मना किया है..प्रकाश को भी कुछ नहीं बोला..."

"ओह्ह तो तुम्हे सब मालूम  है..."वो अपने ऊपर से इतना जिम्मेवारी वाला काम हट जाने से दुखी हो गयी..
"हाँ सब मालूम है...और अब जरा घर दुआर को साफ़ सुथरा रखा कर...बाहर टेबल पर भी ममता का कढाई किया हुआ टेबल क्लॉथ बिछा दिया कर. कभी भी लड़कीवाले बात करने आ सकते हैं.

"अरे वाह...तब तो भैया का ब्याह जल्दी ही होगा...कितना मजा आएगा..."कहती खुश होती वो चली गयी.

आठ दिन भी नहीं बीते थे कि इक इतवार को ,एक चमचमाती कार दरवाजे पर रुकी.एक सूटेड बूटेड सज्जन कार से उतरे. वे जल्दी से  पति को बुलाने चली गयीं.."अरे जरा कुरता बदल लीजिये...ये दिन भर पहने से मुचड़ गया है..इस्त्री किया हुआ पहन लीजिये वो तो कदम सूट-बूट में डटे हुए हैं"

पति मुस्कुरा दिए.."तो क्या हुआ...बेटा के बाप तो हम हैं..मेरे दरवाजे पर वे आए हैं...हम तो ऐसे ही जाएंगे...तुम जाओ नाश्ता-पानी का इंतज़ाम देखो...बढ़िया नास्ता बनाना ...रिश्तेदारी जुड़ने जा रही है"

उनका मन नहीं लगता चौके में...कलावती को हलुआ बनाना समझा वे दरवाजे की ओट में जाकर बात सुनने की कोशिश करतीं. फिर दूसरे ही पैर चौके में लौटतीं.

पति बड़े इत्मीनान से उनसे बातें कर रहें  थे...आज उन्हें पढ़े -लिखे की कीमत समझ में आई. लड़की के बाप तो रंगीन कमीज़ में एकदम किसी फ़िल्मी हीरो जैसे लग  रहें थे.पर मैले कुरते में भी उनके पति उनसे एकदम समान स्तर पर बात कर रहें थे. शायद बेटे के बाप होने के दर्प ने भी उनका माथा ऊँचा रखा था. जब उन्होंने लेन -देन की बात छेड़ी तो पति ने एकदम कह दिया, "ना...मैं नहीं विश्वास करता दान -दहेज़ में. आप चाहें तो अपनी लड़की को दो कपड़ों में भेजें या नौलक्खा हार पहनाकर आपकी ख़ुशी.पर जो  देना हो अपनी बेटी को दें...मुझे कुछ नहीं चाहिए"

"लेकिन बारात लाने का खर्चा...शादी का खर्चा ..उतना तो ले लीजिये"

"ना..इतना दिया है भगवान ने कि मैं बेटे की शादी में एक भोज खिला सकूँ, गाँव को...आप माफ़ कीजिये हमें"..पति ने हाथ जोड़कर मना कर दिया.

वे दरवाजे के पास से कलावती और मीरा के हाथों,नाश्ता शरबत भेज रही थीं. लड़की के पिता ने आहट सुनकर कहा, "भाभी जी को भी बुलाइए,उनके भी दर्शन कर लूँ...इतने भाग्य वाली  है मेरी बेटी कि ऐसा घर-वर उसे मिला है....धन्य हो जाऊंगा मैं गृहलक्ष्मी के दर्शन करके"

"ममता की माँ...बाहर आओ...तुमसे  मिलना चाहते हैं.."

उनकी तो सांस रुक गयी...ऐसे कैसे चली जाएँ..गैर मर्द  के सामने.

"ममता  की माँ "..इस बार पति की आवाज़ में खीझ  और गुस्सा था.

वे जल्दी से सर पर पल्ला संभालते,बाहर चली आयीं.

वे सज्जन एकदम हाथ जोड़ते उठ खड़े हुए. उन्हें झुक कर नमस्ते कहा.और कुर्सी पर बैठने का  इशारा करने लगे.

उनकी पूरी ज़िन्दगी में किसी ने इतना सम्मान नहीं दिया था . वो भी एक गैर मर्द ने. लड़के की माँ होने का क्या इतना रुतबा होता है? किसी तरह फंसे गले से उनके नमस्ते का उत्तर दिया.और सर झुकाए ही खड़ी रहीं. कुर्सी पर तो बैठने का  सवाल ही नहीं था. खड़े होने में ही उनके पैर काँप रहें थे. फिर जल्दी से बोलीं, "मैं  गरम पूरियां भेजती हूँ..आप शुरू  कीजिये"इतना बोलने में ही उनका चेहरा लाल हो गया और वे हांफती हुई अंदर चली आयीं.

प्रकाश की बारात शहर में ही गयी. नमिता,स्मिता,ममता सब बारात में गयीं.पहले लड़की लोग नहीं जाती थी  पर प्रकाश और बच्चों ने जिद किया. तो पति को भी उनकी बात माननी पड़ी. सारा काम प्रमोद देख रहा था. खाने नहाने की भी सुध नहीं रहती उसे. लौट कर चपर चपर करनेवाली नमिता ने बताया.."माँ ऐसा सजा  था मंडप कि गाँव वाले लोग तो आँख फाड़ कर देख रहें थे...और खाना तो बस क्या बताएं. बहुत बढ़िया इंतज़ाम था माँ. और भाभी तो किसी परी सी लग रही थी."

बहू सचमुच अच्छी थी,अब प्रकाश ने पट्टी पढाई थी या वो ही सीधी थी.पर रस्म निबटाती रही,उनके कहे अनुसार.

जब दूसरे दिन मुहँ दिखाई की रस्म होने वाली थी तो दोनों बहनों में ही बहस हो गयी. ममता का मन था जैसा गाँव में होता है, आँखें बंद कर बहू  का घूँघट उठा कर सब मुहँ देखते हैं,वैसा ही होना चाहिए. जबकि स्मिता ने कहा, :"ना दीदी अब शहर की कोई लड़की घूंघट  निकालने को तैयार नहीं होती. एक कुर्सी पर भाभी को तैयार करके बिठा देते हैं.और आस-पास कुछ  कुर्सी लगा देते हैं .पलंग तो है ही कमरे में. लोग आएँगी वहीँ बैठकर भाभी का मुहँ देख लेंगी"

"पर गाँव वाले बातें बनायेंगे"

"बनाने दो...वो तो वैसे भी बनायेंगे..कोई ना कोई कमी खोज ही लेंगे..चाहे तुम कुछ भी करो..और हमलोग बदलाव नहीं  लायेंगे तो ई सब कैसे बदलेगा...किसी को तो शुरुआत करनी पड़ेगी,ना..अपने घर से ही शुरुआत होने दो. "

ममता भी  मान गयी...और उन्हें संतोष हो आया...ऐसे ही ममता को गाँव में ब्याह कर वे थोड़ी असंतुष्ट थीं. कहीं दोनों  बहनों में कोई द्वेष ना हो जाए.अब स्मिता , बंबई की दुनिया में रम गयी थी, पहले सी बीमार नहीं दिखती,चेहरे की रंगत भी लौट आई थी.

पर कुछ लोगों ने कमी निकालने में कोई कोर कसर  नहीं छोड़ी. दिलीप की माँ तो वहीँ पर जोर से बोली..."इ देखो..नईकी बहुरिया त  कुर्सी डटा कर बैठी है, ना घूंघट ना पर्दा....ई त सहर नहीं हैं...इहाँ त गाँव का रिवाज़ चलना चाहिए"

"चाची..बढ़िया है ना...जी भर के देखो बहुरिया को...घूंघट उठा के एक पल को, बस देखने को मिलता...और इतना गर्मी है,कहीं घूंघट के चलते बेहोस हो जाती तो वो भी देखने को नहीं मिलता."ममता ने सफाई दी .

"हाँ आखिर दादी की पोती हो ना..उनपर ही जाओगी ..ऊ भी हमेसा गाँव में नया चाल चलाती थीं."उनके बेटे की दूसरी शादी होने से अम्मा जी ने रोका था यह बात वे भूली नहीं थी जबकि शादी के आठ साल बाद, दिलीप की बहू के गोद में फूल सा बेटा खेला, ये बात वो याद नहीं रखतीं.

सब कुछ हंसी ख़ुशी  निबट रहा था. वो एक एक रस्म याद करके करवा रहीं थीं. दूसरे दिन ही प्रकाश ने बोला, 'माँ आज शाम हम लोगों  को निकलना है.."

"हम लोगों को?"....वे बिलकुल नहीं समझीं.

"हाँ माँ,मुझे और प्रीति को वो क्या है ना....प्रीति के पिताजी ने कश्मीर का टिकट कटवा दिया है...वहाँ घूमने जाना है...नहीं तो टिकट बेकार हो  जायेगा.."

"बस तुम और दुल्हिन?"

"हाँ माँ..प्रकाश कुछ झेंप गया "...तो वो बडबोली,नमिता बोली.."का माँ .तुमको तो कुछ पता ही नहीं..भैया हनीमून पर जा  रहें हैं.."

"हनीमून....वो कौन सी जगह है...कश्मीर तो सुना है.."

प्रकाश उठकर बाहर चला गया. स्मिता धीरे से हाथ पकड़ उन्हें एक तरफ  ले गई , "माँ आजकल लड़का -लड़की शादी के बाद घूमने जाते हैं...उसे ही हनीमून कहते हैं.."

"अकेले??"उन्हें ये बात बिलकुल समझ  नहीं आ रही थी.

नमिता फिर टपक पड़ी..."तो क्या पूरे गाँव को लेकर जाएंगे?..दीदी तुम छोडो माँ को समझ में नहीं आएगा."

तभी छटंकी मीरा बोल पड़ी.."हनीमून में क्या मून को देख के हनी खाते हैं "आजकल उसे अंग्रेजी पढने का बहुत शौक चढ़ा था. पति छोटी छोटी अंग्रेजी की कहानियों की किताबें ले आते और वो उनमे से पढ़ उन्हें भी सुनाया करतीं...और शब्दों के अर्थ मोटी सी डिक्सनरी से ढूंढ कर बताया करती.पति की तरह इसे भी पढने का बड़ा शौक था. हर वक़्त किताबें थामी रहती.

पर स्मिता ने डांट दिया उसे, "भाग यहाँ से अंग्रेजी की बच्ची जब देखो...बड़ों के बीच में घुसी रहती है..जा बाहर जा के खेल"

"पर 'चौठारी 'कैसे होगा...रोज़ ही कोई ना कोई रस्म होते...हर दिन एक रस्म  का तय था"

"माँ , अब तुम अपने आप कर लेना रसम. भैया  की शादी क्या आम शादी जैसी है?...जब दूसरे जात की लड़की लाने में परहेज़ नहीं की तो फिर ई सब रसम के पीछे क्यूँ पड़ी हो." ..अपनी छोटी बेटी को कंधे पर थपकाते ममता बोल पड़ी.

"धीरे बोल.... गाँव में अभी किसी को नहीं  मालूम...."

"क्या माँ...सबको पता होगा..ऐसी बातें नहीं छुपतीं..तुम्हारे मुहँ पे कोई नहीं बोलता...सब काना फूसी करते होंगे"...और वे सोचने लगीं..कितनी सयानी हो गयी हैं उनकी बेटियाँ...उन्हें ही घेर कर समझा रही हैं.

और अब उन्हें पता चला कि बहू के मायके की गाड़ी और ड्राइवर अब तक क्यूँ रुका हुआ था. इन्हें वापस ले जाने को. और बहू क्यूँ सर झुकाए सारे रसम कर रही थी. उसे तो पता था, दो दिन बाद चले ही जाना है..चलो सुखी रहें दोनों..जहाँ रहें, उन्हें और क्या चाहिए. सोचती पर मन ही मन उदास होती वे गाँव में बयना भेजने की तैयारी करने लगीं. हफ्ते भर में सारे मेहमान चले जाएंगे. बहू  तो शाम को ही चली जाएगी. लगेगा ही नहीं इस घर में अभी अभी ब्याह हुआ है और दुल्हन उतरी है.

(क्रमशः)

उदास आँखों में छुपी झुर्रियों की दास्तान (भाग -5)

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(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे,अपना  पुराना जीवन याद करने लगती हैं.उनकी चार बेटियों  और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे.बड़ी बेटी ममता की शादी ससुर जी ने पति की इच्छा के विरुद्ध एक बड़े घर में कर दी.वे लोग ममता को तो कोई कमी नहीं महसूस होने देते पर उसे मायके नहीं आने देते. दो भाइयों के बाद जन्मी नमिता,बहुत निडर थी,साइकिल चलाती,पेड़ पर चढ़ जाती और गाँव भर में घूमती रहती )

गतांक से आगे


स्मिता भी दसवीं पास कर गयी और उसके भाग्य से पास के गाँव में ही एक कॉलेज भी खुल गया. पति बहुत प्रसन्न थे. बेटियों के कॉलेज में पढने का सपना अब साकार होता दिख रहा था. बार बार कहते, "पता नहीं शहर भेजने को अम्मा-बाउजी तैयार  होते या नहीं,अब तो झंझट ही ख़त्म. "

उन्होंने आशंका जताई, "वो गाँव भी तो इतना पास नहीं, बाबू जी मान जायेंगे? "

"हाँ, बिलकुल मानेंगे  कोई स्मिता अकेली थोड़े  ही ना जाएगी, शिवशंकर  बाबू की बिटिया भी जाएगी, रामबाबू मास्टर साहब की बेटी भी है,कुल पांच लडकियां हैं,हँसते बतियाते चली जाएँगी....सबसे बात हो गयी है. इसे तो जरूर बी.ए. तक पढ़ाऊंगा,किस्मत की धनी है...इसके इंटर करते ही बी.ए. की पढ़ाई भी शुरू हो जानी चाहिए"

बाबूजी, अनिच्छा से मान  गए,अम्मा जी ने जरूर बहुत विरोध किया ,"अरे लड़िका खोजने में चप्पल घिस जायेगी,पढ़ी लिखी लड़कियों से कोई ना चाहे है,शादी करना...क्या करेगी ई.ए. ,बी.ए. कर के ...आखिर घर संसार ही तो चलाना है"

"तुम नहीं समझोगी अम्मा,पढ़ लिख कर ,घर संसार भी बढ़िया से चलाएगी...अब ज़माना बदल रहा है..."

"हाँ ,बेटा ऊ तो देखिए रहें हैं...बेटी दूसर गाँव पढने जायेगी...जमाना तो बदल ही गया है."...अम्मा जी बेटे के इस तरह मुहँ उठा कर जबाब देने से ही आहत थीं.अब बिलकुल ही हथियार डाल दिए..."जो हरि इच्छा "कहतीं बाहर चली गयीं.

पर पति ने खुद ही  स्मिता को बी.ए.कराने का सपना देखा और खुद ही उसमे खलल डाल दिया. स्मिता बारहवीं में थी, तभी उनके साथी ,शिक्षक ने अपन भतीजे के लिए स्मिता का हाथ मांग लिया. उनका भतीजा बम्बई में रहता था. पति तो बस इस बात से ही रोमांचित हो रहें थे कि उनकी बेटी इतने बड़े शहर में जा रही है. वे कुछ आशंकित  हो रही थीं,इतनी दूर कैसे ब्याह दे बिटिया को. अम्मा -बाऊ जी ने भी टोका पर पति के उत्साह के आगे किसी कि ना चली, एक ही तर्क था 'क्या ज़िन्दगी भर कूप मंडूक बने रहेंगे बच्चे .बाहर निकलने दो उन्हें दुनिया देखने दो....हम ना देख सके तो क्या,उनकी आँखों से ही देखेंगे"

लड़के की भी बड़ी तारीफ़ करते कि उन शिक्षक की बेटी की शादी में आया था बंबई से, सारा दिन काम करता रहता. शहर  के होने का कोई रौब नहीं.बहुत सुसंस्कृत  लड़का है. परिवार भी बहुत बढ़िया है.

पति अति-उत्साहित थे.सारा इंतजाम खुद देख रहें थे.वरना ममता की शादी में तो खुद ही मेहमान जैसे  लगते  थे. बाबूजी के हाथ में उस समय सारी बागडोर थी. अपने जमा किए हुए पैसे भी निकाल लाते बैंक से. उन्हें ही टोकना पड़ता,अभी दो बेटियाँ और हैं...दो बेटों की पढ़ाई -लिखाई है. हुलस कर कहते,"अरे ममता की माँ, सब अपना भाग लेकर आते हैं...तुमने कभी सोचा था, बेटी बम्बई में रहेगी...कभी सपना भी देखा था. ई तो स्मिता का भाग है"

खाना-पीना ,कपड़े लत्ते, इंतजाम बात सब नए ढंग का. पर बाराती इतने सीधे थे,कोई हंगामा नहीं किया,कहीं नाक-भौं नहीं सिकोड़ी...चढ़ावे में कोई नुक्स नहीं निकाले. लड़के वाले का कोई रौब था ही नहीं. वे लोग जैसा कहते झट से मान लेते. लड़का भी चाय-बिस्कुट पर पला,दुबला-पतला बिलकुल शहरी ही लग रहा था. पर मुस्कुराते हुए  अदब से सबके पैर छू रहा था.

वरना ममता के  पति, की अब सारी असलियत दिख रही थी. बिलकुल दामाद वाले नखरे. इतने दिनों में ममता को मुश्किल से तीन  बार मायके आने दिया. बाहर से ही मोटरगाड़ी से छोड़कर चले जाते. जब लेने आते तो सौ मनुहार के बाद घर में कदम  रखते  और  बस एक टुकड़ा मिठाई और एक गिलास पानी पीते और जल्दी मचाते जाने को. ममता के गुलगोथाने  से बेटे को भी वे स्मिता की शादी में ही देख पायीं. मन भर गोद में खिला भी नहीं पायीं. शादी का घर ,सौ काम में बझी रहतीं और वह, कभी इसकी गोद में  कभी उसकी गोद में चढ़ा , काजल लगाए उन्हें टुकुर  टुकुर निहारा करता. बस काम करती उस से बतियाती रहतीं...बेटियाँ हंसती ,"माँ को कुछ हो गया है..."..उन्हें क्या पता, नाती को जी भर कर  नहीं खिला पाने का दुख क्या होता है और दुख और बढ़ गया  जब सुबह स्मिता की विदाई हुई और शाम को ममता को लेने दामाद आ गए.

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प्रकाश का मैट्रिक  का रिजल्ट आया और उसे  जिला भर में पहिला स्थान मिला.कितने सारे ईनाम मिले. गाँव वाले तो उनकी किस्मत से सिहाने लगे...आते  जाते तंज कस देते..."का हो मास्टर बाबू...
भगवान तो छप्पर फाड़ के खुसी दे रहें हैं...बटोर लो दोनों हाथों से"

पति कभी खीझ कर ,कभी मुस्कार कर ,अनसुनी कर जाते ये बातें.

 ससुर जी को कोई कुछ कहने की हिम्मत तो नहीं  करता पर वे खुद ही शाम को चौपाल लगाए बैठे  होते.हर आने जाने वाले को बिठा कर जोर शोर से सुनाते, "अरे बड़की पोती  इतना बढ़िया घर में  गयी है, छोटकी का बंबई  बियाह हुआ...और अब देखो पोता जिल्ला भर में परथम इस्थान लाया."और फिर जोर से आवाज़ लगाते .."परकासsss......ओ  परकासsss ..... चलो पैर छू कर आसिरबाद लो,यही काम आएगा,  आगे जीबन में "

प्रकाश भुनभुनाता हुआ,वापस आता, "नुमाईश की चीज़ हूँ जैसे मैं...हाथ धुलाओ,इतने धूल धूसरित,कीचड़ लगे पैरों को हाथ लगा कर आ रहा हूँ "

"ऐसा नहीं कहते बेटे...मन से सब आशीर्वाद देते हैं.."

पर वो नहीं सुनता,गमछा से हाथ पोंछते भुनभुनाता रहता..."कब कॉलेज में एडमिशन हो और मैं शहर जाऊं...मन नहीं लगता अब यहाँ ,मेरा"

सोचतीं,अभी तो शहर गया नहीं और गाँव से मन उबने लगा...वहाँ जाने पर क्या होगा. और हुआ भी यही. एक घर लेकर एक नौकर, राशन पानी सबका इंतज़ाम हुआ और प्रकाश, पास के शहर  में पढने लगा. शुरू शुरू में इतवार सनीचर आ जाता ,अब तो दो दो महीने गुजर जाते और राम जाने सच या झूठ पर वो पढ़ाई और ट्यूशन  का बहाना कर घर नहीं  आता. पिता,प्रमोद और कभी कभी बहनें भी जाकर मिल आतीं. बस वे और अम्मा- बाउजी  उसकी बाट जोहते रह जाते. पर जब स्मिता बम्बई से आई तो दौड़ा दौड़ा चला आया बहन से मिलने.

स्मिता शादी के छः महीने बाद दस दिन के लिए आई थी. देखकर एक बार तो चौंक ही गयीं...एकदम दुबली पतली...चेहरा पीला पड़ गया था...आँखों के नीचे काले गड्ढे...घबरा गयीं वे...."बीमार थी क्या..."

"ना माँ...बस ऐसे ही ".

साथ में दामाद जी भी थे. बोल पड़े, "इसीलिए तो लेकर आया हूँ..इन्हें वहाँ का खाना रुचता ही नहीं. अब थोड़ा अपने हाथ का बना  खिलाइए कि इनके चेहरे की रंगत लौटे."

पहले तो उन्हें लगा...शायद ससुराल में ,ठीक व्यवहार  नहीं  करते. पर एक दिन में ही शंका निर्मूल सिद्ध हुई. जिस तरह दामाद उसका ख्याल रखते...देख मन को शांति मिलती. लगता बरसों बाद घर में इतनी हंसी ख़ुशी आई है. दामाद ,अपने साले -सालियों से खूब घुल -मिलकर बातें करते. सुबह सकारे ही गाँव में घूमने निकल जाते. बच्चे भी उन्हें दिन भर बगीचे, नहर, पोखर घुमाते रहते. कितनी सारी तो फोटो खींच डाली. उनका बनाया भी छक कर खाते और एक एक चीज़ की तारीफ़ करते. इतना तो कभी उनके बेटों ने भी नहीं की .सास ससुर से भी खूब गाँव के किस्से सुनते. पति से उनके स्कूल की सारी खबर ली. फिर स्मिता को मायके छोड़ अपने गाँव चले गए और उन्हें बार बार ताकीद कर दी..."अच्छे से खिलाइयेगा इन्हें "

उन्हें हंसी भी आई...आज लगा बेटी पराई हो गयी है...उसका ख़याल रखने को उन्हें ,कोई और बता रहा है. सारे बच्चे स्मिता के आगे पीछे घूमते रहते..."छोटकी दी..बंबई  के किस्से सुनाओ ना...फिर सब उसे घर कर बैठ जाते और वो वहाँ की बातें बताया करती..."इतने ऊँचे ऊँचे घर है...थक जाओगे पर गिन नहीं पाओगे, कितना मंजिला  मकान है??  इतनी तेज ट्रेन चलती है. लोग ऑफिस भी ट्रेन से जाते हैं...चारो तरफ बिजली रात तो कभी लगता ही नहीं...समंदर में
 इतनी ऊँची ऊँची लहरें "

सब आँखें फैला कर सुनते रहते और उनकी आँखों में बंबई एक सुनहरा सपना बन सज जाता.

जब दामाद जी,स्मिता को लेने आए तो वे भी उसे देख हैरान  रह गए...इन आठ दिनों में ही उसके चेहरे का गुलाबीपन लौट आया था. चेहरे पर रौनक आ गयी थी. उसके विदा होते फिर से सबकी आँखें गीली हो गयीं. एक ही गुहार थी सबके मुहँ पे.."बेटी चिट्ठी लिखती रहना  "


और स्मिता की   चिट्ठी हर हफ्ते, दस दिन पर आ जाती. चार पन्नों की चिट्ठी में वो वहाँ का सब हाल लिखती.उसकी चिट्ठी आती और सबलोग हर काम छोड़ एक जगह जुट जाते. दरवाजे के अंदर सर पर पल्ला खींचे वे खड़ी होतीं. बाबूजी दरवाजे के बाहर कुर्सी पर बैठ जाते,अम्मा जी चौकी पर बैठी होतीं.पति कहते कि वे खुद बाद में पढेंगे पर खुद भी आँगन से लगे बरामदे में रखी  मेज कुर्सी पर बैठ जाते. नमिता  दरवाजे के बीचोबीच खड़ी, जोर जोर से  चिट्ठी पढ़ती. मीरा अपनी बड़ी बड़ी आँखें उस पर टिकाये ऐसे सुनतीं जैसे सारी बातें आँखों से ही पी रही हो. कोई बीच में जरा सा कुछ बोलता और नमिता के नखरे शुरू हो जाते. चिट्ठी वाला  हाथ पीछे कर लेती, "मैं नहीं पढ़ती अब...आपलोग हल्ला करते हैं  "

फिर दादी के उलाहने, दादा की प्यार भरी झिड़की ,उनकी डांट और मीरा के बार बार उसके फ्रॉक खींच कर मनाने "दीदी जल्दी जल्दी पढो,ना "के बाद ही वो शुरू करती...बीच बीच में कोई बात  अपनी तरफ से भी जोड़ देती,पर वो  सबलोग पकड़ लेते, "जा स्मिता नहीं लिख सकती ऐसा...तेरे जैसी शैतान नहीं रही वो कभी"और नमिता जोर से हंस पड़ती. चिट्ठी सुनने में व्यवधान  पड़ता देख सास बोल पड़तीं,""खुद दीदे फाड़ रही है,तब डिस्टरब नहीं हो रहा..हम बोलें तो कहती है...हल्ला काहे करते हैं "स्मिता पड़ोस वाले फुलेसर चाचा के दमे और  गाये के बछड़े से लेकर पूरे गाँव भर का हाल पूछती .

उसके बाद चिट्ठी के  जबाब देने का सिलसिला शुरू होता. तीन दिन तक सब अपनी अपनी बातें याद कर नमिता को बताते, ये लिख देना...ये भी लिख देना. यहाँ भी उसके नखरे सहने पड़ते. कलम बंद कर के रख देती. एक बार सारी बातें याद करके बताओ तब लिखूंगी. दोनों बहनों को वो अलग से चिट्ठी लिखती जिसे वे कमरे में जाकर  पढ़तीं और खी खी करके हंसतीं. वे कुछ नहीं पूछतीं, ये बहनों  की आपस की बात है. पर नमिता के पेट में तो पानी भी नहीं पच सकता...सारी बातें उगल देती, "माँ वहाँ .गणेश जी की पूजा होती है...विसर्जन में सड़क पर औरतें भी नाचती हुई जाती हैं.. वहाँ सब बालों में फूल लगाते हैं...औरतें भी क्या मोटरगाड़ी भगाती हैं..."एक दिन दोनों बहनें चिट्ठी लेकर अंदर गयीं और उलटे पैर ही चीखतीं हुईं निकलीं..."माँ.. माँ छोटकी दी ने लिखा है...हम मौसी बनने वाले हैं."स्मिता को उन्हें लिखते हुए लाज आई थी पर बहनों के माध्यम से बता दिया था. तुरंत अपने गिरधर गोपाल को माथा टेकने चली गयीं वे.

ममता के बेटे के जन्म पर टोकरी भर भर कर मिठाई, फल,घर भर के कपड़े लेकर सबलोग ममता की ससुराल गए थे, बस उन्हें और अम्मा जी को छोड़. पर इतनी दूर बम्बई सबलोग तो नहीं जा सकते. लेकिन किसी का जाना भी जरूरी है. अगर बेटा हुआ तब तो ठीक वरना, बेटी हुई तो फिर पिता ,बेटी के घर का पानी कैसे पियेंगे? और बम्बई  में वे रहेंगे कहाँ? लोग मानते हैं कि अगर बेटा हुआ  तो फिर वह सारा धन नाती का हो गया, इसलिए पिता, बेटी के घर भोजन,जल ग्रहण कर सकते हैं. सब बड़े पेशोपेश में थे लेकिन ससुर जी ने ही समस्या  का हल निकाला, कहने लगे, "अब लड़की सब कॉलेज जा रही है,बेटी का ब्याह इतना दूर कर दिए हो....तब पुरानी बात कैसे चलेगी...कोई हर्जा नहीं है बेटी के यहाँ का अन्न-जल ग्रहण करने में. "

और अच्छा हुआ कि ये सारी मंत्रणा  पहले ही हो गयी क्यूंकि स्मिता ने एक प्यारी सी बेटी को ही जन्म दिया. पति, छोटे बेटे प्रमोद के साथ बम्बई  जाने की तैयारी करने लगे.पर प्रमोद बीमार पड़ गया और प्रकाश की परीक्षा चल रही थी. इतनी दूर का सफ़र पति अकेले कैसे करें और ना जाएँ तो बेटी की क्या नाक रह जायेगी ससुराल में कि ऐसे मौके पर भी मायके से कोई नहीं आया.

ऐसे में  ससुर जी ही आगे आए, बोले ,"ई नमिता रानी को काहे नहीं ले जाते...सौ लड़कों के बराबर है...रास्ता भर चौकस,चौकन्नी रहेगी एक बिलाई की तरह...तुमको भी कोई दिक्कत नहीं होगा."

नमिता जोर से पलंग पर से कूद कर, दौड़ कर बाबू जी से लिपट गयी...."अच्छे बाबा.....मेरे अच्छे बाबा

बाबू जी की पूरी जिंदगानी में कोई उनसे इस  तरह नहीं लिपटा होगा. उनके बेटा- बेटी  तो उनसे भर मुहँ कभी बोलते भी नहीं थे.पर बाबू जी हँसते रहें..."अरे छोड़...गिराएगी क्या "

नमिता बंबई  जाने की तैयारी में लग गयी. शहर से नए डिजाईन का कपडा भी खरीद कर ले आई कि कहीं दीदी के ससुराल वाले उसकी बहन को गँवार ना बोले. रोज मीरा को सामने बैठा तरह तरह से बाल बनाती.

ढेरों साज-समान और स्मिता और उसकी बिटिया के लिए पूरे गाँव भर का आशीर्वाद लेकर दोनों बाप-बेटी बंबई  के लिए रवाना हो गए.

दस दिन बाद जब वे लौटे तो निचुड़े हुए आम से निस्तेज दिख रहें थे. लगा शायद सफ़र की थकान है.पर ये सफ़र से ज्यादा मन की थकान थी. हमेशा के मितभाषी पति ने तो बस पूछी गयी बातों का  जबाब दिया .."स्मिता और उसकी बिटिया ठीक है....उनलोगों  को समान बहुत पसंद आया...अच्छी खातिरदारी की हमलोगों की....दामाद जी को जैसे ही छुट्टी मिलेगी वे स्मिता को लेकर गाँव आयेंगे"और "बहुत थक गया हूँ...आराम करने जा रहा हूँ "और ये कहते वे कोठरी में चले गए.

पर चरखी जैसा मुहँ चलाने वाली नमिता बिना पूछे ही बोलती गयी...."माँ कैसे रहती है..छोटकी दीदी वहाँ...बाप रे! एक कमरे का मकान है माँ, एक कमरे का. ..और तुम्हारी बेटी कहाँ सोती है पता है?...रसोई में जमीन पर "

"जमीन पर.??..क्या कह रही है तू"....उन्होंने आश्चर्य से पल्ला मुहँ पर ले लिया....अब तो गाँव में खेतों में काम करने वाले खेतिहर भी चौकी और चारपाई पर सोते हैं...और उनकी बेटी बम्बई जैसे शहर  में जमीन पर सोती है?...यकीन  नहीं कर पा रही थीं वे.

"हाँ...माँ...और वो भी चटाई जितनी जगह पर...और पता है, वो भी चैन से नहीं...रात के दो बजे उठकर बड़े बड़े ड्रम में पानी भरती है. वहाँ, नल में रात में पानी आता है... छत पर जिस कमरे में मीरा गुड़िया खेलती है ना, वह कमरा भी दीदी के घर से बड़ा है... कहाँ ब्याह दिया तुमने छोटकी दी को...."कहते गला भर आया उसका.

पर तुरंत ही आँसू गटक कर बोली..."तुम पूछती थी ना , ऐसी पीली काहे पड़  गयी है...पीली नहीं पड़ेगी  तो और क्या, ना उस घर में धूप आती है,ना बयार...बस दिन भर एक पंखा टुक टुक करके हिलता रहता है. इतनी गर्मी सारा बदन चिप चिप करता रहता है...और नहाने को पानी नहीं... माँ जीजाजी को बोलो ना ,नौकरी छोड़ कर गाँव में आकर हमारे साथ रहें...उनको भी तो गाँव कितना पसंद है...दीदी की बिटिया चलना कैसे सीखेगी वहाँ..इतना छोटा तो घर है ...किधर चलेगी वो.."

"अच्छा चल..अब कल सुनाना अपना बंबई पुराण...कुछ खा-पीकर आराम कर ले "...उनसे यह सब सुना नहीं जा रहा था. वे उठ कर चली गयीं.

मीरा बंबई  के और भी किस्से सुनने को बेताब थी..."दीदी बताओ ना कहाँ कहाँ घूमी....समंदर देखा? "

"अरे क्या घुमूंगी, वहाँ केवल पानी का समंदर  ही नहीं,आदमी का भी समंदर  है...जिधर देखो खाली सर दिखता है...इतना धक्का-मुक्की.....फिलम जैसा कुछ नहीं है रे...सब झूठ दिखाते हैं..फिलम में"

मीरा भी निराश हो चली गयी.

वे दीवार का सहारा  लिये चुपचाप ढलते सूरज को देख रही थीं..ये क्या लिखा है उनकी बेटियों के भाग में...एक के पास धन धान्य सबकुछ है तो घरवाले इतने कड़क हैं. एक के घर वाले अच्छे हैं पर उसका जीवन इतना कष्टमय और आँचल  की कोर से आँसू पोंछ लीं  उन्होंने.
(क्रमशः)

♫ उदास आँखों में छुपी झुर्रियों की दास्तान (भाग -6)

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(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे,अपना  पुराना जीवन याद करने लगती हैं.उनकी चार बेटियों  और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. दो बेटियों में से एक की शादी गाँव में हुई थी,उसे  सब सुख था,पर ससुराल वाले कड़क मिजाज थे. दूसरी की शादी बंबई  में हुई थी, घर वाले अच्छे थे पर जीवन कष्टमय था. छोटी बेटी नमिता गाँव में लड़कों की तरह साइकिल चलती,पेड़ पर चढ़ जाती.)

गतांक से आगे

प्रकाश ने इंजीनियरिंग  की परीच्छा  में बढ़िया नंबर लाये और दूर कलकत्ता के पास खरगपुर में उसको एडमिशन  मिल गया. जब कॉलेज और होस्टल के खर्चे की बात उन्होंने सुनी तो उन्हें चक्कर आ गया. इतने पैसे कहाँ से आयेंगे?? वो भी चार साल तक?? पति की अब तक की सारी जमा पूँजी, स्मिता के ब्याह में खर्च हो गयी थी. जमीन जायदाद तो बहुत थी. पर उसे बेचने की बात, सोचना भी जैसे पाप था. पीढ़ियों से इस जमीन जायदाद में कुछ ना कुछ  बढ़ोत्तरी ही होती आ रही थी तभी,आज इसका ऐसा रूप था, उसमे इज़ाफ़ा करने के बजाए  कुछ कमी करने की सोच कर भी  कलेजा मुहँ को आ जाता.ससुर जी को ये जमीन के टुकड़े अपने जिगर के टुकड़े जैसे प्यारे थे.आज भी वो कोई ना कोई जुगत भिड़ाते रहते कि कौन सी जमीन कैसे खरीदी जाए.

 फसलों से घर के सारे खर्च....तीज़-त्योहार...न्योता-व्यवहार....निकल जाते..फिर इतने नौकर चाकर...गाय बैल...बीज,खाद... कटाई बुवाई की मजदूरी...ट्यूबवेल...ट्रैक्टर... हज़ारों खर्च थे. पति की तनख्वाह तो कपड़े लत्ते...बच्चों की किताब-कापियाँ, दूसरे खर्चों में ही ख़त्म हो जाती.

इस अतिरिक्त खर्च का बोझ कैसे उठाया जाए ?? कुछ समझ नहीं आ रहा था.पति चिंतित थे. चार दिन इसी उधेड़बुन में गुजर गए.फिर एक शाम  बाबू जी ने पति को बुलाया.उन्हें भी आने को कहा. अम्मा जी पहले से ही वहाँ बैठी थीं. बाबू जी ने पूछा,

"का सोचे हो परकास के लिए?"

"हम्म...."पति चुप थे.

"कुछ इंतजाम बात किए हो....बेटा इतना कठिन परिच्छा पास किया है...उसे आगे तो पढाना होगा"

"हम्म.."पति की वैसे भी बाबू जी के सामने आवाज़ नहीं निकलती और आज तो कुछ था भी नहीं बोलने के लिए.

"तुम पता करो केतना पैसा चाहिए...इंतजाम हो जाएगा"

"कईसे ..??"अब जाकर पति के मुख से बोल फूटा.
"अरे..दूर दूर जो जमीन सब है..ऊ सब हटा देंगे...वैसे भी धीरे धीरे  झोपडी बाँध  के सब कब्ज़ा कर रहें हैं...देखभाल ठीक से हो नहीं पाता...मेरी भी उमर   हो रही है...तुम्हे मास्टरी से फुर्सत नहीं है...निकाल देंगे सब."

"बाबूजी...."उन्होंने फंसे गले  से क्षीण प्रतिवाद किया. उन्हें पता था...बाबू जी को जमीन कितनी प्यारी  है. कभी ऐसा करते भी हैं तो बदले में पास की जमीन खरीदने के लिए. 'बेचना'शब्द  का उच्चारण तक  उनके लिए नागवार था. इसीलिए 'हटा'देंगे...'निकाल'देंगे जैसे शब्द बोल रहें थे.


"बाबू जी....मेरा गहना है...उस से अगर..."वे अटकती हुई सी बोलीं...पर इस पर अम्मा जी ने जोर से डांट दिया.

"बहू ई सब, हमारे खानदान में नहीं होता...कि औरत लोग का जेवर लिया जाए...मेरा बेटा तो  कमाता भी  है..डूब मरने वाली बात होगी उसके लिए अगर औरत का गहना  बेचने तक बात पहुँच जाए"

"ना बहू भगवान ओ दिन कब्भी ना दिखाए.....रामावतार जी को पढ़ाया...दो बेटी का बियाह  किया...पर  पिलानिंग कर के....दोनों बेटी की सादी आलू के फसल के बाद की...अब पढ़ाई का सीज़न और फसल का सीज़न तो साथ साथ नहीं चलते ना...कौनो बात नहीं..सब ठीक हो जाएगा..तुम चिंता जनी करो.."
फिर बेटे से बोले  "जाओ चा  पानी करो....अईसे मुहँ लटका के मत घूमो....बेटा पूरे गाँव का नाम रौसन करेगा......हम त जिंदा रहेंगे नहीं देखने को...पर मेरा पोता तो कहलायेगा ,ना .लोग कहेंगे बिसेसर  बाबू के पोते ने ये पुल बनवाया है...ये सड़क बनवाई है...ये बिल्डिंग खड़ी  की है...हमरा भी तो नाम होगा...""

"बस इहे असुभ निकालिए मुहँ से....बेर बखत देखना नहीं है..सांझ का बखत हो रहा है...और ऐसी असुभ भासा "अम्मा जी एक बार फिर गुस्सायीं.

"त तुम का बैठी रहोगी??...जिसकी बेटी बियाह कर लाये हैं...उसका हीला लगा कर ही जायेंगे"

हम त परकास की सादी देख के... गोदी में पर पोता खेलाने के बाद ही, ई दुनिया से जाएंगे "

वे मुहँ पर पल्ला रख कर हंसी दबाती हुई चली गयीं वहाँ से. ऐसी नोक झोंक चलती रहती थी,सास ससुर के बीच में . अगर किसी दिन ससुर जी ने कह दिया, "बुढ़िया कहाँ हैं?"

बस अम्मा  जी का गुस्सा सातवें  आसमान पर "हमरा बुढ़िया उढ़िया मत कहा करें..कह दे रहें हैं...हाँ" :

"काहे अभी बूढ़ायी  नहीं हो...परनाती खेला ली गोदी में "और उनलोगों की लम्बी नोंक झोंक चल पड़ती.

पर वे चाय बनाती हुई सोच रही थीं. पति ज्यादा बाबू जी के सामने पड़ते भी नहीं. लगता था बाप- बेटा दोनों एक दूसरे के लिए अजनबी हैं.पर बाबू जी, बेटे के दिल की परेसानी एकदम से भांप गए.इसका मतलब नज़र रहती है उनके अपने बेटे की एक एक बात पर.

पति को चाय का कप पकडाया तो इतना ही बोले.."अच्छा है प्रकाश  नानीघर  गया हुआ है...वरना ये  सब उसके कान में पड़ता तो अच्छा नहीं होता "
पर अब वे सोचती हैं,अच्छा होता कि उसे पता चल जाता कि उसकी पढ़ाई के लिए किस तरह पैसों का इंतज़ाम होता था .  उन पैसों की कीमत पता चलती. वरना उसे तो ,यही लगता रहा कि ..पैसों की तो कोई कमी ही नहीं है.

प्रकाश नए बुशर्ट पैंट पहन, नए जूते मोजों से लैस दूर शहर में पढने चला गया. उन्होंने ढेर सारे  निमकी, खजूर, बेसन के लड्डू बाँध दिए साथ में. क्या पता वहाँ क्या मिले खाने को. बीच में भूख लगे तो किस से बोलेगा, "जरा सूजी का हलुआ बना कर दो"

प्रकाश के जाते समय उनका दिल दो टूक हो गया. बेटियों के विदा के समय तो बिलख बिलख का रो  ली थीं .पर यहाँ आँसू जैसे छाती में जम गए थे और सांस लेना भारी  पड़ रहा  था. अट्ठारह साल का बेटा, जिसकी बस हलकी हलकी मूंछें आई थीं,यूँ अकेला इतनी दूर नए शहर में कैसे रहेगा? बेटियों को विदा करते समय इतनी आश्वस्त तो थीं कि किसी समर्थ हाथों में सौंप रही हैं,जो उनका ख़याल रखेगा.पर बेटे का ख़याल कौन रखेगा . जिस बेटे ने एक रूमाल तक नहीं धोया  कभी उसे अपने सारे कपड़े फींचने पड़ेंगे.और आँसू ढरक पड़े,उनके.

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प्रमोद भी मैट्रिक में जिला भर में तो नहीं...पर आस-पास के बीसों गाँव में सबसे ज्यादा नंबर लाया. वह भी प्रकाश की तरह, पास के शहर में पढने चला गया. छुट्टियों में प्रकाश आता तो उसकी बातों से, उसकी चिट्ठियों से प्रमोद इतना प्रभावित होता कि कमर कस लेता,उसे भी बहुत मेहनत करनी है और इस छोटे से शहर  से निकल बड़े शहर में जाना  है. वह अपने बड़े भाई से दो कदम आगे ही रहना चाहता था. और उस पर डाक्टरी पढने का भूत सवार हो गया था. इतनी पढ़ाई की कि उसकी तबियत खराब हो गयी. पूरे साल में एकाध बार शहर आने वाली उन्हें. प्रमोद की  देखभाल के लिए शहर में उसके पास आ कर रहना पड़ा. और अपने बेटे को इस तरह पढ़ते देख, वे भी चिंता में पड़ जातीं. कहीं उसकी तबियत फिर से ना  खराब हो जाए. रात के दो बजे भी उठकर उसके  पीछे जाकर खड़ी हो जातीं ,तो उसे पता नहीं चलता. और वह पढता रहता. "बेटा दूध ला दें...सर में तेल लगा दें?
"ना माँ कुछ नहीं चाहिए तुम जा कर सो जाओ...और वो फिर किसी मोटी सी किताब पर झुक जाता.

पर नींद आती कहाँ से? गाँव का इतना बड़ा घर , इस कमरे से उस कमरे...आँगन..छत करते ही थक जातीं. यहाँ दो कमरे के घर में बिना चले तो लगता जैसे पैर ही अकड गए हैं. वे तहाए हुए कपड़े फिर से तहाने लगतीं. एक जगह से चीज़ें उठा दूसरी जगह रख देतीं. पर उस से क्या थकान होती. नींद आँखों से कोसों दूर रहतीं. सुन कर विश्वास नहीं हुआ था.लोग शहरों में नींद लाने को भी गोलियाँ खाते हैं. अब लगता है,खाना ही पड़ता होगा.
(क्रमशः)

उदास आँखों में छुपी झुर्रियों की दास्तान (भाग -7)

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(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे,अपना  पुराना जीवन याद करने लगती हैं.उनकी चार बेटियों  और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा था और छोटा बेटा मेडिकल की तैयार)

गतांक से आगे
 


 प्रमोद की मेहनत रंग लाई और उसे मेडिकल कॉलेज में एडमिशन मिल गया. नमिता ने यह खबर  सुनते ही कहा, "चलो अच्छा हुआ,डॉक्टर की फीस बची...अब छोटके भैया  अपना इलाज़ खुद कर सकेंगे, एकदम फूलकुमार है, जरा सी हवा चली और बीमार पड़े."

"अरे सुभ सुभ बोल....जब देखो उटपटांग ही बोलेगी"अम्मा जी ने डांटा.

पर प्रमोद इतना खुश था कि बुरा नहीं माना,बोला, "ना मैं तो दिमाग का डॉक्टर बनूँगा और सबसे पहले तेरा दिमाग खोल के देखूंगा...उसमे कुछ भी काम का है या नहीं?"

"माँ...देखो, ना..फिर से चिढाना शुरू.."

"अरी चुप कर...ये भी प्रकाश की तरह अब होस्टल में पढने दूर चला जायेगा...एक बात करने को भी तरसेगी...और झगड़ रही है.?"वे उदास हो गयीं...ये बेटा भी अब परदेसी हो जायेगा.

फिर से एडमिशन और हॉस्टल के खर्च की चिंता सताने लगी. अब तो जैसे यह जानी-बूझी बात हो गयी थी कि पैसे का इंतज़ाम पुरखों के विरासत में छोड़े खेतों से ही होगा. प्रकाश की भी जब फीस की बात आती, कोई ना कोई खेत गिरवी रखी जाती या निकाल दिया जाता. लेकिन अब गाँव वाले भी उनकी ये मजबूरी समझने लगे थे और बाज़ नहीं आते, मौके का फायदा उठाने से. अच्छे से अच्छे खेत के कम दाम लगाते.

इस बार तो हद ही हो गयी,जब गाँव के  नामी गिरामी रामनिवास बाबू  ने कह डाला, "खेतों में तो इतना लगाओ तब जाकर थोड़ा सा अन्न उपजे है. वो आम का बगीचा क्यूँ नहीं गिरवी रख देते. छुड़ा लीजियेगा जब जी चाहे. अब तो दूनो पोता डॉक्टर,इंजिनियर बनने वाला है. आपको क्या फिकर"

पर बाबूजी नाराज़ हो गए थे, "कैसी बातें करते हैं? ..उस बगान का आम ही पसंद है सबको...रामावतार जी को तो बचपन से बस उसी बाग़ के किसनभोग  और तोतापुरी आम के पेड़ का आम पसंद है. उसे कैसे हटा सकते हैं"

"सोच लीजिये...इस बार तो हमारा खेत पर पैसा लगाने का कौनो मन नहीं है"कहते रामनिवास बाबू उठ गए.

रात भर लगता है बाबू जी सोए नहीं..सुबह होते होते...किसना को रामनिवास बाबू के घर भेज दिया. अम्मा  जी भी उदास थीं. उन्होंने ही एक बार फिर हिम्मत की, "बाबू जी रहने दीजिये ना...कोई और रास्ता सोच लेंगे"

"ना बहू, वे  ठीके कहते हैं...तीन साल में तो परकास  नौकरी में आ जायेगा..फिर का डर?....और अब घर में लरिका सब रहेगा कहाँ आम खाने को??... भगवान की दया  से और भी तो बगान है...आम की कौनो कमी नहीं रहेगी. समझो कुछ दिन के लिए उनलोगों  को दे दिए हैं आम खाने को...बस"

पर बहुत ही भारी दिल से किए होंगे हस्ताक्षर उन्होंने. क्यूंकि तन कर चलने वाले बाबू जी ,कचहरी से लौटते समय बड़े कमजोर लगे..कंधे झुके हुए ,थके थके से. अब ये उनकी आँख का भरम था या सच्चाई,क्या पता.पर बड़ी ग्लानि हो आई ,उन्हें. बच्चों के लिए ऊँचे  अरमान रखने की क्या कीमत चुकानी पड़ती है. बच्चे समझ पाएंगे कभी?

छोटा बेटा भी प्रकाश की तरह ही एक अजनबी शहर में अपने सपनो को सच करने चला गया . इसके लिए मन में और चिंता थी. थोड़ा बीमार रहता था. सर्दी जुकाम लगा ही रहता था. बस चैन की यही बात थी कि ननद उसी शहर में थीं, जरूरत पड़ने पर अपने घर ले जायेंगी..इतना संतोष था. बेचारे को कभी कभी घर का खाना नसीब हो जायेगा. नहीं तो प्रकाश जैसा ये भी कहेगा,
"वहाँ तो आलू -बैंगन हो या गोभी मटर  सब की एक सड़ी सी महक. स्वाद ही भूल गया हूँ,सब्जी का"और हंस के बताता, "इतवार को दाल भात और आलू  का भुजिया मिलता है...उस दिन तो हमलोग भात घटा देते हैं और फिर खूब हल्ला मचाते  हैं मेस में"

पति उसका एडमिशन कराने गए और इधर बाबू जी बीमार पड़ गए. पेट में दर्द और बुखार रहता. गाँव के डॉक्टर साब को बुलवा भेजा.जब तक दवा का असर रहता,आराम रहता फिर दर्द शुरू हो जाता.

पति वापस आए तो घबरा गए. बार बार कहते.."बाबू जी को उस बगीचे को गिरवी रखने  का दर्द समा गया है. मैने देखा था,उस दिन उन्होंने वो खिड़की बंद कर दी जिस से वो बगीचा दिखाई देता था...मैने क्यूँ देने दिया...कोई इंतज़ाम करता...लोन ले लेता, पर बगीचा नहीं  देना चाहिए था"भर आई पति की आँखें.

"अब यह सब सोचने का बखत नहीं है...आप कल ही बाबू जी को शहर ले जाने का इंतज़ाम कीजिये."उन्होंने ही जी कड़ा कर पति को ढाढस बंधाया.

अम्मा जी, बाबू जी को लेकर पति,शहर  चले गए. साथ में एक नौकर भी गया. दोनों बेटियों के साथ वे दरवाजे पर टकटकी लगाए रहतीं. आखिर दूसरे दिन गाँव का ही....एक आदमी संदेसा लेकर आया कि बाबू जी को अस्पताल में एडमिट कर लिया है, बहुत सारी जांच होनी है. तीन दिन बाद थके हारे पति कुछ घंटों के लिए ही आए. वह भी पैसों का इंतज़ाम करने.

अब तो जैसे  टोह लेने के लिए गाँव के लोग मक्खियों  की तरह भिनभिनाते रहते घर के आस-पास. देख वितृष्णा सी  हो जाती जिन बाबू जी के गुण गाते नहीं अघाते थे कि कैसे अकाल पड़ा था तब बाबू जी ने अनाज की कोठियां खोल दी थीं....सबको टोकरी भर भर के अनाज बांटा था और आज जब उन पर मुसीबत आई है तो वही गांववाले, जिन  खेतो के अन्न ने उनकी  जठराग्नि को शांत किया...आज उन्हीं  खेतों पर दांत पिजाये बैठे हैं.

पति के साथ, जिद करके बाबा की दुलारी नमिता भी चली गयी. बेचैन हो रही थी, अपने बाबा से मिलने के लिए.

घर में बस वे और मीरा थीं. मीरा शुरू से ही कम बोलती अब तो और भी उसकी हिरणी सी बड़ी बड़ी आँखें डरी डरी सी रहतीं. उन्हें दया  भी आती,इस बच्ची का बचपन छिना जा रहा है.जब से समझने लायक हुई है..कोई ना कोई झंझट घर में लगा ही हुआ है.

 नमिता के जाने से अच्छा ही हुआ. गाँव के ही एक लड़के के साथ, सास वापस आ गयीं. उन्हें लगा ,चलो अस्पताल  में दिन रात के जागरण से थक गयी होंगी. एक-दो दिन आराम कर लेंगी. पर वे तो आने के साथ ही कहीं चली गयीं. और हैरान रह गयीं वे अम्मा जी का ये रूप देखकर. सुबह से शाम वे किसी बाबा ,फ़कीर,ओझा के दरवाजे भूखी-प्यासी  भटकती रहतीं. कभी कभी कोई बाबा आते और तीन तीन घंटे पूजा करवाते. अपने चेलों के साथ..पूरी, मिठाई ,खीर का भोग लगाते, मोटी दक्षिणा लेते और चलते बनते.

पहले संदूक से कुछ भी निकलवाना हो, उन्हें चाभियाँ थमा देती थीं. अब खुद ही कमरा बंद कर के गहने निकालतीं.वे समझ रही थीं, औने पौने दाम में इसे बेच ओझा-फ़कीर को चढ़ावे चढ़ाए जायेंगे. क्या पता , गहने भी दिए जाते हों. पर वे मन मलिन  नहीं करतीं. ये अम्मा जी के गहने थे और ऐसे समय में जब पति बीमार हो...कोई भी स्त्री किसी भी तरह, चाहे उसे ओझा, गुणी, बाबा की शरण में ही क्यूँ ना जाना पड़े, कोई उपाय नहीं छोड़ती, बस अपने पति को  भला चंगा देखना चाहती है.

पर एक दिन उन्हें अम्मा जी को बहुत देर तक समझाना पड़ा. जब हमेशा एक आभिजात्य ओढ़े रखने वाली शख्सियत , गाँव की स्त्रियों के ऊपर एक रुआब, एक दबदबा  रखने वाली अम्मा जी, एक आम औरत की तरह बब्बन की माँ से झगड़ पड़ीं. गाँव की किसी औरत ने अम्मा जी कान भर दिए कि बब्बन की माँ डायन है और उसी ने बाबू जी को कुछ 'कर'दिया है. उस शाम वे उनकी घर की  तरफ से लौट रहें थे, तभी जानबूझकर मंगलवार के दिन को बब्बन की माँ ने सांझ के बखत उन्हें टोका.

बब्बन की माँ,बाबू जी का हालचाल पूछने आई थीं,अचानक जोर की आवाज़ सुन वे बाहर आयीं तो देखा,अम्मा जी हांफ रही हैं और जोर जोर से बोल रही हैं, "भौजी  कहते थे आपको....कुछ तो लेहाज़ करती...कौन बात के जलन है..का मिल जाएगा...कुछ बिगाड़े हैं,आपका...जहाँ तक हुआ है मदद ही किए हैं..आपकी बेटी के बियाह में केतना हंगामा हुआ था....रामवतार बबुआ के बाबू जी नहीं संभालते तो बरात चली जाती लौट के"

"का बोल रही है...भलाई का तो ज़माना नहीं...हम आए थे हाल चाल पूछने और हमी को गरिया रही हैं"

एक तरह से खींच कर वे ,अम्मा जी को कमरे में ले गयीं...उनसे भी माफ़ी मांगी.."चाची जी..अम्मा जी बहुत परेसान हैं..इनके कहने का बुरा मत मानियेगा"

ये सुनकर अम्मा जी का गुस्सा और बढ़ गया..."अरे ऊ का मानेगी बुरा...गाँव के दो दो लोग को खा के बैठी है..ऊ त खुस होगी"

"का बोली..किसको खाए हैं हम....तनका बताओ तो?"बब्बन की माँ जोर से गरजीं

"सिवनाथ माएँssss...."जोर से चिल्लाईं  वे. मामले की नजाकत समझते हुए.सिवनाथ माएँ ,बब्बन की माँ को खींच कर जबरन उनके घर ले गयी. वे अम्मा जी के लिए पानी लेकर आयीं .पर तब तक अम्मा जी का सारा गुस्सा,सारा तनाव आंसुओं की शक्ल ले चुका था. मुहँ पर पल्ला रख, वे जोर जोर से रोने लगीं. अम्मा जी को चुप कराते कराते उनके आंसुओं का बाँध भी टूट गया.और उनके गले से लग देर तक वे रोती रहीं. मीरा कब सहमी सी आकर परदे पकड़ कर खड़ी हो गयी...और भरी भरी आँखों से कांपती हुई सी उन्हें निहारने लगी...उनलोगों  को पता भी नहीं चला.
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बाबू जी का जांच पर जांच होता गया. काया क्षीण  होती गयी.पर बीमारी का पता नहीं चल रहा था. अब बारी बारी से वे, नमिता, अम्मा जी शहर आते जाते रहते. प्रमोद,प्रकाश के पढने के लिए जो घर लिया था,उसी घर में  लोग रहने लगे. बेटी दामाद सब आ गये. पति आए दिन गाँव जाते और ढेर सारे रुपये लेकर आते. सहम  जातीं वे , पता नहीं इस बार कौन से खेत का अन्न अब उनकी कोठी का मुहँ नहीं देख पायेगा?

बाबू जी की बीमारी ने  सास का रुख नमिता के प्रति बहुत नरम कर दिया था और कैसे ना हो...नमिता ने बाबू जी का सिरहाना एक पल के लिए नहीं छोड़ा था. पूरी पूरी रात जाग, उनके तलवे सहलाती, पानी पिलाती, इधर उधर की  बात कर उनका जी बहलाती. जरूरत पड़ने पर ,बिना किसी का इंतज़ार किए दवा लाने भी चल देती. अम्मा जी का पूजा पाठ बहुत बढ़ गया था. रोज चार चार घंटे कोई ना कोई जाप करती रहतीं. बाबूजी तो बीमारी के कारण अपनी पुरानी काया की छाया भर दिखते पर अम्मा  जी   उनकी बीमारी की चिंता में घुल कर ही आधी रह गयी थीं.

आखिर जब, दूसरे सहर से बड़े डॉक्टर आए , उन्होंने जांच करके बताया कि कैंसर है. पति तुरंत उनको दिल्ली बम्बई ले जाकर इलाज़ कराने का सोचने लगे पर उस डॉक्टर  ने बताया कोई फायदा नहीं.अंतिम स्टेज है, अब कोई दवा असर नहीं करेगी. पूरा रोना -पीटना मच गया. सबको सम्भालना मुस्किल. फिर भी पति ने ननदोई के साथ मिलकर दिल्ली ले जाकर दिखाने का इंतज़ाम किया. बाबू जी बार बार कहते, "मुझे बस गाँव ले चलो..अंतिम दिन वहीँ गुजारने का मन है..."पर जबतक सांस तब तक आस..उन्हें ले जाने का सब इंतज़ाम हो गया,दूसरे दिन निकलना था और रात में ही बाबू जी के प्राण ने शरीर त्याग दिया. उनका नश्वर शरीर ही गाँव आ पाया. पूरा गाँव उमड़ पड़ा.

पति पर बहुत जिम्मेदारी आ गयी...सब कुछ अकेले  संभाल रहें थे. उन्होंने घोषणा कर दी...बाबू जी का श्राद्ध इतने धूमधाम से करूँगा...कि पूरा गाँव देखेगा. वे कुछ बोली नहीं ,पर सोचने लगीं...पैसे का इंतज़ाम कैसे होगा? और जब फिर से लोगों का जमघट बाहर के कमरे में देखा और पति को कागज़ पत्तर समेटते तो टोक बैठीं. आखिर दो बेटियाँ ब्याहनी बाकी थीं. दोनों बेटे की पढ़ाई अधूरी थी. पति का पिता प्रेम वे समझ रही थीं पर इस तरह आंखों के सामने, ऐसी लापरवाही वे नहीं देख पायीं.पर पति नाराज़ हो गए,
 "मेरे बाबू जी थे, मुझे पता है,क्या करना है क्या नहीं? ..तुम्हारे घर में यह सब होता होगा कि आदमी दुनिया से गया और भुला दिया. मैं तो ऐसा भोज दूंगा कि बरसों तक गाँव वाले बाबू जी का श्राद्ध ,याद रखेंगे."

काठ मार गया, उन्हें ... मेरे बाबू जी ??...तुम्हारा घर??..सारी ज़िन्दगी गुज़ार दी यहाँ और आज एक पल में पति ने पराया कर दिया. आँसू भरी आँखों से कुछ कहने को सर उठाया पर आजकल तो पति के पैर घर में टिकते ही नहीं. बोलने के बाद दनदनाते  हुए निकल गए. उनका दुख दूना-चौगुना हो गया.एक तो सर पर से बाबू जी का साया उठ गया और आज तो लगा भरी दुपहरिया में किसी ने बीच राह पर छोड़ दिया है, और दूर  तक बस जलती हुई राह पर नंगे पैरों,  अकेले ही चलना है.

इसके बाद होठ सिल लिए उन्होंने. पति पैसे लाकर देते, कहते, "संभाल कर रख दो"...वे रख देतीं. कहते "इतने निकाल कर दो".....वे दे देतीं. पूछतीं कुछ नहीं पर देखती रहतीं, बड़ा सा पलंग बनवाया गया, कपड़े लत्ते,बर्तन बासन की तो बात ही नहीं. घर में जन्मी,पली  गाय भी जब अपने नवजात बछड़े के साथ दान करने की बात सुनी तो आँखें भर आयीं,उनकी. मीरा बिना उसे रोटी खिलाये खाना नहीं खाती थी और जब से बछड़ा जन्मा था ..उसका नाम "भोला "रखा था और भोला के साथ खेलते थकती नहीं थी वो.बस सोच रही थीं, मीरा को कैसे , समझायेंगी.

पति का इस तरह पैसे लुटाना ,अम्मा जी को भी खटक गया. तीसरे दिन जब साधुओं को जीमाना था और हर साधू अलग से दक्षिणा मांग रहा था, पति उनकी मांग पूरी करते  जा रहें थे तब अम्मा जी ने ननद को आवाज दी, "परमिला जाकर बबुआ के  हाथ से बैग छीनो.....का जाने का मन में है उसके..बीवी बच्चों की कोई फिकर ही नहीं...तुमरे बाबू जी का बहुत खुस होते, अपना अरजा  हुआ धन दौलत ऐसे लुटते देख? "

वे भी जानती थीं., बाबू जी भले ही किताबें नहीं पढ़ते  थे पर उनके व्यावहारिक ज्ञान के आगे सब किताबी ज्ञान तुच्छ था. वे समय के अनुसार काम करते थे. बेटी के घर का पानी पीना, पोते के पढ़ाई के लिए आम का बगीचा तक गिरवी रखने में ना हिचकिचाना , नमिता की सारी लड़के जैसी बदमाशियां उन्होंने खुले मन से स्वीकार कर लीं थीं. पति का जीवन कुछ सूत्र वाक्यों के इर्द गिर्द घूमता था. इस से अलग वे नहीं देख पाते. और अपन जीवन उसी ढर्रे में ढाल लिया था.

श्राद्ध में तो अगल बगल के गाँव के लोग  भी शामिल  हुए . पगड़ी  की रस्म  के समय आँगन  दालान  सबमे  तिल  धरने  की भी जगह  नहीं थी. जब पति के सर  पर पगड़ी बांधी जाने लगी  तो एक भी आँख  ऐसी  नहीं थी कि सूखी हो. बाबू जी के रौब से ज्यादा लोग उनका सम्मान और स्नेह करते थे. किसी दुकान वाले ने एक बात नहीं पूछी, और घी के पीपे, शक्कर की बोरी,मिठाई की टोकरी, पता चलने की देर थी और घर पहुंचा दी.

पर सब शांत हो जाने के ,सबके चले जाने के बाद रोज कोई ना कोई लेनदार दरवाजे पर खड़ा होता. अब पति के माथे की लकीरें, गहरा जातीं.पर पैसे तो उन्हें देने ही थे. फिर से लोगो के जमघट के बीच, कागज़ पत्तर की उलट पुलट शुरू हो गयी.

(क्रमशः)

(सॉरी.... कुछ कारणवश इस किस्त को डालने में कुछ  देर हो गयी....कोशिश करुँगी, आगे से शिकायत का कोई मौका ना दूँ, और खुद को सॉरी कहने का भी )

उदास आँखों में छुपी झुर्रियों की दास्तान (भाग -8)

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(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे,अपना  पुराना जीवन याद करने लगती हैं.उनकी चार बेटियों  और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा था और छोटा बेटा मेडिकल में.ससुर जी की छत्र छाया भी कैंसर जैसी  बीमारी ने छीन ली)

गतांक से आगे


पति को लेनदारों से ज्यादा फिकर अम्मा जी की हालत की थी. बाबू जी के जाने के बाद, अम्मा जी का सिर्फ बाहरी रूप ही नहीं बदला था,अंदर से भी वे बिलकुल बदल गयी थीं,ऐसा लगता था पुरानी अम्मा जी कहीं गुम हो गयी हैं....ना वह रौबदार आवाज़,ना वह चौकस निगाह...खुद में ही खोयी सी बैठी रहतीं.


गाँव में इतने काज-प्रयोजन होते पर अब वे कहीं नहीं जातीं. हर शादी में अम्मा जी की बड़ी खोज  होती थी...क्यूंकि सारे रस्मो-रिवाज उन्हें ही याद रहते थे. जबतक वे ना जाएँ रस्म शुरू नहीं होती थी. चाहे हल्दी की रस्म हो...मटकोर की या बिलोकी की. गाँव में शादी के दस दिन पहले से गीत गाने का रिवाज़ था. शुरू में पांच गीत भगवान के गाये जाते. लड़कियों को तो बस उन दिनों के चलन  वाले गीत याद रहते या फिर गीतों भरी  गालियाँ ..अम्मा जी ही सब याद रखती थीं.


किसी बच्चे के जनम की चिट्ठी आई गाँव में और घर घर न्योता पहुँच गया, सोहर  गाने का. औरतें जमा होतीं, गीत गाने के बाद  उनके बालों में तेल लगाए जाते और मांग में सिंदूर. और बताशे बांटे जाते. पर ये सब सिर्फ लड़के के जन्म पर ही होता. लेकिन स्मिता की बेटी के जनम पर उन्होंने आग्रह किया था गीत गवाने का. अम्मा जी मान गयी थीं और जब ममता के बेटे के जनम जैसा इस बार भी पति बताशे की जगह लड्डू लेकर आए तो गाँव वालों में कानाफूसी शुरू हो गयी थी, "का ज़माना आ गया है....लरकी लोग  सब कालेज जा रही है....बेटी के जनम पर बधाई,गाई जा रही है.....नयका चाल सब...पता नहीं आगे का का देक्खे को मिले"


अम्मा जी को  शादियों में जाने का भी बड़ा शौक था. सुन्दर चमकीली साड़ियाँ निकालतीं. ढेर सारे गहने पहनतीं, झुमके, हँसुली, सीता -हार, करधनी ...कभी कभी तो बाजू बंद भी. लम्बी सी चोटी, माथे पर बड़ी सी टिकुली और भर मांग सिंदूर..लम्बी चौड़ी काया थी, गोरा रंग,ऊँचा माथा,उस पर जब गर्वीले चाल से चलतीं तो किसी राजरानी सी ही लगतीं.

पर अब उनकी तरफ देखा नहीं जाता. सादी सी साड़ी, बिना किसी श्रृंगार के रूप...आभरण विहीन शरीर...चाल भी थकी थकी सी हो गयी थी. किसी भी शादी ब्याह में अब वो शामिल नहीं होतीं. लोग बुलाने आते, नमिता पीछे पड़ जाती,पर वे टाल जातीं...जबकि बड़ी बूढ़ियाँ शादी में शामिल होती थीं,पर एक किनारे बैठी होतीं.वहीँ से निर्देश दिया करती थीं. पर किसी चीज़ को हाथ नहीं लगातीं. दूर ही रहती थीं. अब तक हमेशा अम्मा जी केंद्र में रहती थीं. इस तरह हाशिये पर रहना उन्हें गवारा नहीं था.

कितनी बार अम्मा जी ने बात संभाली थी . पड़ोस के रामबिलास बाबू की लड़की की शादी में लेन देन को लेकर कुछ अनबन हो गयी,बारातियों और सरातियों के बीच. उसपर से गाँव के लड़कों ने अपनी नाराजगी दिखाने को,बारातियों के कपड़ों पर खुजली  वाले  पाउडर डाल दिए. लड़के के चाचा,भाई,नाराज़ होकर बारात वापस ले जाने लगे. बार बार लड़के को आवाज़ देते बाहर आने के लिए.. लड़का आँगन में मंडप में बैठ चुका था. उनकी आवाज़ सुन वह झट से खड़ा हो गया,बाहर जाने को.

पर अम्मा जी ने उसकी कलाई पकड़ ली और कहा, "चुपचाप बैठिये मंडप में...बिना फेरा लिए और लड़की की मांग में सिन्दूर भरे आप आँगन नहीं टप सकते."

लड़का कसमसा कर रह गया,बाहर जाने को..पर जा नहीं पाया....और अम्मा जी ने कड़े  स्वर में पंडित जी को आदेश दिया, "आप हल्ला गुल्ला पर ध्यान मत दीजिये,मंतर पढ़िए...सुभ मुहूरत नहीं बीतना चाहिए"

फिर लड़की की छोटी बहन को डांटा..."का मुहँ ताक रही है...जा, अपने बाबूजी को बुलाकर  ला,रसम करना होगा. बाहर उनके भाई-भतीजा सब सलट लेंगे और रामावतार बबुआ के बाबूजी भी हैं...सब संभाल लेंगे.


फिर रोती हुई लड़की की माँ को आवाज़ दी..."अबही बेटी बिदा नहीं हो रही है...जो इतना रो रही हो...अभी समय है...बईठो, सकुन्तला के बाबूजी के बगल में और रसम करो"

हर शादी -ब्याह के मौके पर इसकी चर्चा जरूर होती थी.

और अम्मा जी सिर्फ शादी ब्याह में ही बात नहीं संभालतीं .अनदिना भी कहीं कुछ झंझट हो तो एकदम मुसतैद  रहतीं. एक बार नमिता दौड़ती हुई आई कि कैलास बाबू के यहाँ बहुत रोना-पीटना मचा हुआ है. कैलास बाबू के बेटे  दिलीप की दूसरी सादी की बात चल रही है और दिलीप की पत्नी धाड़ें मार कर रोते रोते बेहोस हो गयी है. हमेशा कहीं भी कंघी-चोटी कर के , साड़ी बदल कर जाने वाली अम्मा जी,ने जल्दी से पैरों में चप्पल डाला और नमिता के साथ निकल गयीं. वे विकल हो रही थीं, जानने को,वहाँ क्या हुआ? नमिता तो सारी बात बिना सुने वहाँ से टस से मस नहीं होती.

उन्होंने मीरा को बोला, "तू थोड़ी देर में आके बता, वहाँ क्या हो रहा है"


पहली बार ऐसी कोई जिम्मेवारी मिलने पर मीरा ख़ुशी से फूली  नहीं समाई और  दस मिनट में दौड़ती हुई आई ..."माँ, दादी तो सबको डांट रही हैं...दिलीप चाचा को बोल रही हैं...तुमरे भाई के बच्चे का तुमरे बच्चे नहीं हैं जो दुसर बियाह करने चले हो...इनको ही अपना बेटा-बेटी के तरह पियार दो..अपने माँ-बाबू से जियादा तुमको मान देंगे .."
और मीरा ने पूछा..."फिर से जाऊं...और सुन के आके बताऊँ?"

पर उन्होंने  मना कर दिया..कैसे अपनी छोटी सी बेटी में ये आदत डालती कि दूसरों की बातें सुन कर बताये ...और फिर पता था...अभी तो हफ़्तों  तक गाँव में यही चर्चा रहेगी. एक एक बात दस दस बार दुहराई जाएगी. और उनके घर मे काम करने वाली सिवनाथ माएँ तो ऐसी जगहों पर जरूर मौजूद रहती.और फिर तफसील से उन्हें सारी बात बताती.

"अरे पता है दुलहिन, (दादी बन जाने के बाद भी गाँव के कुछ लोगों  के लिए वे दुलहिन ही थीं ) बड़की मलकिनी ने तो कैलास बाबू को अईसा डांटा की का बताएं, बोलीं..""बौरा गए हैं का..बुढापा में?...ऊ औरत पर का बीतेगी..इसका तनको गुमान है?... कहाँ जायेगी वो ..?"

"भौजी...वो काहे  कहीं जायेगी ?..रानी बनके रहेगी..दिलीप के बच्चों को खेलाएगी"

"बहुत देखे हैं बबुआ...कए दिन  रानी बनके रहती है...सब पता है..ऐसा अनरथ  मत करो....भतीजा  भी तो बेटा सरीखे ही होवे है  और अबही कौनो उमर है...पांचे बरिस में उमीद छोर दिए? "

"अरे भगवान का दिया सब कुछ है भौजी...दुनो जन आराम से रहेंगी..कौन तकलीफ नहीं होगी,दिलीप के दुलहिन को...तुम चिंता जनी करो....मालकिन बड़की दुलहिन ही रहेगी.."

"ई त नहीं होगा...आप जबरदस्ती बियाह करोगे दिलीप का..तो गाँव का कोई सामिल नहीं होगा...जाओ सहर में कागज़ी बियाह करो...और फिर सहर में ही बसा दो उनको. ई घर में तो इहे दुलहिन मलकिनी रहेगी...."मलकिनी ने  ने फैसला सुना दिया.


फिर अंदर जाकर रोती हुई दुलहिन को बच्चे की तरह छाती से चिपका कर उसकी सास से बोलीं, "तुमको तनिको दया नहीं आती...औरत हो, औरत का दर्द समझो.."


बड़की मलकिनी ने तो दिलीप के दुलहिन को उबार लिया ,उसका रोआं रोआं मलकिनी के रिन से कभी  उरिन नहीं होगा.


सिवनाथ माएँ, गर्व से फूली जा रही थी कि वह, उनके यहाँ काम करती है. और क्यूँ ना करती,अम्मा जी ने कई बार उसकी बस्ती के झगडे भी सुलझाए हैं. सास बहू के..माँ-बेटे के...पति -पत्नी के . सिवनाथ माएँ को भी उसकी बहू ठीक से खाना नहीं देती थी. यहाँ से उसे पूरा खाना मिलता लेकिन वह यहाँ  नहीं खाती.अपनी गहरी सी पीतल की थाली में दाल चावल सब्जी लेकर घर जाती और पोते पोतियों को खिला देती. उसके घर में जो साग-भात रुखा सूखा बना होता...वो भी उसकी बहू उसके लिए नहीं रखती.सिवनाथ माएँ, भूखी ही लेट  जाती और फिर सिर्फ पानी पीकर चेहरे पर मुस्कान लिए शाम के काम के लिए हाज़िर हो जाती.

वो तो भला हो घर घर  की बिल्ली नमिता का, उनकी बस्ती में वह  थरमामीटर ले एक बीमार बहू का बुखार देखने गयी थी. नमिता एक तरह से उस बस्ती की डाक्टर थी. किसी को बुखार की,किसी को सर दर्द की..पेट दर्द की तो जुलाब की दवा, वो ही दिया करती. अपने पापा जी से जिद कर बिस्किट के पैकेट भी मंगवाती और किसी बीमार को देकर आती. उसने ही एक दिन देखा कि सिवनाथ माएँ खाना लेकर आ रही थीं,उनके पोते पोतियाँ दौड़ते हुए उनके पास आए और सिवनाथ माएँ ने अपना सारा खाना पोते पोतियों को दे दिया. नमिता ने दबे पाँव उनकी झोपडी में कदम रखा  तो देखा, चूल्हा ठंढा पड़ा है और बर्तन  खाली. सिवनाथ माएँ ने घड़े से लोटे में ठंढा पानी निकाल कर पिया और चटाई पर जाकर लेट गयीं. वह दबे पाँव वापस आ गयी और दादी को सारी बात बतायी.


गुस्से से उबल रही थी,नमिता. सिवनाथ माएँ के आते ही उनपर बरस पड़ी.."काकी सब देख लिया मैने..जाओ तुम उधर ही रहो...अपनी पुतोह को खाना  भी बना कर दो. सब काम करो उसका,उस दिन देखा था तुम उसको तेल लगा रही थी.और वो तुमको पेट भर खाना भी नहीं देती."

"अरे तुमलोग के लिए ही करते हैं बिटिया..ओ दिन वो छटपटा रही थी देह बत्था से...त तनका तेल लगा के देह जाँत दिए...आज हम अनकर की बेटी की  सेवा करेंगे तो मेरी भी कमली , सुगनी की उसकी सास करेगी..वईसे ही तुमरी सास भी तुमरा ख़याल  रखेगी.."

"मुझे नहीं करना सादी बियाह ...माँ काकी को खाना दो पहले...इनका पेट बस बात करके ही भर जाता है."


बाद में , अम्मा जी ने सिवनाथ और उसकी  बहू को बुला कर बहुत  डांटा और उन्हें उस झोपडी से निकालने की धमकी भी दी अगर उन्होंने अपनी माँ का ठीक से ख़याल नहीं रखा. बाबू जी की दी हुई जमीन पर ही पूरी बस्ती बसी हुई थी,इसलिए उनकी बातों का सब मान रखते थे.


और अब वही अम्मा जी इतनी निरीह लगतीं.पहले मनिहारिन  सबसे पहले उनके घर ही आती. अपनी टोकरी का सब कुछ पहले उन्हें ही दिखाती. हर हफ्ते अम्मा जी चूड़ियाँ बदला करती थीं. टिकुली के नए पैकेट निकालतीं. अब तो मनिहारिन को देखते  ही वे इशारा कर देतीं कि मत आओ आँगन में. अम्मा जी भी उसकी आहट सुनते ही कमरे में जाकर लेट जातीं. उनका कलेजा कट कर रह जाता.

पर अजीब दुविधा भी थी, उस गरीब की भी आस थी,दो पैसे कमाने की.पर उनकी ना हिम्मत होती ना ही मन होता, उसे अपने दरवाजे बुलाने का..


स्मिता ने भूगोल की किताब में पढ़ कर बताया  था कि सूरज स्थिर रहता है और हमलोग जिसपर जन्मे हैं वो पृथ्वी  उसके चारो तरफ चक्कर लगाती रहती है, वे  सोचने लगीं , क्या औरत आदमी का भी कुछ ऐसा ही रिश्ता है.? आदमी सूरज की तरह स्थिर रहता है और औरत की सारी दुनिया उसके  चारो तरफ ही घूमती रहती है. फिर यह भी विचार आया  मन में  और जब कभी सूरज डूब जाता है तो अँधेरी रात आ जाती है, पर सूरज तो दूसरे दिन फिर निकलता है. जबकि पति के जाने के बाद औरत की ज़िन्दगी में ऐसी अँधेरी रात आ जाती है जो कभी ख़त्म ही नहीं होती.

उसका सूरज तो हमेशा के लिए डूब जाता है, औरत की दुनिया ही रुक जाती है, अब वो किसके गिर्द चक्कर लगाए? वो चलना ही भूल जाती है. जबकि अगर औरत कहीं बिला जाए, गायब हो जाए तो आदमी को कौनो फरक नहीं पड़ता.  कोई दूसरी  औरत आ जाती है चक्कर लगाने नहीं तो वह अपनी जगह वैसे ही स्थिर रहता है. उसका कुछ नहीं बदलता. पर ये नियम किसने बनाए हैं ? भगवान ने या फिर खुद आदमी ने? उनका दिमाग कुछ काम नहीं करता.

कहीं भी शादी ब्याह हो, अब अम्मा  जी उन्हें ही जाने को कहतीं. खुद अँधेरे में लेटी रहतीं. फिर उनका मन भटकने लगता,अब ये नियम किसने बनाए? जिस दादी,चाची,माँ का ह्रदय बच्चे के लिए आशीष से लबालब रहता ,हरदम ओठों पर उनके सुख की कामना रहतीं उन्हीं के रस्मों में भाग लेने से कुछ अशौच  हो जायेगा?  कुछ छू देने से अपवित्र हो जायेगा? मन ही मन प्रण लिया उन्होंने, चाहे जो हो जाए...गाँव वाले कुछ भी कहें, दोनों  पोते और पोतियों के ब्याह में अम्मा जी हर रस्म करेंगी. उनको बिलकुल भी वे दूर नहीं रहने देंगी.

पर सोचा हुआ भी हुआ है कभी? अम्मा जी की अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही और खाने पीने से अरुचि बहुत महँगी पड़ी. सिर्फ मलेरिया हुआ. लगा ठीक  हो जाएँगी. डॉक्टर भी कहते, कोई चिंता की बात नहीं. पर अम्मा जी की कमजोर काया यह बीमारी झेल नहीं पायी और वे भी सबको रोते-बिलखते छोड़ ,बाबूजी के पास चली गयीं.


पति के चेहरे की तरफ देखा नहीं जाता. पहले ही कम बोलते थे अब तो ऐसे गुमसुम हुए कि मशीन की तरह बस श्राद्ध कर्म निबटाते  रहें. ननदें आयीं, ऎसी  दिल दहलाने वाली आवाज़ में रोयीं कि आज भी कलेजा काँप जाता है. ममता,स्मिता प्रकाश,प्रमोद सब आए.पर इतने लोगों के होते हुए भी घर मे सन्नाटा छाया रहता. छोटे बच्चे भी सहम  कर धीरे धीरे रोते. अब तो बिलकुल अनाथ हो गए  सब.
(क्रमशः)

उदास आँखों में छुपी झुर्रियों की दास्तान (भाग -4)

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(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से वे जग जाती हैं,और पुराना जीवन याद करने लगती हैं.उनकी चार बेटियों  और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे.बड़ी बेटी ममता की शादी ससुर जी ने पति की इच्छा के विरुद्ध एक बड़े घर में कर दी.वे लोग ममता को तो कोई कमी नहीं महसूस होने देते पर उसे मायके नहीं आने देते )
 

गतांक से आगे
 


वे कनस्तर से आटा निकाल कर  काकी को दे रही थीं,गूंधने को. इसी बीच बाहर प्रमोद की जोर जोर से चिल्लाने की आवाजें सुनीं तो आटे सने हाथों से ही दरवाजे की तरफ भागीं और सामने जो नज़र गयी तो हतप्रभ रह गयीं,ध्यान भी नहीं रहा और वही आटे सने हाथ आश्चर्य से होठों पे रख लिए. दूर से पीले छींट की फ्रॉक पहने, कानों के पास लाल रंग के रिबन के दो फूल लगाए, नमिता साईकिल चलाती, उसकी घंटी टुनटुनाती हुई  चली आ रही थी. यहाँ प्रमोद ,गुस्से  से पागल हुआ जा रहा था, क्यूंकि उसके ट्यूशन जाने का समय हो रहा था और नमिता, साइकिल ले चली गयी थी. पर इस लड़की ने साइकिल चलाना कब सीखा? प्रमोद के शब्द उनके कानों तक जा ही नहीं रहें थे वे मंत्रमुग्ध सी नमिता को देख रही थीं,ऐसा लग रहा था, किसी मल्लिका की तरह वो राजहंस पर बैठी तैरती हुई चली आ रही है.

अहाते में पहुँचते ही, नमिता साइकिल से ठीक से उतरी भी नहीं थी की प्रमोद ने धक्का दे, उसे गिरा कर साइकिल छीन  ली. नमिता ने भी उठकर उसे जोर का धक्का  दिया पर प्रमोद ने उसके बाल खींच दो धौल पीठ पर जमा दिए और साइकिल ले चलता बना. नमिता वहीँ जमीन पर  बैठ कर पैर पटक पटक कर भाँ भाँ करके रोने लगी. उन्होंने इशारे से उसे बुलाया. क्या विवशता थी,वे देहरी लांघ,अपनी रोती बेटी को चुप भी नहीं करा सकती थीं. आँगन में काम करती, शिवनाथ माएं को आवाज दे ,नमिता को चुप करा लाने को कहा.वो उठाने गयी तो नमिता ने उसके हाथ झटक दिए और खुद ही चल पड़ी पर अंदर नहीं आई ,बाहर ही चौकी पर आँसू पोंछती बैठ गयी.




थोड़ी ही देर में बच्चों का झुण्ड "नमता नमता "की पुकार  लगाते हुए आया और वो उठ कर चल दी,गुल्ली-डंडा खेलने. बेटे गाँव के लड़कों के साथ ज्यादा घुलते मिलते नहीं थे. खुद को जरा विशिष्ट समझते पर नमिता, गाँव के हमउम्र लड़कों के साथ,"गुल्ली डंडा" ,कभी "कंचे"तो कभी "डेंगा पानी"खेला  करती. कभी भाइयों के जतन से छुपाये,गेंद-बल्ला ढूंढ निकालती और गाँव के लड़कों के साथ जम कर खेलती लेकिन उसे वापस उसी जगह पर रखने की बजाय लापरवाही से बाहर बरामदे में ही छोड़ देती. जब बेटे देख लेते फिर तो आँगन में जो महाभारत मचती कि लगता किसी का तो सर फूट कर रहेगा.

प्रमोद कहता, "इसी बल्ले से एक दिन तेरा सर फोड़ दूंगा...अगर फिर से छुआ है कभी?"

नमिता कमर पे हाथ रख कर कहती,"हिम्मत है तो आगे बढ़ के देख...सौ बार छूँऊँगी "

"पापा जी मेरे लिए शहर से लेकर आए हैं...लडकियां नहीं खेलतीं क्रिकेट...जा जा कर गुड़िया की शादी रचा..."

"नाम लिखा है उस पे तुमहरा?...और किस किताब में लिखा है लडकियां नहीं खेलती क्रिकेट...जाओ जाकर किताबों में माथा रगडो..."

"माँ समझा दो,वरना सच में बहुत मारूंगा .."

"और जैसे मैं छोड़ दूंगी..."

किसी तरह नमिता को पकड़ कमरे में ले जातीं.

 आज भी ,उनका मन हो रहा था,उसे अपने से चिपटा खूब दुलार करें और पूछे, "ये साइकिल चलाना कहाँ से सीखा?"पर नमिता, दादी की तरह उन्हें भी अपना विरोधी ही मानती थी. दो भाइयों के बाद उसका जनम था. बचपन से ही वह नौकरानियों की गोद में ही पलती आई. पांच साल के प्रमोद को सास गोद में उठाये रहतीं पर तीन साल की रोती नमिता को कलावती,सीला के हवाले कर देतीं.उनकी गोद में छोटी मीरा थी. ये विद्रोह के बीज तब से ही नमिता के मन में पड़ गए . जिसे आगे की रोज रोज घटती घटनाओं ने खूब खाद पानी दिया. स्कूल जाने से पहले सारे बच्चे खाना खाने बैठते और सास कलावती को अंदर से घी का डब्बा लाकर प्रकाश और प्रमोद की दाल में घी डालने को बोलतीं. उनके विचार से लड़कों को ही घी खाने का हक़ था. नमिता का जब ध्यान गया तो उसने दाल खाना ही छोड़ दिया,सब्जी चावल खा कर उठ जाती,कहती मुझे दाल नहीं पसंद. उनका मन कसमसा कर रह जाता, पर वे सास के विरुद्ध नहीं जा सकती थीं. यह बात पतिदेव ने भी गौर की और उन्हें अलग बुलाकर कहा, लड़कियों के शरीर को भी उतनी ही पौष्टिकता की जरूरत है,किसी बहाने उन्हें पौष्टिक भोजन दिया करो.

उन्होंने कहा,"आप ही क्यूँ नहीं कहते?"

"मैने आजतक माँ के विरुद्ध कुछ कहा है? कहेंगी, औरत की बातों में आ गया है. तुम रसोई संभालती हो , कोई उपाय निकालो."

 पर वे क्या करतीं,घर में एक पत्ता भी सास की मर्जी के बिना नहीं खड़कता था.

गाँव में आए दिन किसी की बेटी ससुराल से, तो बहू मायके से आती रहतीं. और घर घर बैना भेजा  जाता. लाल क्रोशिये से बुने मेजपोश से ढके डगरे में मिठाइयों की अलग अलग छोटी छोटी ढेरियाँ बनीं होतीं ,जिसे कोई कामवाली, घर घर बांटने के लिए जाती. उस से बहू,बेटी के हालचाल पूछे जाते और    कुछ पैसे दिए जाते. किस घर से कितने पैसे मिले हैं, यह लेखा-जोखा भी लिया जाता. सास हमेशा अच्छी मिठाइयां पोतों  के लिए रख देतीं. यहाँ भी नमिता कह देती मुझे मीठा नहीं पसंद. एक बार दुपहरिया में सास सो रही थीं. उन्होंने ही बैना लिया और जल्दी से कमरे में पैर फैलाए मीरा के साथ, गोटी खेलती  नमिता के पास मिठाई ले कर गयीं.

"ले आज तेरे लिए अच्छी वाली मिठाई छांट कर लाई हूँ "

"जिस दिन दादी के सामने देने की हिम्मत हो,उस दिन देना"नमिता ने टका सा जबाब दे दिया.

 जब उन्होंने जबरदस्ती खिलाने की कोशिश की तो जमीन पर फेंक दी,मिठाई. ओह!! काँप जातीं वो,कितना गुस्सा भरा है,इस लड़की के मन में. बोलीं,"गिरा क्यूँ दिया कम से कम मीरा को ही दे देती.."

"अच्छा है मीरा को इसका स्वाद ही ना पता चले...वरना उसका भी मन होगा खाने  का....ले मीरा तेरी बारी"और उसने गोटियाँ मीरा के हाथों में पकड़ा दीं.

 मन उदास हो गया ,उनका और  उस दिन तो कमरे में जाकर रो ही पड़ीं ,जब प्रकाश ने दादी से खीर खाने की फरमाइश की थी.

 उन्होंने बताया,  "अम्मा जी, चीनी ज्यादा नहीं है, खीर कल बना दूंगी".

इस पर सास ने कहा,"घर के मर्दों के लिए चीनी वाली खीर बना दो और औरतों ,लड़कियों के लिए गुड़  वाली"

उन्होंने प्रतिवाद भी किया, "कल चीनी, मंगवा कर सबके लिए, चीनी की खीर बना दूंगी"

"आज लड़के का मन है तो खीर कल  बनेगी?...ये क्या बात हुई...आज बनाओ"..सास ने गुस्से से कहा.

और जब नमिता ने उनकी कटोरियों में सफ़ेद खीर और अपनी कटोरी में लाल खीर देखी तो
बहाने से पूरी कटोरी ही थाली में गिरा दी,और "अब खाने  का मन नहीं है"कहती उठ कर चली गयी.

"एकदम कोई शऊर  नहीं है इस लड़की को,इसके लच्छन तो देखो"...सास जोर से चिल्लाईं  पर नमिता ने कभी परवाह की ही नहीं.

वे कमरे में जाकर रो पड़ीं, उनकी  आँखों के सामने ही उनकी बेटियों  के साथ ये अन्याय हो रहा है और वे मुहँ सिल कर बैठी हैं. पर वे विरोध करतीं, तो उनके घर का आँगन भी ,गाँव के हर आँगन की तरह महाभारत में तब्दील हो जाता  और चूल्हे चौके अलग हो जाते. जो ना उन्हें गंवारा था ना उनके पति को.
ममता,स्मिता भी ये सब झेलतीं पर भाइयों के 'लड़के'  होने की वजह से विशिष्टता का भान उन्हें था.इसे खुले मन से स्वीकार कर लिया था उन दोनों ने .वैसे भी ,भाई उनसे छोटे थे और वे समझतीं ,भगवान ने उनकी पुकार पर ही भाइयों को उनके घर भेजा है. जबसे चलने बोलने  लायक हुई,किसी मंदिर या  किसी भी  पूजा में सास उनका सर जमीन से लगा देतीं और कहतीं,"भाई मांगो, भगवान से"

एक  नमिता ,इस विशिष्ट दर्जे को बिलकुल स्वीकार नहीं  कर पाती और सबसे उलझती रहती.

पर नमिता का गुस्सा सिर्फ घर वाले ही झेलते वरना वो पूरे गाँव की प्यारी थी. उसके  तेजी से साईकिल चलाने,पेड़ पर चढ़ जाने, बरगद की बड़ी बड़ी जटाओं को पकड़ कर झूला झूलने पर पूरा गाँव मुग्ध था. सब कहते ,"किस नच्छत्तर में पैदा हुई है ये लड़की...लडको के भी कान काटती है."

घर के सामने ही एक अमरुद का पेड़ था,वह उसकी फुनगी पर चढ़ कर जोर से चिल्लाती "दादीsss "
और सास जोर जोर से भुनभुनाती, पेड़ की तरफ चल देतीं,"अरे,तुझे कब अक्कल आएगी... लड़कियों वाले कोई लच्छन  तो तुझमे हैं ही नहीं ..कही पैर वैर टूट गया तो कौन तुझ लंगड़ी से शादी करेगा...उतर नीचे"

और जैसे ही सास पेड़ के नीचे पहुंचतीं  वो उनके सामने ही धम्म से कूद जाती."

गाँव के हर घर में दिन में एक चक्कर उसका जरूर लग जाता. स्कूल से आ बाहर वाले कमरे में ही किताबें  फेंकती और चल देती, वो चिल्लाती रह जातीं,कुछ तो खा के जा पर गाँव का हर घर उसका अपना घर था. यह बात, बाद में स्मिता ने बतायी थी. तुम यहाँ  चिंता कर रही थी और वो फलां के घर बैठी कचरी खा रही थी या ठेकुआ खा रही थी. किसी के घर कुछ अच्छा बनता तो नमिता के लिए जरूर रख दिया जाता. कभी किसी घर में नहीं जा पातीं तो वे लोग किसी ना किसी के हाथ कटोरी  भेज देतीं.,ये कहते ,"नमिता को ये बहुत पसंद है "

पर कभी कभी वे घबरा भी जातीं. अँधेरा हो गया, नमिता घर नहीं आई. स्मिता की चिरौरी करतीं ,"जरा देख ना,किसके घर में है? "

स्मिता गुस्से में आकर बताती, "महारानी ,फुलेसर चाचा के घर रोटियाँ बना रही थीं"

"क्याsss  "उन्होंने आश्चर्य जताया

 तो नमिता गुस्से में बोल पड़ी,"क्या करती??.....वे रोटी बना रही थीं और उनका चार महीने का बच्चा भूख से चीख  चीख कर रो रहा था..मैने कहा ,आप उसे देखो मैं बना देती हूँ...उनके घर, हमारे यहाँ  की तरह नौकर चाकर नहीं झूलते रहते...सारा काम वे खुद ही किया करती हैं."और मुहँ बिचका कर चली जाती.

एक बार छठ पूजा के लिए घाट पर जाने की तैयारी हो रही थी और नमिता का कुछ पता नहीं. फिर से स्मिता को भेजा,पता चला नरेन्  चाचा  के यहाँ बैठी ,पेटीकोट  सिल रही थी मशीन पे. क्यूंकि चाची दौरी सजा रही थीं.और उन्हें दिन में समय नहीं मिल पाया और नया कपडा पहनना जरूरी था. नमिता ने साइकिल चलाने से लेकर रोटी बनानी ,मशीन चलानी  सब सीख ली लेकिन सब घर से बाहर.

ससुर जी से सब डरते. उनके दुलारे पोते भी उनसे थोड़ा दूर ही रहते. वैसे भी दोनों लड़के घर में दिखते भी कम.सुबह सुबह गणित पढने साइकिल से गणित के मास्टर साहब के यहाँ जाते.वहाँ से आते और नहा-खा कर स्कूल. स्कूल से आ एकाध घंटा क्रिकेट का बल्ला-गेंद ले दूर मैदान में खेलने  जाते.और घर आ फिर से विज्ञान  का ट्यूशन पढने के लिए साइकिल  लिए निकल जाते. रात में पति उन्हें अंग्रेजी और इतहास-भूगोल पढ़ाते. ननदें अपने पतियों के साथ शहर में रहतीं थीं. .जब छुट्टियों में आतीं तो उनके बच्चों के कपड़े, बोलने चालने के ढंग से प्रकाश,प्रमोद बहुत प्रभावित दिखते और उन्हें लगता पढाई ही वो कुंजी है जो इस गाँव के वातावरण से मुक्ति दिला सकती है. और इसी के सहारे उनके शहर में रहने का सपना साकार हो सकता है. इसी खातिर वे जी जान से पढाई में जुटे रहते. स्कूल के शिक्षकों से लेकर पूरे गाँव की जुबान पे उनके बेटों का नाम होता. वे भी यह सब देख सुन गर्व से फूली नहीं समातीं पर बेटे अपनी जरूरत की हर चीज़ दादी से ही कहते. कभी बीमार पड़ते तो दादी ही सिरहाने बैठी देखभाल करतीं. उनके जिम्मे वैसे भी घर के सैकड़ों काम होते.

 ससुर जी के खडाऊं की आवाज सुनते ही पूरे घर को सांप सूंघ जाता सिवाय नमिता के. जहाँ बैठी होती, वहीँ से चिल्लाती, "क्या खोज रहें हैं,बाबा? "

उनकी भी कडक आवाज में  मुलामियत घुल जाती, "अरे कल्याण नहीं मिल रहा, इधर ही तो पढ़ के रखा था"

वो लापरवाही से बोलती,"बाहर बरामदे में ताखे में तो रखा है...आपको कुछ याद नहीं रहता"

वे उसे आँख दिखातीं धीरे से कहतीं ,"जा कर दे दे ना"

पर ससुर जी सुन लेते, और प्यार से कहते, "अरे ले लूँगा बहू...उसे आराम करने दो . दिन भर गाँव में बहनडम सा घूमती रहती है....थक गयी होगी."

घर में एक ही ट्रांजिस्टर था ,जिस पर सुबह शाम ससुर जी, बरामदे में टेबल पर रख ऊँचे वॉल्यूम में समाचार और कृषि जगत  सुनते. ट्रांजिस्टर उनके कमरे में ही रहता. ममता,स्मिता चुपके से ले आतीं और धीमी  आवाज़ में फ़िल्मी गाने, नारी-जगत सुना करतीं. पर समाचार का  समय होते ही दबे पाँव ,कोठरी में रख आतीं. लड़कियों की इतनी रूचि देख उन्होंने पति से सिफारिश की, एक ट्रांजिस्टर ला दीजिये ना ,बच्चियों के लिए"

"ये सब फ़ालतू की चीज़ें हैं,पढाई से मन हट जायेगा ,इन सबका"

पर नमिता, बाबूजी के सामने से ही ट्रांजिस्टर उठा लाती ."समाचार ख़तम हो गया ना,ले जाऊं?"  और जोर जोर से गाने सुना करती. जाड़े के दिन में तो रजाई के अंदर देर रात तक गाना सुनते सुनते सोती. सुबह वे उसे उठा उठा कर परेशान हो जातीं, "समाचार का वक़्त हो रहा है,जा बाबूजी को रेडियो दे आ"पर वो नहीं उठती आखिरकार समाचार का वक़्त हो जाता और वे , 'नमिता...नमिता'  पुकारते उसके कमरे तक आ जाते. वो ढीठ लड़की,लेटे लेटे ही आँखें  बंद किए रजाई के बाहर हाथ निकाल रेडिओ पकड़ा देती और फिर से रजाई में घुस सो जाती.

नमिता को रात-बिरात भी कुछ डर नहीं लगता. एक बार खूब आंधी तूफ़ान आया.
सुबक के चार बज  रहें थे.  नमिता -स्मिता को चादर उढ़ाने गयीं, देखा तो नमिता बिस्तर पर नहीं  है. डर कर स्मिता,पति, अम्मा जी सबको उठा दिया.किसी की समझ में कुछ नहीं आया पर अम्मा जी बोलीं,"जरूर बगीचा में आम बीनने गयी होगी, चलो टॉर्च लो और चलो.."

ये तीनो पास के बगीचे में गए तो देखा कई लोग आस पास के बगीचे में थे और नमिता अपने बगीचे में गिरे आम उठा उठा कर एक जगह इकट्ठा कर रही है.

उन्हें देखते ही बोली,"ये सारे लोग हमारे बगान में थे, मुझे देखते ही भाग गए, मैं नहीं आती तो एक भी आम नहीं मिलता."

एक बार घर में ढेर सारी खीर पूरी  बच गयी थी. गर्मी के दिन थे.वे परेशान हो रही थीं, सुबह तक सब ख़राब हो जायेगा ,अगर किसी तरह थोड़ी दूर पर बनी झोपड़ियों में पहुंचा दिया जाता तो चीज़ भी नहीं बर्बाद होती और गरीबों का पेट भी भर जाता. पति और बेटे कोठरी में पढ़ाई कर रहें थे. दरवाजे पर बाबूजी बैठे थे. किस से कही जाए ये बात .

और नमिता आगे आ गयी,"पूरनमासी है, पूरा उजाला है.....मैं और छोटकी दी चले जाते है." (ममता को बडकी दी और स्मिता को छोटकी दी कहा करते थे उनसे छोटे भाई-बहन.)

बहुत डर डर के  पिछले दरवाजे से उन्हें  भेजा.वे आँगन में पीछे की तरफ खुलती खिड़की पर टकटकी लगाएं खड़ी थीं. दोनों बेटियाँ  वापस आ रही थीं और अचानक नमिता ने जोर जोर से गाना शुरू कर दिया, "नीले गगन के तले धरती  का प्यार पले". स्मिता ने उसका मुहँ दबा कर चुप कराने की कोशिश की तो वो हाथ छुड़ा खेतों  की मेंड़ के बीच जोर जोर से गाते हुए दौड़ने लगी.

वे माथा पकड़ कर बैठ गयीं. रात के सन्नाटे में उसकी आवाज़ कहाँ कहाँ ना सुने दे रही होगी. ससुर जी,सासू माँ,पति सब बाहर निकल आए. डरते डरते बता दिया कि क्यूँ भेजा था? पर ससुर जी नाराज़ नहीं हुए बल्कि हँसते हुए कह रहें थे,"आ तुझे दिखाता हूँ धरती  का प्यार"

नमिता, अपने बाबा की लाडली थी. जो गुण वे अपने बेटे और पोतों में देखना चाहते थे, वो सब अपनी इस पोती में देखकर खुश हो जाते.
(क्रमशः)

"टू इन वन".....'मेकिंग ऑफ दिस नॉवेल'एंड 'थैंक्यू नोट्स "

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आजकल चलन है,फिल्म रिलीज़ होने के बाद ' Making of the Film 'दिखाए जाते हैं उसी तर्ज़ पर मैंने सोचा, Making of this novel 'भी क्यूँ ना लिख डालूं जब कई रोचक बातें जुडी हुई हैं इस नॉवेल से.
मैंने नॉवेल पोस्ट करने के पहले ही सोचा था, ये सब शेयर कर लूँ.,फिर सोचा सबलोग फिर उसी नज़र से देखेंगे.अब जब लोगों ने पढ़ लिया है और पसंद भी किया है तब बता सकती हूँ कि यह नॉवेल मैंने तब लिखा था,जब मैं सिर्फ १८ बरस की थी.और यह मेरा दूसरा लघु उपन्यास है. पहला नॉवेल लिखा ,तो जैसा अक्सर होता है, सहेलियां उसकी नायिका से मेरी तुलना करने लगीं जबकि नायिका एम्.ए. की छात्रा थी और मैं इंटर में थी उस वक़्त.दरअसल रचनाकार थोड़ा बहुत अपने हर किरदार में होता है और ऐसे ही उसके संपर्क में आनेवाले लोगों की थोड़ी थोड़ी झलक हर चरित्र में मिल जाती है.
शायद यही साबित करने की चाह होगी और मेरे सबकॉन्शस ने ये सब लिखवा लिया.क्यूंकि अभी तक सोच समझ कर नही लिखा,कभी..(आगे का नहीं जानती) उन दिनों मैं हॉस्टल से घर आई हुई थी,घर मेहमानों से भरा था...मैं कभी छत पर छुप कर लिखती,कभी सब दोपहर में सो रहें होते तो उतनी गर्मी में बरामदे में बैठकर लिखती.
इंटर से लेकर एम्.ए.तक छात्र-छात्राओं के बीच ये दोनों नॉवेल इतना घूमा कि मुझे तीन बार फेयर करनी पड़ी.कोई भी अनजान लड़की मांग कर ले जाती और करीबी सहेलियां डांट लगातीं,ऐसे कैसे दे देती हो,कहीं नहीं लौटाया तो?....पर कैसे मना करूँ और ये मेरा विश्वास किसी ने नहीं तोडा.कई मजेदार घटनाएं भी हुईं.इंग्लिश ऑनर्स पढनेवाली,'मीता त्रिपाठी'बड़े शान से पढाई का बहाना कर मेरा नॉवेल पढ़ रही थी.माँ के पूछने पर रजिस्टर बढा दिया देखो,पढ़ रही हूँ.और उसकी माँ ने पूछा,'इंग्लिश ऑनर्स'हिंदी में कब से पढ़ाई जाने लगी??और फिर वे खुद वो नॉवेल लेकर चली गयीं पढने.आंटी ने एक प्यारा सा नोट लिख कर दिया था,मुझे जो मैंने बहुत दिन तक संभाल कर रखा था.
एक बार कैंटीन में सुनीता और विभा के बीच बहस चल रही थी,पूछने पर पता चला,दोनों लड़ रही हैं कि "मैं अपनी बेटी का नाम "नेहा नवीना'रखूंगी"...नहीं मैं रखूंगी"...दोनों कजिन थीं.
उन दिनों धारावाहिक कहानियों का चलन था.पर मैंने कहीं भी भेजने कि हिम्मत नहीं की.एक तो पैरेंट्स का डर,'क्या सोचेंगे...यही सब चलता रहता है इसके दिमाग में"..दूसरा पत्रों का डर,इतने रूखे सूखे विषयों पर लिखने पर तो इतने पत्र मिलते थे.ऐसी कहानी छपने पर पता नहीं कैसे कैसे पत्र आयेंगे.
कॉलेज के बाद ये कहानियाँ.बंद ही पड़ी रहीं..कभी कभी पन्ने खुलते जब मेरी कोई कजिन मेरे पास आती.पर मेरी एक मलयाली सहेली,'राज़ी'जो अंग्रेजी पत्रिका "Society "में सह संपादक थी और जिसने बीस साल से हिंदी में कुछ नहीं पढ़ा था,उसने बड़ी मेहनत से पढ़ी.जब अजय भैया (अजय ब्रह्मात्मज) के पी.ए. ने टाइप करके भेजी तब नेट पर कई दोस्तों ने पढ़ी.और पढ़ी,मेरी ममता भाभी ने...जो बरसों पहले हमारे परिवार में शामिल हो गयी थीं ..और भाभी से ज्यादा मेरी सहेली हैं ...पर उन्हें अब तक पता ही नहीं था कि मैं कभी लिखती भी थी...उन्होंने बहुत सराहा और बढ़ावा दिया...ये ब्लॉग शुरू करने के लिए भी उन्होंने काफी प्रोत्साहित किया...और अब मेरी रचनाओं की एक सजग पाठक हैं.
और अब ब्लॉग के साथियों ने.कई लोगों ने कहा छपवा लो.पर जो संतोष ब्लॉग पर पोस्ट करके मिला.पुस्तक के रूप में नहीं मिलता.खुद ही बताओ लोगों को और फिर सकुचाते हुए पूछो कि कैसी लगी??
और हाँ,इस नॉवेल का नाम था,'दीपशिखा'...ब्लॉग पर डालते हुए बदल दिया..ये शीर्षक जरा Hep लगा(Hep की हिंदी नहीं मालूम,वैसे भी ब्लॉग पर अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग की बहुत लिबर्टी ले लेती हों,बुरा लगे किसी को तो क्षमा )...और मैंने नॉवेल में कहीं नहीं स्पष्ट किया है कि शरद और उर्मिला की शादी हो गयी.पर यहाँ सबने ऐसा ही समझा...फिर मैंने सोचा...Why Not?? निश्छल प्रेम,अटूट दोस्ती के साथ 'विधवा विवाह'का एंगल भी सही.

शुक्रिया दोस्तों :)
मेरी कहानी इतने धैर्य से पढने के लिए सबका बहुत बहुत शुक्रिया.सबसे पहले तो चंडीदत्त शुक्ल जी का शुक्रिया,जिन्होंने इस पूरे नॉवेल को यूनिकोड में परिवर्तित कर के भेज दिया.
वरना मुझे एक एक शब्द टाइप करने पड़ते.(अब दूसरी कहानियाँ तो टाइप करनी ही पड़ेंगी :( )
मैं इसे 'उपन्यासिका'कहने वाली थी पर 'हरि शर्मा'जी ने सलाह दी कि जेंडर बहस शुरू हो जाएगी बेहतर है,लघु उपन्यास कहें.
विनोद पाण्डेय जी,राज भाटिया जी,समीर जी,मनु जी,प्रवीण जी,मिथिलेश,अबयज़ जी सबलोगों का बहुत बहुत शुक्रिया...आमतौर पर पुरुष इस तरह का उपन्यास नहीं पढ़ते.पर आप सबों ने बहुत धैर्य से पढ़ा,शुक्रिया.
शिखा,अदा,वाणी,वंदना अवस्थी,वंदना गुप्ता.सारिका जी,संगीता जी,रश्मि प्रभा जी,निर्मला जी,रंजू जी,हरकीरत जी.आप सबलोग भी लगातार उत्साह बढाती रहीं...शुक्रिया.
शिखा का बच्चों कि तरह जिद करना कि 'नेहा'और शरद'को प्लीज़ अलग मत करो...और धमकी भी दे डाली कि 'वरना मैं अंत बदल कर अपने ब्लॉग पे पोस्ट कर दूंगी,(हा हा नॉट अ बैड आइडिया,शिखा)
वंदना जी हर बार मासूमियत से पूछतीं ..आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो दोनों अलग हो गए....प्यार भी है,परिवार वाले भी तैयार हैं....उनके इस कथन से ही 'फ्लैश बैक'का महत्त्व पता चला,पाठक की उत्कंठा बनी रहती है.
सारिका जी और वाणी हमेशा तकाज़ा करतीं कि अगली किस्त कब आएगी?...सारिका जी तो कमेन्ट भी कर जातीं..'इंतज़ार है,अगली पोस्ट का"
दीपक मशाल का मन होता था,पढ़ते जाएँ...understandable है उनकी उम्र ही है ऐसे नॉवेल पसंद करने की :)
खुशदीप जी का चिंतित होना कि अक्सर आर्मी ऑफिसर कहानी या फिल्मों में शहीद ही हो जाता है...इसे दुखांत मत बनाना.वे पढने की रौ में यह भूल ही गए कि कहानी फ्लैशबैक में चल रही है.
हरकीरत जी और मनु जी ने टाइपिंग त्रुटियों कि ओर ध्यान दिलाया...शुरू में मैंने लापरवाही बरती थी पर बाद में थोड़ी मेहनत की.
अजय झा जी ने लिंक लगाने की सलाह दी..मैंने कभी लगाया, कभी नहीं अलग बात है.
सबसे ज्यादा मुझे डर था ,'मेजर गौतम राजरिशी जी'से. पता नहीं...क्या टेक्नीकल गलतियां नज़र आ जाएँ.आखिर एक आर्मी ऑफिसर की कहानी थी.ये लिखते हुए कि 'हर स्टेशन पे युद्ध से लौटते हुए जवानो की आरती उतारी जाती,उपहार दिए जाते."..मैं असमंजस में थी,पता नहीं ऐसा होता है या नहीं..फिर सोचा नहीं होता तो होना चाहिए...और गौतम जी ने तो यह बताकर कि "शायद आपको पता नहीं हो, किंतु एक ऐसी ही घटना हो चुकी है बिल्कुल कि जब एक आफिसर की शहादत के बाद उसी युनिट के एक जुनियर ने शहीद हुये आफिसर की विधवा का हाथ थामा...."कहानी और सत्य के फर्क को मिटा ही दिया बिलकुल.
ज्ञानदत्त पांडे जी,ताऊ रामपुरिया जी,रविरतलामी जी...इनलोगों के कमेंट्स अंतिम किस्त पर ही आए...मुझे पता भी नहीं था,ये लोग पढ़ रहें हैं,इसे...
आप सबों ने मिलकर इस नॉवेल को पोस्ट करने के लम्हों को बहुत खुशनुमा बना दिया...हाँ शुक्रिया उनलोगों का भी...जिन्होंने कमेन्ट नहीं किया,पर पढ़ा...अब उन्हें पसन्द आया या नहीं...मालूम नहीं..पर पढ़ा तो सही :)

होठों से आँखों तक का सफ़र (कहानी)

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मोबाइल पर एक अनजाना नंबर देख,बड़े बेमन से फोन उठाया.पर दूसरी तरफ से छोटी भाभी की आवाज़ सुनते ही ख़ुशी से चीख पड़ी. इतने सारे सवाल कर डाले कि उन्हें सांस लेने का मौका भी नहीं दिया.मेरे सौ सवालों के बीच वो सिर्फ इतना बता पायीं कि इसी शहर में हैं,अपने बेटे के पास आई हुई हैं और मुझसे मिलना चाहती हैं.

फोन रखते ही मैं जल्दी जल्दी काम निबटाने लगी और उसी रफ़्तार से मानसपटल पर पुराने दृश्य उभरने और मिटने लगे.

पड़ोस में रहने वाली ,मेरी सहेली सुधा के छोटे भैया की शादी हुई तो जैसे उनका घर रोशनी से नहा गया.अपने नाम किरण के अनुरूप ही,छोटी भाभी कभी सूरज की किरणें बन घर में उजास भर देतीं तो कभी चंद्रमा की किरण बन शीतलता बिखेरतीं.लम्बे काले बाल,दूध और शहद मिश्रित गोरा रंग,पतली छरहरी देह और उसपर जब हंसतीं तो दांतों की धवल पंक्ति बिजली सी चमक जाती.उन्हें देखकर ही जाना कि असली हंसी क्या होती है?उनकी हंसी सिर्फ होठों तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि आँखों में उतर कर सामने वाले के दिल में घर कर लेती थी.

फोटो तो हम सबने पहले ही देख रखी थी.उसपर से सुना फर्स्ट क्लास ग्रेजुएट हैं. थोड़ा डर से गए थे. इतनी सुन्दर और इतनी पढ़ी लिखी हैं,जरूर घमंड भी होगा.ठीक से बात भी करेंगी या नहीं.पर अपने प्यारे व्यवहार से उन्होंने घर भर का ही नहीं.सुधा की सारी सहेलियों का भी मन मोह लिया.

हम इंतज़ार करते रहते कब क्लास ख़त्म हो और हम सब सुधा के घर जा धमकें.अक्सर छत पर हमारी गोष्ठी जमती और हम यह देख दंग रह जाते,साहित्य,राजनीति,खेल,फिल्म,संगीत,सब पर भाभी की अच्छी पकड़ थी.नयी नवेली बहू को सुधा की माँ तो कुछ नहीं कहतीं पर शाम के पांच बजते ही वे, किचेन में बड़ी भाभी की हेल्प करने चली जातीं.

छोटे भैया भी उनका काफी ख़याल रखते.अक्सर शाम को ऑफिस से लौट वे भाभी को कभी दोस्तों के घर ,कभी मार्केट तो कभी फ़िल्में दिखाने ले जाते.जब स्कूटर पर भैया भाभी की जोड़ी निकलती तो सारे महल्ले की कई जोड़ी आँखें,खिडकियों से ,बालकनी से या छत से झाँकने लगतीं.सब यही कहते कैसी,राम सीता सी जोड़ी है.

समय के साथ वे एक प्यारे से बच्चे की माँ भी बनीं.अब तो छोटे बच्चे के बहाने, मैं जैसे उनके घर पर ही जमी रहती.पर नन्हे से ज्यादा आकर्षण भाभी की बातों का रहता.वे भी जैसे मेरी राह देखती रहतीं. उन्होंने भी मुझे कभी सुधा से अलग नहीं समझा.

सब कुछ अच्छा चल रहा था,फिर हुआ वह वज्रपात.जाड़े के दिन थे,अल्लसुबह भैया किसी मित्र को लाने स्टेशन जा रहें थे.और कोहरे की वजह से उनके स्कूटर का एक्सीडेंट हो गया.भैया का निर्जीव शरीर ही घर आ पाया,नन्हे सिर्फ चार महीने का था,उस वक़्त.

भाभी को उनके मायके वाले ले गए.मुझे भाभी से बिछड़ने का गम तो था. पर मुझे विश्वास था कि भाभी,अपने घर की इकलौती बेटी हैं,दो भाइयों की छोटी लाडली बहन हैं,पिता भी प्रगतिशील विचारों वाले हैं.जरूर उन्हें आगे पढ़ा कर या अच्छा सा कोर्स करवा कर नौकरी के लिए प्रोत्साहित करेंगे.मैं मन ही मन प्रार्थना करने लगी,हे भगवान्! भाभी की दूसरी शादी भी करवां दें,कैसे काटेंगी अकेली ये पहाड़ सी ज़िन्दगी. पर तब मुझे दुनियादारी की समझ नहीं थी.नहीं जानती थी कि एक विधवा या परित्यक्ता बेटी के लिए मायके में भी जगह नहीं होती.जिस घर मे वह पली बढ़ी है, अब उस घर में ही फिट नहीं हो पाती.जिन माँ-बाप का गला नहीं सूखता ,यह कहते कि,उसके ससुराल वाले तो छोड़ते ही नहीं ..दो दिन में ही बुलावा आ जाता है.पर अगर बेटी हमेशा के लिए आ जाए तो भारी पड़ जाती है. दो महीने के बाद ही भाभी के पिता यह कहते हुए उन्हें ससुराल छोड़ गए कि यह नन्हे का अपना घर है , उसे इसी घर में बडा होना चाहिए.

घर में प्रवेश करते ही,भाभी ने अपनी स्थिति स्वीकार कर ली थी.उनका अपना कमरा अब उनका नहीं था. किचन से लगे एक छोटे से कमरे में उन्हें जगह मिली थी.जहाँ बस एक तख़्त पड़ा था.उनके दहेज़ के सामान में से बस एक आलमीरा उन्हें मिला था.उनके कमरे,उनके ड्रेसिंग टेबल,टू-इन-वन,सब पर अब सुधा का कब्ज़ा था.छोटी भाभी की अनुपस्थिति में उनके पलंग पर सुधा,और बड़ी भाभी के बच्चे सोते थे.वही व्यवस्था उनके लौटने के बाद भी कायम रही.उनका कमरा देख मेरा कलेजा मुहँ को आ गया.एक रैक पर नन्हे के कपड़ों के साथ बस एक कंघी पड़ी थी.एक आईना तक नहीं.तर्क होगा,जब श्रृंगार नहीं करना,फिर आईने की क्या जरूरत.

नन्हे को तो सुधा की माँ ने जैसे अपने संरक्षण में ले लिया था.उस बच्चे में वह अपने खोये हुए बेटे को देखतीं.उसका सारा काम खुद किया करतीं.एक मिनट भी उसे खुद से अलग नहीं करती....बस भाभी को आवाजें लगातीं....बहू,जरा..नन्हे की दूध की बोतल दे जाओ...कपड़े दे जाओ...उसके नहलाने का इंतज़ाम करो...और भाभी आँगन में पटरा गरम पानी तौलिया,साबुन सब रखतीं.पर बच्चे को नहलाने का सुख.माता जी ले जातीं.भाभी नन्हे की धाय माँ भी नहीं रह गयी थीं.

फिर भी भाभी ने अपनी मुस्कराहट जिंदा रखी थी.शायद यही उनके जीने का सम्बल था.पर अब उनकी हंसी बस होठों तक ही सीमित रहती,आँखों से नहीं छलकती थी.

छोटी भाभी के घर आते ही,बड़ी भाभी को पता नहीं किन काल्पनिक रोगों ने धर दबोचा.आज उनके पैर में दर्द रहता,कल पीठ में तो परसों कमर में.सारा दिन पलंग पर आराम फरमाया करतीं.और पड़े पड़े ही छोटी भाभी को निर्देश दिया करतीं.उन्होंने अपना वजन भी खूब बढा लिया था.मैं सोचती,आज तो ये काम से बचने के लिए बहाने कर रही हैं...इतने आराम से कल इन्हें ये सारे दर्द सचमुच झेलने पड़ेंगे.

घर का सारा बोझ छोटी भाभी के कंधे पर आ गया था.सुबह उठकर बड़ी भाभी के बच्चों के टिफिन बनाने से लेकर,रात में सबके कमरे में पानी की बोतल रखने तक उनका काम अनवरत चलता रहता.बस दोपहर को थोड़ी देर का वक़्त उनका अपना होता.जब वे घर वालों के कपड़े समेट आँगन में धोने बैठती.सबलोग अपने कमरे में आराम कर रहें होते और वे मुगरी से कपड़ों पर प्रहार करती रहतीं और उसी के लय पर उनके मधुर स्वर में लता के दर्द भरे नगमे गूंजते रहते..मैं उस समय किताबें लिए छत पे होती. मुझे उनकी आवाज़ के कम्पन से पता चल जाता कि वे रो रही हैं और उनकी दर्द भरी आवाज़ सुन, मेरे भी आंसू झर झर किताबों पे गिरते रहते पर मैंने भाभी को कभी नहीं बताया...उनका ये एकमात्र निजी पल मैं उनसे नहीं छीनना चाहती थी. शायद इसी एक घंटे में वे अपने अंतर का सारा कल्मष निकाल देतीं और बाकी के २३ घंटे हंसती मुस्काती नज़र आतीं.

शायद इसी मूक पल ने जैसे कोई मूक रिश्ता स्थापित कर दिया था,हमारे बीच.मैं भाभी की तरफ देखती और भाभी नज़रें झुका लेतीं और जल्दी से काम में लग जातीं.उन्हें डर था जैसे मैं नज़रों से उनका दर्द पढ़ लूंगी.हमारी गोष्ठी अब इतिहास हो चुकी थी.मुझे अब उनके यहाँ जाना भी अच्छा नहीं लगता.क्यूंकि सुधा जिस तरह उनसे व्यवहार करती वो मुझसे देखा नहीं जाता.

एक दिन एक सहेली के घर जाना था.सुधा के घर उसे लेने गयी तो देखा,सुधा, भाभी के ऊपर चिल्ला रही है,"मेरा पिंक वाला कुरता कहाँ है?"जब भाभी ने कहा ,'इस्त्री के लिए गयी है"तो बिफर उठी वह ,"अब क्या पहनूं? कहा था ना आपको,नीरा के बर्थडे में जाना है.फिर क्यूँ दिया आपने इस्त्री में?"
भाभी ने चतुराई से बात संभालने की कोशिश की.आलमारी से ब्लू रंग का कुरता निकाल कर प्यार से बोलीं,"अरे ये क्यूँ नहीं पहनती? इस रंग में कितना रंग खिलता है तुम्हारा.बहुत अच्छी लगती है तुम पर."
मैंने भी हाँ में हाँ मिलाई,"हाँ सुधा,बहुत अच्छी लगती है तुम पर ये ड्रेस."
"हाँ ,अब और चारा भी क्या है?"..कहती सुधा,भाभी के हाथों से वो ड्रेस ले बदलने चली गयी.
मैंने ऐसे सर झुका लिया,जैसे मेरी ही गलती हो.भाभी ने भी भांप लिया और बात बदलते हुए,मेरी पढ़ाई के बारे में पूछने लगीं.पर जब हमारी आँखें मिलीं तो सारे बहाने ढह गए और भाभी की आँखें गीली हो आयीं,जिन्हें छुपाने वे जल्दी से कमरे से बाहर चली गयीं.

मैंने रास्ते में सुधा को समझाने की कोशिश की पर मेरी सहेली कैसी भावनाहीन हो गयी थी,देख आश्चर्य हुआ.उल्टा मुझपर बरस पड़ी,"उनको और काम ही क्या है,इतना भी ध्यान नहीं रख सकतीं"
मन हुआ उसे रास्ते से नीचे धकेल दूँ.हाँ उस बिचारी का पति नहीं रहा...अब चौबीस घंटे तुमलोगों की चाकरी और तुम्हारे नखरे उठाने के सिवा उसके पास काम ही क्या है.मैंने बोला तो कुछ नहीं पर सुधा मेरी नाराज़गी समझ गयी.हमारी दोस्ती के बीच एक दरार सी आ गयी जो समय के साथ बढती ही चली गयी.

नन्हे अब बोलने लगा था.पर बड़ी भाभी के बच्चों की तरह वो छोटी भाभी को 'छोटी माँ'कह कर ही बुलाया करता.मैंने टोका तो भाभी ने हंस कर बात टाल दी,"अरे बच्चे जो सुनते हैं वही तो बोलना सीखते हैं"पर र्मैने पाया घर में भी कोई उसे 'छोटी माँ'की जगह मम्मी कहना नहीं सिखाता.बल्कि सबको मजे लेकर यह बात बताया करते.हर आने जाने वाले को भाभी को दिखाकर,नन्हे से पूछते,'ये कौन है'और जब नन्हे अपनी तोतली जुबान में कहता,'चोटी मा'तो जैसे सबको हंसी का खज़ाना मिल जाता.नन्हे भी अपने छोटे छोटे हाथों से ताली बजा,हंसने लगता.उसे लगता उसने कोई बडा काम कर लिया.ऐसे में भाभी जिस कौशल से हंसी के पीछे अपना दर्द छुपातीं.बड़ी से बड़ी ऑस्कर अवार्ड पाने वाली अभिनेत्रियाँ भी नहीं कर पाएंगी.

नन्हे पर उसके दादा,दादी,चाचा सब जान छिड़कते थे.उसके भविष्य की पूरी चिंता थी...कहाँ पढ़ाएंगे, कैसे पढ़ाएंगे...सारी योजनायें बनाते रहते. यूँ वे छोटी भाभी से भी कोई दुर्वयवहार नहीं करते थे. सिर्फ काम मशीनों वाला लेते थे,वरना कोई अपशब्द या कटाक्ष या व्यंग नहीं करते थे.पर दुर्वयवहार ना करना,सद्व्यवहार की गिनती में तो नहीं आता.मनुष्य की जरूरतें सिर्फ,खाने कपड़े और छत की ही नहीं होती.छोटी भाभी को भी एक सामान्य जीवन जीने का हक़ था.हंसने बोलने,बाज़ार,फिल्मे जाने का समारोह,उत्सवों में भाग लेने का हक़ था...जो अब वर्जित हो गया था,उनके लिए.


फिर मेरी शादी हो गयी.पर जब भी मायके जाना होता.कहने को तो मैं सुधा के घरवालों से मिलने जाती पर मन तड़पता रहता,भाभी से मिलने को.नन्हे अब बडा हो रहा था और जैसे धीरे धीरे उसपर असलियत खुल रही थी.क्यूंकि हंसने खलने वाला महा शरारती बच्चा,अब बिलकुल शांत हो गया था.वह अपनी माँ की स्थिति समझ रहा था.उन्हें अब 'छोटी माँ'कहकर नहीं बुलाता पर जैसे माँ कहने में भी उसे हिचक होती.वह कुछ कहता ही नहीं.इन सबसे बचने के लिए उसने किताबों की शरण ले ली थी.हर बार उसके कामयाबी के नए किस्से सुना करती और दिल गर्व से भर जाता.चलो भाभी का त्याग व्यर्थ नहीं गया.नन्हे के रूप में गहरे काले बादल की ओट से सुनहरी किरणें झाँक रही थीं अब भाभी के जीवन में पूरा प्रकाश फैलने में देर नहीं थी.

सुना नन्हे ने इंजीनियरिंग में टॉप किया है.और एक बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनी में अच्छी नौकरी मिल गयी है.भाभी को फोन पर मुबारकबाद दी तो वे ख़ुशी से रो पड़ीं.नन्हे की शादी में बड़े प्यार से बुलाया था,भाभी ने.पर अपनी घर गृहस्थी में उलझी मैं,नहीं जा सकी.

और आज जब फोन पर सुना,नन्हे इसी शहर में है तो मन ख़ुशी से झूम उठा.

भाभी जैसे मेरे इंतज़ार में ही थीं.कॉलबेल पर हाथ रखा और दरवाजा खुल गया.भाभी को देख,मैं ठगी सी रह गयी.लगा पच्चीस साल पहले वाली भाभी खड़ी हैं.चेहरे पर वही पुरानी हंसी लौट आई थी.जो होठों से चलकर आँखों तक पहुँचती थी.नन्हे की पत्नी रुचिका बहुत ही प्यारी लड़की थी.रुचिका को भाभी ने बेटी सा प्यार दिया तो रुचिका ने भी उन्हें माँ से कम नहीं समझा.'माँ'सुनने को तरसते भाभी के कान जैसे रुचिका की माँ की पुकार सुन थक नहीं रहें थे.गुडिया सी वह लड़की पूरे समय हमारी खातिरदारी में लगी रही.बिना माँ से पूछे उसका एक काम नहीं होता. भाभी भी दुलार से भरी उसकी हर पुकार पे दौड़ी चली जातीं.दोनों को यूँ घुलमिल कर सहेलियों सी बातें करते देख जैसे दिल को ठंढक पड़ गयी.मैंने आँखें मूँद धन्यवाद दिया ईश्वर को,सच है भगवान् तुम्हारे यहाँ देर हैं अंधेर नहीं.

दोनों मुझे टैक्सी तक छोड़ने आयीं.तभी रुचिका ने कुछ कहा और भाभी खिलखिला कर हंस पड़ीं.मैं मंत्रमुग्ध सी निहारती ही रह गयी.रुचिका ने ही मेरे लिए आगे बढ़ कर टैक्सी रोकी और दोनों को हाथ हिलाता देख,लग रहा था,दो सहेलियां मुझे विदा कह रही हैं.टैक्सी चलते ही मैंने सीट पर सर टिका आँखें मूँद लीं.कुछ देर आँखें बंद कर इस ख़ूबसूरत अहसास को अन्दर तक महसूस करना चाहती थी.

राम राम करके उपन्यास पूरा हुआ ,अब शुक्रिया कहने की बारी

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यह उपन्यास या लम्बी कहानी(   आयम स्टिल वेटिंग फॉर यू, शची)जो भी कहें...ख़त्म होने के बाद ही सबका शुक्रिया अदा करने का विचार था ,पर कई अडचनें आ गयीं..और टलता रहा शायद ये टल ही जाता हमेशा के लिए अगर सारिका सक्सेनाने 'मेकिंग ऑफ द नॉवेल 'की डिमांड नहीं की होती और मुझपर इल्जाम भी है कि मैं muktiऔर सारिका को लेकर थोड़ा पक्षपात करती हूँ,अब दोनों दीदी कहती हैं तो इतना हक़ तो है ही उनका.(.हाँ, दीपक,पी.डी., सौरभ  तुम्हारा भी है...dnt b jealous :))

उन दोस्तों का  तहेदिल से शुक्रिया  जिन्होंने  बड़े धैर्य से यह लम्बा नॉवेल  पढ़ा जो 5 मार्च को शुरू होकर 13 मई को ख़त्म हुआ. नॉवेल के सफ़र की शुरुआत में ही मेरे लेखन के  कुछ नियमित पाठक साथ हो लिये. पहली किस्त पर तो बस शुरुआत  थी,सबने 'रोचक है'कह कर उत्साह बढाया.

दूसरी किस्त से कहानी ने थोड़ा जोर पकड़ा, दूसरी किस्त का ये डायलॉग "हर पढ़ी-लिखी लड़की थोड़ी फेमिनिस्ट तो ही जाती है हमेशा अपनी जाति के लिए सतर्क. कहीं कोई उनके अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण ना कर दे."सबको खूब भाया.  Pankaj Upadhyay ने अभी अभी ये उपन्यास पढना बस शुरू ही किया है. इतवार की सुबह की चाय वे शची,अभिषेक के साथ लेते हैं,उनका कहना था कि उनके शहर  का शॉर्ट फॉर्म LMP है ,यानि लखीमपुर खीरी जबकि नॉवेल में LMP का अर्थ है,लव,मुहब्बत,प्यार.(उनका शहर  भी बिना शर्त यही बांटता होगा शायद)

तीसरी किस्त में दीपक 'मशाल'को अपने कॉलेज की बातें याद आ गयीं और जैसे वे फ्लैशबैक में जीने लगे उनका कहना था "आज से १०-११ साल पहले के अपने माज़ी की परते खोलने को भेज दिया.".  (दीपक हमें भी ले चलये कभी वहाँ :) .अभिषेक ओझाने कहा ... 'खोकर पढता हूँ मैं तो, कैरेक्टर का नाम भी तो अपना ही है'.PDने तीनो  किस्त एक साथ पढ़ी  और बाकी के सारे किस्त उन्हें मेल में चाहिए थी.उन्होंने धमकी भी दे डाली,'भेजिए वरना घर आ जाऊंगा और बैगनभी नहीं खाऊंगा ."

चौथी  किस्त में HARI SHARMA  जी ने इस डायलौग को उद्धृत  कर सारे युवा जगत से एक अपील कर डाली,कि ध्यान रहें , "व्हेन अ गर्ल इज इन लव,शी बिकम्सा क्लेवर बट व्हेन अ बॉय इज इन लव,ही बिकम्स अ फूल".shikha varshneyने सलाह दे डाली कि 'आपको युवा मनोविज्ञान पर एक किताब लिखनी चाहिए'सारिका सक्सेना ने भी इसका अनुमोदन किया कि आप युवा मनोविज्ञान को बहुत अच्छी तरह समझती हैं. दरअसल हर कोई ही इस दौर से गुजरता है.बस जरूरत है रुक कर एक बार उनके जैसा सोच कर देखने की'

शरद कोकासजी ने पांचवी किस्त तक एक बैठक में ही पढ़ी,और कहा,"साहित्यिक भाषा की कमी ज़रूर लग रही है लेकिन अब लिख ही लिया है तो क्या किया जा सकता है । बाकी प्रवाह बहुत बढ़िया है और रोचकता भी बरकरार है ।  उनकी शिकायत बिलकुल जायज है.एक तो मैं पूरी कोशिश करती हूँ कि नॉवेल के चरित्र बिलकुल बोलचाल की भाषा में ही संवाद करें.कोई क्लिष्ट शब्द आए भी तो उसे आसान से शब्द में बदल देती हूँ. पर सबकी अपनी पसंद होती है,उन्हें शायद इसकी कमी इतनी खली कि आगे की किस्तें उन्होंने पढ़ी ही नहीं :) (व्यस्तता भी एक वजह हो सकती है ). इसी किस्त में अभिषेक का ये कहना'आश्चर्यचकित तो वह भी था कि इतनी आसानी से फ्लर्ट कर सकता है वो. परन्तु शायद हर पुरुष में इस किस्म का चरित्र मौजूद रहता है. और मौका पाते ही अपनी झलक दिखा जाता है'दीपक मशाल और दीपक शुक्ल ने इस कथन पर गहरी आपत्ति की.:) (जैसे ये झूठ हो, हा हा )

छठी किस्त में sangeeta swarupने कहा ... कहानी के सारे पत्रों के मनोभावों को बहुत मनोवैज्ञानिक तरीके से उजागर किया है....नायक के मन में कुछ और लेकिन अपनी इगो को सर्वोपरि रखते  हुए जिस तरह का आचरण दिखाया है बहुत सटीक है..' 
सातवीं किस्त में  वन्दना अवस्थी दुबेका कहना था  ... 'अपने स्वभाव के विरुद्ध जब हम कोई काम करते हैं, तो अभिषेक जैसी ही दशा होती है.' ,मुक्ति की मनपसंद पंक्ति लाईन थी
"किन्तु कॉमन रूम ही शायद सबसे निरापद जगह है. एक ही साथ कोलाहल और एकांत दोनों अस्श्चार्य्जनक रूप से रहते हैं यहाँ."
आठवीं किस्त खुशदीप सहगलने ये शंका जता  डाली ... "रश्मि बहना, उपन्यास का क्लाईमेक्स क्या होगा, कहीं इस पर सट्टा ही लगना शुरू न हो जाए...'
नंवी किस्त में ज्ञानदत्त पाण्डेयजी के धीर गंभीर व्यक्तित्व से अलग  एक सुकोमल पक्ष भी नज़र आया जब उन्होंने कहा,नायक की जगह मैं होता तो शची का इन्तजार करता और वह इन्तजार पुनर्जन्म के आगे भी जाता, अगर आवश्यकता होती तो! '

दसवीं किस्त के लम्बे लम्बे डायलॉग सबको ज्यादा पसंद नहीं आए, Sanjeet Tripathiने बेबाकी से कहा.." hmmm, sach kahu to aaj lambe dilogs ne thoda bore kiya..."  अनूप शुक्ल   जी ने भी चुटकी ले डाली कि
"नायिका को अपनी सेहत का ख्याल रखना चाहिये। छोटे-छोटे डायलाग बोलने चाहिये!"उनकी टिप्पणी बस इसी किस्त में उदय हुई और वहीँ अस्त भी हो गयी. ज़माने  में गम और भी हैं,ये नॉवेल पूरा करने के सिवा.
संजीत जी की ये भी डिमांड थी..."happy ending mangta hai, tipical indian ishtyle me...;) "
ग्यारहवीं  किस्त में दीपक मशाल,दीपक शुक्ल और  हरि शर्मा 'शची को कहे गए अभिषेक के  क्रूरतापूर्ण शब्दों से  काफी नाराज़ हो गए... जबकि महिलायें इसे प्रेम का ही एक रूप मान रही थीं.वाणी गीततो इतनी भावुक हो गयी कि कह डाला, "आंसू भरी धुंधलाती आँखों से पढ़ यह सब कुछ ..कितने दिलों की ख़ामोशी को तुम कितनी आसानी से बयान कर देती हो .मन बहुत भर आया है ...आज तो जी कर रहा है कि फूट -फूट कर रो लूं ..."मुझे उसे समझाना पड़ा कि यह एक कहानी है..शची-अभिषेक एक काल्पनिक पात्र हैं.वह इन पात्रों से इतना जुड़ गयी थी गयी थी कि एक कविता भी लिख डाली..

जिनलोगों  ने हैरी पौटर फिल्म देखी हो उन्हें याद होगा, वहाँ बच्चों के नाम जब उनके पैरेंट्स के नाराज़गी भरे ख़त आते हैं तो वह ख़त डाइनिंग हॉल में चीखता हुआ आता है,जिसे howler कहते हैं ऐसा ही एक चीखता हुआ मेल आया Saurabh Hoonkaका," cheating.... cheating.... this is cheating"  दरअसल उन्होंने उपन्यास शुरू किया और दो घन्टे तक पढने के बाद पता चला कि अभी तक क्रमशः ही  चल रहा है.फिर तो रोज उनका एक मेल आता और खीझ कर कहते, लगता है मेरे पोते भी इस नॉवेल को पढेंगे किस्त 102, किस्त 103   जब नॉवेल ख़त्म हो गया तो उनका कमेन्ट था
At last i just want to say one thing................ (Sorry Abhishek but...) I am in love with Shachi..........and I am still waiting for you Shachi...
अजय झा को टफ कम्पीटीशन है  क्यूंकि इस नॉवेल पर तो एक टिप्पणी नहीं की पर पर बाकी हर जगह वे शची के वेट कराने की ही चर्चा करते रहें.

आगे की किस्तों में वन्दनाने कहा ,".आखिर यथार्थ मे जीना सीख ही लिया अभिषेक ने……………उसके द्वंद का बखूबी चित्रण किया है "
रेखा श्रीवास्तवका भी कहना था ,... कहानी में मोड़ बहुत बढ़िया दिया है, अब आगे कि कल्पना कहाँ ले जने वाली है, वैसे उम्र के हिसाब से इंसान कि सोच बहुत बदल जाती  है. इसी को कहते हैं.
परिपक्वता और समय के साथ साथ चलना".खुशदीप भाई का कहना था,.. "बड़े गौर से पढ़ा इस कड़ी को...निष्कर्ष ये निकाला कि मेरे समेत हर पुरुष में एक अभिषेक है और हर नारी में एक शचि...कुछ समझौते को जीवन मान लेते हैं और कुछ जीवन को"
 हिमान्शु मोहनजी का कुछ अलग सा कमेन्ट था,"लघु-उपन्यास देखा - सोचा निकल लेता हूँ चुपके से - लम्बी रचना - वो भी ब्लॉग पर - पढ़ ही नहीं पाऊँगा। फिर पढ़ गया पूरी किस्त। फिर पिछ्ली पढ़ी, फिर और  पिछली…"
.मुदिता ,(roohshine) बड़े ध्यान से पढ़ती थीं और एक बार बड़ी मुस्तैदी से याद दिलाया कि मैं क्रमशः लिखना भूल गयी हूँ...और पाठक समझेंगे यही अंत है नॉवेल का.

समीर जी(Udan Tashtari ) माफ़ करें पर उनकी टिप्पणी मैं हमेशा दो,तीन बार गौर से  से पढ़ती थी कि क्या वे सचमुच इतना लम्बा उपन्यास पढ़ रहें हैं  क्यूंकि औसतन १०० टिप्पणी तो वे रोज ही करते हैं..पर जब एक किस्त में उन्होंने कहा ,"शब्द  चित्रणबहुत प्रभावी होता जा रहा है."  तब मुझे यकीन हो गया कि वे सचमुच पढ़ते हैं.पर लिख तो मैं जाती लेकिन ये शब्द चित्र क्या बला है,मैने मुक्ति से पूछा,उसके बाद से तो मुक्ति ने जैसे हर किस्त में उनकी तरफ ध्यान दिलाने की जिम्मेवारी ही ले ली (वैसे मुक्ति पहली किस्त से ही चुनिन्दा पंक्तियाँ उद्धृत करती आई है.) शिखा,वाणी,वंदना भी यह बीड़ा उठाती थीं.
राज भाटिय़ाजी ने बहुत बड़ी बात कह दी  कि, 'उनके भी टीनेज़ बच्चे हैं, और यह उपन्यास पढ़ उन्हें उनकी मानसिकता समझने में मदद मिलती हैं.'
@ नेहाकी बेसब्री उसके कमेन्ट में झलक जाती, वो बार बार ब्लॉग खोल के देखती...कि अगला किस्त आया या नहीं.Deepak Shuklaने  भी बड़े मनोयोग से हर किस्त पर उस अंश का सार समेटते हुए लम्बी टिप्पणियाँ कीं.

रवि धवन,ताऊ रामपुरिया,विनोद पांडे,अदा, पूनम, शाहिद मिर्ज़ा,भूतनाथ, शमा जी, ममता,जाकिर अली,रचना दीक्षित,आकांक्षा...  ये लोग भी बीच बीच में यह उपन्यास पढ़ते रहें.वंदना सिंह का आखिरी किस्त पे लम्बा woww हमेशा याद रहेगा :)
नॉवेल का सुखान्त होना सबको बहुत भाया ,रश्मि प्रभा...जी ने कहा, ab jake aaya mere bechain dil ko karar

कुछ टिप्पणियाँ ऐसी मिलीं जो आह्लादित तो कर गयीं,पर एक  बहुत बड़ी जिम्मेवारी भी सौंप गयीं, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'जी का ये कहना ".. बहुत दिनों बाद गद्य भी पद्य की तरह प्रवाहमय लगा. स्व. शिवानी जी को महारथ थी ऐसे लेखन में. आप कि कलम भी उसी दिशा में जा रही है"और  ज्ञानदत्त जी का ये कमेन्ट, . "स्तरीय किशोर/युवा वर्गीय साहित्य की हिन्दी में बहुत कमी है। उसे भरने का आपमें बहुत पोटेंशियल है."हिमांशु  मोहन जी ने कहा सूर्यबाला जी और शिवानी जी की कथाओं का मज़ा मिला। डा० अमर कुमारजी को ये   नॉवेल  उषा प्रियंवदा की 'रुकोगी नहीं राधिका'की  याद दिला गयी , और डा. तरु(Neeru) को 'गुनाहों का देवता'की.(ओह ,दोनों ही डॉक्टर हैं,पर साहित्य प्रेमी).  मैने तो कानों को हाथ लगा लिया...अगर उनलोगों  के लेखन के  शतांश क्या हजारवें अंश की  भी जरा सी झलक मिल जाये मेरे लेखन में तो धन्य समझूँ खुद को.

सभी पाठको का बहुत बहुत  से शुक्रिया,अपना किमती वक़्त जाया कर इस लघु उपन्यास को इतने मन से पढ़ा. और यही स्नेह बनाए रखियेगा...अभी बहुत कुछ लिखनेवाली हूँ.

(मुक्ति आजकल बहुत दुखी है,उसने अपनी प्यारी पप्पी  "कली"को हमेशा के लिए खो दिया है,मुक्ति हम सब तुम्हारे दुख में शामिल हैं ,आप सबसे भी आग्रह है दुआ कीजिये कि मुक्ति को ये अपूर्णीय क्षति सहन करने की हिम्मत मिले )
शुक्रिया सबका

और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--5

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‘नेहा ऽ ऽ ऽ ...‘ किसी ने इतनी मिठास भरी आवाज में पुकारा कि किताबें फेंक, उद्भ्रांत सी चारों तरफ देखने लगी।

‘नेहा ऽऽऽ-‘ फिर आवाज आई; मुड़ कर देखा, ओह! कोई नजर तो नहीं आ रहा। परेशान सी इधर-उधर देख ही रही थी कि तभी क्राटन के पीछे कुछ सरसराहट सी लगी।

एक ही छलाँग में पहुँच गई - ‘अरे! शऽरऽद... कब आए‘ - और हाथों से बैग थाम लिया।

‘कमाल है, सामन अभी हाथों में ही है, और पूछने लगीं... ‘कब आए‘ - जवाब नहीं लड़कियों के दिमाग का भी.

'ना कोई फोन, ना कोई खबर और इतने दिनों बाद यूँ ,अचानक'...चीख ही पड़ी जैसे

'वो लीव सैंक्शन हो गयी तो घर तो जाना ही था और इधर से होकर ही तो जाना है तो सोचा मिलता चलूँ'
'
'अच्छा ...यानी रास्ते में हमारा शहर नहीं पड़ता तो तुम मिलने नहीं आते'.....थोडा गुस्से में बोला,उसने.

'ऐसा कहना,मैंने ??'

'और क्या'

'क्या बात है बहुत हेल्थ बन गया है इस बार,..कितना पुट ऑन कर लिया है'...शरद ने बात बदल कर चिढाते हुए कहा.

हाँ! हाँ! चश्मा ले लो चश्मा, कल ही बुखार से उठी हूँ और तुम्हें मोटी दिख रही हूँ।‘


‘तो, ये इतना भारी बैग उठाए कैसे खड़ी हो,मेरा भी दम फूल गया था।‘

और उसके हाथों से बिल्कुल छूट गया बैग, ओह अँगुलियाँ टूट गईं, उसकी तो।

शरद जोरों से हँस पड़ा -‘हाँ! अब ख्याल आया कि लड़कियाँ नाजुक होती हैं।‘

‘नहीं, शरद, सच्ची बहुत भारी है।‘

‘अभी तो अच्छी भली उठाए खड़ी थी।‘

अब कौन बहस करे इससे। अंदर की ओर दौड़ पड़ी... 'मम्मी ....शरद आया है'

थोड़ी देर तक जम कर गुल-गपाड़ा मचा रहा।सावित्री काकी भी हाथ पोंछती किचेन से निकल आई थीं.रघु फुर्ती से पानी ले आया.कौन क्या कह रहा है, कुछ सुनाई ही नहीं पड़ रहा.पर सबसे ऊपर उसकी आवाज़ ही सुनायी दे रही थी.जब माली दादा ने दरवाजे से ही'नमस्कार,शरद बाबू'बोला..तो वह बोल पड़ी,'अरे माली दादा,अब इन्हें सैल्यूट करो.इन्हें नमस्कार समझ में नहीं आता.अब ये लेफ्टिनेंट बन गए हैं,देखते नहीं कितना भाव बढ़ गया है'...अनर्गल कुछ भी बोले जा रही थी.

शरद मंद मंद मुस्काता हुआ उसकी तरफ देखता बैठा रहा.एक बार लगा,शायद बुखार से कुछ ज्यादा ही दुबली हो गयी है,तभी इतने गौर से देख रहा है.पर उसने ध्यान दिए बिना अपना शिकायत पुराण जारी रखा...'पोस्टिंग इतनी पास मिली है,तब भी इतने दिनों बाद शकल दिखाई है.

'अरे बाबा तुम्हे पता नहीं कितना टफ जॉब है इसका और छुट्टी कहाँ मिलती है'...मम्मी ने बचाव करने की कोशिश की पर उसने अनसुना कर दिया...'अच्छा फोन भी करने की मनाही है?..इतनी बीमार थी मैं,एक बार फोन करके हाल भी पूछा??

'उसे सपना आया था कि तुम बीमार हो'

'क्यूँ नहीं आया,...आना चाहिए था'

मम्मी पर से निगाहें हटा,शरद ने कुछ ऐसी नज़रों से उसे देखा कि एकदम सकपका गयी..'लगता है कुछ ज्यादा ही बोल गयी.

शरद ने भी जैसे उसकी असहजता भांप ली.रघु से बोला,जरा मेरा बैग लाना.सबके लिए कुछ ना कुछ गिफ्ट लाया था.कहता रहा,माँ ने बोला,जॉब लगने के बाद पहली बार जा रहें हो...कुछ लेकर जाना,वैसे मुझे तो कुछ समझ में आता नहीं..माँ ने जैसा बताया ले आया...और उस ज़खीरे में से एक एक कर तोहफे निकालता रहा.वह सांस रोके देखती रही ,सुमित्रा काकी के लिए शॉल, रघु के लिए टी-शर्ट, माली दादा के लिए मफलर,ममी के लिए नीटिंग की आकर्षक बुक,और पापा के लिये सुन्दर सी टाई...

सबसे अंत में उसकी तरफ एक गुड़िया उछाल दी -‘लो बेबी रानी! ब्याह रचाना गुड़िया का।‘(वैसे गुड़िया थी तो बहुत सुंदर... सजावट के काम आ जाती... लेकिन चेहरा उतर गया उसका। शरद सच्ची बिल्कुल बच्ची समझता है, उसे।)

‘अब मुँह काहे को सूज गया... मैंने कहा, एक छोटी लड़की भी है, तो माँ ने कहा, एक गुडिया ले लो'

‘ और लो! ये उसकी बचपना का प्रचार भी करते चलता है।

इतना मूड खराब हो गया, अपनी स्टडी टेबल पे आ यूँ ही, एक किताब खोल ली। तभी शरद ने पीछे से आँखों पर हाथ रख दिया (जाने कैसी बच्चों सी आदत है, सुमित्रा काकी भी नहीं बचतीं, इससे। पहले तो वह आराम से नख-शिख वर्णन कर जाती थीं... ‘एक महाशरारती लड़का है, जिसकी कौड़ी जैसी आंख है, पकौड़ी जैसी नाक है, हथौड़ी जैसा मुँह है, कटोरा-कट बाल है।‘ - लेकिन नाम नहीं बोलती) - लेकिन आज मुँह फुलाए चुप रही। शरद ने भी तुरंत हाथ हटा लिया और उसकी किताब की ओर झुकते हुए बोला -‘अच्छा ऽऽऽ तो यहाँ ’‘नाॅट बिदाउट माइ डाॅटर‘’ पढ़ा जा रहा है?‘

‘क्या... ?‘ - चैंक पड़ी वह। ओह! तो शरद ने एक हाथ से उसकी आँखें बंद कर, दूसरे हाथ से ये किताब उसके समक्ष खोल कर रख दी। कितने दिनों से पढ़ना चाह रही थी, इसे... कहाँ-कहाँ न छान मारी पर नहीं मिल पाया था।

खुशी से चहकते हुए पूछा -‘कहाँ से मिला तुम्हें, शरद? किसी लाइब्रेरी से लाए हो या किसी फ्रेंड से... या खरीद कर लाए हो।‘ - जल्दी से उलट-उलट कर देखने लगी।

पर, शरद अपनी आदत से कैसे बाज आएगा उल्टा सवाल -‘तुम्हें, आम खाने से मतलब है, या पेड़ गिनने से?‘

लेकिन इस वक्त बहुत खुश थी... सच्चे मन से माफ कर दी। इतनी सी बात शरद को याद रही... जानकर अच्छा लगा।

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जंगल के बीच एक मंदिर था। काफी महात्म्य था, उसका। मम्मी को चाव था, इतने दिनों से है, यहाँ, एक बार तो जाना
चाहिए। जबकि इसकी ख्याति दूर-दूर तक थी। लेकिन कहे किस से? डैडी और भैय्या तो मंदिर और पूजा के नाम से ऐसे बिदकते हैं जैसे पाकिस्तान के सामने किसी ने भारत के गुण गा दिए हों।

मम्मी ने शरद से चर्चा की और श्रवण कुमार तैय्यार।

एक दिन अपने एक दोस्त के साथ एकाएक जीप लेकर आया और आते ही जल्दी मचाने लगा -‘चलो, झटपट हो तैयार हो जाओ, सब लोग।‘

दो दिन पहले ही शॉपिंग के लिए गई थी और ‘लाँग स्कर्ट’ लिए थे। उसे ही पहन तैयार हो गई...

‘मम्मी ठीक है न?‘

मम्मी कुछ बोलतीं कि इसके पहले ही शरद टपक पड़ा -

‘बहुत ठीक है, पर घर आकर बिसूरना नहीं कि मेरी नई स्कर्ट का सत्यानाश हो गया। याद रखिए रानी साहिबा किसी पार्टी में नहीं जंगल में तशरीफ ले जा रही हैं... जहाँ मखमली कालीन नहीं... कंकड़, पत्थर, काँटे....‘

सुनना असहय हो उठा... बीच में ही जोर से खीझ कर बोली -‘मम्मी! देख रही हो।‘

‘मेरे ख्याल से तो आंटी, दो साल पहले ही देख चुकी हैं, मुझे।‘

वह कुछ बोलती कि मम्मी ने आग्रह से चुप होने का संकेत किया -‘श ऽ र ऽ द‘

लेकिन कहता तो ठीक ही है, इतने मन से खरीदा था... इतना बढ़िया ड्रेस दाँव पर तो नहीं लगा सकती। ... ‘चूड़ीदार-समीज‘ बदल लो। लेकिन जिसने ‘नुक्स‘ निकालने की कसम ही खा रखी हो, उससे जीता जा सकता है, भला।

लिविंग-रूम में पहुँची तो खिड़की के बाहर देखता हुआ बोला -‘हमें तो कुछ कहने की मनाही है, फिर भी बताना मेरा फर्ज है-‘ और उसकी जमीन छूती चुन्नी की ओर इशारा करते हुए बोला -‘ये झाड़ी में फँस-वँस गई...न तो लाख टेरने पर भी... ‘काँटो में उलझ गई रे ऽऽऽ‘ कोई हीरो साहब नहीं पहुँचेंगे छुड़ा ने।’ - नाटकीय स्वर में बोला तो मम्मी, उसका वो दाढ़ी वाला दोस्त; सब हँस पड़े। अब क्या मंदिर में वह जींस में जायेगी??...पर अक्कल हो तब,ना

अपमान से लाल हो उठी वह। जरा सा भी शउर नहीं बोलने का, जता रहा है, बहुत मौड है वह। ये सब उसकी आर्मी लाइफ में चलता होगा... बोलती तो अभी एक मिनट में बंद कर देती, लेकिन दाँत दिखाता उसका वह दढ़ियल दोस्त भी तो बैठा है। शरद को जरा भी मैनर्स का ख्याल नही तो क्या वह भी छोड़ दे। जाने क्यों अब एटिकेट्स का इतना ध्यान आ जाता है... पहले तो बात पूरी भी न हुई कि जवाब हाजिर (यह तो बाद में सोचती कि ऐसा नहीं... ऐसा बोलना चाहिए था) कोई अंकल भी होते तो शायद ही बख्शती वह। ...और सचमुच रास्ता इतना खराब था कि काँटों से लगकर चुन्नी तार-तार हो गई। पर होंठ नहीं खोले उसने।

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क्लास में कदम रखा ही था कि पाया सारी नजरें मुस्कुराती हुई, उसी पर टिकी हुई है।... क्या बात है, स्वस्ति के करीब पहुँच बैग रख आँखों में ही पूछा तो उसने भी ब्लैकबोर्ड की तरफ आँखों से ही इशारा कर दिया... जहाँ बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था -‘अंगारे बन गए फूल‘

इसका क्या मतलब हुआ? यह तो एक फिल्म का नाम है... वह भी गलत लिखा हुआ... इससे उसका क्या ताल्लुक... किसी ने यूँ ही लिख दिया होगा। पर सबकी नजरें उसे क्यों देख रही हैं?

’’ बैठ अभी, बताती हूँ, सर आ रहे हैं।‘ स्वस्ति ने उसके लिए जगह बनाते हुए कहा। वह भी चुपचाप बैठ गई। डस्टर ले मिटाना भी भूल गई। और तब ध्यान आया इधर कितने दिनों से न ब्लैकबोर्ड साफ करती है, न बोर्ड पर तारीख डालती है... न ही मेज कुर्सी ठीक करती है और इधर टेबल पर भी उसका आसन नहीं जमता -- नही तो सर क्लास से बाहर हुए और वह उछल कर मेज पर सवार।

सर ने क्या पढ़ाया कुछ भी नहीं गया दिमाग तक... बेल लगते ही... डेस्क फलांगती पहुँच गई, अपनी पसंदीदा जगह पर।

केमिस्ट्री लैब के पीछे, कामिनी के झाड़ की घनी छाया ही प्रिय स्थल था उनका। वह स्वस्ति, छवि और जूही.... बैग एक तरफ पटक आराम से बैठ गई और उसने सवाल दागा - ‘हाँ! अब बोलो, इससे मेरा क्या संबंध।‘

छूटते ही बोली छवि... ‘तुझसे नही तो और किससे है? इतनी तेजी से किसमें परिवर्तन आता जा रहा है?‘

‘परिवर्तन आ रहा है? क्यूँ भला, चेहरा वही, हाईट वही, रंग वही... फिर? ‘

‘रंग-रूप में नहीं मैडम, व्यवहार में; तुझे खुद नहीं महसूस होता?‘

‘कोई बात होगी, तब तो महसूस होगा... दिमाग मत चाटो मेरा... साफ-साफ बोलो-सचमुच खीझ गई वह।‘

‘अच्छा बोल‘- जूही ने समझाया - ‘एक यही बात गौर कर, उस अजीत के ग्रुप से कितने दिन हो गए झड़प हुए ‘ (अजीत के ग्रुप के लड़कों से बिल्कुल नहीं बनती थी इन लोगों की और वह ग्रुप भी इन्हें तंग करने का कोई मौका नहीं छोड़ता।)

‘अब सब के सब सुधर गए हैं।‘

‘हाँ, आज देख ली न बानगी।‘

‘अरे! वो ऐसे ही किसी ने लिख दिया होगा... तुम लोग ख्वाहमखाह टची हुई जा रही हो।‘

‘नहीं मैडम, तेरे आने से पहले अजीत कह रहा था -‘आजकल अंगारे पर राख पड़ती जा रही है।‘‘ - हमलोग तो कुछ समझ नहीं पाए पर उनका ग्रुप जोर-जोर से हँसने लगा और रमेश ने कहा -‘ठीक कहते हो यार, आजकल क्लास में भी बार-बार ‘सर... मैम...आई हैव अ डाउट‘ सुनने को नहीं मिलता। सारा पीरियड उन लोगों के उबाऊ लेक्चर में ही बीत जाता है तब हमलोगों की समझ में आया, तेरा नाम उन लोगों ने आपस में अंगारा रख छोड़ा है।‘ छवि बोली और आगे स्वस्ति ने जोड़ा -‘तभी फिरोज ने एक शेर जैसा कुछ कहा कि ...‘अंगारा अब फूल बनता जा रहा है।‘ और तभी अजीत ने लिख दिया बोर्ड पर।‘

‘और तुमलोग चुपचाप बैठी देखती रही, कितनी बार मैंने झगड़ा मोल लिया है, तुमलोगों की खातिर।‘

‘अरे! जबतक हमलोगों की समझ में पूरी बात आती कि तू आ गई और पीछे-पीछे सर।‘

‘खैर छोड़, इन सबको तो मैं देख लूँगी... पर तुमलोग भी मान बैठी हो कि मैं बदल गई हूँ।‘

‘अरे, मानना-वानना क्या... ये तो जग-जाहिर है। -’ मुस्करा कर बोली छवि - ‘खुद ही सोच आज ये सब देख तू, यूँ चुपचाप रह जाती। याद है जब हमलोग नए-नए आए थे और नारंगी के छिलके लापरवाही से उनकी डेस्क पर छोड़ दिए थे - और इसी अजीत ने ब्लैकबोर्ड पर लिख दिया था कि ‘छिलके फेंकनेवालियों दिल फेंक कर देखो‘ तो कितना हंगामा हुआ था.... एप्लीकेशन ले आप ही गई थीं, हेड के पास। और उस दिन के बाद आज ये वारदात हुई और तू...‘

‘वो तो मैं समझी नही ना... इसलिए।‘

‘समझने-वमझने की बात नहीं... कल बस में सब शर्मिला को ‘ओ मेरी... ओ मेरी शर्मीली’’गाकर छेड़ रहे थे... मैंने तेरी तरफ देखा भी पर तू खिड़की पार देखती जाने कहाँ गुम थी। शर्मिला बिल्कुल रोने-रोने को हो रही थी... जी में आया कुछ बोलूँ पर मेरी हिम्मत तो पड़ती नहीं... और जब हमारी माउथपीस ही चुप बैठी हो‘ - स्वस्ति ने प्यार से उसका कंधा थाम लिया -‘जाने आजकल कैसी गुमसुम हुई जा रही है, बिल्कुल खोई-खोई सी।‘

‘अच्छा-अच्छा, अब कल देखना, इस अंगारे की चमक... झुलस कर न रह गए सभी, तब कहना... फूल भी हुई जा रही हूं तो कोई गुलाब का नहीं, कैक्टस का ही।‘ - और इस बात पर चारों जन इतनी जोर से हंसे कि पतली सी डाल पर झूलती बुलबुल हड़बड़ा कर उड़ गई।
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लेकिन दिखा कहाँ पाई अंगारे की चमक. दूसरी ही उलझन सामने आ गई। कालेज से लौटी तो देख पंडित जी बैठे हैं। अभी कल तक इन्हें कितना तंग किया करती थी। देखते ही दूर से चिल्लाती थी -‘प्रणाऽऽऽम पंडित जी।‘ और वे इससे बहुत चिढ़ते थे... लाठीमार प्रणाम कहते इसे । उनका कहना था - ‘दोनों हथेलियाँ पूरी तरह जोड़, थोड़ा सा सर झुका तब प्रणाम शब्द उच्चारित करना चाहिए। देखते ही शब्द होठों पर तो आ गए पर चिल्ला न सकी। छिः इतनी बड़ी हो गई है, यही सब शोभा देता है... अनजाने ही उन्हीं के अंदाज में सर झुका अंदर चली गई।‘

लेकिन ये पंडित जी तशरीफ लाए किसलिए हैं? इधर कोई व्रत-अनुष्ठान तो है नहीं। और जो उनके आने का रहस्य समझ में आया तो ऐसा लगा, जैसे काटो तो खून नहीं। इधर एक महीने से घर में कुछ सरगर्मी देख तो रही है... मम्मी के बाजार का चक्कर भी खूब लग रहा है। अक्सर बुआ आ जाती हैं और दोनों घुल-मिल कर जाने क्या योजनाएँ बनाती रहती हैं। लेकिन वह अपने एग्जाम की तैयारियों में ही उलझी थीं। बस कालेज, किताबें और अपने कमरे की ही होकर रह गई थी... ध्यान ही नहीं दिया।

किंतु अब गौर कर रही है... मम्मी और बुआ के बाजार का चक्कर यों ही नहीं लग रहा। लेकिन... लेकिन... आँखों में आँसू छलक आए... उसके। वह तो एक बार नहीं हजार बार कह चुकी है..’उसे. शादी नहीं करनी है... नहीं करनी है।’ सब जानते हैं... फिर क्यों बड़े आराम से जाल फैला रहे हैं, सब। ये गुपचुप तैय्यारियाँ बींध कर रख दे रही है, मन को। ओह! कोई कुछ पूछता-कहता भी तो नहीं। कैसे खुद जाकर कह दे कि ’नहीं करनी.हैं;शादी;उसे और अगर जबाब मिले ’कौन करवा रहा है तुम्हारी शादी? ...तो?? बेबसी से आँखें डबडबा कर रह जाती है।

अजीब त्रासदी है, भारतीय बाला होना भी । कितनी बड़ी विडम्बना है... उसकी जिंदगी के अहम् फैसले लिए जा रहे हैं और वह दर्शक बनी मूक देखती रहे पर आज के दर्शक तो रिएक्ट करते हैं, रिमार्क कसते हैं या कुर्सी छोड़ ही चले जाते हैं। पर यहाँ तो...

बस आँख, कान बंद किए अपने जीवन के बलि चढ़ने की मूक वेदना महसूस करती रहे।

उदास चेहरा लिए वह घर भर में घूमती रहती है... पर किसी को कोई गुमान ही नहीं। सब समझते हैं एग्जाम की टेंशन है. सिक्के का दूसरा पहलू देखने का कष्ट किसी को गवारा नहीं। चुपचाप बिस्तर पर पड़ी रहती है, तकिया, आँसुओं से गीला होता रहता है। इतना असहाय तो कभी महसूस नहीं किया, जीवन में। घर की नए सिरे से साज-संभाल होती देख खीझ कर रह जाती है और कोसती रहती है, खुद को... हाँ! ठीक कहती है, स्वस्ति, बिल्कुल ठीक कहती है, बहुत बदल गई है, वह। अभी पहले वाली नेहा होती तो सीधा जाकर कड़क कर पूछती...

‘क्या हो रहा है, यह सब?‘ - और फिर चीख-चीख कर आसमान सर पर उठा लेती।

पर, अब तो कदम उठते ही नहीं। जबान तालू से चिपक कर रह जाती है। हुँह! अंगारे की चमक दिखाएंगी? अंगारे पर राख क्या पानी पड़ गया पानी... और बिल्कुल बुझ गया है, वह... अब मात्र कोयले का एक टुकड़ा रह गया है - , बदसूरत, बेकाम का।

बेबसी और गुस्से से सर पटक-पटक कर रह जाती... ये शरद भी जाने कहां मर गया... दो महीने से सूरत नहीं दिखाई उसने। लेकिन ये अचानक, शरद का नाम कैसे आ गया, होठों पर। शरद से क्या मतलब इन सब बातों का... हाँ कोई मतलब नहीं..उसका तो कब से कुछ पता भी नहीं,बस कभी कभार फोन आ जाता है. पहले तो महीने में तीन-तीन बार आकर बोर करेगा। जाने क्यों लगता... अभी शरद होता तो सारी समस्या हल हो जाती। शायद उससे कह पाती - ‘शरद समझा दो इन लोगों को। उसे नहीं करनी शादी-वादी।‘ भले ही चिढ़ाता, सह लेती पर काम तो बन जाता।

किंतु वह तो मीलों दूर ‘इम्फाल‘ में बैठा है... नयी-नयी पोस्टिंग है, ‘प्रिंस-स्टेज‘ छोड़कर क्यों आने लगा? क्या जाने कभी आए ही नहीं। कितने सारे दोस्त तो बनते हैं, भैय्या के और बिछड़ जाते हैं। पर शरद महज भैय्या का दोस्त ही तो नहीं... मम्मी-डैडी भी तो कितना मानते हैं उसे। कम से कम एक बार तो उसे आना ही चाहिए। लेकिन क्या पता तब तक सब कुछ खत्म हो जाए... सुबक उठी वह।

और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--6

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अपने कमरे में पढ़ाई में मन लगाने की कोशिश कर रही थी.इतना डर लग रहा था,बिलकुल भी नहीं पढ़ पा रही थी और
ऐसे में में जब बुआ बड़े शौक से गहनों की डिजाइन पसंद कराने उसके कमरे में आईं तो सुलग उठी वह।

‘देख तो नेहा, कौन-कौन सी पसंद है तुझे?‘

‘मेरी पसंद का क्या करना है?‘- किसी तरह गुस्सा दबाते सपाट स्वर में बोली।

‘तो और किसकी पसंद का करना है। बंद कर लिखना, आ कर देख तो.. कितनी सुंदर-सुंदर है...‘ पलंग पर करीने से सजा रही थीं वह।

‘मैं जेवर पहनती भी हूँ ' - कलम चलाना जारी रखा।

‘तो, अब जो पहनना होगा... जल्दी कर जैमिनी ज्वेलर्स का आदमी बैठा है बाहर।‘

‘क्यों अब क्या खास बात हो गई भई जो पहनना होगा... मुझे नहीं पहनना जेवर-फेवर।‘

‘ओह! नेहा, मेरा दिमाग मत खराब कर... चल आ कर देख ले चुपचाप‘ - खीझ गई बुआ।

और एकदम तैश में आ गई वह -‘दिमाग तो मेरा खराब कर रखा है, तुमलोगों ने... एक मिनट चैन से रहने भी दोगे या नहीं। मैंने हजार बार कह दिया है... मुझे शादी नहीं करनी है, नहीं करनी है... फिर भी जेवर पसंद कर लो तो साड़ियाँ पसंद कर लो... क्यों आज डिजाईन पसंद कराने क्यों आई... एक ही बार ‘इन्वीटेशन कार्ड‘ लेकर आती कि ‘नेहा, कल तेरी शादी है‘ - उस समय अड़ जाती न तो बहुत अच्छी इज्जत बनती, डैडी की। एकदम गूँगी गाय ही समझ लिया है, लोगों ने। जिसके खूँटे बाँध देंगे, चुपचाप चली जाऊँगी... तो नेहा, ऐसी लड़की नहीं है... साड़ियों और जेवरों में तो पसंद पूछी जा रही है, पर जहाँ जिंदगी का असली सवाल है... सब मौन हैं... जिस लूले-लँगड़े के जी में आएगा... गले मढ़ देंगे।

बुआ आवाक् देख रही थीं... उसे, अब हँसी फूटी उनकी... ‘बाबा, वह लूला-लंगड़ा नहीं है... क्यों परेशान हो रही है तू।‘

‘ना सही, साक्षात् कामदेव ही सही... लेकिन कह दिया न... ये राह मेरे लिए नही ंतो नहीं, और अब मेरे कमरे में ये सब आया न तो सब उठा कर फेंक-फांक दूँगी, नहीं देखूँगी हीरा है या सोना।‘ बात खत्म करने के अंदाज मे कही उसने और किताबें समेटने लगी।

बुआ ने भी हँस कर माहौल हल्का करने की कोशिश की... ‘अच्छा, अच्छा बंद कर अपना ये भाषण, किसी डिबेट के लिए संभाल कर रख, खूब तालियाँ मिलेंगी... अभी चुप कर प्राईज की जगह डैडी की डाँट ही मिलेगी। बाहर कुछ लोग बैठे हैं... क्या सोचेंगे।‘

‘सोचेंगे... पत्थर - जी में आया कहे, किंतु बिल्कुल थक गई थी। निढाल हो, सर टिका दिया, मेज पर।


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चेहरे पर पानी के छींटे मार लौट ही रही थी कि बुआ और मम्मी की बातचीत का स्वर कानों में पड़ा... बरामदे में ही रूक गई।

‘कमाल है, भाभी, जवाब नहीं आप लोगों का भी, कहाँ तो भैय्या कहते थे कि नेहा की पसंद के लिए कोई जाति, धर्म, देश... कोई बंधन नहीं मानेंगे और बिचारी को आज यह भी पता नहीं कि अगर शादी हो रही है तो किससे हो रही है। आज कल साधारण घरों में भी खानापूर्ति ही सही, पूछ तो लेते हैं, बता तो देते हैं।‘

‘ये क्या कह रही हो सुधा?? नेहा, अच्छी तरह उसे जानती है, भई। बल्कि हमलोग तो यही समझ रहे हैं कि, आपस में तय है, इन लोगों का.... उधर से ही प्रपोजल आया है।‘‘

‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता... बार-बार वही पुरानी रट- ‘मुझे शादी नहीं करनी-शादी नहीं करनी‘

‘हे भगवान! तब तो ये लड़की परेशानी खड़ी कर देगी। बात इतनी आगे बढ़ चुकी है।‘

‘हुंह!!‘ - मुँह बनाया उसने। बात तुमलोग बढ़ाओ और परेशानी खड़ी करूँ मैं। लेकिन ये काम है किसका, जरूर वो चश्मुद्यीन होगा। इतना सीनियर होने पर भी आगे-पीछे घूमता रहता है -‘नेहा तुम्हें नोट्स, चाहिए होंगे या बुक्स, तो बताना मुझे।‘ लाइब्रेरी बंद हो गई है जैसे... दुनिया का आखिरी आदमी होता न तब भी उससे लेने नहीं जाती, नोट्स...

रंग-ढंग तो बहुत दिनों से देख रही थी - लिफ्ट नहीं दी तो यहाँ तक बढ़ आया। आई. ए. एस. में क्या सेलेक्ट हो गया। यहाँ तक अधिकार समझ बैठा तो बैठे रहे जिंदगी भर। मिला तो था उस दिन शर्मिला की पार्टी में -‘नेहा, मुझे कांग्रेचुलेट नहीं किया न... इस लायक मैं कहाँ? पर मिठाई तो आ कर खा लीजिए किसी दिन‘ - जरूर उसी के यहाँ से प्रपोजल आया होगा और मम्मी-डैडी तो सातवें आसमान पर पहुँच गए होंगे। घर बैठे, आई. ए. एस. लड़का मिल गया। अभी-अभी जमीन पर आ जाएंगे वे।

अजीब मन की हालत हो गई है। पढ़ भी कहाँ पाती है, इतना डिस्टर्ब रहती है। फाइनल सर पे आ गया है... फेल-वेल हो जाएगी तो खुशी होगी, इन लोगों को।

नए सिरे से किताब में मन लगाने की कोशिश कर ही रही थी कि बुआ आती दीखीं। हाथ में उनके एक फोटो था। देखते ही बिफर पड़ी।

‘बुआ! मैंने कह दिया है न‘

‘तूने जो कहा है, मैंने सुन लिया और अब मेरी भी सुन‘ - शांत स्वर में बोलीं वह।

‘मुझे कुछ नहीं सुनना...‘ और किताब नजरों के सामने कर जोर-जोर से पढ़ने लगी।

‘ठीक है, फोटो रखती जा रही हूँ.... कल सुबह मुझे अपने विचार बता देना... कुछ हल निकालना होगा या नहीं। तुम अपनी बात पर अड़ी रहो... भैया-भाभी अपनी बात पर... और बाकी लोग मुफ्त में तमाशा देखें।‘

‘मेरे विचार सबको अच्छी तरह मालूम है... और ये भी अपने साथ लेती जाओ-‘ कह हाथ मार कर फोटो गिरा दिया, पर इस क्रम में तस्वीर पर जो नजर गई तो फ्रीज हो गई वह। आश्चर्यचकति जाने कब तक वैसे ही खड़ी रह गई। हे ईश्वर! आँखें सही-सलामत तो है न, क्या देख रही है यह - जमीन पर शरद पड़ा मुस्करा रहा था। धीरे से, काँपते हाथों से तस्वीर उठा ली और एक सिहरन रोम-रोम में दौड़ती चली गई...‘शऽरऽद‘ - उसे तो इस रूप में कभी देखने की कल्पना ही नहीं की। देर तक उसके चेहरे पर देखते रहने की ताब नहीं थी। धीरे से टेबल पर तस्वीर सरका दी और खिड़की पर चली आई। अजीब गुमसुम सा लग रहा था, सबकुछ। किसी बिंदु पर विचार टिक ही नहीं रहे; क्यों अचानक इतना हल्का हो आया मन, सारा तनाव जाने कहां विलीन हो गया। मुस्काराहट खेल आई, चेहरे पर... ‘यू इडियट‘ उसे भी अंधेरे में रखा... किस कदर परेशान किया।

खिड़की के बाहर चटकीली चांदनी फैली थी। और अनायास उसे टेरेस पर वाली चांदनी रात याद हो आई... क्या शरद भी अभी अपने छत पर खड़ा निरख रहा होगा, चांदनी में नहायी इस सृष्टि को? क्या याद आई होगी, उसे भी... उस दिन की।

लिविंग रूम से आते बातचीत के स्वर में बार-बार उसका नाम उछल रहा था। ध्यान दिया.. मम्मी थीं।

‘सुन लिया न, फिर न कहिएगा, पहले क्यों नहीं बताया।‘

डैडी हूँ... हाँ करते न्यूजपेपर में डूबे थे।

पूरा एडिटोरियल खत्म कर, पेपर रखते हुए पूछा... ‘हां, वो जेमिनी ज्वेलर्स को आर्डर दे दिया।‘

‘कैसा आर्डर?'

‘क्यों‘...चौंके 'डैडी।

खीझ गईं मम्मी -‘क्या कह रही हूँ, तब से, बिटिया रानी तैय्यार नहीं है शादी को।‘

‘ये... ये सब क्या तमाशा है-‘ डैडी जोर से बिगड़े।

‘पूछिए अपनी लाड़ली से... जो बात थी मैंने कह दी।‘

‘अऽऽ नेहा... कहां है? नेहा ऽऽ‘ डैडी ने गुस्सैल आवाज में पुकारा तो उसने धीरे से लाइट आफ कर दी। पर स्विच आॅफ करते-करते ही शरद की मुँह चिढ़ा दिया -‘वाज नहीं आए, दूर रहकर भी डाँट सुनवाने से।‘

बुआ ने कह दिया - ‘सो गई है।‘

पर नींद कहाँ आ रही थी? कुछ सोच भी नहीं पा रही थी पर जाने क्यों फूल सा हल्का हो उठा था उसका तन-बदन। लगा जैसे बड़ी मुश्किल से किसी चक्रव्यूह से निकल आई हो... सीने पर रखा कोई पत्थर सरका है, जिसके तले उसका दम घुट रहा था... अब खुलकर सांस ले सकती है। बहुत बड़ी समस्या सुलझ गई है, हालाँकि समस्या तो अपनी जगह है -‘क्यों शादी तो नहीं करनी ना, उसे? छोड़ो भी... बाद में सोचेगी यह सब। लेकिन ये शरद भी खूब निकला... एकदम छुपा रूस्तम, उसकी कारस्तानी है यह, कभी सोच भी नही सकती थी। या शायद परमानेंट डाँटने का जुगाड़ बैठा रहा है। और... सचमुच समस्या तो अपनी जगह है, शादी नहीं करनी न... पर क्यों पहले वह इतनी उद्विग्न हो रही थी और अब सहज, शांत है... कहीं सच्चाई तो नहीं थी स्वस्ति की बातों में। हालाँकि, उस दिन तो वह बहुत बुरा मान गई थी जब फूल की बात हो रही थी और स्वस्ति कह उठी थी -

‘अपनी नेहा, फूल तो है ही, पर शरद ऋतु में खिलने वाली।‘

नहीं समझी तो स्वस्ति ने बड़ी अदा से हँस कर दुहराया था -‘हाँऽऽ, शरद ऋतु‘

और उसने बड़ी जोर से डाँट दिया था - ’स्वस्ति! होश संभाल कर बातें किया करो।’

कहीं उसकी आँखों नें कुछ कह तो नहीं दिया... ऊँह! छोड़ो! होगा कुछ बाद में सोचेगी अभी तो नींद आ रही है, उसे। और सचमुच उन पंडित जी के दर्शन के बाद पहली बार पूरी पुरसुखद नींद ली उसने और किसी दुःस्वप्न ने नहीं डराया।

डर था... डैडी बुलाकर क्राॅस एग्जामिनेशन न शुरू कर दें - लेकिन किसी ने नहीं पूछा कुछ। बुआ ने भी नहीं - शायद उसके खिले-खिले चेहरे ने ही कोई सूत्र थमा दिया उन्हें।


अपनी किताबों में डूबी थी कि अचानक फोन की घंटी बज उठी.इंतज़ार करती रही.कोई तो उठाएगा
पर मम्मी हमेशा की तरह बाज़ार गयी हुईं थीं.'रघु'....'रघु'ऊँचे स्वर में पुकारा. पर रघु शायद घर में नहीं था.

भुनभुनाती हुई अपने कमरे से निकली. जरूर मम्मी की किसी सहेली का होगा.'मेरी बेटी तो डायटिंग के चक्कर में कुछ खाती ही नहीं'...'बेटा बिलकुल नहीं पढता'...पति को तो जैसे घर से कोई मतलब ही नहीं बस काम और काम'..यही सब होगा..या फिर महरी गाथा.इनलोगों को दूसरा कोई काम ही नहीं.जरा खाली हुईं और फोन लेकर बैठ गयीं.यही सब सोचते,रिसीवर उठा जरा,गुस्से में ही बोला, 'हेल्लो'

'नेहा'...उधर से थोडा आश्चर्यमिश्रित स्वर आया.और वह फ्रीज़ हो गयी. ये तो शरद की आवाज़ थी.

'नेहा...'

'.......'

"नेहा ...यू देयर "

"हूँ" ..गले से फंसी हुई सी आवाज़ निकली और इस 'हूँ'ने ही शायद शरद को उसके मन की हलचलों की खबर दे दी.थोड़ी देर को वह भी चुप हो गया.शायद बस एक दूसरे की साँसे ही सुन पा रहें थे.पर शरद ही पहले संभला.

'हम्म तो इसका मतलब है.....मैं रिजेक्ट नहीं हुआ'

'मुझे क्या पता'...धीरे से बोली वह.

'नाराज़ हो मुझसे '

'नहीं'

'लग तो रहा है...सॉरी नेहा..आयम रियली रियली सॉरी....मुझे सामने से कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ी.पता नहीं कैसा डर था,कहीं तुम मजाक बना, हंसी में ना उड़ा दो.डर गया था,तुम्हारी 'ना'सुनने के बाद कैसे जी पाऊंगा??इसीलिए बैकडोर से तुम्हारे मन का पता लगाना पड़ा....अरे, कुछ बोलो भी...अभी तक गुस्सा हो?

'मैं क्यूँ गुस्सा होने लगी...मुझे तो किसी ने कुछ कहा भी नहीं'

'ओह्ह!! तो ये बात है,लो अभी कह देते हैं...इसमें क्या है'....थोड़ी शरारत से बोला,शरद

'फोन पे??...हाउ बोरिंग'....डर गयी, पता नहीं क्या बोल दे.

'अच्छा तो आपको फ्लावर,वाइन और म्युज़िक के साथ चाहिए??'....शरद ने चिढाया.

'जी नहीं...इट्स सो प्रेडिक्टेबल'

'हे भगवान् तो क्या एफिल टावर के नीचे ले जाकर प्रपोज़ करूँ?'...जैसे खीझ गया था,शरद.
उसकी खीज देख,उसे भी मजा आने लगा और वो पल भर में पुरानी शरारती नेहा में बदल गयी.

'इतना ऊँचा नहीं उड़ती मैं...मेरे पैर ज़मीन पर ही हैं'

'तो तुम्ही बताओ'

'हम्म.....बीच रोड पे......बिलकुल बिजी सड़क हो...चारो तरफ से ट्रैफिक आ रहा हो...एकदम पीक आवर्स में...'उसकी कल्पना के घोड़े उडान भरने लगे थे.

'बस बस ...ये नहीं होगा मुझसे'

'ठीक है'फिर मेरी तरफ से ना'

'अच्छा...थोड़ा कन्सेशन मिलेगा...सड़क तो हो...पर सूनी सी..खाली सड़क?'

'जी नहीं..एकदम बिजी रोड....सारी गाड़ियां रुक जाएँ..ट्रैफिक मैन व्हिसिल बजाना भूल जाए'...मजा आ रहा था उसे...और मत बोलो..सब मन में छुपा कर रखो.

'नो वे...ये तो नहीं कर सकता मैं'

'ठीक है ...फिर कैंसिल'

'ओके...कैंसिल'

"क्या.... कैंसिल??'..उसने जरा जोर से ही कहा,तो शरद हंस पड़ा..'अरे! मुझे आने तो दो.रोड पे शीर्षासन करके प्रपोज़ करने को बोलोगी तो वो भी कर दूंगा'

वह भी हंसने लगी और तभी शरद बोल पड़ा,'ओ माई गोंड....आयम लेट....टाईम अप माई डियर ...मुझे भागना होगा,अब"

एकदम से निराश हो गयी...इतनी मजेदार बात चल रही थी.पर शरद ने अभी फोन रखा नहीं था.

'नेहा...'

'हम्म...'

बाय'...ओह्ह.. सिर्फ बाय कहना था उसे.

पर फोन तो अभी तक कट नहीं हुआ था.और उसकी सारी इन्द्रियाँ कानों में सिमट आई थीं.धड़कन तेज हो गयी थी...और शरद ने कहा..'प्लीज़ टेक वेरी गुड केयर ऑफ योरसेल्फ ...एन डू वेल इन योर एग्जाम'...जैसे शरद ने सारी इमोशंस उंडेल दी उन शब्दों में फिर कुछ रुक कर कहा.'आई मीन इट '.और फोन रख दिया

थोड़ी देर यूँ ही रिसीवर हाथों में लिए खड़ी रह गयी.कितना अच्छा है,घर में कोई नहीं है और वह थोड़ी देर यूँ चुपचाप,शांत खड़ी रह सकती है.फिर धीरे से रिसीवर रखा और धीमे कदमों से अपनी किताबों तक लौट आई.मन में बस चलता रहा...'प्लीज़ टेक केयर'...डू वेल'...'आई मीन इट'
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उसमें वही पुरानी चपलता लौट आई थी बस बीच-बीच में रोष की लालिमा की जगह सिंदूरी आभा छिटक आती, चेहरे पर। सहेलियों के बहुत कुरेदने पर भी सच्चाई नहीं आ सकी होठों पर। लेकिन जब एंगेज्मेंट का दिन करीब आने लगा तो स्वस्ति को राजदार बना ही लिया। सुन कर किलक उठी स्वस्ति... नाराज भी हुई। -

-‘हाय! सच नेहा, जा मैं नहीं बोलती तुझसे...इतना गैर समझा मुझे... बिल्कुल भी बात नहीं करनी तुझसे।‘ - लेकिन छलकती खुशी ने ज्यादा देर तक नाराजगी टिकने नहीं दी।

दूसरे ही पल उसका कंधा थाम बोली-

‘अच्छा बाूेल! मेरा गेस ठीक था या नहीं‘ वह भी मुस्कराहट दबाते धीमे से बोली - ‘लेकिन तेरा गेस तो उल्टा था... यहां मेरी तरफ से कुछ नहीं है।‘

‘अयऽ हय... अब झूठ मत बोल... दूध की धुली हो न तुम... खूब पता है हमें, तुम्हारे मन की।‘ - फिर कुछ सोचती सी बोली थी - ‘असल में नेहा, तू इतनी भोली है, इतना निष्पाप मन है तेरा कि तुझे अपने ही मन की खबर नहीं थी... सोच कर हँसी आती है। उन दिनों तेरी बातचीत का एक ही विषय हुआ करता था -‘शरद‘। तू बीसीयों बार नाम लेती, उसका लेकिन जहाँ हम कुछ कहते कि बिगड़ पड़ती‘ - और रहस्य भरी मुस्कराहट के साथ बोली - ‘मुझे तो लगता है, शरद से ज्यादा तू ही... बीच में ही बात काट दी उसने -‘बाबा, तुझे पढ़ाई करनी है या कहीं बाहर जाना है तो सीधे से बोल ना, मुझे क्यों बना रही है, सच्ची मैं चुपचाप चली जाऊँगी, बिल्कुल बुरा नहीं मानूँगी-‘

हँस पड़ी स्वस्ति - ‘अरे, नहीं, अब तो तेरे साथ का एक-एक पल कीमती है - सोचकर सिहर जाती हूँ, चली जाएगी तू तो कैसे बीतेंगे दिन, अपनी-तेरी दोस्ती पर हमेशा आश्चर्य होता है, मुझे... लेकिन तू अपनी अगंभीरता के विषय में इतनी गंभीर है कि मजे से पट गई मुझसे पता है विकी चाचा क्या कहते थे -‘

‘ये तेरे विकी चाचा क्या कर रहे हैं आजकल?‘

‘वही ‘रोड-इंस्पेक्टरी‘ और मुट्ठी में बारूद लिए घूमते हैं कि वश चले तो सारी दुनिया को आग लगा दें - खैर छोड़, पता है वो हमेशा कहते है कि ये ‘आग‘ और ‘बर्फ‘ का संगम कैसे हो गया? तू इतनी बातूनी, इतनी चंचल... सब से झट से दोस्ती कर लेती है और मेरे दोस्त ऊँगलियों पर गिने जाने वाले - पर अब तो नहीं कहेंगे‘ - भेद भरी मुस्कराहट के साथ बोली - ‘क्योंकि अब तो ये ‘फूल‘ और ‘बर्फ‘ का संगम है और इस मिलन से तो बस याद आता है, ‘गुलमर्ग‘! क्यों वहीं की बर्फ लदी चोटियाँ और डैफोडिल्स से भरी घाटियाँ साक्षी रहेंगी न...‘

‘तूने आज पूरी बनाने की कसम ही खा रखी है... अब चली मैं‘ - और वह सचमुच उठ खड़ी हुई।

स्वस्ति भी उठ आई -‘हाँ भई! शरद साहब की पसंद का ख्याल तो रखना है न... कहीं बातों-बातों में सात बज गए तो-‘ उसने गुस्से से आंखें तरेरीं तो स्वस्ति ने नाटकीय मुद्रा में आँखें बंद कर हाथ जोड़ लिए।

और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास )--7

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(नेहा स्कूल की प्रिंसिपल है.अपने केबिन में अचानक शरद को आते देख चौंक जाती है.और उसे शरद से अपनी पहली मुलाकात याद आने लगती हैं.यह भी कि किशोरावस्था में वह कितनी शैतान थी.सबको कैसे तंग करती रहती थी.शरद ने जब उसके साथ एक छोटी बच्ची की तरह बर्ताव किया तो बहुत नाराज़ हुई थी वह.पर धीरे धीरे शरद से दोस्ती हो गयी और शरद ने घर का बोझिल वातावरण बदलने में बहुत मदद की.धीरे धीरे दोनों के मन में प्यार के अंकुर ने जन्म लिया और बात एंगेजमेंट तक पहुँच गयी.)

गतांक से आगे

सुबह काफी देर से आँखें खुली। नींद जो रात भर नहीं आती....पहले तो पता ही नहीं था कि नींद क्यूँ रात भर नहीं आती और आज जब पता है तब भी दगा दे जाती है.
फ्रेश हो, लिविंग रूम में आकर न्यूजपेपर खोला और जो हेडलाईन पर नजर पड़ी तो चौंक गई। पेपर हाथ में लिए ही लॉन की ओर दौड़ी... डैडी को बताने। बचपन की आदत है उसकी कोई भी नई खबर पढ़ी और डैडी को बताने दौड़ पड़ी।

‘डैडी... डैडी... न्यूजपेपर देखा आपने... लड़ाई शुरू हो गई है...‘ और फिर पेपर उनके सामने कर दिया...

डैडी ने पेपर एक ओर हटा दिया और भारी स्वर में बोल -‘मैंने सुबह ही पढ़ लिया है‘ - बिना ध्यान दिए ही अपने उत्साह में उसने जोर-जोर से पढ़ना शुरू कर दिया तो रूखे स्वर में बोले डैडी -‘अपने कमरे में जाकर पढ़ो, यहाँ शोर मत करो।‘

गुस्से से पैर पटकती चली आई, वह एकदम पहले वाले डैडी होते जा रहे हैं - अपने कमरे में पैर रखा ही था कि शेल्फ पर रखे, शरद की तस्वीर पर जो नजर गई तो एक पल में ही डैडी के रूखेपन का कारण समझ में आ गया। पेपर हाथों से चू पड़ा, आँखों के समक्ष अँधेरा छा गया - ओह! इस युद्ध का सम्बंध शरद से भी तो है - पसीने से सारा जिस्म नहा उठा। अगर लड़खड़ा कर कुर्सी न थाम लेती तो सीधी जमीन की शोभा बढ़ा रही होती। फिर भी खड़खड़ाहट की आवाज सुन बुआ दौड़ी हुई आई (तो, बुआ भी सुबह-सुबह खबर पढ़ते ही आ गई) जमीन पर पड़े अखबार और उसके पीले चेहरे ने सारा माजरा समझा दिया, उन्हें। बुआ ने उसे संभाल कर लिटा दिया और सर सहलाती देर तक समझाती रहीं -‘तू तो इतनी समझदार है, नेहा। ऐसे धीरज नहीं खोते... तुझे ऐसे देख, भैय्या-भाभी पर क्या बीतेगी...‘ - बुआ बोलती चली जा रही थीं। वह सुन तो रही थी लेकिन एक शब्द भी दिमाग तक नहीं जा रहा था। सोचने-समझने की शक्ति जाने कहांँ चली गई थी। शरीर शिथिल पड़ता जा रहा था और मस्तिष्क निस्पंद। बस ऐसा लग रहा था, जैसे बहुत थक गई है, वह। आँखें खोलने में भी कष्ट होता, जैसे मन-मन भर के बोझ रखे हो, दोनों पलकों पर।

किसी तरह खुद को समेट कर लिविंग रूम में टीवी के सामने आ बैठी। भैया ने जिस तत्परता से उठ कर सोफे पर न्यूजपेपर समेटे और कंधे पर हाथ रख पास बिठा लिया कि आँखें भर आईं उसकी। कुछ ही घंटों में क्या-क्या न बदल गया। सारा घर पास-पास बैठा टीवी पर नजरें जमाए था... पर सब एक-दूसरे से निगाहें, कतरा रहे थे। दो-चार बातें होतीं... वो भी इतनी धीरे कि विश्वास करना कठिन हो जाता कि सचमुच वे जुमले हवा में तैरे भी हैं; लगा जैसे एक झंझावात गुजर गया था और छोड़ गया था अपने पीछे छूटे अवशेष... जिनमें जीवन का कोई चिन्ह शेष नहीं बचा था।

‘एंगेज्मेंट‘ के लिए शरद एक हफ्ते की छुट्टी लेकर आया था। फोन किया कि ‘एंग्जेमेंट‘ तो नहीं होगा, पर फ्रंट पर जाने से पहले वह मिलते हुए इधर से ही जाएगा। डैडी ने कहा भी अब आ ही गए हो तो... ये सेरेमनी भी अब हो ही जाने दो, पर उसने सख्ती से मना कर दिया।

वादे के अनुसार, शरद आया भी लेकिन इस बार कोई दौड़कर रिसीव करने नहीं गया। सब उसे खरामा-खरामा भीतर आते देखते रहे। भैय्या ने जरूर दो कदम आगे बढ़ बाहों में भर लिया था। शरद के धूपखिले मुस्कान वाले चेहरे पर भी कुछ तैर आया था। डैडी के पैरों की ओर झुका तो उन्होंने आधे में ही रोक उसे सीने से लगा लिया था। आँखों के गीलेपन को छुपा गए थे; वह सबों से दो कदम पीछे खड़ी थी... शरद की खोजती निगाहें उस पर टिकी और आंखों मे ही मुस्करा दिया पर आंखों की उदासी उससे छुप नहीं सकी थी।

फिर भी उसने अपनी पुरानी जिंदादीली वैसे ही बरकरार रखी थी -‘अंकल देखिए तो कितना भाग्यशाली हूँ मैं? कहाँ तो लोग ट्रेनिंग ले-ले कर बरसों पड़े रहते हैं और अपने जौहर दिखाने का कोई अवसर नहीं मिलता और एक मैं हूँ, इधर ट्रेनिंग पूरी की और शौर्य-प्रदर्शन का इतना नायाब मौका मिल गया। बोलिए हूँ न, भाग्यवान।‘

और माली काका पर नजर पड़ते ही बोला - ‘हल्लो! माली काका -‘ फिर दूसरे ही क्षण - ‘अरे, अरे हिलो नहीं, मैं तुम्हें हिलने को थोड़े ही कह रहा हूं...‘ साथ ही पूरे दिल की गहराई से लगाया गया ठहाका।

ऐसे ही, नाश्ते के वक्त -‘हेलोऽऽ काकी, कैसी हो?‘ - काकी अबूझ सी मुंह देखती रही तो हँस पड़ा -‘अरे, बाबा ये थोड़े ही पूछ रहा हूँ कि ‘हलवा‘ कैसा है? पूछ रहा हूँ... तुम कैसी हो।‘

पापा ने दो-चार बेहद करीबी दोस्तों को चाय पर बुला लिया था... (शर्मा अंकल तो, खैर सुबह से यहाँ ही थे) सब शरद को शुभकामनाएँ देना चाहते थे।

सबके बीच भी शरद की जिंदादीली वैसे ही, बरकरार थी - खन्ना आंटी को सफेद बैकग्राउंड वाली साड़ी में देखकर बोला -‘क्या आंटी, आपने ऐसी साड़ी पहन रखी है अरे! ये तो सुलह का प्रतीक है। इस बार हम लोग कोई समझौता-वमझौता नहीं करेंगे। इस्लामाबाद तक खदेड़ कर न रख दिया तो कहना‘ -‘वही बेमतलब सी बातें जो कोई अर्थ नहीं रखतीं पर जड़ता तोड़ने में बड़ी सहायक होती है।

जब रघु चाय लेकर आया तो फिर शुरू हो गया -‘यार रघु! क्या चाय बनाते हो तुम, चाय तो तुम्हारी नेहा दीदी, बनाती हैं। आह! एक बार पी ले आदमी तो स्वाद जबान से नहीं छूटे। जीवन भर दूसरा कप पीने की जरूरत नहीं। क्यों नेहा? आइडिया... उन पाकिस्तानियों पर गोलियाँ बरबाद करने से क्या फायदा... बस एक-एक कप चाय पिला दी जाए उन्हें... उनके सात पुश्त भी न रूख करने की हिम्मत करेंगे, भारत का... अऽऽ नेहा, जरा नोट करवा दो तो विधि...‘

इस बात को गुजरे दो साल से ऊपर हो चले थे। पर शरद एक भी मौका नहीं छोड़ता - इसका जिक्र करने का। अभी भी बड़ी तफसील से सबको बता रहा था - ‘कैसे वह पहले दिन पेश आई थीं... और कोई रिएक्शन न देख, बड़ी निराश हो चली गई थी।‘

वह फिर से उठकर जाने लगी तो बोला -‘अरे, अपनी तारीफ सुन कोई यूँ भागता है... बैठो, बैठो... और नेहा उस दिन शास्त्रीय संगीत का कौन सा रेकॉर्ड लगाया था, तुमने?‘

‘मुझे याद नहीं‘ - उसने नजरें झुकाए धीरे से कहा तो एकदम झुंझला गया, वह - ‘ओह! गाॅड! दुश्मन की गोली खत्म करे, इससे पहले तुम लोगों की ये मनहूस चुप्पी, मार देगी, मुझे... वहाँ के रोने-धोने से घबराकर भागा तो यहाँ ये आलम है। ... सबके चेहरे ऐसे गमगीन है, जैसे मेरी मय्यत का सरंजाम हो रहा है... बाबा अभी बहुत दिनों तक रहना है, मुझे इस संसार में, क्यों तुमलोग अंतिम विदा कहने पर तुले हो?‘

भैय्या ने तेजी से आकर उसे कंधों से थाम लिया, और सीधा आँखों में देखता हुआ जोर से बोला - ‘डोऽऽन्ट... एवर से दैट, ओक्के?‘

मम्मी भी उठकर उसके पास चली गईं और हल्के से उसके बाल बिखेरते हुए बड़े अधिकारपूर्ण स्वर में लाड़ भरा उलाहना दिया -

‘ऐसा नहीं कहते, बेटे‘

‘तो क्या करूँ आंटी... आप देख रही हैं न घंटे भर से अकेले ही हँस-बोल रहा हूँ और किसी के चेहरे पर हँसी की एक रेखा तक नहीं।‘

‘अब कोई शिकायत नहीं होगी बेटे...‘ और मम्मी खुलकर मुस्करा दी।

‘वाउ! वंडरफुल... ऐसा ही माहौल रहा तब तो मेरी भी हिम्मत बनी रहेगी... वरना कभी-कभी तो लगता है - क्या सचमुच लौट कर नहीं देखूंगा ये सब -‘

‘अरे , तूने फिर बोला ये... और भैया के हाथ में कोई पेपर था, उसे ही गोल कर... दो-चार जमा दिया शरद को।

‘अरे... इतनी जोर से लगी... अभी बताता हूं तुझे...‘ और वह भैय्या के पीछे दौड़ा... दोनों की इस धींगामुश्ती ने घर का माहौल हल्का करने में काफी मदद की।

लेकिन शरद खुद भीतर से कितना अशांत है... उसके ठहाके कितने बेजान हैं, हँसी कितनी खोखली है... ये तो बाद में पता चला।

जाने क्यों... सबके बीच उसका मन नहीं लग रहा था... छत पर चली आई और यूं ही शून्य में जाने क्या देख रही थी कि किसी की उपस्थिति का अहसास हुआ। पलट कर देखा, तो शरद था... जाने कब से खड़ा था... एक हूक सी उठी लेकिन जब्त कर गई। स्नेहसिक्त मुस्कान से नहलाते हुए बोला... ‘चलो, जरा टहल आएं... थोड़ी दूर‘। उसने असमंजस में दरवाजे की तरफ देख तो आश्वस्त कर दिया -‘मैंने मम्मी से पूछ लिया है।‘

छोटे वाले गेट से निकल कर वे पगडंडी पर आ गए - थोड़ी दूर पर ही एक पतली सी पहाड़ी नदी बहती थी... कोई भी बात शुरू नहीं कर पा रहा था... दोनों ही खोए-खोए से अपने विचारों में गुम कदम बढ़ा रहे थे... थोड़ी देर बाद शरद ने धीरे से उसका हाथ, अपने हाथों में ले लिया... बस अंतर उमड़ पड़ा उसका... आँखों से वर्षा की झड़ी की तरह बूंदे चेहरा भिगोने लगीं। उसने निगाह नीची कर ली, सिसकी अंदर ही घोंट ली। शरद खुद में ही खोया सा चल रहा था। नदी के कगार पर पहुंच इधर-उधर देखते हुए बोला -‘कहाँ बैठा, जाए?‘

और इस क्रम में जो उसपर नजर पड़ी तो चैंक पड़ा - ‘अरे, नेहा! ये क्या;बेवकूफ लड़की...‘ लेकिन वह अब और नहीं जब्त का सकी - अपना हाथ खींच, पास ही एक पत्थर पर बैठ, घुटनों में सर छुपा, बेसंभाल हो फफक पड़ी। शरद उसके पैरों के पास बैठ गया। दोनों हाथों से उसका सर उठाने की कोशिश करता हुआ बोला - ‘नेही, प्लीज, ये क्या लगा रखा है?‘

पर जाने कहाँ से आँसू उमड़े चले आ रहे थे। भीतर मानो कोई ग्लैशियर पिघल गया था, जो आंखों के रास्ते अपनी राह बना रहा था।

उसकी ये हालत देख, शरद भी घबड़ा उठा। बड़ी आजीजी से गीली आवाज में बोला- ‘नेही... नेही.. प्लीज ऐसे मत रो पगली... बोल कैसे जा पाऊँगा मैं? ...तुझे ऐसी हालत में छोड़कर कदम उठेंगे, मेरे?... बोलो... नेहा प्लीज... मेरे सर की कसम जो और ... जरा भी रोई...‘

बड़ी मुश्किल से काबू कर पाई, खुद पर। उसका चेहरा हथेलियों में भर शिकायती स्वर में बोला -

‘यों कमजोर न बनाओ मुझे‘; आवाज की कम्पन ने ही उसे आँखें उठाकर देखने पर मजबूर कर दिया। बिना आँसुओं के ही वे आँखें, इस कदर लाल थीं कि... उनका दर्द देख अंदर से हिल गई। और दिल चीर कर रख देने वाली आवाज में फूट पड़ी - ‘शऽरऽद‘ और उन्हीं हथेलियों में सर छुपा सिसक पड़ी।

‘नेहा... तू इस कदर परेशान क्यों है? क्या लगता है, तुझे... और शरद ने हथेली खींच, उसके सामने फैला दी - ‘ये... ये... देख... कितनी लम्बी आयु रेखा है मेरी... कुछ नहीं होगा, मुझे... नेहा, सच... तेरी आस्था... तेरा विश्वास और तेरा प्यार मेरे साथ है... क्यों है न?‘ और फिर मुस्करा कर जोड़ा - ‘कहीं, ऐसा तो नहीं कि ये बस एकतरफा प्यार ही है, तुमने कभी कुछ कहा ही नहीं।‘

बच्चों की तरह हथेलियों से आँखें पोछते... बिना सोचे-समझे वह बोल पड़ी -‘तुमने ऐंगेज्मेंट-’सेरेमनी‘ क्यों नहीं होने दी?‘

‘ओफ्फोह!! तो इसीलिए सारा पागलपन है, तुम्हारा‘ - हँस पड़ा था शरद (इस स्थिति में भी संभालना जानता है, खुद को... आखिर मिलीट्री मैन है) -‘सच्ची... बेवकूफ की बेवकूफ रही तू... इसमें क्या मुश्किल है, लो अभी हुआ जाता है... ये तो मन के रिश्ते है न... लोगों की भीड़ की क्या जरूरत? - और शरद ने अपनी अंगुली में पहनी अंगूठी डाल दी थी उसकी ऊँगली में, फिर बोला -‘अब तुम्हारी अंगूठी तो मुझे आएगी नहीं‘ - पास से ही एक लम्बी सी घास तोड़, उसे गोल-गोल घुमा एक छल्ले सा बना दे दिया, उसे - ‘लो अब जरा अपनी अँगुलियों को भी कष्ट दो।‘

उसने काँपते हाथों से पहना दी तो बड़े आग्रह से बोला -

‘अब एक बार तो मुस्करा दो‘ - और उसकी मुस्कराहट देख दर्द से आँखें फेर लीं, उसने -‘तुम्हारे मुस्कराने से तो तुम्हारा रोना लाख दर्जे बेहतर था।‘

जाने कितनी देर तक चुपचाप बैठे रहे दोनों। गहन चिंता में डूबा चेहरा लग रहा था, उसका। जब थोड़ा अंधियारा घिरने लगा तो, वह उठ खड़ी हुई। लेकिन शरद ने फिर खींचकर बिठा दिया, उसे और थरथराती आवाज में बोला -‘नेहा, पहले एक वादा करो, अब और नहीं रोओगी, तुम।‘ तुम इस कदर भावुक हो, ऐसा तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता था। तुम्हें तो एक चंचल, शरारती लड़की ही समझता था और वही रूप पसंद है, मुझे। जानती हो, कितना अशांत कर दिया तुम्हारे इस रूप ने? वहाँ मन लगेगा मेरा... बार-बार तुम्हारे इसी रूप का खयाल आता रहेगा। और बोलो... चाहती हो कि कुछ का कुछ कर बैठूं - नहीं नेहा, यहाँ सिर्फ मेरा-तुम्हारा नहीं... पूरे देश का सवाल है। बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, मुझपर। जिस निभाने के लिए शांत-निरूद्वेग दिमाग चाहिए। और इसके लिए मुझे तुम्हारा सहयोग चाहिए - बोलो करती हो वादा‘ - उसके हँसते-खिलखिलाते चेहरे के बीच, उसका यह रूप, शरद का मन स्वीकार नहीं कर पा रहा था।

आँसू पीती बोली थी वह - ‘वादा करती हूँ, शरद।‘

‘ना, ऐसे नहीं... खाओ मेरी कसम‘ और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। हाथ थाम वह फिर सिसक उठी थी... पर तुरंत संभाल लिया खुद को।

‘तुम्हारी, कसम, शरद... शिकायत का कोई मौका नहीं मिलेगा, तुम्हें।‘

‘कब्भी नहीं‘’- शरद ने शरारत से मुस्करा कर पूछा था (ये शरद भी सचमुच एक पहेली है)

‘कभी-नहीं‘’ - आँसू पोंछ दृढ़ स्वर में बोली थी वह। ‘अरे, नहीं यार! मेरी मौत की खबर सुन तो दो-चार अश्रु-बूँद टपका ही देना, वरना आत्मा भटकती रहेगी...‘ -- हँस कर बोला तो उसने‘-

‘तुम बहुत बुरे हो, बहुत बुरे... सच्ची बहुत बुरे हो...‘ कहती मुट्ठियों की बौछार सी कर दी उस पर।

उसके हमले से खुद को बचाता, शरद बोला -‘अरे! तुम दोनों भाई-बहन किस जनम की दुश्मनी निकाल रहे हो‘ - और एकदम से उसे खींच कर बाहों में भर लिया।

एक पल को लगा, जैसे सृष्टि थम सी गई है। अभी उसके सीने की धधकती आंच ठीक से महसूस भी न कर पाई थी कि झटके से अलग करता हुआ बोला -‘चलो, चलो सब ढूँढ़ रहे होंगे, हमें... बहुत देर हो गई है।‘(स्टुपिड! डर है, कहीं कमजोर न पड़ जाए, मन ही मन हँस पड़ी वह)

वापसी का रास्ता बहुत ही आसान लगा। शरद ने एक बांह से घेर, उसे कंधे से लगा लिया था... और मन का सारा बोझ, सारा गम जाने कहाँ विलीन हो गया।

जाने कैसी शक्ति सी आ गई थी... एक विश्वास सा जम गया था... अब कुछ अघटित नहीं होगा... बिल्कुल शांत हो आया था उसका मन। अब ये बदलाव शरद के दो पल के साथ ने दिया था या... अँगुली में पड़ी इस अँगूठी ने... कहना मुश्किल था।

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और शरद के प्रयासों ने घर का माहौल बदलने में पूरा सहयोग दिया। उदासी के बादल थोड़े ही सही, मगर छँटे जरूर थे। एक-दूसरे को संभालने के लिए जबरदस्ती ही हँसने-बोलने की कोशिश बोझिलता कम करने में बड़ी सहायक सिद्ध हुई थी। शरद तो उसी रात सीमा पर चला गया था पर वहाँ से भी उसने घर का वातावरण हल्का बनाए रखने की कोशिश जारी रखी थी। फोन तो कभी-कभार आते और इतनी डिस्टर्बेंस की कुशल-क्षेम भी ठीक से नहीं पूछ पाते एक-दूसरे का। पर उसके छोटे-छोटे खत बड़े मजेदार होते... बड़े ही मनोरंजकपूर्ण ढंग से वह युद्ध का वर्णन करता। घर में जीवंतता की लहर दौड़ जाती। उसके नाम अलग से कभी कोई खत नहीं होता... हाँ दो-चार लाइनें जरूर रहती उसके लिए। कभी तो बस इतना ही होता... ‘मैंने तुम्हें कुछ लिखने ही वाला था... पर ध्यान आया... तुमने तो रिप्लाय दिया ही नहीं... फिर क्यों लिखूँ मैं?‘
(क्रमशः)
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