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Channel: मन का पाखी
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उदास आँखों में छुपी झुर्रियों की दास्तान (भाग -11)

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(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे,अपना  पुराना जीवन याद करने लगती हैं.उनकी चार बेटियों  और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजिनियर था,उसने प्रेम विवाह किया. छोटा बेटा डॉक्टर था, एक अमीर लड़की से शादी कर वह भी, उसके पिता के पैसों से अब विदेश जा रहा था )

 गतांक से आगे 

 बहू पूजा और नमिता के पीछे मीरा भी चली गयीं..पता नहीं तीनो ऊपर वाले कमरे में क्या क्या बतियाती रहीं. बाद में तीनो नीचे आयीं और नमिता , मीरा उसके स्नान  का इंतज़ाम करने चली गयीं. नहा कर वो लाल रंग के सलवार सूट, बिंदी और और चूड़ियाँ, यहाँ तक कि पायल भी पहन कर आई   तो वे उसे देखती ही रह गयीं. रूप निखर आया था,और चूड़ियाँ ,पायल कुछ ज्यादा ही छनक रहें थे ,लग  रहा था उनकी आवाज़ पर मुग्ध हो खुद ही ज्यादा खनका  रही थी.

अपनी तरफ  यूँ एकटक देखता पा मुस्करा कर बोली.."आप डर गयीं,ना...कि मैं, सिर्फ वैसे  कपड़े ही पहनती हूँ, वो तो रास्ते के लिए पहना था सिर्फ.  मुझे पता है...गाँव में साड़ी पहनते हैं...पर प्लीज़...मुझसे नहीं संभलेगा"...होठ बिसूरते हुए कहा....फिर बड़े आग्रह से उनकी  ओर देखा..."ये चलेगा ना... वैसे तो चुन्नी भी संभालने में कितनी मुश्किल होती है.."दुपट्टा ठीक करती बोली वह.

वे क्या कहतीं...उन्होंने तो उसके पैंट पहनने पर भी कुछ नहीं कहा...जब बेटे को पसंद है तो क्या बोलें वह...वो तो जानता है गाँव के रीती-रिवाज. बोलीं, "तुम्हे जिसमे आराम लगे, वही पहनो.."

उन्होंने सोचा अब तो शायद कमरे के भीतर ही रहेगी, प्रमोद तो खाना खाते ही सो गया था. शाम होने वाली थी. सब काम करनेवालों  के आने का समय  हो रहा था. पर ये तो बरामदे में रखी कुर्सी पर आराम से बैठ गयी. कहा भी.."बहू जाओ, जरा आराम कर लो"

"ना मुझे अच्छा लग रहा है यहाँ बैठना....और आप मुझे पूजा कहें प्लीज़"

स्कूल से पति लौटे तो लपक कर उनके पैर छुए और वहीँ खड़ी रही. पति अंदर चले गए तो फिर वहीँ बैठ गयी. अब वे क्या कहें?  कलावती,सिवनाथ माएँ सब उसे हैरानी से देख रही थीं. मीरा, नमिता तो उसका साथ ही नहीं छोड़ रही थीं. कलावती खाना बनाने लगी तो चौके में जाकर हैरानी से लकड़ी के चूल्हे को देखने लगी."एक दिन मैं भी बनाउंगी ,ऐसे...सिखाओगी  मुझे..?"कलावती घुटनों में मुहँ छुपाये हंसने लगी.
सौ सवाल थे उसके..."ये बर्तन के ऊपर मिटटी का लेप क्यूँ लगाते हैं ?"

"बर्तन में कालिख ना लगे इसके लिए "

"तुम कितने आराम से लकड़ी अंदर डाल  आंच बढ़ा देती हो...और बाहर खींच कम कर देती हो..वाह जैसे गैस सिम करते हैं...पर हाथ नहीं जलता तुम्हारा?"

"हम गरीब लोगों  का हाथ जलेगा...तो काम कैसे करेंगे?"कलावती ने अपना ज्ञान बघारा...तो "हम्म.."करती सोच में पड़ गयी.

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सुबह वे उठकर दातुन कर स्टोव पर पति के लिए चाय बना रही थीं कि पति ने आकर कहा, "बाहर बरामदे में पूजा  खड़ी है..."

"हे भगवान अब क्या करें  वह"....सुबह सुबह सारे राहगीर अचम्भे से देख रहें होंगे उसे. ये सब बातें लड़कियों को सिखाई नहीं जातीं. अपने घर में, अपने  आस-पास देख कर, सब सीख जाती हैं. पर लगता  है, इसके तो दादा-परदादा भी शहर  में ही पैदा हुए थे. इसे कुछ पता ही नहीं. खीझ गयीं वे. जाकर देखा तो दोनों हाथ बांधे वह सुनहरी कोमल धूप में नहाए, सामने फैले खेत-खलिहान,पेड़-पौधे निरख रही थी.

 उन्हें देखते ही बोली..."एकदम हिल-स्टेशन जैसा लग रहा है...कितनी लकी हैं आपलोग, इतनी हरियाली के बीच रहती हैं."

उन्होंने बात बदलते हुए उसे अंदर बुलाने को बहाने से कहा,..."चलो, पूजा अंदर चलो..चाय पियोगी?"

वो साथ में अंदर तो आ गयी...पर बोली.."ना... मैं तो नहा धोकर आपके लिए फूल तोड़ कर लाऊँगी पूजा के लिए"

अब ये और लो...पता नहीं गाँव की कौन सी तस्वीर है इसके मन में..लगता है, फिल्मों में देखा होगा.

"अच्छा पहले नहा तो लो..कलावती आती है तो पानी रख  देती है."..कह कर टाल दिया .

नहाने के बाद पूजा, प्रमोद को उठाने में लग गयी...किसी तरह वो औंघाते हुए , बरामदे में  कुर्सी पर आकर बैठ गया, "अरे हज़ार घंटे की नींद बाकी है, भाई ....पढ़ाई के दौरान रात- रात भर जाग के काटे हैं.....मौका मिला है तो सोने दो,ना...तुम नमिता,मीरा के साथ चली जाओ गाँव घूमने "

उनके काम करते हाथ जहाँ के तहां रुक गए...."गाँव घूमने...."अब ये कौन सा नया  चक्कर शुरू हो गया.

वो नमिता,मीरा को बुलाने उनके कमरे में गयी तो वे भागकर प्रमोद के पास आ गयीं "ये क्या कह रहा है...बहुएं दिन के उजाले में बाहर जाती हैं क्या?...तुझे तो सब पता है."

"पता है माँ...पर क्या करूँ....ये मानेगी नहीं...घूमने गए तो वहीँ से दूसरे दिन से हल्ला...घर चलो..मुझे गाँव देखना है...तभी हम इतनी जल्दी लौट आए . इसे गाँव देखने का बहुत शौक है....पता नहीं किताबों में क्या क्या पढ़ रखा है..और फिल्मों में क्या  देखा है...अगर  इसे उपले पाथने या दूध दुहने को कहोगी ना, तब भी मान जाएगी. जब हमारे आँगन में हैंडपंप देखा तो बड़ी निराश हो गयी...बोली,'कुएं से पानी क्यूँ नहीं लाते..मैं भी बड़े से पीतल के गागर में पानी भर के लाती"

हंस पड़ीं वे, पूजा का 'घर 'का संबोधन कहीं अच्छा भी लगा..फिर भी आशंकित थीं,"बेटा पर दिन  के उजाले में कैसे घूमेगी ? ...गाड़ी से घुमा दे..क्या कहेंगे गांववाले ?"

"कहेंगे ...मास्टर साहब की  छोटी बहू पागल है...और सचमुच वो गाँव देखने के पीछे पागल ही है."फिर थोड़ा सोचता हुआ बोला..."माँ पर एक तरह से ठीक ही है..पूजा की देखा-देखी और भी बहुएं दिन के उजाले में निकल कर घूम सकेंगी. तुम ही बताओ...क्या तुम्हारा मन नहीं हुआ कभी वो आम का बगीचा देखूं..नीम के पेड़ देखूं ?...नहर देखूं ? केवल सब से सुन सुन कर संतोष करती रही.....जाने दो, घूमने दो इसे...और मना करोगी तो वो सत्याग्रह कर देगी...नमिता से कम नहीं...."और हँसता हुआ चला गया...दातुन-कुल्ला करने.

वे लौट आयीं अपनी जगह..पर एक सवाल चलता रहा दिमाग में "क्या तुम्हारा मन नहीं हुआ?" ..क्या सचमुच उनके मन में कभी कोई इच्छा नहीं जागी? बस उन्होंने स्थिति को आँखें  बंद कर स्वीकार कर लिया. उनका एक मन भी है..वह भी कुछ चाह सकता है, मांग सकता है...कभी ऐसे सोचा ही नहीं. जैसे  जैसे सास-ससुर-पति कहते गए करती गयीं. उन्होंने कभी अपने मन से क्यूँ नहीं पूछा कि 'उसे क्या  चाहिए?'शायद कभी मन ने चाहा होता तो कोई राह निकल ही आती. या उनके मन का नहीं हो पायेगा ऐसा सोच वे निराशा से बचने की कोशिश करती रहीं. खुद को दुख और निराशा से बचाने  का  यह कोई अनजाना प्रयास था, क्या?  पता नहीं कब तक सोचती रहतीं अगर नमिता ने आकर आशंकित मन से नहीं पूछा होता, "भाभी को लेकर जाऊं बाग़-बगीचे , नहर दिखाने?"

हँ जाओ..पर नाश्ते के बाद..."

"मीरा मैं ना कहती थी...माँ मना नहीं करेगी..चल जल्दी तैयार हो जा.."कहती नमिता उछलती कूदती चली गयी.

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उन्हें पता था, गाँव में यह खबर आग की तरह फ़ैल गयी होगी और किसी ना किसी बहाने लोग उनके घर आयेंगे टोह  लेने और उलाहना देने.

अच्छा हुआ जब , कैलास की माँ और शम्भू की चाची आयीं तो पूजा थक कर सो गयी थी. "का ममता की माँ, नईकी  बहू के मायके की सब मिठाई अकेले अकेले खा लोगी"

"नहीं, मैं बस आज ही भेजने वाली थी...कलावती से "

"आ... ई का सुन रहें हैं..बिजली बता रहा था कि नईकी बहू खेते खेते....बगीचे  बगीचे...मुहँ उघारे सलवार कमीज़ पहने घूम रही थी."

"हाँ , उसने गाँव नहीं देखा ना...और अब विदेश जा रही है...फिर कब देखना नसीब हो अपना देस, अपनी धरती...इसीलिए भेज दिया "वे कभी भी अपने बच्चों की या घर की  बड़ाई नहीं बघारातीं थीं ...पर यहाँ बात मोड़ने के लिए जरूरी था.

"बिदेस...प्रमोद बबुआ बिदेस जा रहा है...?"उन दोनों का मुहँ खुला का खुला रह गया.

"हाँ, आगे और पढ़ाई करेगा...हमारी कहाँ औकात थी, विदेस भेजने की, दान- दहेज़ नहीं लिया तो बहू के पिताजी ने विदेस भेजने की बात कही...ठीक है, उनकी लड़की ही 'फौरेन  रिटर्न डाक्टर'की बीवी कहलाएगी"

"हाँ वो तो है...पर जो कहो...जोड़ी नहीं है...कहाँ प्रमोद...राम जी जैसा सुन्दर....बहू..उसके सामने तनिक फीकी पड़ जाती है...जोड़ी नहीं जमती "वे लोग कहाँ चूकने वाली थीं.

इस बार दरवाजे से आती सिवनाथ माएँ ने संभाल ली, "शम्भू की चाची...पिरार्थाना  करो कि तुम्हारी बिटिया को भी एहेन दामाद, मिले."

उनकी बेटी का रंग भी दबा हुआ था. सो चुप रहीं दोनों. उन्होंने मिठाई की प्लेट सामने रखी. उसे ख़त्म कर जल्दी से चली गयीं वे लोग.  अब गाँव में पूजा के गाँव घूमने से ज्यादा बड़ी खबर  प्रमोद के विदेश जाने की थी . सबको बताना होगा,जाकर. पहले जानने का सुख लूटने की बात ही अलग.

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पूजा हफ्ते भर  रही. वह रम गयी थी,गाँव की ज़िन्दगी में. बिजली तो गाँव में रहती ही नहीं. वह छत पर देर तक तारों की छाँव में बैठी रहती. दिन में नमिता-मीरा के साथ गोटियाँ खेलना सीखती. नए नए व्यंजन शौक से खाती. कभी कभी उनसे पूछ , अपनी डायरी में भी नोट करती जाती. प्रमोद तो कुम्भकरण का अवतार ही लिए हुए था. सिर्फ खाता और सो जाता.

पति को घर के आस-पास फूल और सब्जियां लगाने का बड़ा शौक था. खुद ही इसकी देखभाल किया करते. पूजा भी अक्सर सुबह और शाम दोनों समय उनके साथ लगी होती और सैकड़ों सवाल पूछती.  वह मटर की फलियाँ, टमाटर,बैंगन,मिर्ची देख खुश हो जाती.और अपने हाथों से तोड़ने की जिद करती. छोटी सी टोकरी लेकर जाती और कुछ सब्जियां तोड़ लाती. एक दिन ढेर सारी मिर्ची तोड़ लाई. इतनी जलन हुई उन मेहँदी रचे हाथों में , शहद का लेप करना पड़ा. कई बार सब्जियां तैयार नहीं हुई होतीं.पर उसका बच्चों सा उत्साह देख पति कुछ नहीं कहते. पति के इस शौक में किसी  बच्चे ने कभी हिस्सा नहीं लिया, उन्हें भी अच्छा लगता.

प्रमोद कभी कह भी देता...'आजतक पापाजी को इतनी देर तक किसी से बतियाते नहीं देखा. पता नहीं क्या सर खाती रहती है'

"अब ये ससुर-बहू जानें, तू क्यूँ परेशान हो रहा है? ..."वे मुस्कुरा कर उसे आश्वस्त करतीं.

पूजा शायद और रुक जाती पर प्रमोद को ही शहर में काम था. विदेश जाने के कागज़ पत्तर तैयार करने थे. पूजा जब विदा होकर गयी तो लगा, ममता या स्मिता ही जा रही हैं. उसकी भी आँखें भरी भरी  थीं.

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नमिता कॉलेज में आ गयी थी. अब तो उसी कॉलेज में बी.ए. की भी पढ़ाई होने लगी थी. पति का बेटियों को बी.ए. पढ़ाने का सपना पूरा होता दिख रहा था. वे सोचतीं, वैसे भी अभी पैसे कहाँ हैं जो शादी हो पायेगी...समय लगेगा तब तक बी.ए. तो कर ही लेगी.

प्रमोद, और पूजा सिर्फ दो दिन के लिए आए इस बार. शादी के पहले से ही सारी लिखा-पढ़ी चल रही थी. अब सब तय हो गया था और उन्हें अगले हफ्ते विदेश के लिए हवाई जहाज में बैठना था. आजतक बस आँगन से आकाश में उड़ते जहाज को देखा  करती थीं. आज उसमे उनके बेटा बहू बैठनेवाले थे. उन्हें गर्व भी हो रहा था और विछोह की पीड़ा से छाती भी ऐंठ रही थी. अब पूरे एक साल बाद ही आ पायेगा. इतने दिन उसका मुहँ देखे बिना कैसे रहेंगी?

पूजा,मीरा और नमिता के लिए एक टी.वी. लेकर आई थी. मीरा खुश हो गयी पर दूसरे ही पल बुझी आवाज़ में बोली, ..."पर भाभी,बिजली कहाँ रहती है, यहाँ?"

"मैं बाज़ार से बैटरी और चार्जर का  इंतज़ाम कर देता हूँ,...तुमलोग देखा करो...दीन दुनिया की खबरें  मिलेगी,पर नमिता..सिर्फ फिल्मे और गाने ही मत देखना."

प्रमोद और नमिता तो चले गए, उनके पापाजी और मीरा शहर तक उनके साथ गए. इस बार नमिता  ने ही कहा, माँ अकेली कैसे रहेगी? मीरा को ले जाइए.

प्रमोद तो नमिता को हिदायत दे गया, ज्यादा फिल्मे मत देखना.पर नमिता की नज़र तो टी.वी.से हटती  ही नहीं.चाहे कुछ भी आ रहा हो,वह देखा करती. और अब उसे बनने संवारने का भी शौक होने लगा था.

उनकी सारी बेटियाँ सुन्दर थीं. पर ममता और स्मिता का रूप बदली में छुपे चाँद जैसा था. जबकि नमिता का रूप पूरनमासी की चाँद की तरह चमकता रहता. वह टी.वी. में देख देख के दरजी काका को अपने कपड़े की डिजाइन  बताती. उन्हें लगा दरजी काका खुद ही टाल देंगे.पर वे भी शायद सीधा -सादा सलवार कुरता सिल कर तंग आ गए थे. नमिता की बात ध्यान से सुनते और देर तक उस से डिजाइन  समझते.फिर वैसा ही सिल कर ला देते. बाल बनाने के तरीके में भी  वो टी.वी. में बोलने वाली लड़कियों की  नक़ल करती.लगता ही नहीं उनकी बेटी कभी गाँव से बाहर नहीं गयी.

इंटर पास करके बी.ए. पार्ट वन में आ गयी नमिता. ब्लॉक  में एक नए अफसर आए थे. उनकी बेटी नमिता की अच्छी सहेली बन गयी. पर उसका एक बड़ा भाई भी था.इंजीनियरिंग पढ़ रहा था, छुट्टियों में घर आता तो नमिता और अपनी बहन नीना के साथ ही बाग़-बगीचे में घूमता रहता. उसके गाँव में कोई दोस्त नहीं थे.पर उन्हें नमिता का उसके यहाँ जाना अच्छा नहीं लगता.

(क्रमशः)

उदास आँखों में छुपी झुर्रियों की दास्तान (भाग -12)

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(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे,अपना  पुराना जीवन याद करने लगती हैं.उनकी चार बेटियों  और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजिनियर था,उसने प्रेम विवाह किया. छोटा बेटा डॉक्टर था, एक अमीर लड़की से शादी कर वह भी, उसके पिता के पैसों से अब विदेश चला गया)

गतांक से आगे

कॉलेज जाने के साथ ही वे नमिता में परिवर्तन देख तो रही थीं. अब ये उम्र का प्रभाव था या कॉलेज जाने का या फिर घर में टी.वी. आ जाने का .पर वह अब अपने रख रखाव के प्रति सजग दिखती थी.वरना पैरों में चप्पल पहनने के लिए कितनी डांट सुनती  थी. डांटने पर, घर से तो पहन कर निकलती पर किसी पेड़ के नीचे छोड़ कर आ जाती. बालों में तेल डालने को चोटियाँ बनाने को हमेशा, उसे घेर कर बिठाना पड़ता पर अब पेड़ पर चढ़ना,पुआल के ऊँचे ढेर पर बैठ ईख चबाना तो नहीं छूटा  पर पैरों में चप्पल अब नहीं भूलती  वह. उन्हें वह नज़ारा भी नहीं भूलता,जाड़ों की धूप में नमिता उसी  पुआल के ऊँचे ढेर  पर बैठी,ईख चबाती, हर आने जाने वालों से जोर जोर से बतियाती रहती...किसी के कंधे पर पड़े गमछे के एक किनारे पर बंधी पोटली को देख टोक देती, "क्या काका,लाई कचरी ले जा रहें हो मुनिया के लिए?"और मीरा उसी पुआल के ढेर के नीचे अधलेटी सी दिन-दुनिया से बेखबर किसी किताब में खोयी होती.

एक दिन उन्होंने नमिता के हाथों के लम्बे नाखून देखे और चौंक पड़ी,"अरे चलो तुम्हारे नाखून काट दूँ, इतना भी होश नहीं इस लड़की को".

"मैं खुद काट लूंगी"नमिता टाल गयी.

इस पर मीरा हंस पड़ी, "माँ ,दीदी ने फैशन में नाखून बढाए हैं,

"नाखून तो बस चुड़ैलों के लम्बे होते हैं,ये चुडैलों वाला कौन सा फैशन आ गया ?"उन्हें  आश्चर्य हुआ.

"हा हा...चुडैलों का फैशन..माँ ,टी.वी. में नहीं देखा...अच्छा रुको तुम्हे किसी पत्रिका में दिखाती हूँ..."मीरा  हंसी से लोट-पोट हो रही थी.

और उन्हें अब माजरा समझ में आया कि नमिता लालटेन,लैम्प साफ़ करने से क्यूँ कन्नी कटाने लगी है,आजकल. गाँव में बिजली थी पर फिर भी नियम से कलावती,लालटेन और लैम्प के शीशे साफ़ किया करती थी .क्यूंकि शाम होते ही जो बिजली जाती वह सुबह चार-पांच बजे आया करती. लेकिन नमिता को उसका काम पसंद नहीं था और अम्मा जी के जमाने से ही यह काम उसने अपने जिम्मे ले लिया था. बाल्टी में सर्फ़  घोल कर सारे लालटेन लैम्प के शीशे ऐसे चमकाती की झक झक रोशनी निकलती उनसे. शाम होते ही अम्मा जी सारे लालटेन,लैम्प जलातीं और किसी बच्चे को आवाज़ देती,सांझ दिखाने को. अम्मा जी के गुजर जाने के बाद वे ही यह काम करतीं और उनकी आँखें  भर आतीं,बरसों से अम्मा जी का यह नियम था. पर शाम का ख़याल कर वे अंदर ही अंदर आँसू पी मीरा को आवाज़ देतीं.

मीरा लालटेन ले घर के हर कमरे में, कोठी और गोदाम वाले कमरे में भी सांझ दिखा आती.फिर बाहर जाकर 'हनुमान जी के पताके'के पास लालटेन रख हाथ जोड़ती. फिर लालटेन को तुलसी चौरा, गाय के बथान, बैलों के पास, उनकी नाद, चारा काटने की मशीन, घूरा (जहाँ अहाते को बुहार कर पत्ते लकड़ी इकट्ठा  किया जाता और उसे जला दिया जाता. जाड़े के दिनों में तो कई सूखी लकड़ियाँ, टूटी टोकरी सब इकट्ठा कर जलाया  जाता,और आस-पास के लोग जमा  हो आग तापते और किस्से कहानियाँ सुनाया करते एक दूसरे को.) सब  जगह दिखा आती.

पर आजकल अपने  हाथों और नाखून का ख्याल कर नमिता ने लालटेन और लैम्प की कालिख साफ़ करनी बंद सी कर दी  थी और आजकल गाँव में काम करने वालों का मिलना भी मुश्किल हो गया  था. अब नई उम्र के लड़के सब पंजाब और असाम कमाने जाने लगे थे और वहाँ  से पैसे भेजते .अब उनके घर मे भी चौकियां थीं, सब मच्छरदानी लगा के सोते, ट्रांजिस्टर पर गाना बजता रहता. और उनकी पत्नियां अब काम नहीं करती. बगीचे से जलावन भी इकट्ठा नहीं करतीं बल्कि जलाने की लकडियाँ भी पैसे देकर खरीदतीं.वरना पहले किसी को भी आवाज़ दे, ये छोटे मोटे काम करवा लिए जाते थे और बदले में थोड़ा अनाज भी  दे दिया जाता था.

इन सबके साथ ,नमिता की नीना से दोस्ती भी बढती जा रही थी. शहर  से आई नीना की दोस्ती का भी असर लगता ये सब. वरना नमिता जैसी लड़की खुद आगे बढ़कर , नीना से सखी लगाने को कहती,कभी?

सावन में एक ख़ास दिन गाँव की लडकियाँ जिसे पक्की सहली बनाना चाहतीं. उस से  चूड़ी, रिबन, नेलपॉलिश के उपहार की अदला बदली करतीं और फिर एक दूसरे को किसी फूल के नाम से पुकारतीं. एक दूसरे का नाम नहीं लेतीं. ज्यादातर लड़कियां एक दूसरे को गुलाब,चमेली,जूही, जैसे नामों  से बुलातीं . पर नमिता ने कभी किसी को ख़ास सहेली नहीं बनाया.लड़कियां उस से सिफारिश करतीं,

"चाची  उसे कहिये ना...मुझसे सखी लगाए"

"मुझे नहीं अच्छा लगता ये सब.....आज सखी लगाती हैं और कल लड़ाई हो जाती है तो उसी का नाम लेकर जोर जोर से चिल्लाती है"वह हाथ में कोई छड़ी या रस्सी का टुकड़ा लहराते हुए बोलती और गिल्ल्ली डंडा खेलने भाग जाती.
वही नमिता आज खुद से कह रही थी, "माँ इस सावन में नीना से सखी लगाऊं?"

नीना अच्छी लड़की थी,कई बार अपने भाई के साथ मोटरसाइकिल पर उनके घर आ चुकी थी. भाई छोड़कर तो चला जाता पर जब उसे लेने आता तो तीनो काफी देर तक बाहर बातें करते रहते या बाग़ में घूमने चले जाते.यह सब उन्हें नहीं सुहाता. उसकी नौकरी लग गयी थी लेकिन अभी इंजीनियरिंग का रिजल्ट नहीं आया था. वह गाँव में रहकर अपने रिजल्ट का इंतज़ार कर रहा था. अक्सर ही नीना को छोड़ने लेने आ जाता. और अब अगर 'सखी लगाने की इजाज़त दे दी ,तब तो आना जाना और बढ़ जायेगा.पर मना भी कैसे करें?

पति को यह परिवार ख़ास पसंद नहीं था,एक तो वे लोग बैकवर्ड जाति से थे,दूसरे नीना के पिता, पति के सहपाठी थे. किसी तरह खींच-खांच कर पास होते थे पर रिजर्वेशन के बल पर अच्छी नौकरी पा गए थे और अब बड़े अफसर बन चुके थे. पति को यह बात खलती थी.

कुछ ऐसा नज़र भी नहीं आ रहा था कि वह नमिता को उसके घर जाने से रोकें, वैसे भी कॉलेज के रास्ते में ही नीना का घर था. अब नमिता ने इंटर पास कर बी.ए. में एडमिशन ले लिए था और उनकी व्यग्रता अब बढ़ने लगी थी,पति से कहतीं कि लड़का देखना शुरू करिए, मनपसंद लड़का ढूँढने में समय भी तो लगना था. ममता और स्मिता का हाथ तो, मांग कर ले गए. पर अब वह पहले वाला ज़माना नहीं रहा. रिश्ते अब सिक्कों में तुल रहें थे और अब उनलोगों  के पास ज्यादा पैसे भी नहीं थे.

पर पति यह बात समझते नहीं,उन्हें कोई भी लड़का पसंद नहीं आता. कही लड़के का रूप, तो कहीं नौकरी और कहीं उसका घर. जहाँ सब कुछ पसंद आता वहाँ, दहेज़ की इतनी मांग होती कि उसे चुकाना उनके सामर्थ्य के बाहर की बात थी. एक बेटा तो विदेश ही चला गया था और एक अपनी गृहस्थी में मस्त था. दो अनब्याही बहनें घर बैठी हैं,इसकी कोई चिंता ही नहीं. प्रकाश,एक बेटा और एक बेटी का बाप भी बन चुका था. दोनों के जन्म पर वे गयी थीं.पर मेहमान सी ही रहीं. बहू के मायके के लोगों  का ही दबदबा था. बच्चे के लिए शौक से ले गयी चीज़ों को भी निकालने में उन्हें हीनता महसूस होती. किसी तरह रस्म निबटा चली आयीं वापस. बहू भी गाँव में दो दिन से ज्यादा नहीं  रूकती,गर्मी, मच्छर,ठंढ का बहाना बना वापस चली जाती.

पति निश्चिन्त थे कि उनकी बेटियाँ भाग्य्वाली हैं, अच्छा लड़का, घरबार मिल ही जायेगा.पर उन्हें बेटी में आते  परिवर्तन के लक्षण कुछ अच्छे नहीं लग रहें थे.. घंटों अँधेरे में बैठी गाने सुनती रहती. एक दिन तो वे कमरा बंद कर रही थी कि कहीं बिल्ली आकर दही ना खा जाए तो बोली..'माँ, मैं अंदर ही हूँ."खिड़की से थोड़ी चांदनी छिटक कर कमरे में फैली थी और वह उसी में गुमसुम बैठी,खिड़की से चाँद निहार रही थी. एकदम डर गयीं वे. दूसरे दिन ही गोपाल जी, जो उन्हें ख़ास पसंद भी नहीं थे, से कहा,"आप ही जरा अच्छे लड़के का पता कीजिये"  पर बात पैसों पर आकर रुक जाती, शादी का खर्चा,दान -दहेज़ सब कैसे पूरा होगा. अब अच्छी जमीन भी नहीं बची थी जिसे बेच कर सारे खर्चे पूरे किए जाएँ.

पति कहते, दो  साल में मैं रिटायर हो रहा हूँ, बस उसके बाद जो  पैसे मिलेंगे. उस से एक का ब्याह तो निबट जाएगा.पर उनका दिल धड़कता रहता इस बीच कोई अनहोनी ना हो जाए कहीं.

नीना के पिता का ट्रांसफर हो गया . नीना भी बी.ए. के इम्तहान तक रुकी थी, उसके बाद उसका परिवार वहाँ से चला गया तो उनकी जान में जान आई. दोनों सहेलियां ऐसे गले मिल कर रोयीं  जैसे सगी बहनें भी कभी क्या रोयेंगी.

पर अब तो मुश्किल और बढ़ गयी. नीना के फोन और ख़त आते रहते. जिस तरह से ख़त लेकर नमिता,छत पर भागती,उन्हें शुबहा तो होता ,पर क्या कहतीं. आजतक कभी उसके पत्रों की  जांच-पड़ताल की  ही नहीं. एकाध बार मन कड़ा कर किया भी तो कुछ नहीं मिला. इतने बड़े घर में वो कहाँ छुपा कर रखती,पता ही नहीं चलता. नीना के फ़ोन भी आते और घंटो बातें होती उनकी. कभी दूर से नमिता का लाल होता चेहरा और पैर से जमीन कुरेदते देख वे समझ  जातीं कि फोन पर नीना नहीं है. किसी बहाने कमरे में जातीं तो नमिता अचानक जोर जोर हंस कर बाते करना शुरू कर देती. सब उनकी समझ में आ जाता. एक दिन उन्होंने सोचा, पानी सर से ऊपर जाए इस से पहले , अब नमिता से साफ़-साफ़ पूछ ही लेना चाहिए.

दो तीन दिन यही सोचते गुजर गए कि बात शुरू कैसे  की जाए. और एक दिन यूँ ही तबियत नहीं ठीक लग रही थी और वे अपने कमरे में लेटी थीं कि नमिता आई. उन्होंने कहा, "लालटेन लेती आ, अँधेरे में क्यूँ आ रही है?"

"ना माँ रहने दो...मुझे तुमसे कुछ बात करनी है ?"नमिता की आवाज़ की गंभीरता से वे चौंक जरूर गयीं,पर कुछ बोलीं नहीं.

उनके पास पलंग पर बैठ,नमिता ने ही शुरुआत की, "माँ, नरेंद्र मुझसे शादी ,करना चाहता है "

"हम्म..."

"जब से उसकी नौकरी लगी है, उसके घर वाले बहुत दबाब डाल रहें हैं, मुझे कब से कह रहा है,तुमलोगों से  बात करने को...पर मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी."

"नरेंद्र शादी करना चाहता है...और तुम ?"

पर नमिता  चुप रही, अँधेरे में उसका सल्लज चेहरा तो नहीं देख सकी ,पर उसकी ख़ामोशी ने ही सब कह दिया.

"नमिता तुझे पता है,ना...वे लोग अलग जाति के हैं...पापाजी ज्यादा पसंद भी नहीं करते उन्हें...वे मानेंगे??"

"माँ,  भैया लोगों की शादी भी तो हमारी जाति में नहीं हुई "

"हम्म ..."वे कैसे बताएं कि उनके पैसों की चमक में उनकी जाति का नाम धुंधला पड़ गया था .

"बड़के भैया को तो पापाजी ने मना नहीं किया...और छोटके भैया की शादी के लिए तो खुद ही, हाँ कहा....और माँ तुमको पता है,नरेंद्र भी इंजिनियर है,अच्छी कंपनी में काम  करता है....फिर क्यूँ मना करेंगे?"

"मैं बात करती हूँ..."उन्होंने कह तो दिया पर आशंका थी कि पति को मना पाएंगी या नहीं.

"माँ आज ही करना..नरेंद्र बहुत परेशान है...उसके परिवार वाले उसकी शादी के पीछे पड़े हैं....यहाँ से  हाँ हो तब वो अपने घर में बात करे"नमिता ने कहा और बाहर चली गयी.

उन्होंने भी सोचा दुविधा में रहने से क्या फायदा....और उसी रात पति से कह डाला पर  जो हुआ उसकी अपेक्षा तो उन्होंने कभी नहीं की थी. शांत-चित्त ,किताबों में खोये रहने वाले, मित-भाषी पति का ऐसा रौद्ररूप पहली बार देखा. चीखने -चिल्लाने लगे,  "सब तुम्हारी शह है....इस लड़की के लच्छन तो शुरू से ही नज़र आ रहें थे.जब देखो..पूरे गाँव में घूमती रहती थी और अब ये हाल है...तुम्हे तो नज़र रखना चाहिए था...अब भुगतो, अपनी छूट का नतीजा. मैं तो दिन भर घर से बाहर  रहता हूँ, एक लड़की नहीं संभाल सकी तुम"

"अरे धीरे बोलिए..."

"क्या बोलूं धीरे...अब कल को गाँव में फैलेगी ये बात,कहीं मुहँ दिखाने के लायक नहीं रहेंगे...जमीन-जायदाद गयी, बाग़-बगीचे गए...एक इज्जत बची थी ,उसे भी यह लड़की नीलाम करने पर तुली है"

"इज्जत क्यूँ नीलाम होगी...अगर बाजे-गाजे से लड़की को विदा करेंगे तो...किस का मुहँ रहेगा, कुछ कहने का...आखिर प्रकाश, प्रमोद की शादी भी तो दूसरे जात में हुई."

"वे हमारे बराबर की जात के थे...और उनकी लड़की लेकर आए हम..अपनी लड़की नहीं दी...और वो भी उस छोटी जात में...ये कब्भी नहीं होगा...कह दो उसे...हाथ-पैर तोड़ के घर में बिठा दूंगा ....नहीं तुम क्या कहोगी...तुम्हे समझ होती तो बेटी को संभाल कर नहीं रखती...बुलाओ उसे...नमिताss...नमिताsss..."जोर से गरजने लगे.

नमिता आई और सर झुका कर खड़ी हो गयी,पर कंधे बिलकुल तने हुए थे. मीरा भी उसके पीछे कांपती हुई सी  आकार खड़ी हो गयी.

"इसीलिए तुम्हे कॉलेज भेजा?....मैं उतनी दूर भेज सकता हूँ तो कमरे में बंद करके भी रख सकता हूँ...खबरदार जो तुझे देखा है, घर से बाहर कदम रखते...यही सब देखना बाकी था खानदान की इज्ज़त मिटटी में मिला दी..."पति गुस्से से काँप रहें थे.

"जब भैया लोगों  का दूसरी जात में ब्याह हुआ तब खानदान की इज्जत नहीं खराब हुई.??."नमिता ने  सर झुकाए ही पर सधे शब्दों में कहा .और पति गुस्से से पागल हो उठे.

"जुबान चलाती है....बाप को जबाब देती है...हाँ कॉलेज में पढ़ी , है ना...यही सीखा है...देखता हूँ  मैं भी..ये सब टेलीफोन और टी.वी का असर है...देखता हूँ अब कौन इस घर में टी.वी. देखता है. अभी फोड़ देता हूँ टी.वी. ....कहाँ है टेलीफोन मैं अभी तार काट देता हूँ..."और दूसरे कमरे की तरफ बढे. उन्होंने रोकना चाहा तो इतनी जोर से उन्हें  धक्का दिया कि गिरते गिरते बचीं. मीरा रोती हुई उन्हें आकर संभालने लगी. नमिता वैसे ही सीधी अपनी जगह पर खड़ी रही.

पति ने टेलीफोन के तार खींच कर निकाल डाले...टी.वी. के तार नोच डाले. फिर हताश पलंग पर गिर पड़े.

वे डर के मारे दूर ही बनी रहीं. दोनों लडकियाँ भी अपने कमरे में  चली गयीं. वे समझ रही थीं, पति की हताशा ये सब हरकतें करवा रही थी,उनसे. लड़कों को पढ़ाने में  जमीन-जायदाद बिक गए. लड़के अपनी गृहस्थी में मगन थे. दो अनब्याही लडकियाँ घर बैठी थीं. अच्छा लड़का वे खोज नहीं पा रहें थे, रिटायरमेंट का समय नजदीक आ रहा था. मन में चल रही यही सब परेशानी लावा बनकर फूट निकली और बहाना नमिता बन गयी.

दोनों लडकियाँ अपने कमरे में चली गयीं. आज तो चार जोड़ी आँखें छत देखते ही रात बिताने वाली थीं.

दूसरे दिन पति ने हमेशा की तरह, सुबह सब्जियों की क्यारियाँ ठीक की..पीले पत्ते तोड़े..फिर नहा-धोकर  बिना खाना खाए स्कूल चले गए. मीरा ने देखा और उन्हें आश्वस्त किया, "माँ वे चपरासी से मँगा कुछ खा लेंगे...तुम चिंता मत करो...मुझे खाना दो...कॉलेज के लिए देर हो रही है"बेटियाँ बिना बोले ही समझ जाती हैं, माँ के दिल का दर्द.

नमिता अब तक बिस्तर से उठी नहीं थी. सो तो क्या रही होगी. वे पास में बैठ  उसका सर सहला कर उठाने लगीं .वह उनका हाथ झटक कर पलंग से उतरी और कमरे से बाहर चली गयी. मन रुआंसा हो गया, दोनों उस पर ही गुस्सा हैं..... जबकि दोनों तरफ से वे ही बात संभालने की कोशिश कर रही हैं. फिर मन को समझाया ,आखिर किस पर गुस्सा उतारेंगे ये लोग,जिसे अपना समझेंगे उसी पर,ना. अब राह चलते लोगों पर तो  गुस्सा नहीं उतार नहीं सकते.

घर में शान्ति छाई रहती, पति फिर समय से खाना खाने लगे थे. पर बात बिलकुल नहीं करते. बस अखबार और  किताबें पढ़ते रहते. नमिता भी घर से बाहर नहीं निकलती,  दिन भर छत वाले कमरे में  रेडिओ लिए पड़ी रहती. खाना भी बस टूंगती  भर. टेलीफोन और टी.वी. के तार वैसे ही नुचे हुए पड़े थे. टेलीफोन की घंटी  ही बजती तो किसी से बात तो होती. टी.वी. भी नहीं चलता. नहीं तो घर के सारे लोगों के एक साथ बैठने का बहाना तो था एक.

सब अपने में गुम से रहते. सिवनाथ माएँ भी टोक देती.".का बात है सबलोग ऐसे चुप्पा काहे लगाए बैठे हो."पर उनकी बात हवा में ही खोकर रह जाती.

चार-पांच दिनों बाद फिर नमिता ने बाहर निकलना शुरू किया तो उन्हें थोड़ी राहत हुई. बाग़,नहर की तरफ कभी मीरा के साथ,कभी अकेली घूम कर आ जाती. एक दो बार उन्होंने उसे समझाने की कोशिश भी की, "हमेशा मनचाहा कहाँ हो पाया है, मुझे नहीं लगता नरेंद्र के घरवाले भी तैयार होते. उन्हें भी अच्छा दहेज़ मिलेगा...वे कब्भी ये मौका नहीं छोड़ेंगे...सबको पैसे का लालच होता है...नरेंद्र भी समझ जायेगा.ये सब बचपना  है, ज़िन्दगी में कई समझौते करने पड़ते हैं."नमिता कुछ जबाब नहीं देती पर उनकी बात भी नहीं सुनती ,वहाँ से उठ कर चली जाती.

गोपाल जी का आना जाना बढ़ गया था और शनिचर, इतवार को पति उनके साथ बाहर चले जाते. उन्हें लग रहा था.अब वे जोर-शोर से नमिता के लड़के के लिए तैयारी की खोज में हैं.पर उन्हें कुछ नहीं बताते और उन्हें गोपाल जी से पूछना अच्छा नहीं लगता.क्या कहते वे कि उन्हें अपने घर की  ही बातें नहीं पता. पर नमिता  के मामले में पति अभी भी उन्हें ही दोषी समझ रहें थे कि उन्होंने ही नज़र नहीं रखी.

नमिता को भी कई बार, पति के ब्रीफकेस के कागज़-पत्तर देखते हुए देखा,उन्होंने. सोचा,चलो अच्छा है, नमिता को भी पता तो होना चाहिए कि कहाँ बात चल रही है. अगर उसे कुछ  नहीं अच्छा लगे तो वो बता सकती  है. पर उन्हें ये नहीं पता था कि नमिता के इन कागजों को टटोलने का कुछ और ही नतीजा निकलेगा.

सुबह की तैयारियों में ही लगी थीं, कि मीरा दौड़ी हुई आई, "माँ....माँ ये देखो..."
उसके हाथों में एक कागज़ था. "क्या हुआ..इतना घबराई हुई सी क्यूँ है...??"

"माँ..माँ दीदी..."और मीरा के आँसू छलक आए.

उनका कलेजा बैठ गया, मीरा का कन्धा थाम लिया.."क्या हुआ....जल्दी बोल.."

"माँ....दीदी, घर छोड़ कर  चली गयी..."

"क्याssss.....    "वे वहीँ जमीन पर ही धम्म से बैठ गयीं.

लिखा है..."माँ, मैने बहुत कोशिश की लेकिन अब और कोई रास्ता नहीं था....नरेंद्र के घरवाले भी नहीं मान रहें. मैं नरेंद्र के साथ, उसकी नौकरी पर  जा रही हूँ.....हो सके तो माफ़ कर देना.'माँ ,बस दो लाइन ही लिखा है "...मीरा के आँसू बह चले.

उसी समय पति सुबह की बागबानी कर अंदर आ रहें थे. उन्हें यूँ जमीन पर बैठे और पास खड़ी रोती मीरा को देख उसके हाथों से कागज़ ले पढ़ा और सर पे हाथ मार वहीँ कुर्सी पर गिर पड़े.

थोड़ी देर बाद उठे और अंदर चले गए , वे घबरा कर पीछे से गयीं तो देखा,पलंग की पाटी पर सर झुकाए हुए हिलक हिलक कर रो रहें हैं. उन्होंने डरते हुए उनके कंधे पर हाथ रखा...तो दिल को चीर कर रख देने वाली आवाज़ में बोले..."इस लड़की ने कहीं का नहीं छोड़ा,ममता की माँ...क्या मुहँ दिखायेंगे हम गाँव में"

वे क्या कहती वे भी रोती हुई पलंग पर बैठ गयीं.

पर उन सबमे मीरा ही सबसे दिलेर निकली. थोड़ी देर बाद कमरे में आई, "इतना रोना-पीटना क्यूँ मचा हुआ है. कोई मर नहीं  गया है, चलो, माँ  हाथ मुहँ धो...पापा जी मैं चाय लेकर आ रही हूँ "और वह चाय बनाने चली गयी.

पति ने कहा, "प्रकाश से बात करता हूँ..."और टेलीफोन के नुचे तार ठीक करने लगे. किसी तरह तार जुड़ा और प्रकाश को फोन लगाया, इतनी  खडखडाहट, कि आवाज़ ना सुनाई पड़े.
प्रकाश ने सुना और  बोला,"पापा जी क्या कर सकते हैं...नमिता २१ साल की हो गयी है. बालिग़ है. हमलोग कुछ नहीं कर सकते...हाँ, समझा बुझा कर घर ला सकते हैं, कहिये तो पता करूँ...कोशिश करता हूँ.पर शादी तो उस लड़के से ही करनी पड़ेगी पर ये है कौन...नमिता कैसे जानती है उसे..."

"उसकी शादी तो  मैं नहीं कर सकता...उस छोटी जाति का लड़का मेरा दामाद बनेगा ...ये मैं नहीं बर्दाश्त कर सकता ....ये लो अपनी माँ से पूछो...इन्हीं के नाक के नीचे सब होता रहा...और इनको कुछ मालूम ही नहीं..खाली खाना बनाने और कपड़ा सहेजने में ही लगी रहीं.."पति ने हिकारत से उनकी तरफ देखा और फोन पकड़ा दिया.

उनके आँसू निकल आए पर पीती हुई बोलीं, "उसकी सहेली का भाई है...इंजिनियर है...किसी कंपनी में नौकरी करता है...बेटा यहाँ तक बात पहुँच जायेगी,मुझे नहीं पता था..."

"वो हो गया माँ...अब आगे क्या करना है सोचो...मैं पता कर सकता हूँ...पर, घर लाकर उसकी शादी तो उसी लड़के से करनी पड़ेगी...पर पापा जी मान नहीं रहें. "

"बेटा पता करो..कहाँ गए है...लड़के के घर वाले भी तैयार नहीं  थे.....दोनों अकेले पता नहीं कहाँ गए हैं?"

"उसकी चिंता मत करो,माँ..लड़का नौकरी में है तब सब इंतज़ाम कर लिया होगा....यार दोस्त होंगे साथ में..मंदिर में या कोर्ट में शादी भी कर लेंगे...पापा जी मान ही नहीं रहें...नहीं तो मैं कोशिश करता..."

"लो...अपने पापा जी से ही बात करो..."

फिर दोनों बाप-बेटे में कुछ देर बात हुई...और पति ने कहा.."ठीक है तुम ऑफिस जाओ.."
तभी मीरा चाय लेकर आई...और पति ने कहा..."जाओ पिलाओ अपनी माँ को...मुझे नहीं चाहिए "
और छत की सीढियां चढ़ ऊपर कमरे में चले गए.

काफी देर तक वह अवसन्न सी बैठी रहीं फिर नहा धोकर पूजा घर में जाकर बैठ गयीं. यही प्रार्थना की भगवान से..."जहां  भी हो ..मेरी बेटी को सुखी रखना, भगवान"

पति स्कूल नहीं गए, खाना भी नहीं खाया...वे भी परेशान सी बैठी रहीं. सोच रही थीं ,गाँव वालों से कह देंगी...'नमिता बम्बई  गयी है..स्मिता के पास...पता तो चलना ही है,एक दिन ,उँ सबको पर जब तक टाली जा सके....'

पर गाँव वालों को सारी खबर हो गयी. दिलीप  और मनमोहन की माँ , सीधा आँगन में आ गईं...और जोर जोर से बोलने लगीं..."ममता माँ..नमिता कहाँ है...घर में नहीं है..का"

वे कुछ कहतीं,इस से पहले ही उनमे से एक बोली..."त ठीके, कह रहा था मनमोहना....सुबह वाली बस से उतरा...तांगा मिला नहीं,पैदले आ रहा था तो देखा कि नमिता एगो बैग लिए कौनो लरिका के साथ मोटरसाइकिल पर जा रही है...मैने  कहा,...ना तूने ठीक से नहीं  देखा होगा...कौनो  और लरकी होगी.....पर इहाँ त सच्चे में नमिता घर में नहीं  है...कौन लरिका था....??"

वे सर झुकाए चुप रहीं. तो उनके करीब आ कंधे पर हाथ रख के बोली..."कुल का नाम डूबा गयी लड़की....कालिख पोत गयी अपने खानदान के मुहँ पर....अब रोने के सिवा का करोगी...उसका लच्छन त सुरुये से ठीक नहीं था "

"कौन बिसबास करेगा....बिसेसर बाबू की पोती....मास्टर साहब की बेटी...एगो भाई, इंजिनियर एगो डागदर और उस लरकी का  ई लच्छन ...ई सब जादा पढ़ाने का नतीजा है...अब छोटकी को संभालो...बंद कर दो इसका भी कॉलेज जाना..."..दूसरी बोलीं.

वे सर झुकाए सब सुनती रहीं...पर मीरा से बर्दाश्त नहीं हुआ...बाहर आ बोली, "चाची..दीदी ने चोरी की है....डाका डाला है, किसी को सताया है.....खून किया है, किसी का??...ऐसा  क्या किया है कि कालिख पुत गयी. और ये सब  आपलोग, गांवालों के चलते ही हुआ..कि आपलोग दूसरी जाति में शादी करने से हँसेंगे. नहीं तो पापा जी मान जाते और दीदी को ऐसे नहीं  जाना पड़ता..."

"अरे बाप रे...छोकरी की बोली  तो देखो....बित्ता भर की लड़की और गज भर की जबान...हम त तुम्हारी माँ को दिलासा देने आए थे....पर ये लड़की तो हमें ही भाषण दे रही है...इनरा  गांधी बनी बैठी है...चलो मनमोहन की माँ...इनके घर का चाल ही निराला है..."

वे लोग बाहर निकली तो चार औरतें उनके ही घर की तरफ टकटकी लगाए,  खड़ी थीं ...ये दोनों औरतें उनसे हाथ चमका कर बोलने लगीं, "अरे जाओ जाओ...अपने घर,  अपना काम देखो...यहाँ किसी को कोई दुख नहीं है...कुछ बोलोगी तो वो इनरा गांधी बैठी है, भाषण देने लगेंगी."

मीरा ने दरवाजा बंद कर दिया. बरसों में पहली बार दिन में इस घर के दरवाजे बंद हुए.

पति दिन भर वैसे ही बिना खाए पिए पड़े रहें....शाम को मुश्किल से दो निवाले खाए  और सोने चले गए.

दूसरे दिन मीरा कॉलेज जाने को तैयार होने लगी तो उन्होंने मना किया, "कुछ दिन मत जा...लोग बातें बनायेंगे "

मीरा फिर भड़क उठी.."माँ मुझे कोई डर नहीं, जो मुझे एक कहेगा....वो दो सुनेगा....दीदी ने कोई अपराध नहीं किया है....मुझे तो बस ये अफ़सोस है, दीदी को मुझपर भरोसा नहीं था...मुझे कुछ भी नहीं बताया उसने "कहती उसकी आँखें भर आईं. हैरान रह गयीं वो..इतनी छोटी उम्र में कैसी कैसी बातें करती है वो...इतनी किताबें जो पढ़ती रहती है. लगता था,मीरा एक रात में ही बड़ी हो गयी.

पति भी सर झुकाए, स्कूल जाते. लोग जानबूझकर रास्ते में राम-राम बोलते कि आगे टोकें.पर पति जबाब ही नहीं देते उनकी राम-राम  का कि आगे बात बढे.

दो दिन बाद फोन की घंटी बजी..पति ने ही फ़ोन उठाया और जिस तरह से चिल्ला पड़े, दिल दहल  गया उनका. नमिता का फ़ोन था. पति ने बहुत बुरा-भला कहा और यहाँ तक कह दिया, "मेरे मरने के बाद ही  इस घर में कदम रखना. जीते जी, अपना चेहरा भी मत दिखाना कभी और आज के बाद,कभी फोन करने की कोशिश मत करना "वे दौड़ती हुई गयीं.."ये क्या कह रहें हैं....मुझे फोन दीजिये..."पर पति ने फोन पटक दिया था.

बहुत दुख हुआ उन्हें,. किसी के साथ इतने बरसों तक रहकर भी उसे पूरी तरह नहीं जाना जा सकता. धीमा बोलने वाले, अच्छी अच्छी किताबें पढनेवाले, शिक्षक पति का असली रूप ये है? जब बेटों की शादी में दहेज़ नहीं लिया, दूसरी जाति की बहू लाने को तैयार हो गए, बेटियों को कॉलेज में पढने भेजा  तो कितना गर्व हो आया था उन्हें पति पर. लेकिन नमिता के साथ उनका व्यवहार देख ,ऐसा लग राह था किसी अजनबी के साथ वे इतने दिनों रहती आयीं, पहचान में ही नहीं आ रहें थे. अपनी गोद में खेली संतान के साथ कोई ऐसा कर सकता है,भला.
(क्रमशः )

उदास आँखों में छुपी झुर्रियों की दास्तान (भाग -13)

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(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे,अपना  पुराना जीवन याद करने लगती हैं.उनकी चार बेटियों  और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजिनियर था,उसने प्रेम विवाह किया. छोटा बेटा डॉक्टर था, एक अमीर लड़की से शादी कर, उसके  विदेश चला गया. तीसरी बेटी नमिता ने दूसरी जाति के लड़के से घर से विरोध होने पर,घर से भागकर शादी कर ली)

गतांक से आगे

नमिता के जाने के बाद घर बिलकुल भुतहा लगने लगा था. लोगों का आना-जाना वैसे ही कम हो गया था. ये दोनों बाप-बेटी किताबों में खोये रहते. ना घर में रेडियो पर  गाने गूंजते और ना टी.वी. चलाने का ही किसी को शौक था. अक्सर बैटरी चार्ज करने का ही ध्यान नहीं रहता. वे ही याद करके मीरा को बोलतीं, तो लगा देती चार्जर या फिर भूल जाती. ज़िन्दगी ठहर गयी सी लगती थी. ममता और स्मिता जब विदा होकर गयीं  तो उनके बाकी बच्चे छोटे थे, अम्मा-बाबूजी भी जिंदा थे, काम में बेटी का विछोह भूली रहतीं.

पर अब तो चारो तरफ उन्हें नमिता ही दिखती. कभी सीढियों से उतरती हुई, कभी तेज तेज हैंडपंप चला चेहरे पर छींटे मारती हुई तो कभी चारपाई पर लेटी तारों में जाने क्या खोजती हुई सी...जब दुबारा फिर देखती, तो सूनी सीढियाँ,शांत हैंडपंप और खाली चारपाई ही नज़र आती. अंदर के सन्नाटे  से घबराकर बाहर देखती तो एक बार लगता जैसे, अमरुद के पत्तों  के बीच कोई लाल रिबन झाँक रही है, फिर ठंढी सांस भर कर रह जाती,पता नहीं शहर में कैसी होगी,उनकी बिटिया इन पेड़-पौधों , खेत-खलिहानों के बिना.

पर एक दोपहर स्मिता का फोन आया. वे डर ही गयीं क्यूंकि स्मिता तो हमेशा ,रात ग्यारह के बाद ही फोन करती थी,तब पैसे कम लगते थे. भरी दोपहर को  फोन किया कुछ अघटित तो नहीं घट गया.मन आशंका से काँप उठा. स्मिता ने  धीरे से पूछा, "कोई आस-पास तो नहीं?"उनके 'ना'कहने पर उसने ख़ुशी से चीखते  हुए बताया, "माँ,नमिता का फोन आया था, नरेंद्र  ने भी बात की. नमिता बहुत रो रही थी...सबका हाल-चाल पूछ रही थी..... दोनों ठीक है, गृहस्थी बसा ली है. मुझे बुलाया है...मैं तो यहाँ नहीं बुला सकती..मेरे सास-ससुर हैं पर मैने संजीव से बात की, वे  मान गए हैं....जाकर एक बार दोनों को देख आउंगी"

उनकी आँखों से आँसू बह चले, चलो ठीक है लड़की. अब स्मिता से उसकी खबर मिलती रहेगी.

उनका चेहरा ख़ुशी से इतना  खिला-खिला था कि शाम को पति ने भी दो बार नज़रें उठा कर देखा,पर वे जल्दी से किसी काम में लग गयीं.
रात में चुपके से मीरा को बताया वो भी बहुत खुश हुई...'माँ कुछ दिन बाद पापा जी का गुस्सा शांत हो जायेगा तब दीदी घर आ  सकेगी, ना ?"

"क्या पता बेटा...."एक गहरी सांस ली उन्होंने. पति तो कभी नाम भी नहीं लेते उसका. और जो बातें उन्होंने नमिता को फोन पर बोली हैं, कैसे बताएं इस नन्ही लड़की को जो बातें बस बड़ी बड़ी करती है.

नमिता के जाने के बाद मीरा भी  बहुत अकेली पड़ गयी थी. गाँव में ,कॉलेज में, यूँ भी उसका कोई दोस्त और सहेली नहीं थे. सब उस से थोड़ी  दूरी रखते थे. हमेशा फर्स्ट आती क्लास में. टीचर्स भी बोलते कि ये तो प्रकाश,प्रमोद से भी ज्यादा तेज है. अंग्रेजी की  किताबें  धडाधड पढ़ जाती , स्कूल, कॉलेज  में कोई जरूरी चिठ्ठी लिखवानी हो तो शिक्षक भी उसे बुलाते, लिखने को. टी.वी. पर देर रात तक वो अंग्रेजी की बहस देखा करती.

सिवनाथ माएँ,कलावती सब उसे टोकती रहतीं..."क्या करोगी इतना दिन-रात पढके?...सादी  के बाद तो रोटी पकाने  और बच्चे ही संभालने होंगे...उहाँ ई किताब का ज्ञान काम नहीं आएगा.."

मीरा सिर्फ हंस देती.."तुम देखो, काकी मैं क्या क्या करती हूँ...."

"बस बिटिया भगवान जिंदा रखें...तुम्हारे बच्चे खिला लूँ,गोद में...फिर ले जाए, जमदूत "

"चुप रहो.....भरी सांझ को क्या बोल रही हो.."वे टोक देतीं,पर देखती सचमुच कितनी बूढी लगने लगी
हैं..उनसे २,३ साल ही बड़ी होंगी. इनलोगों की १२,१३ वर्ष की  उम्र में तो शादी हो जाती, १४-१५ साल में माँ बन जातीं, फिर कड़ी मेहनत और रुखा सूखा खाना , ३० में ही बुढ़ापा आ घेरता और ५० तक पहुँचते पहुँचते झुरकुट बुढ़िया लगने लगतीं.

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मीरा के बी.ए.के इम्तहान हो गए फिर भी वह पढ़ाई में वैसे ही गुम रहती, अब प्रकाश उनलोगों के अकेलेपन का ख़याल कर कभी कभी घर आने लगा था. उसके बच्चों को गाँव बहुत अच्छा लगता. इतनी खुली जगह...दौड़ने खेलने की छूट, पढ़ाई से छुट्टी, बहुत भाती उन्हें. बेटा राज़, तो अपने लाये खिलौनों को हाथ भी नहीं लगाता और टूटी टहनी, रस्सी के टुकड़े, टोकरी किन किन चीज़ों से वह नए नए तरीके से नहीं खेलता. एक लकड़ी के टुकड़े पर रस्सी बाँध किसी ऊँची जगह पर चुपचाप बैठ जाता.वे पूछतीं,

"यूँ अकेले चुपचाप बैठकर क्या कर रहा है??"

तो कहता,"फिशिंग कर रहा हूँ "

वे नहीं समझ  पातीं तो प्रकाश हँसता हुआ समझाता, "माँ, वो मछली मार रहा है"

"राम राम...ये कौन सा खेल है...यही बनेगा क्या बड़ा होकर"

"माँ, लोग शौक से भी मछली मारते हैं .."

"शौक से क्यूँ..."

"वो सब छोडो बताओ खाने  में क्या है...."प्रकाश बस जैसे खाने और सोने को ही आता. शहर की भागदौड़ वाली ज़िन्दगी से दूर यहाँ बहुत सुकून मिलता उसे. शाम होते ही छत पर चला जाता और एक चटाई पर लेट आकाश देखता रहता.

बिटिया 'रिनी'सारे घर में ठुमक ठुमक घुमा करती.जब वे रात में  उसके पैरों में तेल लगा मालिश करती हुई उसे राजा-रानी और परियों की कहानी  सुनातीं.तो वह अपनी नींद भरी आँखें खुली रखने की कोशिश करती रहती."अब सो जा,कल सुनाउंगी  कहानी,"कहने पर भी वो अपनी अधमुंदी आँखों से ही 'ना'का इशारा करती.

 एक प्रीति का मन शायद उतना नहीं लगता पर बच्चे जिद करते.."...मम्मा कुछ दिन और यही रहेंगे"  और उसे रुकना  पड़ता. वह भी मीरा की किताबें उलट पुलट करती रहती और मीरा से ही बातें करती रहती.

मीरा के बी.ए.का रिजल्ट आया और वह कॉलेज में ही नहीं,यूनिवर्सिटी में प्रथम आई. मीरा को भी विश्वास नहीं होता. बार-बार कहती, "अच्छे नंबर मिलेंगे ये तो सोचा था पर फर्स्ट क्लास फर्स्ट ...ये नहीं सोचा था कभी"

पति भी बड़े खुश थे,बड़ी सी हंडिया में रसगुल्ले लेकर आए और बहुत दिनों बाद शाम को कुर्सी निकाल अहाते में बैठे.

कॉलेज में भी सारे प्रोफ़ेसर बड़े खुश थे. उन्होंने कॉलेज के वार्षिक उत्सव में  मीरा को पुरस्कार देने की योजना बनायी.... माता-पिता दोनों को बुलाया. वे तो कभी जानने वालों के  सामने यूँ मुँह उघारे  नहीं गयीं.उन अजनबी लोगों के बीच कैसे बैठेंगी? उनके तो पैर काँप रहें थे.

पति से कहा तो उन्होंने घुड़क दिया, "क्या गंवारो जैसी बातें कर रही हो...इतनी उम्र हो गयी....बेटा विदेस में,बेटी मुंबई में और तुम्हे डर लग रहा है??"

"मन हुआ कहें..सारी उम्र तो गाँव में रहीं तो शहरियों  जैसी बातें कैसे करेंगी....और उम्र से डर का क्या रिश्ता?"...पर चुप रहीं.

मीरा उनकी घबराहट भांप गयी. और काफी देर तक उनका हाथ पकड़ कर बैठी रही. थोड़ी देर में वे भी सहज हो गयीं और कार्यक्रम का आनंद लेने लगीं. जब मीरा के नाम की घोषणा के साथ प्रिंसिपल ने उसकी तारीफों के पुल बांधे तो आँखें भर आई उनकी. कभी कभी कितना धोखा दे देती हैं, आँखें. दुख हो,सुख हो, नाराज़गी हो  ,बेबसी हो , गर्व हो जब देखो भर आती हैं.

000

प्रकाश, अब जब घर आने लगा था तो उन्होंने मीरा के लिए लड़का देखने की बात उसी से कही. कहने लगा ,"माँ अब जमाना बदल रहा है...मीरा इतनी तेज़ है पढने में...आगे पढना चाहती है...पढने दो,नौकरी करने दो....फिर देखेंगे उसके लिए लड़का...आजकल अच्छे लड़के भी खूब पढ़ी लिखी लड़की ही चाहते हैं जो जरूरत पड़ने पर नौकरी कर घर भी  संभाल सके."

यह नई बात थी उनके लिए,पर जब पूरा घर ही एकमत है तो वे क्या  कह सकती थीं. पति भी बेटे की हाँ में हाँ मिलाते रहते. जैसे अपनी जिम्मेदारियां उसके सर पर डाल निश्चिन्त हो गए हों. रिटायर होने के बाद, पूरा ध्यान बागवानी में ही रहता. नई नई किस्मों के फूल और अलग-अलग सी सब्जियां लगाते. कुछ सब्जियां तो तो उन्हें बनानी  भी नहीं आतीं . किताबों में पढ़कर मीरा  बताती, कैसे बनाते हैं.

अब बस किताबें ही उसकी साथी थीं. कुछ बिजनेस मैनेजमेंट करेगी,ऐसा कहती .वे समझ नहीं पाती,पढ़-लिख कर कैसे बिजनेस करेंगे. कुछ खरीदने -बेचने के लिए पढ़ाई की क्या जरूरत...पर होगा  कुछ.  नए जमाने की बहुत सारी बातें उन्हें समझ में नहीं आतीं. प्रकाश मोटी मोटी किताबें भेजता रहता उसके लिए. डाक से भी कुछ कागज़-पत्तर आते. कहती डाक से कोचिंग कर रही है. अब पढ़ाई भी चिट्ठी-पत्री से  शुरु हो गयी. अब इसी ज़िन्दगी में पता नहीं और क्या क्या देखेंगी वे.

मीरा परीक्षा देने शहर गयी. रिजल्ट आया तो पता चला उसका अच्छे कॉलेज में चयन हो गया है. वे डर रही थीं.अब उसे हॉस्टल में रखने का खर्चा कहाँ से आएगा??. बेटों  के सामने मुहँ तो नहीं खोलना पड़ेगा?? पर मीरा ने पहले से ही  सब कुछ तय कर रखा था.प्रकाश से बात कर ली थी और उसके शहर के कॉलेज में ही एडमिशन लिया. वह प्रकाश के घर ही  रहने वाली थी. उनकी छाती से चिंता का बोझ उतर गया. लड़की बड़े भाई की सुरक्षा में रहेगी.अब और क्या चाहिए.

मीरा के जाने के बाद तो अब घर काट  खाने को दौड़ता. वे भी पति के पीछे पीछे बागवानी में रूचि लेने लगीं. सुबह घंटा भर रामायण पढ़तीं पर फिर भी समय काटे नहीं कटता. पहले सारा दिन बच्चों को घर फैलाने के लिए डांटा करती थीं.अब एक बार सहेज देतीं तो हफ़्तों चीज़ें वैसी ही संभली हुई रहतीं. बस धूल की परत जमा होती रहती,उसे झाड़ते हुए आँखें फिर एक बार लबालब हो जातीं.

बस फोन की घंटी का इंतज़ार होता. रोज़ किसी ना किसी बच्चे का फोन आ ही जाता. फिर भी नमिता की आवाज़ सुनने को कान तरसते रहते......पर उसने भी पिता की डांट को दिल पे ले लिया था. भूले से भी कभी कोशिश नहीं करती, या फिर डरती थी कि कहीं फिर से पिता ही ना फोन उठा लें...जो भी हो पर इन  पिता-पुत्री के अहम् के पाट के बीच  एक माँ का दिल पीसा जा रहा था.

इस बार फोन की घंटी बजी और दूसरी तरफ...नन्ही 'रिनी'थी . उसका जन्मदिन आ रहा था और उसने जिद की कि इस बार दादा-दादी को उसके जन्मदिन पर आना ही है. उनका भी मन मीरा से मिलने को तरस रहा था. पति भी मान गए. पहली बार दोनों लोगो ने  अकेले जाकर शहर से खरीदारी की. उन्हें तो रिक्शे पर भी साथ बैठने में लाज आ रही थी. पति ने भी दूसरी तरफ मुहँ घुमा रखा था. ढूंढ ढूंढ कर उन्होंने बच्चों के लिए शहरी डिजाइन के कपड़े ख़रीदे . डर था, ऐसा ना हो ,बहू को पसंद ना आए तो वो पहनाये ही नहीं. ढेर सारे खिलौने लिए दोनों के लिए और जन्मदिन से एक दिन पहले बेटे के यहाँ पहुँच गए.

इतने लम्बे सफ़र की आदत नहीं थी.थक सी गयी थीं वे. पूरा दिन तो लेटे ही बीता. रात को भी पूरी तरह आराम करने के बाद, तबियत थोड़ी संभली लगी.आदतवश अल्ल सबेरे ही नींद खुल गयी. रसोई में बत्ती जलती देख और खटर-पटर होते देख सोचा,'अरे बहू इतनी जल्दी जाग गयी है, शहर हो या गाँव औरतों को सुबह की नींद नसीब नहीं. देखूं जबतक हूँ, थोड़ा मदद कर दूँ"यह सोच रसोई में पैर रखा तो देखा, बहू की जगह मीरा काम में लगी हुई है. बिजली की सी फुर्ती सी वह कभी एक तरफ सब्जी काट रही थी तो कभी, मिक्सी में घर्रर करके कुछ पीस रही थी तो कभी गैस पर चढ़ी कढाई में करछुल घुमाती.

उन्हें देखते ही बोली, "अरे माँ...जाग गयी....चाय पियोगी..?"

"ना बेटा...पर तू काम कर रही है...ला मैं कुछ मदद कर दूँ..."पर वे करतीं क्या? उन्हें तो खड़े होकर खाना पकाना आता ही नहीं. ना वे टी.वी. वालों की तरह फुर्ती से चाकू से सब्जी काट सकती हैं. बीच में चुपचाप खड़ी हो गयीं. मीरा कभी फ्रिज खोलती,कभी दौड़कर किसी डब्बे में से कुछ निकालती,बार बार उनसे टकरा जाती.

 उन्होंने ही बोला..."मैं एक तरफ खड़ी हो जाती हूँ....तुझे बार -बार टक्कर लग रही है.."

"कोई बात नहीं माँ..."और मीरा ने एक स्टूल लाकर रख दिया..."लो बैठो इस पर"

"पर बेटा तूने कब सीखा ये सब बनाना....और क्या तू ही रोज बनाती है,खाना ...बहू  नहीं आती,मदद को..."

"इसमें सीखना क्या है माँ...आ जाता है लड़कियों को सबकुछ...भाभी करती हैं....वो कल देर रात कोई फिल्म देखी होगी ना..इसलिए नींद नहीं खुली होगी....एक मिनट जरा मैं बच्चों को उठा दूँ..वरना लेट  हो जायेंगे  स्कूल को.."

आँखें मलती 'रिनी'को उसने गोद में लाकर उनके पास खड़ा कर  दिया और प्यार से बोली.."आज रिनी क्या ले जाएगी टिफिन में...बोलो क्या रख दूँ"

यानि टिफिन भी मीरा ही  तैयार करती है.उसके बाद वे चुपचाप देखती रहीं. बच्चों का टिफिन रखा,उन्हें तैयार  किया. इस बीच राज़ एक बार गुस्से में आया भी...'मेरा कैलेण्डर नहीं. मिल रहा...मुझे पनिशमेंट मिलेगी..."उसकी किताब खोज कर दी.रिनी के जूते के फीते बांधे...बाल ठीक किए, उन्हें दूध में  डब्बे से कुछ डालकर खिलाया और दोनों बच्चे बिलकुल तैयार हो बहू के कमरे में भागते हुए गए..बहू की उनींदी आवाज़ आई..."बाय बेटा..."और अपनी ममी के गालों पर पप्पी दे..दोनों बच्चे गेट की तरफ भाग गए. प्रकाश उठ कर उनके पीछे गया.

वे स्कूल बस में चढ़ गए तो बाहर से अखबार लेकर आते हुए,प्रकाश ने आवाज़ लगाई.."मीरा चाय देना,जरा"

वे हैरान हो बस देखती रही, मीरा ने कभी रसोई में काम नहीं किया था ,पता नहीं  इतना कुछ इतनी जल्दी कैसे सीख लिया. पसीने से नहाती मीरा बार बार एक हाथ से चेहरे से बाल हटाती जाती और पराठे बेलती जाती.

"अब ये पराठे किसके लिए बना रही है..??."

"खुद के लिए और भैया के लिए, माँ....मुझे भी तो लंच ले जाना है और अपने लिए बना लूँ, भैया के लिए नहीं तो कैसा लगेगा..."

रसोई का काम ख़त्म कर मीरा तैयार होने चली गयी. अपना लंच पैक किया, और चाय चढ़ा दी गैस पर...फ्रिज से एक पीस ब्रेड निकाला और एक टुकड़ा मुहँ में डाला और  चाय छानने लगी. उन्हें लगा ,अब शायद इत्मीनान से चाय पी सकेगी. पर नहीं उसने तो सिर्फ एक पीस ब्रेड खाया और चाय डाइनिंग टेबल पर रख आवाज़ दी.."भाभी चाय रखी है...मैं जा रही हूँ...बाय"

उनींदी सी बहू जल्दी से बाहर निकल कर आई...."आज जल्दी आ रही हो ना...और वो लिस्ट रख ली..जो समान लाने को दी थी मैने .."

"हाँ भाभी, लेती आउंगी  वो गुब्बारे, चॉकलेट  और डेकोरेशन का समान...जल्दी आ जाउंगी और रूम भी डेकोरेट कर दूंगी...आप टेंशन मत लो"

फिर कमरे में आई..."आज जल्दी आती हूँ माँ...फिर आराम से बातें करुँगी..."

"बेटा तूने सिर्फ एक  सूखी सी ब्रेड खाई  है...कुछ और नहीं खाएगी ??."

"माँ सुबह सुबह खाया कहाँ जाता है...देर हो रही है..अब चलूँ.."

शाम को ढेर सारा समान लिए हुए मीरा आई.....बस एक कप चाय पी, कपड़े भी नहीं बदले और काम में लग गयी. बहू  के साथ मिलकर कमरा सजाया, और फिर किचन में चली गयी. कामवाली को बहू ने रोक लिया था  पर ज्यादा काम मीरा ही कर रही थी.

कामवाली मीरा के गुण गाते नहीं थक रही थी. "बहुत कामकाजी है बिटिया, आपकी ...पूरा घर संभाल लिया है,सुबह भी सारा खाना बनाती है...और कितनी पढ़ाई भी करती है, भाभी  जी को बड़ा आराम हो गया है,इसके आने से....बस दोपहर को चावल बनाती हैं और छुट्टी.."

पर मीरा ने डांट दिया उसे..."शारदा...काम भी करोगी या सिर्फ बातें....ये सारी प्लेटें पोंछ कर रखो.."

फिर उनकी बाँह  पकड़ उन्हें कमरे में ले आई...उनकी अटैची खोल चुनकर एक साड़ी निकाली और बोली, "अब तुम तैयार हो जाओ, मेहमान आने ही वाले हैं...बाबू जी का भी कुरता -पायजामा दो...मैं देकर आती हूँ उन्हें   "

"और तुम ..."

"मुझे टाइम नहीं लगता....दो मिनट में तैयार हो जाउंगी.. किचन में थोड़ा काम बाकी है...और अब तुम किचन में मत आना जाकर लिविंग रूम में बाबूजी के पास बैठो..मेहमान आते ही होंगे..."सबसे छुटकी बेटी आदेश दे रही थी उन्हें.

ड्राइंग रूम में जाकर मूरत की तरह चुपचाप बैठ गयीं वे. जब कुछ काम नहीं कर रहीं तो रसोई में खड़े  हो  क्यूँ लोगों को सोचने का मौका दें कि दो दिन के लिए आई हैं बेटे के यहाँ और खट रही हैं.

बच्चों को बहू ने ही तैयार किया. रिनी ने जिद पकड़ ली थी, दादी की लाई हुई फ्रॉक ही पहनूंगी...बहू उनके पास आई...."माँ, इसे समझाइये ना..आपकी लाई फ्रॉक कल पहना दूंगी...मैने जो खरीदी है...उसके मैचिंग हेयरबैंड, जूते सब हैं."

"रिनी,जब हम मंदिर जाएंगे ना तब वो पहनना ...वो पहन कर तो भगवान को प्रणाम करना है, पहले...ठीक..."उन्होंने समझाया ...प्रकाश, पास के एक बड़े मंदिर में हर बार उन्हें जरूर लेकर जाता.

रिनी ने चाबी वाली गुड़िया की तरह, सर ऊपर नीचे किया और भाग गयी तैयार होने.

प्रकाश भी थका हुआ सा आया, बच्चे आए, गेम्स हुए, केक कटा, कुछ परिवार भी थे. सबने अदब से उनलोगों को नमस्ते की. मीरा के पैरों पर तो जैसे पहिये लगे हुए थे, भागकर कभी किचेन में जाती ...कभी बच्चों को गेम खिलाती.

पर एक बात अखर गयी उन्हें. इतने सारे फोटो खींचे गए,बच्चों के साथ उन बुड्ढे-बुढ़ियों के भी ढेर सारे फोटो  खींचे गए.पर किसी को काम में उलझी मीरा का ख़याल नहीं आया. उन्हें हर बार लगता,अब प्रकाश आवाज़ देगा या बहू बुलाएगी...पर मशीन की तरह खटती उस लड़की का किसी को ख़याल ही नहीं था.

बारह बज गए ,सारे मेहमान के जाते. मीरा ने ही कामवाली के साथ मिल कमरा साफ़ किया. बहू  तो मुस्करा मुस्करा कर ही थक गयी थी. मीरा कमरे में आ कपड़े बदल, बिस्तर पर ढह सी गयी....और बोली..."थोड़ा लेटती  हूँ...फिर उठ कर पढ़ाई करुँगी"

वे चौंक कर बिस्तर पर उठ कर ही बैठ गयीं..."तू पागल तो नहीं हो गयी...एक सुबह की उठी हुई है....कॉलेज गयी..इतना काम किया और अब पूरी नींद भी नहीं लेगी...बीमार पड़ जाएगी इस तरह..."

"चिंता मत करो माँ...आदत हो गयी है यूँ जागने की..कुछ नहीं होगा...तुम सो जाओ..."

पर उनकी आँखों की नींद उचट गयी  थी...अपने भाई के घर में लड़की का ये हाल  है...कितनी बड़ी कीमत चुका रही है...अपनी पढ़ाई के लिए.

दूसरे दिन भी ,मीरा का यही रूटीन था.उसने कहा था...'भाभी आती है मदद को'..पर उन्होंने एक दिन नहीं देखा उसे रसोई में आते."

उन्होंने एकाध बार मदद करने की कोशिश की पर मीरा का काम ही बढ़ा दिया. बोलीं "और कुछ नहीं तो  बच्चों के पानी के बोतल ही भर देती हूँ."

पर उन छोटी मुहँ वाले बोतल में पानी भरना भी एक कला है...नीचे पूरा पानी फ़ैल गया...जिसे मीरा  ने बिजली की फुर्ती से पोंछे का कपड़ा ले हँसते हुए पोंछ डाला. ताकि वे अपराधी ना महसूस करें.

वे कुछ सोचकर नहीं आई थीं कि कब लौटेंगी...पति से कहा भी था  ,मन  लग जायेगा तो कुछ दिन रह जाएंगे  बेटा बहू,पोते-पोती, बेटी सब तो हैं वहाँ...गाँव में यूँ भी सूनी दीवारें तकते  बीतते हैं दिन औ रात.

पर अब चार दिन में ही मन ऊब गया था. अपनी फूल सी बच्ची की ऐसी कठोर दिनचर्या देखी नहीं जा रही थी. मीरा ने उनके जाने की बात सुनी तो उदास हो गयी. उन्होंने बता ही दिया..."इस तरह उसका काम करना नहीं देखा जा रहा..."

मीरा ने बड़े बूढों की तरह समझाया..."सिर्फ दो साल की तो बात है,माँ....पढ़ाई पूरी हो जाएगी...नौकरी लग जाएगी..फिर मैं यहाँ थोड़े ही रहूंगी.....अब जब रहती हूँ तो काम तो करना ही पड़ेगा, ना...मुफ्त में किसी का अहसान क्यूँ लूँ?"

"बेटा..प्रकाश तेरा भाई है...कोई कैसे हो गया?"

"माँ, भैया ने बहुत मदद की है....उनके भरोसे ही तो पढ़ रही हूँ....कितनी फीस लगती है , पढने में..तुम्हे अंदाज़ा भी नहीं होगा ,उसपर से किताबें ....पर उनकी कमाई पर  भाभी का भी तो हक़ है...उन्हें शायद अच्छा ना लगे ,उनके पैसों का यूँ बँटना...इसलिए अच्छा है...थोड़ा खुश रखो...किसी का मन मैला ना होने दो....थोड़ा काम ही तो करना पड़ता है बस......भाभी भी अच्छा व्यवहार करती हैं,माँ...कभी उल्टा-सीधा कुछ नहीं बोला"

उन्होंने गहरी सांस ली...उन्हें इस नई पीढ़ी का हिसाब-किताब समझ नहीं आता...उन्हें तो इतना पता है,बड़ा भाई ,बाप  की जगह होता है....क्या प्रकाश बिना फीस दिए ही इंजिनियर बन गया...आज अगर अपनी बहन को पढ़ा रहा है...तो कोई अहसान तो नहीं कर रहा...जिसे बहन उसके घर नौकरों की तरह खटकर चुकाए. और बहू किस बात पर मन मैला करेगी....घर बच्चों की तरफ से एकदम निश्चिन्त है. रात में भी देखती...अपने साथ बिठाकर मीरा ही पढ़ाती उन्हें. बहू तो कोई सीरियल देखती रहती,अपने कमरे में. प्रकाश भी सब समझता होगा, पर घर में शान्ति रहें इसलिए चुप रहता होगा.

ये नए ज़माने का घर ,नए जमाने की बातें...उनके गले नहीं उतरतीं और उन्होंने पति से सीधा कह  दिया..."सामान संभाल रही हूँ...कल चलेंगे यहाँ से"

पति चौंके...वे तो पूरा दिन बाहर वाले कमरे में ही बैठे रहते...अखबार पढ़ते..टी.वी. देखते और शाम को टहलने निकल जाते. दरवाजे पर भारी पर्दा पड़ा था...घर के अंदर क्या चल रहा  है,उन्हें कुछ पता ही नहीं चलता. और उन्हें कुछ बताने का मन भी नहीं हुआ...वे...समझेंगे ही नहीं,ये बातें. और समझ  भी जाएँ तो उसे मानेंगे नहीं....सौ तरह से उसे सही ठहराने की कोशिश करेंगे और कहेंगे ये सब उनका वहम है.

(क्रमशः)

उदास आँखों में छुपी झुर्रियों की दास्तान (समापन किस्त )

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(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे,अपना  पुराना जीवन याद करने लगती हैं.उनकी चार बेटियों  और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजिनियर था,उसने प्रेम विवाह किया. छोटा बेटा डॉक्टर था, एक अमीर लड़की से शादी कर, उसके  विदेश चला गया. तीसरी बेटी नमिता ने दूसरी जाति के लड़के से घर से विरोध होने पर,घर से भागकर शादी कर ली.छोटी बेटी अपने भाई के यहाँ रहकर एम.बी.ए. कर रही थी.)

गतांक से आगे



घर वापस आ गयीं,पर मन नहीं लगता...सुबह पति को फूलों की क्यारियाँ ठीक करते देखतीं  और मस्तिष्क में मीरा का तेजी से रसोई में काम करना दिखता रहता...दोपहर को आराम करने को  लेटतीं और लगता वो कॉलेज में भूखे पेट पढाई कर रही होगी, रात देर तक नींद नहीं आती, किताबों पर झुका मीरा का  थका चेहरा दिखाई देता रहता.

छः महीने बाद मीरा घर आई और उन्होंने उसे एक ग्लास पानी भी लेकर पीने नहीं दिया. कलावती की बेटी छुटकी को ताकीद कर दी थी कि मीरा के आस-पास ही बनी रहें,ध्यान रहें कि एक बार उसे   हैण्ड-पम्प भी ना चलना पड़े. मीरा हंसती रहती, 

"माँ मेरी आदतें खराब कर रही हो"

वे उसे डांट देती, "चेहरा देख जरा...कैसा मुरझाया सा हो गया है...कोई रौनक ही नहीं.जबतक छुट्टी है,सिर्फ खाना खा और आराम कर "

"अउर नहीं त का....सहर  जाके अईसा चेहरा बना लिया है कि दमाद बाबू को पसंद नहीं आया तो?? अब सादी-बियाह होगा...जरा धियान रखो  अपना..."

"काकी तुम्हे सादी-बियाह के अलावा कुछ और सूझता है?..."

"लो कल्लो बात...इस उम्र में तुम्हारी माँ, तीन बच्चे की माँ बन  गयी थी."

"मैं जा रही हूँ बाहर पढने "..मीरा सचमुच नाराज़ हो कोई भारी भरकम किताब ले बाहर चल देती.

 कभी कुआँ के जगत पर बैठी पढ़ती होती..कभी हनुमान जी के चबूतरे पर तो कभी...अमरुद के पेड़ की छाँव पे. दिन  दुनिया से बेखबर. पता नहीं क्या सारा-दिन लिखती पढ़ती रहती.

पर उसकी यह मेहनत रंग लाई और फ़ाइनल रिजल्ट आने से पहले ही उसे एक अच्छी सी नौकरी मिल गयी. पति प्रकाश,प्रमोद की नौकरी लगने पर भी इतने खुश नहीं हुए थे,जितना अपनी छोटी बेटी मीरा की नौकरी लगने की खबर से.हुए. बिलकुल बाबूजी की तरह बाहर कुर्सी लगा बैठे होते और हर आने-जाने वालों को यह खबर सुनाते. "अरे जो मैं साल भर  में कमाता था ,मेरी बेटी के एक महीने की कमाई है..क्या ज़माना आ गया है...पर बच्चे मेहनत भी तो कितना करते हैं, कितनी सारी पढ़ाई करते हैं"उन्हें लगता पति की तरफ ,अब  बुढ़ापा तेजी से बढ़ता आ रहा है. बुढापे में सबलोग एक जैसी ही बातें और एक जैसा ही व्यवहार करते हैं.

मीरा की नौकरी दूसरे शहर में लगी और वे परेशान हो गयीं, अकेली कहाँ रहेगी कैसे जाएगी? उन्होंने प्रकाश से कहा साथ जाने को, मीरामना करती रही पर उनकी बात माँ,प्रकाश साथ गया. मीरा को उसकी नई नौकरी पर छोड़ उसे आश्वस्त किया,"माँ उसके साथ और भी लडकियाँ हैं, एक हफ्ते तो ऑफिस के गेस्ट हाउस में रुकेंगी सब फिर मिलकर एक फ़्लैट ले लेंगी,मीरा समझदार है,तुम चिंता मत करो"

कह देना आसान है,चिंता मत करो.इतने बड़े शहर में लड़की अकेली है, आगे नाथ ना पीछे पगहा....और कहता है चिंता मत करो.नाराज़ होकर बोलीं, "अब तू उसके लिया अच्छा सा लड़का देख,अब तो पढ़ भी ली,नौकरी भी लग गयी,अब तो हो गयी तुम भाई-बहन के मन की"

"अच्छा माँ....देखता हूँ.."प्रकाश ने हँसते हुए कहा और फोन रख दिया.

यह हंसी में उड़ाने वाली बात है कहीं? लड़की इत्ते बड़े शहर में अकेली है और भाई हंस रहा है .अब वे पति के पीछे पड़ीं,लड़का देखिए मीरा के लिए.पति ने गंभीरता से कहा, "अब कहाँ उसके लायक लड़का मैं खोज पाउँगा? अगर उसे कोई पसंद आ जाता है तो कह देना कोई मनाही नहीं है मेरी तरफ से"

वे आवाक मुहँ देखती रह गयीं. ये वही  पति कह रहें हैं? जिन्होंने नमिता के हाथ-पैर तोड़ घर बैठाने की  धमकी दी थी.और इनकी वजह से आज वे बेटी का मुहँ देखने को तरस गयी हैं.

आश्चर्य से बोलीं, "ये आप कह रहें हैं....नमिता के समय तो..."

"उसकी बात अलग थी, वो गाँव की लड़की थी...तुम नहीं समझोगी...जाओ  खाना  लगाओ..."

हाँ, जब मुश्किल में पड़ जाओ,सवालों से घिर जाओ...तो बस..."नहीं समझोगी..खाना लगाओ ..."

वे वहाँ से चली तो गयीं,पर मीरा के लिए सचमुच चिंतित हो उठीं.

मीरा रोज फोन करती.अपने हाल-चाल के प्रति आश्वस्त कराती उन्हें. अब तीन लड़कियों ने मिलकर घर भी  ले लिया था.कहती काम भी अच्छा लग रहा है.जैसे ही छुट्टी मिलेगी,घर आऊँगी.

पर छुट्टी मिलने में उसे चार महीने  लग गए. जब आई तो दो बड़े बड़े बैग भरे हुए थे. पता नहीं क्या क्या लेकर आई थी. अपने पापाजी  के लिए कई सेट कपड़े, उनके लिए साड़ियाँ, अपने गोपाल चाचा के लिए भी कुरता पायजामा, घर के लिए भी तमाम तरह के सामान. सिवनाथ माएँ के लिए साड़ी,कलावती के लिए कपड़े और सुन्दर  सी चप्पल,उसकी बिटिया के लिए फ्रॉक और गुड़िया.

पर ये उपहार उसके सामने कुछ भी नहीं थे जो उसने अपने पापा जी को दिए. रात में खाना खाने के बाद जब पति अखबार की छूटी ख़बरें ढूंढ ढूंढ  कर पढ़ रहें थे तभी मीरा गयी और एक मोटा सा लिफाफा उनकी गोद में रख दिया.

पति चौंके ,"ये क्या है?"

हिचकते हुए बोली मीरा, "पापाजी ,वो बाग़ जो गिरवी रखा था,ना कृष्णभोग आम के पेड़ वाला,उसे वापस ले लीजिये"

पति ने वो लिफाफा छुआ भी नहीं.बोले, "पहले इसे उठाओ."

"पापाजी..."

"पहले इसे उठाओ...फिर समझाता हूँ"थोड़ा जोर से बोले वह .

मीरा ने उनकी तरफ देखा,उन्होंने आँखों से इशारा किया...मीरा ने बड़े बेमन से वो  लिफाफा वापस ले लिया.

पति उसे समझाते रहें,अब घर में  है कौन आम खाने वाला? तुम सबलोग बाहर हो. हम बुड्ढे- बुढ़िया क्या खायेंगे इस उम्र में. इस उम्र में तो परहेज ही जरूरी है. जिसके पास है वह बगान, कम से कम  खा तो रहा है. यह सब भूल जाओ. इतना कुछ लाया तुमने, मैने कुछ बोला? आराम से रहो,इतनी मेहनत  की है, उसका फायदा उठाओ....ये सब भूल जाओ..."और अखबार रख वे सोने चले गए.

पर मीरा भी धुन की पक्की थी. उसने कब गुप-चुप गोपाल जी से बात की और वे मान गए, उन दोनों को खबर भी नहीं हुई.  सारा कागज़ पत्तर तैयार करवा जब पति से  हस्ताक्षर करने को बोला. तो वे एक बार फिर चौंके.पर गोपाल जी ने समझाया, "बिटिया का इतना मन है, तो कर दीजिये  ना...कितने बाल-बच्चे इतना सोचते हैं??...वह सोच रही है तो उसे करने  दीजिये. अब तो उनके बाल-बच्चे हैं वरना शम्भू बाबू जिंदा होते तो ऐसे ही बगान वापस कर देते. वे सिर्फ लोगों की मदद के विचार से गिरवी रखते थे,"
हस्ताक्षर करते पति की आँखों में आँसू आ गए जिसे छुपाने को वे हस्ताक्षर कर झट से बाहर चले गए.

मीरा ने पति के जाने के बाद कहा, "देखो मैं  कैसे सारे खेत,बगीचे वापस लाती हूँ.और उनकी चिंता और बढ़ गयी,जल्दी से अब इसकी शादी हो जाए और वो यहाँ की चिंता छोड़,अपना घर-बार संभाले.

चार-दिन रहकर, मीरा चली गयी. पर कहती गयी अब इस बार मैं नहीं आऊँगी,तुमलोगों को आना पड़ेगा. एक फ़्लैट ढूंढती हूँ. फिर मेरे साथ ही रहना...और पता है हवाई जहाज में चढ़ कर आना आप दोनों लोग"

"तेरा दिमाग तो ठीक है...हवाई जहाज में और मैं?? डर से मर ही जाउंगी..."

"अभी नहीं माँ...एकाध साल रुक जाओ बस....थोड़े पैसे जमा कर लूँ...फिर देखना...हवाई जहाज में ही सफ़र करोगी.."

"चल-चल खयाली पुलाव ना बना....मुझे लड्डू बनाने दे."वे ढेर सारा नाश्ता बना रही थीं बेटी और उसकी सहेलियों के लिए.उन्हें पता है काम से कितना थक जाती होंगी सब. कुछ घर का बना बनाया खाने को तो मिले.

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नमिता के जाने के बाद जो गम के बादल छा गए थे, वे अब धीरे धीरे छंटने लगे थे. पति ने गाँव के लोगों से मेल-जोल बिलकुल कम कर दिया था . पर अब फिर वापस मिलने-जुलने लगे थे.समारोहों में शामिल होने लगे थे. ऐसे ही जनार्दन  बाबू के बेटे की बारात में शहर गए और वापस आए तो तबियत खराब हो गयी.

थोड़ा बुखार था. गाँव के डॉक्टर को बुलाया,उसने दवाएं दीं . बच्चों को फोन पर बताने ही नहीं दिया. उन्हें भी लगा मौसमी बुखार है. डॉक्टर साहब तो हर शाम आते और उन्हें आश्वस्त करते  सिर्फ फ़्लू है, कमजोर हो गए हैं, उम्र का भी असर है इसलिए समय लग रहा है. पर जब एक हफ्ते तक बुखार नहीं उतरा तो उन्हें चिंता हुई. कहीं मलेरिया ना हो,वैसे तो गाँव में भी कम मच्छर  नहीं थे, देर शाम तक जब पति बागबानी करते रहते तो मच्छरों  का झुण्ड उनके सर के ऊपर मंडराता रहता. पर ये शहर के गंदे बजबजाते नाले पर भिनभिनाते  मलेरिया वाले मच्छर नहीं थे. पति बता रहें थे कि जहाँ बारात ठहराई गयी थी...वहीँ पर एक बड़ा सा खुला,नाला भी बह रहा था.

डॉक्टर साहब से आशंका  जताई,तो उन्होंने कहा, खून जांच करके पता कर लेते हैं. कम्पाउडर आया घर से ही जांच के लिए खून ले गया. फिर डॉक्टर साहब दूसरी दवाएं लेकर आए,बोले, मलेरिया नहीं टाइफायड है. टाइफायड के  दवा की एक कोर्स कर लेंगे, ठीक हो जाएंगे. हर बार ,उनके कुछ कहने से पहले ही पति कहते,बच्चों को मत बताना, सब नौकरी,अपने बाल-बच्चों में व्यस्त हैं.बेकार परेशान होंगे. अब उम्र हो रही है तो बीमारी-सिमारी लगी ही रहेगी. वे बहुत घबरा जातीं. पर फोन  उनके सिरहाने के टेबल पर ही रहता छुप कर नहीं कर पातीं.बच्चों के फ़ोन भी आते तो कहना पड़ता,सो रहें हैं,पापाजी.

पर एक दिन बुखार की बेहोशी में वे कुछ कुछ बोलने लगे और बार-बार नमिता को बुलाने लगे तो वे एकदम घबरा गयीं और रोते -रोते प्रकाश को फोन कर दिया.पहले तो प्रकाश बहुत नाराज़ हुआ कि उसे पहले क्यूँ नहीं बताया. फिर डॉक्टर साहब का नंबर  लिया.उनसे बात करने के बाद बोला,मैं गाड़ी लेकर आ रहा हूँ. पापा जी को शहर लेकर आना है. दूसरे दिन ही पहुँच गया. पति मना करते रहें.पर अब डॉक्टर  भी थोड़े चिंतित लग रहें थे .उन्होंने भी मना  नहीं किया वरना अब तक तो वे दावा कर रहें थे कि उनकी दवाओं से ही ठीक हो जाएंगे.

प्रकाश के आने के बाद उन्हें थोड़ी राहत हुई. उन्होंने उसे पति के  पास बिठा....फोन का तार दूर खींचकर ममता,स्मिता,मीरा सबको फोन करके बता दिया. स्मिता से कह दिया कि जरा नमिता को भी खबर कर दे,उसे पापाजी बेहोशी में याद कर रहें थे. एक प्रमोद को फोन नहीं कर पायीं.विदेश फोन करने की सुविधा इस फोन में  नहीं थी.
प्रकाश से कहा,"बेटा , शहर जाकर प्रमोद को फ़ोन कर बता देना."

"माँ, वो बिचारा इतनी  दूर है...रहने दो ना...उसे क्यूँ परेशान किया जाए"

"ना बेटा, जैसे तू नाराज़ हो गया वो भी दो बात सुनाएगा....उसे भी बता दो"

डॉक्टर  साहब ने दो सूई लगाई पति को और गाड़ी से सीधा अस्पताल ही लेकर आया प्रकाश. उन्हें भरती कर लिया  गया और उन्हें संतोष हो गया. अब सही जगह आ गए हैं,सही इलाज हो जायेगा. पता चला मलेरिया ही है. बुखार भी कम हो गया था.पर कमजोरी  बहुत थी.

ममता,स्मिता  दिन में चार बार फोन करतीं ,उनके बच्चों के इम्तहान चल रहें थे.वे भी आश्वस्त करातीं, "हाँ अब पापा जी ठीक हो रहें हैं. बच्चों की पढ़ाई देखो. "

पति सो रहें थे वे पास बैठी खडकी से बाहर देख रही थीं कि तभी लगा,दवाजे पर पड़ा परदा हिला और नज़र घुमाई तो देखा,नमिता खड़ी है.

झपट कर  उनके गले लग कर ऐसे बेआवाज़ रोई जैसे इस जनम में ,उसे मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी . नरेंद्र अपराधी सा थोड़ा दूर ही खड़ा था. वे नमिता का कन्धा थपथपाते उसे लिए  बाहर आयीं. हाल-चाल पूछते बार-बार माँ-बेटी की आँखें भर आतीं. नमिता ने फुसफुसाते हुए पूछा, "पापा जी की नींद खुल जाएगी तो नाराज़ तो नहीं होंगे.."

उन्होंने आश्वस्त किया..."ना,बेहोशी में तुझे याद कर रहें थे...खुश ही होंगे देखकर."और नमिता गीले आँखों से मुस्करा उठी.बहुत देर तक उनके पैरों की तरफ खड़े एक टक पति के चहरे पर नज़रें जमाये खड़ी रही. नरेंद्र चुपचाप पीछे कुर्सी पर बैठा हुआ था.

पति की नींद खुली और उनकी नज़र  सीधी नमिता पर पड़ी...उन्होंने एक दो बार आँखें झिपझिपा कर खोलीं,जैसे पहचानने की कोशिश कर रहें हों. फिर उनकी तरफ नज़र घुमाई.एक बार तो वे डर गयीं,फिर हिम्मत कर फंसे गले से बोलीं, "नमिता है..."

पति चुप रहें, वो दो पल की चुप्पी एक युग सी लगी.फिर उन्होंने मुस्करा कर नमिता की ओर इशारा किया और नमिता दौड़ कर कुर्सी पर बैठ उनके कंधे के पास सर रख, बेसंभाल फफक पड़ी.इस बार उसे यह ख़याल भी नहीं था कि ये अस्पताल है,जोर से आवाज़ नहीं होनी चाहिए. उसका सर सहलाते पति की आँखों के कोर भी भीग आए. उन्होंने पीछे नजर की और देखा, नरेंद्र कुर्सी पर बिना हिले डुले बिलकुल सीधा सर झुकाए बैठा था. जैसे इस दृश्य का अपराधी वह ही था. दया हो आई उन्हें उस पर, जब से आया था, मुहँ नहीं खोला था,उसने.

अब  स्थिति उन्हें ही संभालनी  थी. नमिता को डांटा ,"चुप कर अब...पापाजी की तबियत और ख़राब हो जाएगी.अभी अगर आवाज़ सुन कर नर्स आ गयी तो इनके पास बैठने भी नहीं देगी."

पति ने भी माहौल हल्का करने के लिए, मुस्कराकर  पूछा, "कहाँ है वो, तुम्हारा मोटरसाइकिल वाला डरपोक?? जैसे चुपचाप ले गया था वैसे ही तुम्हे यहाँ चुपचाप छोड़ गया है क्या??"

नमिता  आँखे  पोंछती उठ कर एक तरफ खड़ी हो गयी. उन्होंने ही नरेंद्र को बुलाया, उनके पैर छू चुपचाप सर झुकाए बिस्तर के पास खड़ा हो गया. पर पति ने शायद उसे क्षमा  कर दिया था. प्यार से बोले, "क्या हाल है बाबू...ये तुम्हे परेशान तो नहीं करती...सारा गाँव डरता था इस से....ठीक से रहती तो है तुम्हारे साथ..??"

नरेंद्र अपनी आवाज़ शायद बाहर ही छोड़ कर आया था,सिर्फ मुस्करा कर सर हिला दिया. उनके कलेजे से एक बोझ उतर गया. रोज इस क्षण के लिए भगवान से प्रार्थन की थी और आज वह साकार हो गया. मन ही मन धन्यवाद कहा अपने गिरधर गोपाल  को.

शाम को प्रकाश और बहू आए तो नमिता को देख चौंके....फिर साथ चलने पर जोर डालने लगे.पर नमिता नहीं मानी. उसे अस्पताल में ही रहना था. नरेंद्र को ले गए साथ.और अब नमिता ने जैसे बाबू जी की बीमारी में सारी जिम्मेवारी अपने सर ले ली थी वैसे ही यहाँ भी सारा भार उठा  लिया. नर्स के साथ लगी रहती,चादर  ठीक करना कपड़े बदलवाना, फल काट कर के देना, सब कुछ करती. बुखार कम हो रहा था,पर डॉक्टर  कहते कुछ दिन रहना पड़ेगा अस्पताल में क्यूंकि मलेरिया बहुत ज्यादा बढ़ गया था. खून की बहुत कमी हो गयी है.

ममता,स्मिता भी आ गए.प्रमोद भी रोज फोन पर बात करता और नाराज़ होता,"कैसे डॉक्टर हैं गाँव के..पढाई नहीं की क्या??....खून जांच करवाया तो कैसे मलेरिया नहीं पता चला??...इनलोगों को इतना तक पता नहीं कि बुखार में  ही खून जांच के लिए लेते हैं,तभी  मलेरिया के कीटाणु खून में आते हैं अन्यथा नहीं. जहाँ दो गोली में पापाजी ठीक हो जाते, इतना समय लग रहा है और..इतनी तकलीफ सहनी पड़ रही है..."फिर थोड़ा रुक कर कहता.."मैं भी आ रहा हूँ "

उन्हें एकबारगी लगता वो अपने पिता को देखने आ रहा है या उस डॉक्टर कि खबर लेने. करने.

सारे बच्चे परेशान थे , पति एक अनुशासित दिनचर्या के आदी थे. रोज घूमने जाते ,सात्विक भोजन करते. अब तक कभी दो दिन से ज्यादा बीमार नहीं रहें. और अस्पताल में भरती होने की तो यह पहली घटना थी. मीरा को छुट्टी नहीं मिल रही थी.अस्पताल में रोज फोन कर देर तक नमिता से बातें करती. और अफ़सोस  करती कि सारे भाई-बहन जमा हैं और वो ही नहीं आ पा रही. सब उसे समझाते..'फिकर ना करो..हम सब यहाँ हैं"

पर अब पति ठीक हो रहें थे, शारीरिक रूप से भी और मानसिक निश्चिन्तता भी फैली रहती चेहरे पर. ममता,स्मिता भी अब लौटने की तैयारी कर रहें थे. ऐसे में ही, एक रात नमिता उनकी चादर ठीक करने उठी और जोर से डॉक्टर....डॉक्टर चिल्लाती हुई बाहर भागी. उनका किसी आशंका से मन काँप गया और जैसे काठ मार गया उन्हें. वे हिली तक नहीं. बस जड़ बनी देखती रहीं, कई डॉक्टर नर्स सब जमा हो गए...जल्दी से कुछ मशीन लाये गए पर ममता के पापाजी...नींद में ही शान्ति से इस दुनिया से विदा हो गए.

सब लूटे-पिटे से गाँव आ गए.बस प्रमोद और मीरा उनके अंतिम दर्शन नहीं कर सके. प्रमोद दो दिन बाद आया और रोता रहा, "क्या फायदा मेरे डॉक्टर  बनने का, वहाँ मैं अपना सुख-चैन,नींद खोकर गैरों का इलाज़ करता हूँ और यहाँ मेरे पिता का गलत इलाज़ होता रहा."

मीरा जैसे पत्थर की हो गयी थी. विश्वास ही नहीं कर पाती. उसे अभी अपने पापाजी के लिए कितना कुछ करना था और वे यूँ चले गए. सारे काम वही देख रही थी. ममता.स्मिता बहुत पहले ही गाँव से जा चुकी थीं, उनके समय काम करनेवाले सब बूढे हो गए थे. उनके बेटे-बेटियों को वे लोग अब नहीं पहचानती थीं. प्रकाश-प्रमोद ने तो गाँव में रहकर भी अपने पढ़ाई के सिवा और कुछ नहीं जाना. नमिता उनका साथ एक पल को नहीं छोडती. कमरे में वे बैठी होतीं और उनके एक तरफ नमिता और एक तरफ प्रमोद,सारा सारा दिन उनका हाथ पकड़ बैठे रहते. मीरा बेचारी अकेली गोपाल जी के साथ सारा इंतजाम देखती. प्रकाश भी उसकी सलाह से ही कुछ करता.

उनके लिए तो समय रुक गया सा लगता. इतने वर्षों से सुबह उठ पति को दातुन देने  और चाय बनाने के साथ..जो दिन शुरू होता वो..रात में पानी का ग्लास रखने के साथ ही ख़त्म होता. अब वे क्या करेंगी..अपने दिन और रात का.

फिर भी बच्चों का मुहँ देख, अपना दुख अंदर ही पी लेतीं. रात में भी नमिता और प्रकाश तो उनके साथ बने होते. प्रकाश,मीरा और गोपाल जी लालटेन की रोशनी में ,किस दिन क्या करना है,भोज के लिए क्या क्या तैयारियाँ करनी हैं,सबकी रूप-रेखा बनाते रहते. दोनों ननदें, ममता,स्मिता और दोनों बहुएं बच्चों के साथ आँगन में चारपाइयों पर बैठी होतीं या फिर छत पर चटाइयाँ बिछा जमी होतीं. बातों के बीच कभी कभी उनकी हंसी भी सुनाई दे जाती. आखिर इतने दिनों बाद सब मिली थीं...कोई बात हंसी वाली भी हो जाती होगी. पति ऊपर से देख,प्रसन्न ही होते होंगे...अपने पीछे एक बहरी-पुरी हंसती-मुस्कुराती दुनिया छोड़ कर गए हैं.

सारा कुछ निबट गया, दूर के रिश्तेदार,गाँव के लोग,स्कूल के शिक्षक-छात्र ,सब जमा हुए. आँसू भरी आँखों से सबने पति को याद किया.वे वैसे ही पत्थर बनी सबके शोक सन्देश स्वीकारती रहीं.

अब बच्चे अपने अपने घरौंदों में लौटने वाले थे. प्रकाश,मीरा,नमिता सब आपस में बहस कर  रहें थे ,माँ मेरे साथ जाएगी,नहीं मेरे साथ जायेगी. प्रमोद चुप था,बोला ,"दो महीने बाद तो माँ को मैं ले जाऊंगा...अभी माँ की मर्जी,जिसके पास रहें."और उन्होंने अपनी मर्ज़ी सुना दी कि अभी तो कुछ दिन गाँव में ही रहेंगी,फिर जबतक मीरा कि शादी नहीं हो जाती,उसके साथ ही रहेंगी.

पर मीरा नमिता ने गुपचुप प्लान बनाया और नमिता गाँव में ही रुक गयी.फिर पंद्रह दिनों बाद मीरा वापस पहुँच गयी, "माँ..दीदी ,कबतक तुम्हे अगोर कर बैठेगी.उसे अपनी गृहस्थी देखने दो और मेरे साथ चलो,मैने घर ले लिया है"

"मैने कब रोका है इसे...ये खुद अपनी मर्जी से यहाँ है....."

"तुम्हे हम अकेला कैसे छोड़ सकते हैं...तुम मीरा  के साथ जाओ..जरा देखो लड़की कितनी दुबली हो गयी है...उसे ठीक से खाना-वना खिलाओ.."नमिता बोली.

वे कुछ नहीं बोलीं और मीरा के साथ शहर आ गयीं. खाना-वाना खिलाना तो एक बहाना था,यह दोनों बहनों की मिलीभगत थी, उन्हें मीरा के साथ लाने की. मीरा ने एक कामवाली रखी थी जो सारे काम किया करती. मीरा ने ऑफिस से आते ही हाथ मुहँ धोया और एक किताब जैसी बड़ी सी मशीन खोल ली.उन्होंने टोका..."सारा दिन तो काम किया करती है...अब तो आराम कर ले"

"माँ, ये काम नहीं है....पास आओ तुम्हे कुछ दिखाती हूँ. और उनका चश्मा उठा कर ले आई,जरा इसे पहनो और देखो अपने बहू बेटे को...और सिनेमा जैसे  उस छोटे से सफ़ेद परदे पर प्रमोद, पूजा और उसकी बिटिया की कई तस्वीरें देखीं.फिर मीरा ने मुस्कुराते हुए कहा, "भैया की कविता सुनोगी?"

"कविता...और प्रमोद....??"उन्हें विश्वास नहीं हुआ.

"हाँ, माँ...भैया का एक ब्लॉग है...वह उसपर कविताएँ लिखा करता है.."फिर हंस पड़ी..."चाहे उस बरगद के पेड़ के नीचे कभी ना बैठा हो...नहर के किनारे ना घूमा हो...कुएँ के जगत पर बैठ चाँद ना निहारा हो.. ...पर इन सबपर  कविताएँ लिखी हैं....गाँव का एक एक कोना उतर आया है उसकी कविता में...कभी कभी अपने मन की बातें भी लिखता है....अपने देश की मिटटी को बहुत याद करता है, माँ...पर वहाँ का ऐशो आराम भी नहीं छोड़ना....दोनों हाथों में लड्डू कैसे मिलेंगे....."

मीरा और पता नहीं क्या क्या कहती रही...पर उनका मन तो एक ही बात पर अटक गया. उनका छोटे...कविताएँ लिखता है??...और उन्हें पता नहीं??. अपने बच्चे की बातें ही उन्हें नहीं पता??...इसे समझ नहीं....अभी उम्र छोटी है इसलिए हंस रही है...अपनी मिटटी से दूर रहना क्या होता है...इसे क्या पता?

वे  तो चार दिन में ही ऊब गयी थीं.सारा  दिन कमरे के भीतर. खुली हवा को तरस जातीं. मीरा दिन में तीन बार फोन करती.ऑफिस से आते ही उन्हें पार्क में लेकर जाती. शनिचर -इतवार मंदिर  के दर्शन के लिए ले जाती. पर वे पीली पड़ती जा रही थीं. शिकायत नहीं करतीं कुछ. आखिर बिटिया भी अकेली है...ऑफिस से आने के बाद कोई दो बात करने को तो है,उसके पास.

पर मीरा उनकी क्षीण पड़ती काया  और मायूस  चेहरा देख समझ गयीं...उनका यूँ सारे दिन अकेला इस शाहर में रहना मुश्किल है. खुद ही बोली..."चलो तुम कुछ दिन गाँव रह आओ..वहाँ दिन भर लोगों का आना-जाना रहेगा तो मन लगा रहेगा....तुम्हारा मन तो वहाँ  के पेड़ ,पौधे , खेत खलिहान ही बहला देंगे. "

"पर तू अकेले...ना मैं ठीक हूँ...तेरा अकेले रहना मुझे नहीं जमता..."

"उसकी फ़िक्र ना करो...एक अच्छी सी सहेली है...उसे बुला लेती हूँ...पर हाँ...अपना ख़याल रखना , ठीक से खाना-पीना वरना फिर ले आऊँगी यहीं."

और मीरा  उनके  साथ गाँव आई..सिवनाथ माएँ,कलावती...गोपाल जी सबको समझा गयी कि उसका ख़याल कैसे रखें. रमेसर को रात में ओसारे  पर सोने की ताकीद कर गयी. और दादी अम्मा रोज फोन कर सारी रिपोर्ट लेती.

रमेसर का नाम आते ही जैसे वह चौंकी....आँगन की तरफ देखा तो पाया, चांदनी ख़तम हो, अब सुबह का उजास फ़ैल रहा था. ओह सारी रात वह बैठी ही रह गयीं? हाथ में रखे मोबाइल पर नज़र गयी और हडबडा गयीं. जल्दी से नहा-धोकर तैयार हो जाएँ .वरना नींद खुलते ही मीरा फोन करेगी और जो नहीं उठाया तो गाँव आ धमकेगी और जिद करेगी, "मेरे साथ चलो,माँ"

समाप्त

जब पाठकों ने लिखवा ली कहानी

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ये कहना जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी  कि यह  लम्बी कहानी सचमुच पाठकों ने ही लिखवा ली. जैसा कि पहले भी मैने जिक्र किया ,छः पेज की कहानी को ४ पेज में कर के , सिर्फ ९ मिनट में समेटी थी ..... और सोचा ,अब तो अपना ब्लॉग है. Unedited version  ब्लॉग पर डाल दूंगी.पर मन में एक शंका थी,यह बहुत ही सीधी सादी कहानी थी,कोई नाटकीयता नहीं...अप्रत्याशित  मोड़ नहीं.  सब कहेंगे दो नॉवेल लिख लिया ,अब रश्मि का लेखन चुक गया है. पर अपना लिखा एक जगह इकट्ठा करने की ख्वाहिश  भी थी. सो बड़ी हिचकिचाहट के साथ पहली किस्त पोस्ट कर दी.



टिप्पणियों  और मेल में लोगों की प्रतिक्रिया देख सुखद आश्चर्य हुआ, गाँव की पृष्ठभूमि पर लिखी इस  कहानी की पहली किस्त खूब  पसंद आई  थी लोगों को...किसी ने थोड़ा व्यंग्य भी किया कि "छः बच्चे ?कहीं परिवार नियोजन वाले ना दुखी हो जाएँ"पर मैं चुप रही, छः बच्चे इसलिए थे कि मुझे छः अलग अलग जिंदगियां दिखानी थीं...कुछ ने कमेंट्स में कहा भी कि हम भी छः भाई-बहन हैं....कहीं हमारी कहानी तो नहीं,मतलब यह इतनी अनहोनी बात भी नहीं.

फिर भी मुझे लगा, कि ३,४ किस्त में सिमट जायेगी. पर  पाठको का प्यार और उत्साहवर्द्धन लिखवाता गया और मैं लिखती गयी. शिखा, वाणी गीत, वंदना अवस्थी, वंदना गुप्ता, मुक्ति,सारिका, दीपक, आशीष,शुभम जैन,संजीत त्रिपाठी, मुदिता, रेखा दी, संगीता स्वरुपजी, घुघूती जी,राज भाटिया जी,समीर जी,  निर्मला दी, रश्मि दी,शमा जी,  हमेशा की तरह ये लोग पहली किस्त से ही साथ हो लिए, और बहुत ही सजगता से कहानी पर नज़र रखी थी. और भरोसा भी देते गए कि कहानी सत्य के करीब है.


इस कहानी से कुछ नए नाम जुड़े...साधना वैद्य जी और  शोभना चौरे जी, ...उनकी टिप्पणियाँ हमेशा एक नया जोश देती रहीं. राधा-कृष्ण के सिले कपड़े, शादी के बाद भी नैनों से ही प्रेमलीला, मनिहारिन,बच्चों के माध्यम से ससुर जी से बात करना और बड़े-बूढों का खांस कर घर में घुसना...मेरे साथ साथ बहुतों को याद आ गया.

मुक्ति और वाणी का हर किस्त पर ये कहना कि ऐसा उनके गाँव में भी होता था,शिखा,वंदना गुप्ता  संगीता जी ,घुघूती जीका गाँव की एक एक बात ध्यान से पढना ,क्यूंकि इन लोगों ने ग्राम्य-जीवन पास से देखा ही नहीं, बरबस मुस्कराहट ला देता. वंदना अवस्थी,संजीत त्रिपाठी ने आश्चर्य भी किया कि शहर में रहकर इतने वास्तविकता के करीब कैसे लिखा?...मैने गाँव के जीवन को जिया नहीं पर देखा तो जरूर है...बरसों पहले ही सही.. थोड़ा डर तो था,न्याय कर पाउंगी या नहीं पर कुछ अपनी कल्पना की छौंक भी लगाती रही.शिखा एवं आशीष जीमें शर्त लग गयी की मुझे भोजपुरी नहीं आती....जबकि बखूबी  आती है. दीपक मशालने शिकायत भी की , सारी लड़कियां हिरोइन और लड़के विलेन..ऐसा क्यूँ??


प्रवीण पाण्डेय जी, डॉक्टर दराल, अनामिका जी,रचना दीक्षित जी, इस्मत जैदी जी , ताऊ रामपुरिया जी,रवि धवन जी, जाकिर अली, विनोद पाण्डेय, रोहित, सौरभ , हिमांशु मोहन जी  ये लोग भी समय मिलने पर कहानी पढ़ते रहें और अपनी टिप्पणियों से उत्साहवर्धन करते रहें.हिमांशु जीने अंतिम  किस्त पर बहुत ही ख़ूबसूरत टिप्पणी की.

दूसरी किस्त में ममता  की शादी कि बात पढ़ ,सबको लगा ये ममता की कहानी है..टिप्पणियों में ममता की कहानी आगे बढ़ने का सबको इंतज़ार था पर अब तो कहानी स्मिता पर आ गयी.शोभना जीने बताया,स्मिता जैसी ही ज़िन्दगी देखी थी उन्होंने मुंबई में.  इस कहानी की पात्र नमिता का चरित्र सबको खूब पसंद आया. सब इंतज़ार करने लगे, कि नमिता शायद  अब घर में बदलाव लाएगी. टिप्पणियाँ पढ़, मुझे लगता, 'मैं कुछ गलत कर रही हूँ क्या..? हमेशा पाठकों के अनुमान के विपरीत जा रही हूँ.'पर कहानी की रूप-रेखा तो पहले ही बन चुकी थी.

प्रमोद और प्रकाश की कहानी के बाद सबको अनुमान हो गया कि ये अलग-अलग पात्रों की कहानी है. जब प्रकाश की पत्नी पूजा का कहानी में प्रवेश हुआ, तो बिंदास पूजा का चरित्र भी सबको बहुत पसंद आया.घुघूती जीने कहा 'अब नमिता और पूजा मिल कर बदल देंगी घर को'पर एक बार फिर मैने निराश किया,अपने पाठकों को.और पूजा को विदेश भेज दिया. अब तक कहानी बिलकुल धरातल पर पैर जमा चल रही थी ,मैने  पूजा के बहाने ,कल्पना को थोड़ी उड़ान दी. इंदु जीने भले ही कभी टिप्पणी नहीं की पर उनकी पैनी नज़र थी,कहानी पर.तुरंत टोक दिया, "काश! गाँव ऐसे होते" .


इस कहानी का सबसे बड़ा झटका था, 'नमिता'का घर छोड़ कर चले जाना. इसे पाठकों का संस्कारी मन स्वीकार नहीं कर पा रहा था. उनकी प्रतिक्रियाएँ देख, मुझे भी दुख होता,पर मैं यह भी दिखाना चाह रही थी कि 'कैसे शिक्षित, मृदु स्वभाव वाले पिता भी,बेटी का अन्तर्जातीय विवाह स्वीकार नहीं कर पाते.'

समापन किस्त पर भी सबकी प्रतिक्रिया ने चौंकाया...सबको मार्मिक लगी वो कड़ी...और करीब-करीब सबने आँखें नम होने की बात लिखी. मैं तो पोस्ट करके सो गयी थी. सुबह कमेंट्स पढ़े तो अपराध-बोध से भर गयी. कभी कभी कैसी विवशता हो जाती है, कहानी की मांग ही ऐसी होती है कि पाठकों को दुखी करने का अपराध अपने सर लेना पड़ता है.

यह कहानी लिखते वक़्त जाना कि गाँव की यादें इतनी सुरक्षित हैं, मेरे मन-मस्तिष्क में. सचमुच दिल से शुक्रिया सभी पाठको का...उन लम्हों को फिर से जीने का मौका दिया और एक लम्बी कहानी मेरी झोली में डाल दी.

आगे भी ऐसे ही स्नेह,मार्गदर्शन,चौकस नज़र बनाएं रखें....अगली कहानी में उसकी ज्यादा जरूरत है क्यूंकि कागज़ पर उसे लिखना शुरू किया था (ब्लॉग बनाने से पहले) पर आधे के बाद नहीं लिख पायी. ये अहसास रहें कि कुछ लोग साथ हैं तो शायद पूरी कर पाऊं.

आँखों का अनकहा सच

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(ये  वो कहानी नहीं, जिसका जिक्र मैने अपनी पिछली पोस्ट  में  किया था....वो तो किस्तों वाली होगी...कुछ दिन चलेगी....यह भी थोड़ी लम्बी तो है..पर एक पोस्ट में ही समेटदिया है )


दोनों बच्चे शोर कर रहें हैं...आपस में कुछ ना कुछ बहस झगडा चल रहा है...शालिनी  मुश्किल से उन्हें, आँखें दिखा कर  चुप कराती है ,उसकी तो सारी इन्द्रियाँ सिमट कर बस कान बन गए हैं...फ्लाईट के पायलट का नाम अनाउंस होने ही वाला है....और धड़कन एक पल को रुक जाती है...और फिर थकी सी ठंढी सांस वापस निकल जाती है...उसका नाम नहीं था...पता नहीं कभी यह रुकी सांस उल्लासित होकर बाहर आएगी भी या नहीं. वापस शिथिल हो कर सर पीछे को टिका देती हैं...बच्चों का झगड़ना फिर शुरू हो गया है...करने दो...एयर होस्टेस अभी आँखें दिखायेगी  तो खुद ही चुप हो जाएंगे.

जब से यहाँ वहाँ  से उड़ती हुई खबर उसके कानों तक पहुंची है कि मानस ने डोमेस्टिक एयरलाइन्स   ज्वाइन की है.हर बार कैप्टन का नाम ध्यान से सुनती है कि शायद वही हो जबकि उसे पता भी नहीं कौन सी एयरलाइन्स ज्वाइन की  है. एयरपोर्ट पर भी बच्चे और ट्रॉली  संभालते भी खोजी निगाहें दौड़ती रहती हैं. और लगता अभी किसी तरफ से मानस का हँसता चेहरा सामने आ जायेगा. हर सोशल नेट्वर्क पर भी उसे ढूंढ्ने की कोशिश की पर निराशा ही हाथ आयी.पर क्यूं, किसलिए  उसे ढूँढने  की कोशिश कर रही थी?? यह सवाल खुद से भी कई बार पूछ चुकी पर जबाब कोई नही मिलता.

और अपनी बेवकूफी पर हंस भी पड़ती है...मानस का  छठी कक्षा वाला चेहरा ही सबसे पहले ध्यान में आता है...जब वह पहली बार उस पर इतना हंसा था...पर तब तो वह कित्ता  रोई थी.

इंग्लिश के नए टीचर आए थे.आते ही डस्टर पटका और रौबीली आवाज़ में, सबको नोटबुक निकालने को कहा. फिर बहुत सारे कठिन ग्रामर के लेसन दिए हल करने को. सबकी  कापियाँ  जमा कर लीं चेक करने के लिए.. उनसे डर तो गए थे सब पर कितनी देर शांत रह पाते.देर शांत रहते..धीरे धीरे बातें शुरू हो गयीं.शालिनी,  रीता और शर्मीला भी सर जोड़े नई फिल्म की कहानी सुनने लगीं जो पिछले हफ्ते ही शर्मीला अपने नए जीजाजी  और दीदी के साथ देख कर आई थी. उसे कितनी कोफ़्त होती...वो क्यूँ सबसे बड़ी है? उसकी भी कोई बड़ी दीदी होती तो वो भी शर्मीला जैसी  उनलोगों के साथ फिल्म देखकर आती और कहानियाँ सुनातीं.पर अभी तो बस सुननी पड़ती थीं. बेच बीच में सर के चिल्लाने कि आवाज़ आती रहती.पर वे लोग तो इतना धीरे बोल रही थीं. सर शायद पीछे बैठे लड़कों पर नाराज़ हो रहें थे .अचानक जोर का एक चॉक  का टुकड़ा उसके सर से टकराया.उसने सर उठाया..और सर चिल्ला पड़े,"क्या गपाश्टक हो रहा है...चलो बेंच पर खड़ी  हो जाओ"तब , इंग्लिश के सर भी हिंदी में ही बाते करते थे और कई बार तो लेसन भी हिंदी में ही एक्सप्लेन कर जाते. उसे तो काटो तो खून नहीं. आजतक कभी डांट भी नहीं पड़ी और सीधा बेंच पर खड़ी हो जाओ. वो  हतप्रभ मुहँ खोले देखती रहीं तो फिर से चिल्लाये..."मुहँ क्या देख रही हो....स्टैंड अप ऑन द बेंच (इस बार अंग्रेजी  में बोले)

वो सर झुकाए खड़ी हो गयी. और आँखों से धार बंध चली. पूरा क्लास सकते में था.इसलिए नहीं कि सर चिल्ला रहें थे.इसलिए कि वह बेंच पर खड़ी  थी. सारे बच्चे ,मुहँ खोले उसे देख रहें थे.
सर, वापस कॉपियाँ चेक करने में लग गए थे.एक एक कॉपी चेक करते...बच्चे का नाम पुकारते...उस बच्चे को  डांटते  और फिर कॉपी उसकी तरफ फेंक देते. किसी ने अच्छा नहीं किया था. यह देख उसका रोना और बढ़ता जा रहा था .अब सर के सामने उसकी कॉपी थी. उनका बडबडाना बदस्तूर चालू था..."कोई भी  नहीं पढता...किसलिए स्कूल आते हो तुमलोग"...फिर माथे पर चढ़ी भृकुटी थोड़ी शिथिल हुई.."अँ.. ये तो सही हैं....हम्म ये भी सही है...ओह ये भी सही है.."अब आश्चर्य का भाव था,चेहरे पर...."हम्म क्या बात है...ये भी राईट..हम्म..पंद्रह में से बारह राईट..."अब थोड़ी सी मुस्कान तिर आई थी उनके चहरे पर....नाम देख पुकारा..."शालिनी कौन है ?"वो चुप रही.

"हू इज शालिनी?" (फिर से अंग्रेजी पर आ गए )

इस बार मानस  ने हँसते हुए कहा..'सर वो जो बेंच पर खड़ी रो रही है,ना..वही है शालिनी"

"ओह्ह!! सिट डाउन..... सिट डाउन...ले जाओ अपनी कॉपी...गुड़, यू हैभ  डन बेल "

वो उतर तो गयी थी...पर इतने अपमान के बाद कॉपी लेने नहीं गयी. वे स्वर को कोमल बना कर

बोले.."ले जाओ अपनी कॉपी"

वो भी हठी की  तरह खड़ी रही.

इस बार मानस उठ कर बोला.."सर मैं दे आऊं??"और हंस पड़ा.

"क्यूँ..."

"ही ही ही.. वो नहीं जा रही ना..."

"तुम्हार क्या  नाम है?...."

"मानस"

"कितने नंबर  मिले तुम्हे?"

"पांच"..मुस्कराहट अब भी वैसे ही जमी थी उसके चहरे पर.

"और हंस रहें हो..शर्म नहीं आती...खड़े हो जाओ बेंच पर..."डांट कर कहा ...और फिर उसी स्वर में उसे भी बोला.."ले जाओ आपनी कॉपी.
सहम  कर वो चुपचाप अपनी कॉपी ले आई.पर मानस बेंच पर खड़ा भी हँसता ही रहा.

घंटी बजी और सर के जाते ही,सब भाग लिए दरवाजे की तरफ. अंतिम पीरियड था. वो शर्म से सर झुकाए,धीरे धीरे बढ़ रही थी कि आवाज़ आई 'रोनी बिल्ली"खूनी आँखों से देखा तो मानस और उसके चार-पांच शैतान  दोस्त हंस रहें थे. बस वहीँ विष बेल के बीज पड़ गए.
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फिर तो मानस कोई मौका नहीं छोड़ता, उसे चिढाने का. उसी की  कॉलोनी में चार घर छोड़ कर रहता था. साथ खेलने  वाले सारे बच्चों को पता चल गया था. उसे बेंच  पर खड़े होने की सजा मिली थी और वह रोई थी. खेल में भी मानस इतना तंग करता कि वह रो ही देती. लुक्का-छिपी खेलते तो पता नहीं कहाँ , छुपा रहता और फिर उसे धप्पा कर देता...बार-बार उसे ही चोर बनना पड़ता अंत में तंग आ वह रो देती.तो फिर उसे चिढाने का बहाना  मिल जाता. कोई भी खेल शुरू करने के पहले कहता..'मैं नहीं खेलता, हारने पर लोग रोने लगते हैं..."

सबकी आँखें उसकी तरफ उठ जातीं. फिर सब मानस को मनाने में लग जाते और शालिनी गुस्सा पीते हुए खुद में ही सिमट जाती.

वह उसे गुस्से मे घूरती और वह दाँत दिखाता रह्ता.पर इस बार गुस्से मे घूरने की बारी मानस की थी जब सिक्स मंथली  एक्ज़ाम मे वह फ़र्स्ट आई थी और मानस को बहुत कम नम्बर मिले थे. हर शाम की तरह वह शोभा के साथ, बाहर घूम रही थी. मानस के घर के सामने से गुजरते हुए, शोभा ने बताया कि आज अचानक वह मानस के घर गयी तो देखा, चाची मानस  को आंगन में दौडा दौडा कर मार रही हैं और बोलती जा रही हैं "वह लड़की होकर भी फर्स्ट आ गयी ...इतने अच्छे नंबर लेकर आई...और तुम मुश्किल से पास हुए...अब भागते किधर हो?."
 उस दृश्य की  कल्पना कर वह दोनो हंस पड़ीं..उसी  वक्त मानस घर से बाहर आ गया. दोनो अचकचा कर चुप हो गयीं पर मानस  समझ गया कि वे दोनों  उसी पर हंस रही थीं. उसे इतने गुस्से से  घूरा  कि अगर किसी देव ने कभी प्रसन्न होकर उसे  कोई वर दिये होते तो वो वहीं भस्म हो जाती. उस विषबेल पर अब पत्ते निकल आये थे.

और अब माँ की मार का बदला वह रोज उसे स्कूल में तंग कर के लेता. अक्सर इंग्लिश टीचर उसे रीडींग डालने को बोलते और मानस जोर से चिल्ला कर बोलता, "सर सुनायी नहीं दे रहा". कभी कभी तंग आ कर टीचर, उसे, शालिनी की  बराबर वाली बेन्च पर बिठा देते, तब भी वह बाज नहीं आता. कान को हाथ की ओट मे लेकर सुनने की एक्टिंग करता.सारा क्लास मुँह छुपा कर हंसता रह्ता.और शालिनी का  ध्यान भंग हो जाता. अगर टीचर ,उसे बोर्ड पर कोई सवाल हल करने को देते तब भी चिल्लाता, "सर कुछ दिखाई नहीं दे रहा."वह उचक उचक कर और बडा लिखने की कोशिश करती और इस चक्कर मे सब टेढा मेढा हो जाता.

उसे बस आश्चर्य इस बात का होता, इतनी शैतानी करने पर भी सारे टीचर उसे इतना  मानते कैसे थे? ऑफिस  से रजिस्टर लाना हो, किसी को बुलाना हो, हमेशा मानस को ही बुलाते. शायद रेस मे हमेशा जीतता था, इसी लिये. स्पोर्ट्स डे के दिन मानस का ही बोलबाला रह्ता.सौ मीटर, चार सौ मीटर रेस, लौन्ग जम्प, हाई जम्प, सब मे वह ढेर सारे कप्स जीतता. अपने लाल हो आए चेहरे से पसीना पोंछते ,वह उसे एक बार गर्वीली नज़र से जरूर देख लेता.वो मुहँ घुमा  लेती. बाकी सब तो"माss नस ...माss नस"  का नारा  लगाते, रह्ते, उसे बधाई देते.शर्मीला,,रीता, मीना  सब जातीं , पर वो दूर ही  खडी रह्ती. मानस तो कभी उस से बात भी नहीं करता,और इतना परेशान करता वो क्यूं जाये बधाई देने? विष-बेल अब बढती जा रही थी.

धीरे धीरे मानस ने शाम को उन सबके साथ खेलना छोड दिया. अब वह मैदान में बडे बच्चों के साथ क्रिकेट और फ़ुटबाल खेलने जाता.क्लास पर क्लास बढते गये पर स्कूल मे तंग करना वैसे ही जारी रहा. मानस की ड्राईंग बहुत अच्छी थी,जबकि,उसकी कम्जोर. फिज़िक्स के ड्राईंग तो वह फिर भी कर लेती पर बायोलोजि के ड्राइंग मे उसकी जान निकल जाती. कुछ भी ठीक से नहीं बना पाती. जब प्रैक्टिकल बुक जमा होती करेक्शन के लिये, वह सोचती बस मानस की नज़र ना पड़े,पर मानस किसी न किसी की बुक ढूंढ्ने के बहाने देख ही लेता और देख कर उपहास के ऐसे ऐसे मुहं बनाता कि उसकी झुकी गर्दन शर्म से और झुक जाती.

फ़ेयरवेल के दिन परम्परानुसार सबने साडी पहनी, उसे देख्ते ही मानस बोला, "कोई शादी है क्या...लोग इतना सज धज कर आ रहे हैं."उसका सारा तैयार होना व्यर्थ हो गया.

और इसी डर के मारे, कौलोनी मे अनीता दी की शादी मे जब उसने सब की ज़िद पर साडी पहनी तो पूरे समय मानस के सामने पडने  से बचती रही. एक बार जब एकदम से सामने आ गया तो उसने जल्दी से मुहँ फ़ेर लिया.और वह धीमे से उसे सुना कर बोलता चला ही गया,"पता नहीं इतना घमंड किस बात का है?"

शालिनी सोचती रह जाती , कब किया उस ने घमंड? फ़र्स्ट आना क्या घमंड करने जैसा है? अब वह उसकी खुशी के लिये फ़ेल तो नहीं हो सकती. और उस ने मुहँ बिचका दिया.खाता रहे जितनी मार खानी हो अपनी माँ से. उसकी बला से.

वह गर्ल्स कॉलेज में  आ गयी तो मानस से पीछा छूटा.पर कहीं उसके तानों की इतनी आदत पड गयी थी कि क्लास मे सब सूना सूना  लगता. मानस के घर के बिल्कुल बगल मे एक शर्मा अंकल ट्रांस्फ़र हो कर आये थे.उनकी तीन लड्कियाँ थीं, तीनों का मानस के घर मे आना जाना था. उनसे हमेशा मानस को हँस कर बातें करते देखती तो आश्चर्य होता, उसे तो लगता था, मानस को लड़कियों  से     ही चिढ है.पर उसे क्या, जिस से मर्जी हो उस से बात करे.

एक बार शर्मा अन्कल के यहाँ गयी थी, बाहर ही उनकी बेटी निशा मिल गई, वो ऊन की सलाइयाँ, मानस की माँ को देने जा रही  थी. उसे भी कहा, "चल मेरे साथ"

"मैं नहीं जाती मानस के यहाँ"

"क्यूँ?"

"ऐसे ही उस के यहाँ कोई लडकी भी नहीं."

"तो क्या हुआ...वो तो तुम्हारे ही क्लास मे था,स्कूल मे?...पर तुम लोग कभी बात भी नहिं करते...झगडा है क्या, उस से?"

"नहीं,झगड़ा क्यूँ होगा.?"

"अरे..झगडा तो किसी भी बात पर हो सकता है...वैसे मानस घर पर है नही..अभी अभी उसे बाहर जाते देखा है...बता ना...झगडा है उस से??

"नहीं बाबा...कोई झगडा नहीं...चलो चलती हूँ....."उसकी बातों से बचने को वो साथ चल दी."

वो हर कमरे मे चाची चाची कह्ती घूमने लगी पर चाची कहीं नहीं थीं. तुम यहिं रुको, मै छ्त पर देख कर आती हूँ, वह मानस का कमरा  था. वह उसकी मेज़ पर आकर उसकी किताबें, उलट पलट कर देखने लगी.’देखूं कुछ पढ़ता भी है या,सब वैसे ही कोरी हैं"

पहली नोटबुक जो खोली , देखा, सुन्दर सा एक फ़ूल बना हुअ है...’ह्म्म ठीक ही सोचा था उसने ,अब भी नहीं पढ़ता.यही चित्रकारी करता रह्ता है’ पर तभी ध्यान से जो देखा तो देखा फ़ूल के बीच मे बड़ी खूबसूरती से लिखा हुअ है, ’शालिनी’. उस के दिल की धड़्कन अचानक बढ़ गई. फ़िर तो जल्दी जल्दी कई नोटबुक  पलट  डाले और तकरीबन  सबमे, फ़ूल पत्ती, बेल बने हुये थे और बीच बीच मे लिख हुअ था, शालिनी.

एकदम से डर गई वह.पसीने से नहा गई. जल्दी से बाहर निकल आई. चेहरा , लाल पड़ गया था और दिल धौंकनी की तरह चल जोर जोर से धड़क रहा था.निशा के सामने पड़ने की हिम्मत नहीं थी उसमे. आंगन से ही आवाज़ लगाई उसने ,"निशा...मैं जा रही हूँ"

"अरे रुक मैं बस आ गई..."निशा की आवाज़ भी उसने बाहर निकलते निकलते सुनी. 

घर आकर सीधा छ्त पर भाग गई, निशा क्या किसी का सामना करने की हिम्मत नहीं थी उसमे. साँस जब सम पर आई तब दिमाग कुछ सोचने लायक हुआ. पर वह इतना घबरा क्यूँ रही है,क्या अकेली शालिनी है वो दुनिया मे? उसके कॉलेज मे लड़्कियाँ भी तो पढ़ती हैं. उन मे से ही कोई होगी या क्य पता, जिन प्रोफ़ेसर के यहाँ ट्यूशन पढने  जाता है, उनकी बेटी का नाम  हो शालिनी. उसका नाम कैसे हो सकता है? उसके पढाई मे तेज़ होने के कारण. उस से तो वह बचपन से ही नफ़रत करता है, स्कूल मे रीता,शर्मिला सबसे बातें करता है, कॉलोनी  में भी शोभा, निशा से कितना खुलकर बात करता है. एक सिर्फ़ उस से दूर रहता है, दूर ही  नहीं हमेशा  नीचा दिखाने की कोशिश , अब उसका नाम कैसे लिख सकता है..नामुमकिन. उस विष-बेल में अमृत धारा कैसे बह सकती है?

और अगर सच मे लिखा हो तो....न... न वह इतना हैंन्डसम है, इतन स्मार्ट, और वह कितनी छुई मुई सी है, बस कीताबी कीड़ा...ना..उसे तो कोई अपने जैसी स्मार्ट लड़की ही पसन्द आयेगी.जो जिसे चाहे मुहँ पर जबाब दे दे ,उसकी तो किसी को देखते ही जुबान तालु से चिपक जाती है. बेकार मे सपने बुन रही है वह.

और फ़िर जैसे खुद को ही पहली बार जाना. सपने??...तो क्या, उसे मानस से कोई नराज़गी नहीं.पहले तो उसे बड़ा गुस्सा आता था, उस पर...हाँ आता तो था,पर जब से कॉलेज  अलग हुये हैं,उसकी कमी बहुत खलती है. तो क्या वह...ना ना...ये सोचने का  भी क्या फ़ायदा...वो कभी मानस की पसन्द हो ही नहीं सकती,ये जरूर कोई और शालिनी  है, नहीं  तो क्या  अब तक वह एक बार भी नज़र उठा उसे देखता भी नहीं. इतनी सारी लड़कियों से बात करता है, सिवाय उसके. इसका मतलब वो उसे पसंद नहीं करता...हाँ, उसे तो उसके जैसा ही कोई पढ़ाकू पसंद करेगा....मोटी कांच के चश्मेवाला, चिपके बाल....पूरी बाहँ की शर्ट, गले तक बंद बटन....यक... और जैसे अपनी कल्पना से ही घबराकर उठ कर नीचे भाग गयी.

शुक्र है,माँ घर में नहीं थीं..वरना उसका बदहवास चेहरा देख पूछ ही बैठतीं,क्या हुआ?...उसने सोफे
पर लेट, टी.वी. ऑन कर दिया...कुछ तो ध्यान बंटे...पर स्क्रीन पर तो एक सुन्दर सा फूल दिख रहा था, जिसके अंदर लिखा था, शालिनी. घबरा कर आँखें बंद कीं तो पलकों में भी वही फूल मुस्करा उठा. उसने कुशन उठा कर जोरो से आँखों पर भींच लिया.

पर इसके बाद से वह काफी डर गयी थी. बालकनी में खड़ी रहती और दूर से भी मानस को आते देखती तो धडकनें तेज़ हो जातीं और वह झट से छुप जाती. लगता जैसे, सबकी नज़रें उन दोनों को ही देख रही हैं. निशा कितनी बार बुलाने आती..चलो बाहर टहलते  हैं..पर वो उसे छत परले जाती,  कहीं मानस से सामना ना हो जाए. कभी आते-जाते मानस सामने पड़ भी जाता तो पसीने से नहा उठती और जल्दी से कतरा कर निकल आती. जबकि बार बार खुद से कहती..."वो शालिनी कोई और है...वो तो हो ही नहीं सकती"

मानस दिखता भी कम...निशा बताती...बहुत मेहनत  से पढ़ाई कर रहा है..उसका मन होता कहे, 'जरा उसकी कॉपियाँ पलट कर देखो..पढता है या ड्राइंग करता है'पर जब बारहवीं का रिजल्ट आया तो सब हैरान रह गए, मानस  को 'फर्स्ट क्लास'  मिली थी. उसके बराबर में आ गया था वह...जो पापा को शायद अच्छा नहीं लगा था,  बार बार कहते.."लड़कों का कुछ पता नहीं,कब पढने की लगन जाग  जाये.."
माँ बहुत खुश थी,कहतीं.."मानस की माँ की चिंता दूर हो गयी...हमेशा कहती थीं..."तुम्हारी तो बिटिया  है..वो भी इतनी तेज है..और मानस तो ..लड़का होकर भी नहीं पढता....कैसे मिलेगी, नौकरी?"

मानस का अच्छा रिजल्ट उसे इस शहर  से भी दूर ले गया. वह बड़े शहर में पढने चला गया.जाने के एक दिन पहले, कई बार मानस को उसके घर के सामने से आते-जाते देखा....पर हर बार वह ओट में हो जाती. हिममत  ही नहीं हुई सामने आने की.

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उसने भी खुद को पढ़ाई में झोंक दिया.अपने भविष्य की रूपरेखा भी तय कर ली, ग्रेजुएशन के बाद कम्पीटीशन देगी...और फिर एक बढ़िया सी नौकरी. बड़ी सी मेज़ होगी...फाइलों से लदी. सामने चपरासी हाथ बांधे खड़ा रहेगा...वाह क्या रुआब होगा.

पर उसे कहाँ पता था, वह तो परीक्षा की तैयारियों में उलझी है...घर वाले किसी और तैयारी में. यूँ ही पढ़ाई से ब्रेक लेने किचेन में कुछ डब्बे टटोलने आई तो बरामदे में बैठी  माँ और पड़ोस वाली, सिन्हा चाची  का स्वर कानो में पड़ा. "अब लड़की के भाग्य हैं और क्या..घर बैठे तुम्हे इतना अच्छा लड़का मिल गया "सिन्हा चाची थीं.

"हाँ , वो तो है...हमने अभी कहाँ कुछ सोचा था, वो तो इसकी बुआ आई थीं उन्होंने ही बताया  उनकी  पड़ोस में एक बहुत अच्छा लड़का है. उनलोगों को बस अच्छे घर की गोरी,पढने में तेज़ लड़की चाहिए..."

"अरे तेज़ लड़की...मतलब?..नौकरी करवाएंगे क्या??  लड़का अच्छा कमाता तो है...?"

"सच कहूँ तो मैं भी ऐसे ही हैरान हो गयी थी, पर सुषमा जी ने जब बताया सुन कर कुछ अजीब ही लगा....लड़की पढने में तेज़ होनी चाहिए..ताकि बच्चे मेधावी हों...क्या क्या नखरे  होते जा रहें है लड़केवालों..के..पर इनकी दहेज़ की ज्यादा मांग नहीं और शालिनी को तो दूर से बाज़ार में देख कर ही पसंद कर लिया...वरना आप शालिनी को तो जानती हैं , ना??...वह कभी तैयार होती 'लड़की दिखाने को"?? दिमाग में क्या फितूर भरा हुआ है..बहुत पढना है....कम्पीटीशन देना है..ऑफिसर बनना है....पर हमें तो ,बिना चप्पल घिसे अच्छा लड़का मिल गया...हम तो गंगा नहा लिए."...माँ थीं.

वो घड़े से पानी ले रही थी, मन हुआ ग्लास दे मारे घड़े पर और सारा पानी फ़ैल जाए,किचेन के साथ साथ उनके मंसूबों पर भी.

पर कुछ नहीं कर सकी और अनजान बन वापस कमरे में लौट आई...बस किताब उठा जोर से दूर  फेंक दी ..और बरसती आँखें ,तकिये में छुपा लीं.

पढने का भी मन नहीं होता...पर मन को बहलाने का कोई दूसरा साधन भी नहीं था...नोटबुक खोलती तो बार-बार मानस के उकेरे फूल पत्ती दिखने लगते...पर खुद को ही डांट देती...पता नहीं, किस शालिनी का नाम वह लिखता रहता है.. और वह दिवास्वप्न देख रही है.

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इम्तहान ख़त्म हो गए और उसकी शादी की तैयारियां शुरू हो गयीं. घर जिस तेजी से मेहमान से भरने लगा,उतनी तेजी से ही उसके दिल में खालीपन घर करने लगा....कोई उत्साह,उमंग मन में जागती ही नहीं. उसने इस जीवन की कल्पना तो कभी नहीं की थी?? उसके मन की इच्छा को भली-भांति जानते हुए भी अगर  माता-पिता  एक बोझ समझ दूसरे हाथ में सौंप गंगा नहा लेना चाहते हैं..तो ऐसा ही सही.

मन इतना अवसाद से घिर चुका था, मानस का भी ख़याल नहीं आता, आता तो यही कि उसे कम से कम जिसकी चाहना है वो,उसे  मिल जाए.

आज उसकी  शादी थी और उसे पीली साड़ी पहना,आँखों में काजल लगा, एक कमरे में बिठा दिया गया था. सारे भाई-बहन, मेहमान, चहकते हुए रंग-बिरंगे कपड़ों में सजे इधर से उधर दौड़ते रहते. पल भर को हमउम्र बहने पास आ बैठतीं फिर ही ही करती हुई बाहर चल देतीं. वो वीतराग  सी चुपचाप एक चटाई पर बैठी रहती. तभी माँ का तेज़ स्वर कानों में पड़ा..."अरे मानस की माँ कहाँ,जा रही हैं?? खाना खा कर जाइये. "कुछ दिनों से घर में  सब चिल्ला चिल्ला कर बातें करते. धीरे बोलना सब भूल ही गए थे जैसे. पिछले दो दिन से  ज्यादा करीबी लोगों का खाना शालिनी के  घर ही होता था. बस समय समय पर वे लोग कपड़े बदल कर आ जाते.

"बस थोड़ी देर में आती हूँ...मानस की ट्रेन का टाइम हो चला है...वो आने ही वाला होगा..."

"अच्छा मानस आ रहा है??...आप तो कह रही थीं...उसकी छुट्टी नहीं"

"हाँ पहले तो उसने यही कहा था...पर कल कहा कि दो दिनों के लिए आ रहा है..."

"बहुत अच्छा हुआ...कॉलोनी के लड़के ही काम नहीं संभालेंगे तो कौन  संभालेगा..जल्दी आइये उसे साथ लेकर"

शालिनी को जैसे  जोर का चक्कर आ गया...क्यूँ आ रहा है मानस?...क्यूँ उसके लिए सबकुछ इतना मुश्किल बना रहा है?....क्या पहले ही यह राह कम दुष्कर नहीं. पर रोक नहीं सकी खुद को...खिड़की पर जा खड़ी हुई. कोई घंटे भर, खड़े रहने के बाद, जब पैर दुखने लगे...तब जाकर, उसकी नज़रों के फ्रेम में एक आकृति नमूदार हुई और वह घबराकर चटाई पर आकर वापस बैठ  गयी. सर घुटनों में छुपा लिया.

बरामदे में मानस के पदचाप के साथ....उसकी आवाज़...नमस्ते चाची..प्रणाम दादी..सुन रही थी. जरूर ,छोटू को ढूंढ रहा होगा. पर उसकी पदचाप तो कमरे तक आती जा  रही थी और परदा उठा वह भीतर दाखिल हो गया..उसकी झुकी गर्दन और झुक गयी.

'शालिनी"...इतने दिनों में पहली बार मानस ने बिना किसी व्यंग्य के उसका नाम पुकारा. पर उसका झुका सर उठ नहीं सका.

"शालिनी..."इस बार मानस की  आवाज़ थरथरा रही थी....और उसकी आँखों से दो बूँद...पानी टपक गए.

"शालिनी....क्या हमेशा नाराज़ ही रही होगी..."गीली हो आई थी मानस की आवाज़ और उसके आँखों से आंसुओं की धार बंध चली.

"ओक्के .. नो प्रॉब्लम....इट्स फाइन  ...यू टेक केयर.."और बहुत ही भारी थके क़दमों से वह बाहर निकल  गया.
उसने जल्दी से सर उठा..'मानस'पुकारना चाहा..पर तब तक वह परदे उठा बाहर कदम रख चुका था....उसकी थमती रुलाई दूने वेग से उमड़ पड़ी.

बाहर माँ की आवाज़ सुनाई दी.."आ गए बेटा..बहुत अच्छा किया...तुमलोगों को ही तो सब संभालना है. पर तुम मेरा एक काम करो....मेरा कैमरा तुम संभालो. फोटोग्राफर तो हैं ही..पर वो सबको पहचानता नहीं ना.....तुम मेरे कैमरे से, सारे करीबी लोगों की अच्छी अच्छी फोटो लेना...सारे रस्मों की... हाँ.."

और माँ कमरे में आ गयीं.."शालिनी जरा आलमारी से कैमरा निकाल दो तो..."

उसने बिजली की फुर्ती से कैमरा निकाल कर दे दिया...और साथ में चार रील भी. माँ ने सारी तैयारी कर रखी  थी.

मानस के हाथों में कैमरा देखना था कि बच्चों की फरमाईश शुरू हो गयी, एक हमारी फोटो लो ना भैया.."उधर से लड़कियों का झुण्ड खिलखिलाता हुआ आया..."भैया एक फोटो हमारी भी"...तभी मामियों ,चाचियों का ग्रुप टोकरी में कुछ सामान लिए उसके कमरे तक आता दिखा,और साथ में मानस को हिदायत..."अंदर चलो....रस्म   होने वाली है...उसकी फोटो ले लेना..."

कैमरा संभालता मानस अंदर दाखिल हो गया. इसके पहले भी इन चाची,मौसी,मामी,बुआ, दादी का ग्रुप उसे अक्सर घेरे रहता और अजीब  अजीब से रस्म करवाता रहता, 'यहाँ चावल चढाओ' .'यहाँ टीका करो.'वह कठपुतली सी बिना किसी अहसास के रस्म निभाये जाती पर आज थोड़ी सी अनकम्फर्टेबल थी... पूरे समय लगता रहा,एक जोड़ी आँखें उसपर टिकी हुई हैं. रस्म ख़त्म होते होते....उसके पैर सुन्न पड़ गए थे. उसने आशा भरी आँखों से उनलोगों की तरफ देखा, पर वे लोग खुद में ही मगन  थीं..."अरे ये तो लाल कपड़े में बाँधा जाता है"...."सुपारी नहीं रखी?"..."पान के पत्ते भी चाहिए थे"..."क्या जीजी अभी तो आपने बेटी की शादी की है...और सब भूल गयीं "
किसी का ध्यान उसकी तरफ नहीं था. और एक हाथ उसके आँखों के सामने आया, नज़रें उठाईं तो देखा, 'मानस ने सहारे के लिए हाथ बढाया है'वह उसकी आँखों का आग्रह समझ गया था. कैसे नहीं समझता ,'बचपन से बस आँखों की भाषा ही तो जानी है'

उसका हाथ थाम, उठते  हुए लड़खड़ा सी गयी..और मानस ने एकदम से थाम लिया,..'अरे संभल के' ..कितना स्वाभाविक सा लग रह है सब कुछ ...जैसे कितने पुराने ,गहरे दोस्त हों. वो बीच में फैली विष-बेल कहाँ विलीन हो गयी थी.

महिलाओं का सारा ग्रुप कोई मंगल गीत गाते हुए ,आँगन की तरफ चला गया कोई और रस्म निभाने. और जैसे उसे होश आया, अपनी पसीजती हथेली  उसने मानस के हाथों से छुड़ा ली.

कमरे में सिर्फ मानस और वह थे, और थी बड़ी ही असहज करती हुई सी चुप्पी.उसने ही चुप्पी तोड़ी.."खाना खाया?"
"हाँ"
"झूठ"..हंसी आ गयी उसे..."जब से आए हो कैमरा संभाले खड़े हो...खाना कब खा लिया?"....फिर से एकदम सहज हो उठा सब कुछ.
मानस भी मुस्कुरा पड़ा...फिर थोड़ा रुक कर पूछा, "तुमने खाया?"
"नहीं....मेरा  उपवास है...मुझे कुछ भी नहीं खाना.."
"अरे क्यूँ?"
"लड़कियों को शायद पहले से ही ट्रेनिंग दी जाती है कि आदत बनी रहें...क्या पता वहाँ जाकर कुछ खाने  को मिले या नहीं...या पता नहीं कब मिले.."हंस दी वह.
"बेकार की बातें हैं सब.....मैं ले आऊं?...कुछ खाओगी?..भूख लगी है?"
"नहींssss...."उसने जरा जोर से ही कह दिया..मानो ये थोड़ा सा एकांत मिला है...इसे गंवाना नहीं चाहती हो.

फिर से दोनों चुप हो गए. इस बार मानस ने ही थोड़ी देर अपनी हथेलियों को घूरते हुए कहा, "बड़ी जल्दी थी, तुम्हे शादी की"

उसने एक नज़र मानस को देखा, और नज़रें खिड़की से बाहर टिका दीं..."किसी ने कहा ही नहीं इंतज़ार करने को.."

"कैसे कहता...वह कुछ बन तो जाता पहले...तुम कहाँ इतनी तेज़....टॉपर....और मैं नकारा..किसी तरह पास होने वाला."कहने की रौ में मानस भूल गया था कि इशारे में बातें हो रही थीं.

"तुम स्कूल के..कॉलोनी के.... कॉलेज के हीरो थे"एक एक शब्द पर जोर देते हुए कहा,उसने.

"मुझे सिर्फ एक का हीरो बनना था"

"तुम उसके हीरो थे"जरा जोर देकर कहा उसने तो मानस एकदम से पूछ बैठा...

"सच??.."मानस  के दिल की धड़कन बढ़ गयी थी.

शालिनी ने एक नज़र मानस को देखा और नज़रें खिड़की के बाहर आम के पेड़ की  फुनगी पर टिका दीं...जहाँ कुछ गुलाबी कोमल पत्ते उग आए थे.ऐसा ही कुछ कोमल सा उनके बीच भी उग रहा था...पर इन  नवजात कोंपलों की उम्र कितनी कम थी. वो पेड़ के कोंपल की तरह प्रौढ़ हरे पत्ते में बदल पायेंगे कभी?

"हाँ सच...पर तुम तो पता नहीं किस शालिनी के नाम की माला जप रहें थे...
अपनी नोटबुक में उसका नाम ही लिखते रहते थे..."उलाहना भरा स्वर था उसका.

"व्हाटssss ????       .."बुरी तरह चौंक गया वह.

उसकी असहजता पर मुस्कुरा पड़ी वह, "हाँ मानस एक बार निशा के साथ मैं तुम्हारे घर गयी  थी...देखा..नोटबुक में फूल-पत्तियों के बीच किसी शालिनी का नाम लिख रखा है...मैं देखते ही भाग आई..."

"ये...ये... तो बहुत गलत है...यूँ चोरी..चोरी किसी की किताब कॉपियाँ..देखना...बैड मैनर्स... वेरी वेरी बैड, मैनर्स "मानस का चेहरा लाल पड़ते जा रहा था, बोला,"...और मैं  दूसरी किस शालिनी को जानता हूँ...? "...फिर एकदम से उसकी नज़रों में सीधा देखते हुए कहा ..."अगर ऐसा होता तो आज मैं यहाँ आता??...मुझे तो जैसे ही माँ ने बताया....बस दिमाग में एक ही बात थी...'मुझे यहाँ पहुंचना है...हर हाल में..क्यूँ, कैसे मैं कुछ नहीं जानता...दो कपड़े बैग में डाले और सीधा स्टेशन आ गया....रात भर जाग कर टॉयलेट के पास एक रुमाल बिछा कर बैठ कर आया हूँ....और तुम कह रही हो..कोई और शालिनी होगी"दर्द से भीग आया स्वर उसका.

उसकी भी आँखें भर आयीं....अब क्या फायदा मानस...तुमने जरा सी हिम्मत नहीं  की...और कोई संकेत भी नहीं दिया..उल्टा उसे हमेशा चिढाते,खिझाते ही रहें , और चिढाने की बात से सब पिछला याद आ गया, रोष उमड़ आया....आज उसे सारा हिसाब लेना ही होगा. एकदम से बोल पड़ी..."तुम मुझे इतना चिढाते, रुलाते क्यूँ थे?"

"तुम्हारी अटेंशन पाने को..इतना भी नहीं समझती थी तुम"

"हाँ, नहीं समझती थी...और जब समझने लगी....तुम दूर चले गए "..हताश होकर बोली वह.

"पता नहीं, मुझे क्यूँ तुम हमेशा डरी-सहमी सी लगती थी...लगता था तुम्हे किसी की सुरक्षा की जरूरत है...तुम्हे याद है..हमेशा मैं तुम्हारे पीछे आता था और किसी को आवाज़ देकर जता देता था की मैं पीछे ही हूँ....पर  तुमने कभी एक बार मुड कर भी नहीं देखा"

"क्या देखती...मैं तो डर जाती थी...अब फिर कुछ चिढ़ाओगे..."

"बुध्दू हो तुम..बिलकुल...स्कूल में और किसी  लड़के ने कभी कुछ कहा?...तंग किया?...परेशान किया??...क्यूंकि सब जानते थे...तुम्हे परेशान करने का अधिकार सिर्फ मेरा है..वरना वो तुम्हारी सहेलियाँ...रीता, शर्मीला..याद है..कितना परेशान करते थे लड़के, उन्हें??..."और जैसे उसे कुछ याद आ गया, हंस पड़ा...."वो उचक उचक कर बोर्ड पर 'सम'बनाती तुम...और वो बेंच पर खड़ी हो कर रोती हुई...एकदम रोनी बिल्ली लगती थी.."

"अच्छा और क्लास में मुर्गा बने तुम कैसे दिखते थे...शर्मा  सर तो तुम्हारी पीठ पर किताबें भी रख देते थे और तुम उन्हें गिरा देते....सर तुम्हे आधे घंटे और खड़ा रखते...."उसके भी होठों पर मुस्कान तिर आई.

"उन्हीं सब से तो दूर जाना था., मैं तुम्हारे काबिल बनना चाहता था...जी-जान लगा दी थी मैने पढ़ाई में...अब क्या पढूंगा...सब छोड़ दूंगा..."झुंझला गया वह.

"बेवकूफी की बातें मत करो....मेरी पढ़ाई तो अकारथ गयी....तुम बहुत बड़े आदमी बनना  ,मानस..मुझे अच्छा लगेगा."

"तुमने इतनी जल्दी शादी के लिए  'हाँ'  क्यूँ कहा,शालिनी....??"मानस ने आजिजी से कहा.

"किसने पूछा मानस??...हम लड़कियों से कभी पूछते हैं??....बता देते हैं,बस..कई बार तो तुरंत बताते भी नहीं...दूसरों से पता चलता है कि उनकी शादी ठीक  हो गयी है...."गला भर आया उसका.

मानस भी चुप हो आया, फिर शायद उसे थोड़ा सहज करने के लिए मुस्कुराता हुआ बोला, "चलो..भाग चलते हैं "

वह उसका प्रयास समझ गयी थी...उसमे शामिल होती हुई बोली, "ड्राइविंग आती है?.."

"ना"

"बाइक है?"

"उह्हूँ "..मानस ने भी साथ देते हुए सर हिला दिया.

"कोई दोस्त है...गाड़ी लेकर खड़ा...?"

"ना "

'फिर कैसे भागेंगे?..पैदल??...पकडे जाएंगे ...भागना कैंसल..पहले से सब प्लान करना था ना"

"हाँ, अब तो कैंसल ही करना पड़ेगा....कैसे कुछ प्लान करता....तुम तो ऊँची डाली पर लगी उस फूल के समान थी,जहाँ तक पहुँचने के लिए मैं इतनी मशक्कत कर सीढ़ी तैयार कर रहा था ...और तुम बीच में ही किसी और की झोली...में..."आगे के शब्द मानस ने अधूरे छोड़ दिए.

इतनी महेनत से हल्की-फुलकी बात करने की कोशिश की थी उसने पर फिर से उदासी ने अपने घेरे में ले लिया, दोनों को.

"वैसे , हू इज दिस लकी चैप ....मैने माँ से कुछ पूछा ही नहीं..."

"क्या पता "

"व्हाट डू यू मीन ...क्या पता....मिली नहीं हो?"

"ना...और कोई इंटरेस्ट भी नहीं....जो भी हो...पति परमेश्वर मानना होगा उसे"

"अरे चाचा जी ने बहुत अच्छा लड़का ढूँढा होगा...मस्ट बी अ गुड़ कैच..वरना तुम्हारी पढ़ाई ,तुम्हारा कैरियर यूँ बीच में नहीं छुडवा देते.. बहुत काबिल होगा..."..उदासी घिर आई  थी उसके स्वर में , जिसने उसे भी कहीं गहरे छू लिया.

"मानस, मुझे बहुत डर लग रहा है.."अनायास ही थरथरा आई आवाज़ उसकी.

मानस का मन हुआ उसे आगे बढ़ ,गले से लगा कर उसके अंदर का  सारा डर  सोख ले. एक आवेग सा उमड़ा...पर उसकी पीली साड़ी और मेहंदी  रचे हाथ दिख गए...जो किसी और के नाम के थे. वैसे ही जड़ बना बैठा रहा.

और तभी निशा और शोभा ने ये कहते ,कमरे में कदम रखा...."शालिनी चलो..मंडप में तुम्हे बुला रहें हैं तुम्हे... "  मानस को देखकर एकदम से चौंक गयी.

"अरे तुम कब आए....हम्म बेस्ट फ्रेंड की शादी में तो सब आते हैं...पर पक्के दुश्मन की शादी में आते पहली बार देखा किसी को..."शोभा की आवाज़ में चुहल थी.

मानस और शालिनी की नज़रें मिलीं....और सारा अनकहा सिमट आया, क्या थे वे...दोस्त..दुश्मन..या क्या.

निशा की नज़र मानस के हाथ में थमे कैमरे पर पड़ी और वह मचल उठी..'मानस शालिनी के साथ हमारी फोटो लो ना".

दोनों उससे लग कर खड़ी हो गयीं और जब निशा ने उसे कंधे से घेर गीली आवाज़ में  कहा, "कितना मिस करेंगे तुम्हे...कैसे रहेंगे  हमलोग तुम्हारे बिना..."शालिनी का इतनी देर से रुका आंसुओं का सैलाब बह चला....दोनों सहेलियाँ भी आँखें  पोंछने लगीं और उसे पता था कैमरे के पीछे भी किसी की आँखें गीली हैं.

वह मानस से पहली और आखिरी आत्मीय बातचीत थी. बड़ी दीदियाँ,उसे तैयार करने.., संवारने ले गयीं...मानस भी नहीं दिखा फिर. जब स्टेज पर जयमाल के लिए, सब  लेकर जा रहें थे ...देखा,मानस कैमरा लिए बिलकुल सामने खड़ा है...नज़रें मिलीं और वहीँ जम कर रह गयीं. एक टीस सी उठी दिल में, अब वह किसी और के पहलू में बैठने जा रही है. उसके कदम लड़खड़ा से गए, 'अरे संभालो..."सबको लगा, भारी लहंगा पैरों में फंस गया है. स्टेज पर उसका दूल्हा बैठा था...नज़र उठा कर भी नहीं देखा उसे...अब तो सारी ज़िन्दगी यही चेहरा देखना..है और स्टेज के नीचे खड़ा चेहरा शायद फिर कभी  ना मिले देखने को.

स्टेज पर तो सब यंत्रवत करती रही...लोगों की तालियाँ, हंसी ठहाकों , कैमरे के लिए बार बार वो माला पकड़ना , सबके आग्रह पर मुस्काराना ...सब मशीनवत चलता रहा पर जब कन्यादान के समय उसे माता-पिता के बगल से उठा उस अजनबी के पास बिठाया जाने लगा तो जैसे अंदर कुछ जोर का दरक गया. सामने निगाहें उठाईं तो पाया, मानस की नज़रें उस पर ही जमी हैं...उसने मानस की ओर देखा और उसकी नज़रों में इतनी शिकायत,इतना उलाहना भरा था कि मानस उसके नज़रों कि ताब सह नहीं सका. उसने गर्दन  झुका कैमरा किसी और को पकडाया  और वहाँ से चला गया. और वह एक अनजान व्यक्ति के पास बिठा दी गयी, अब उसका हाथ किसी और के हाथों में सौंप दिया गया था.
उसे पता था, अब मानस नहीं आएगा...और वह उसकी विदाई तक नहीं आया.

शालिनी के पापा, सिर्फ शालिनी की पढ़ाई की वजह से अपना ट्रांसफर कई बार रुकवा चुके थे, अब शालिनी की शादी के बाद,उन्होंने भी ट्रांसफर दूसरी जगह ले लिया और मानस फिर कभी नहीं मिला.

'प्लीज़ टाई योर सीट बेल्ट'की उद्घोषणा से उसकी तन्द्रा भंग हुई. बच्चों की सीट बेल्ट बाँधी...उन्हें जगाया...प्लेन लैंड होने वाली थी.
फिर से एयरपोर्ट पर निगाहें इधर-उधर भटकने लगी थी.

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शालिनी को  कहाँ पता था, उसी समय देश के किसी दूसरे एअरपोर्ट पर यूँ ही एक जोड़ी निगाहें उसके लिए भटक रही थीं.  जब से मानस की  माँ को वाया वाया किसी से पता चला था  कि शालिनी अब  छुट्टियों में बच्चों को लेकर प्लेन से ही मायके आती है. उन्होंने यूँ ही मानस से एक बार पूछ लिया, "तुम्हे कभी मिली शालिनी?..."और आगे खुद ही जोड़ दिया..."मिल भी गयी तो पहचानेगा कहाँ ....अब तक कितनी  बदल गयी होगी."

मानस ने मन ही मन कहा, "माँ, वो अस्सी साल की भी हो जाए तब भी पहचान लूँगा... उसकी आँखें और मुस्कुराहट तो नहीं बदलेंगी....और तब से स्कूल की छुट्टियां शुरू होते ही, मानस की नज़रें, एयरपोर्ट पर किसी को ढूंढती रहती हैं. उसकी एयर  होस्टेस पत्नी को भी पता है, कि बचपन की अपनी फ्रेंड को वह ढूंढता रहता है.

कभी कभी मजाक भी करती है, "क्या बात है...कुछ प्यार व्यार का चक्कर तो  नहीं था.."

"व्हाट रब्बिश....हमलोग स्कूल  में साथ थे....वी वर जस्ट किड्स "

उनलोगों  के बीच जो भी था, उसे वह कोई नाम दे सकता है,क्या?

"फिर क्यूँ, इस तरह उसे ढूंढते रहते हो? "....रोज़ा  उसे थोड़ा और चिढाती है.

यही तो सैकड़ों बार खुद से भी पूछता रहता है,... क्यूँ...किसलिए.....पर जबाब कोई नहीं मिलता .

पराग, तुम भी...

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शीना ने माथे पर हाथ लगा कर देखा..."बुखार तो नहीं है...फिर क्या हुआ"
"पता नहीं यार....नॉट फिलिंग वेल.....हैविंग सिव्हियर हेडेक ....आज ऑफिस नहीं जाउंगी "

"ओह!!..चलो कोई नहीं..तुम आराम करो..."और शीना तौलिया ले बाथरूम में चली गयी.

बाथरूम से निकल कर हमेशा की तरह हड बडाती हुई शीना ने अपना कबर्ड खोला..एक कपड़े  निकाले ,दस गिराए...फिर उन्हें उठा कर यूँ  ही ठूंस दिया.

छोटे से शीशे के पास आकर गीले बालों को जोर जोर से झटकती भी जाती और बुदबुदाती भी जाती..."एक ड्रेसिंग टेबल नहीं रख  सकती...कितनी कंजूस है ये ओल्ड वूमन ..गर्ल्स क्या इत्ते से शीशे में तैयार हो   सकती हैं.......पैसे तो  इतने ऐंठ लेती है....पर सुविधा देखो...सुबह रोज वही टोस्ट या पोहा...अरे आलू पराठे नहीं दे सकती...रात में बस  सूखी चपाती और बेस्वाद सब्जी......मैं तो यहाँ नहीं रह सकती...तन्वी  सोच ले...कोई दूसरी जगह ढूंढनी होगी."

रोज वह खुद ही तैयार  होने में लगी होती हैं..इन दृश्यों से वंचित रह जाती है...बस खटाक, खटाक....कबर्ड..और ड्रौर का खुलना बंद करना ही सुनती रहती है. उसे हंसी आ गयी....मुस्कराहट छुपाने को चेहरा दूसरी तरफ घुमा लिया. ऐसे ही चीज़ें इधर उधर  फेंकती शीना ने टेबल पर पड़ा नाश्ता छुआ भी नहीं और उसे हिदायत देती हुई.,जाने लगी...."ज्यादा तबियत खराब लगे तो मुझे फोन कर देना...दवाई जरूर ले लेना..."और दरवाजे पास एक पल को ठिठकी..."क्या मजे से सो रही है... आई  एन्वी यू यार....अपनी किस्मत में तो धक्के खाने ही लिखे हैं...चल,यू टेक केयर....."बोलती दरवाजे से निकल  कर भागी.

शीना के जाते ही उसने चादर फेंकी और उठ खड़ी हुई...ओह! कितने काम निबटाने हैं...और उस पे शीना ने कितना गन्दा कर के रखा है,कमरा...शीना से झूठ  बोलने का गिल्ट  भी हो रहा था....शीना उसे एक-एक बात बताती है...'आज अजय ने फ़ाइल पकडाते हुए...जानबूझकर उँगलियाँ टकरायीं,तो मैने  भी वापस  गुस्से में ,जरा जोर से ही  टकरा दीं तो चौंक कर देखने लगा...अब कभी हिम्मत नहीं करेगा...ऐसी हरकत की.....सोच क्या रखा है..बीसवीं सदी में हैं क्या हमलोग...कि उँगलियाँ टकराते ही झन... झन तार बजने लगेंगे...हा हा "

या फिर.."अब तो पक्का यकीन हो गया मेरा बॉस 'गे'है...आज भी मेरी तरफ नहीं देखा,उसने"..और एक वो है उसने हवा भी नहीं लगने दी कि आज पराग यहाँ आ रहा है..इसलिए उसने छुट्टी ली है ना कि कोई सरदर्द है...पर शीना फिर सवाल पूछ पूछ कर उसका सच्ची में सरदर्द करवा देती. बाद में सब विस्तार से बता देगी.

फुर्ती से पहले  शीना के ही बिखरे समान सही जगह पर रखने  लगी.

'पराग'को जब स्टेशन से सीधा रूम  पर ही आने को कहा तो वह भी चौंक गया, था ..."आर यू श्योर....लैंड लेडी ऑब्जेक्शन  तो नहीं करेगी...फिर तुम्हारा ऑफिस...सोच लो..."

"हाँ बाबा.....विल मैनेज  ऑल..तुम आओ तो.."

"देखो, फिर पलट मत जाना..."पराग ने शरारत से जोड़ा

"इडियट...ज्यादा उड़ने की कोशिश मत करो...चलो, सी यू देन"

"लव यू  स्वीटहार्ट  ..."ये एक नया सीखा है पराग  ने...उसे जरा अच्छा नहीं लगता,जैसे फिफ्टीज़   में हो. और पराग को ये बात पता है..इसीलिए उसे चिढाने को हर बार, बाय  की जगह यही कहता है  ..और उसने फोन काट दिया था.

बाहर कैफे,रेस्टोरेंट  में मिल कर थक  गयी थी...एक कप कॉफी यहाँ...सैंडविच  दूसरी जगह..तो डोसा तीसरी जगह . और पराग की ट्रेन दोपहर को आ रही थी,उसे पता था,वह अपने रूम पर जाकर एक बार सोएगा  तो फिर दूसरे दिन ही उठेगा...चाहे वो शाम को हज़ार रिंग करके थक जाए.यही सब सोच हिम्मत कर अपने रूम पर ही बुला लिया. वैसे तो लैंड लेडी ने पहले ही शर्त रख दी थी,'नो बोयज़', 'नो पार्टीज़' , 'नो लेट नाईट'और सर झुका आदर्श कन्या की तरह वे और शीना सब मान गयी थीं. अब तक निभाया भी था, पर आज रिस्क ले लिए उसने...देखती है...अगर लैंड लेडी की नज़र पड़  गयी तो बना देगी कोई बहाना....बैग भी तो होगा पराग के पास...कह देगी उसके शहर से कोई आया है.

पराग और वे साथ थे कॉलेज में...वैसे तो सारे समय लड़ते-झगड़ते ही रहते पर सब उन्हें  बेस्ट फ्रेंड ही मानते थे. क्यूंकि एक के बिना दूसरे का काम नहीं चलता था. नोट्स तैयार करने हों.लाइब्रेरी  से बुक लानी हो...क्लास बंक करके  मूवी देखनी हो या कैंटीन में गप्पे लड़ानी हों.....किसी दूसरे फ्रेंड को बर्थडे सरप्राइज़ देना हो..सबकुछ साथ में होता था. वैसे  तो पांच लोगों का ग्रुप था...पर वे दोनों ही हर जगह साथ जाते थे, अगर पराग नहीं आ पाया तो वो भी कोई बहाना बना देती और वो नहीं जा पायी तो पता नहीं कुछ ऐसे संयोग जुटते कि पराग भी नहीं जा पाता. फिर भी प्यार जैसा कोई अहसास नहीं जन्मा था. कभी उनकी तुर्की ब तुर्की बहस  से परेशान हो बाकी फ्रेंड्स कह देते... "यार...तुमलोग शादी कर लो...लड़ने का कोटा पहले ही ख़तम कर चुके हो...बाद में बस प्यार ही प्यार होगा".
और पराग कहता,"शादी और इस स्नौबिश  से..सीधा एकाध क़त्ल करवा दो यार मेरे हाथों कि उस से पहले फांसी पर चढ़ जाऊं"

और वो कहती.."और वो कहती.."हलो......कौन सी लड़की करेगी तुम जैसे से शादी....पागल हो जाएगी..पागलखाने में मिलने  में जाना होगा उस से मिलने और बेचारी किसी को पहचान भी नहीं पाएगी..."
और इतने जोर के ठहाके लगते कि मैनेजर , टेढ़ी भृकुटी कर उन्हें गुस्से से  देख लेता. उनका ग्रुप था ही इतना शोर  शराबे वाला कि कुछ पढ़ाकू किस्म के लोग उसके ग्रुप को आता देख ही कैंटीन छोड़ चले जाते या फिर अंदर ही नहीं आते. रोज कैंटीन वालों  का चार,पांच कप चाय और कुछ समोसे पेस्ट्री का नुक्सान तो हो ही जाता.

पर जब फाइनल ईयर  के एग्जाम ख़त्म हो गए तो जैसे वास्तविकता सामने आई कि अब नहीं मिल पायेंगे  दोनों. एग्जाम की तैयारियों ने वैसे ही हंसी मजाक को अलविदा कह  रखा था,और अब कॉलेज छूटने  के गम ने उन्हें और संजीदा बना दिया था.
एक दिन लाइब्रेरी की सीढियों पर बैठे दूसरे दोस्तों का इंतज़ार करते,पराग ने कह ही दिया..."तुम्हारी आदत सी पड़  गयी है......तुमसे झगडे बिना कैसे कटेंगे  दिन..."

उसके दिल की धड़कन कई गुणा बढ़ गयी थी...किसी तरह साधते हुए कहा..."मिल जाएगी...कोई और इसी तरह झगड़ने वाली"

"ना यार....प्यार तो किसी से भी हो भी जाए...झगडा तो सिर्फ तुमसे ही  हो सकता है"...मुस्कुरा दिया था,पराग

और उसकी ठंढी सांस निकल आई .... एक पल में क्या क्या सोच लिया था...ये तो किसी और से  प्यार  की बात कर रहा है और जैसे पराग ने उसकी निराशा भांप ली.एकदम से उसका हाथ अपने दोनों हाथों में लेकर बोला..."गोइंग टु मिस यू अलॉट....एक्चुअली कभी सोचा नहीं था....कि तुमसे दूर जाने की कल्पना भी इतनी भयावह होगी...नींद उड़ गयी है, यार... रातों की"

अभी भी वह श्योर नहीं थी कि पराग के मन में क्या है, हाथों में हाथ तो दोस्ती का जेस्चर भी हो सकता है. कुछ बोली नहीं तो पराग ने ही बड़ी असहजता से रुक रुक कर नीचे देखते हुए कहा..."आयम  सो कन्फ्यूज्ड .... कुछ समझ नहीं आ  रहा...सीम्स आयम फालिंग फॉर यू. "

ऐसे मौके पर कैंची  की तरह चलने वाई जुबान पता नहीं कैसे चिपक जाती है तालू से. अब भी कुछ बोल नहीं पायी बस पैर के अंगूठे से जमीन पर वृत्त बनाती  रही.

पराग ने मुस्कुरा कर सीधा  उसकी आँखों में  देखते हुए बोला, "व्हाट डू यू से......वी शुड गिव इट अ थॉट ?"

अब उसे यकीन हो गया, वो जो सोच रही है ,पराग वही कह रहा है, वह भी थोड़ी सहज हो आई...उसने भी उसे टीज़ करने की  सोची, "लेकिन कहते हैं , प्यार तो बिना सोचे-समझे होता है..."

और पराग ने एकदम से कह दिया "तो हो गया ना बिना सोचे-समझे...कभी सोचा था क्या...कि प्यार और तुमसे...नोss ..नेवर......पर देखो..हो गया..वैसे आयम नॉट  श्योर अबाउट यू..."और उसके हाथों की  पकड़ थोड़ी सी ढीली पड़ गयी.

उसने एक नज़र ,पराग को देखा...उसकी आँखें पनीली हो आई थीं और पराग को कुछ और समझने कि जरूरत नहीं पड़ी. जो भी लिखा था,आँखों में पराग ने आसानी से पढ़ लिया. उसके हाथो की  पकड़ फिर से कस गयी थी और वह दूसरी तरफ देखने लगा फिर तुरंत ही उसका हाथ खींचते हुए उठ खड़ा हुआ..."लेट्स मूव..अभी सब आ जाएंगे...मुझे किसी और से बातें करने का बिलकुल भी मूड  नहीं...कहीं और चलते हैं"

फिर तो एक हफ्ता जैसे जेट रफ़्तार से भी तेज़ निकल  गया. ज्यादा से ज्यादा वे दोस्तों से बचते रहें. पहली बार महसूस हुआ कि मौन भी मुखर हो सकता है. कई बार पार्क की बेंच पर बैठे बस एक दूसरे के अस्तित्व को ही जिया. बिना एक शब्द  भी बोले.
 दोस्त कुछ समझ  रहें थे...कुछ नहीं..पर उनलोगों ने भी ज्यादा से ज्यादा उन्हें अकेला छोड़ दिया. जाने के दो दिन पहले से ही हॉस्टल में सबकी आँखे गीली  रहतीं. पराग को देख कर मुस्कुराने की कोशिश करती तो वे और भीग जातीं.और पराग उसे कंधे से घेर कर चलता तो जाने कैसी सुरक्षा का अहसास होता. स्टेशन पर दोस्तों के हुजूम के बीच खड़े पराग और रफ़्तार पकडती ट्रेन के बीच का फासला, जैसे जैसे बढ़ता जा रहा  था, उसका दिल तेजी  से डूबता जा रहा था....क्या फिर हो सकेगा सब कुछ पहले जैसा...कभी लौटेंगे वो बेफिक्री भरे दिन.

कैम्पस सेलेक्शन तो हो चुका था, बस इंतज़ार था, अपोयेंटमेंट  लेटर का. रोज भगवान को हाथ जोड़ती, हे भगवान एक ही शहर में हो,पोस्टिंग हो जाए दोनों की.
पर रिसेशन भी इसी साल आना था, महीने पर महीने निकलते जा रहें थे और कंपनी से कोई खबर नहीं  आ रही थी. पराग की फ्रस्ट्रेशन बढती जा रही थी. घर वाले आस-पास होते,ज्यादा बात भी नहीं हो पाती. वह समझाने की कोशिश करती..मेरा भी तो नहीं आ रहा. तो पराग झट से कह देता,"तुम तो लड़की हो...हम लड़कों की पीड़ा नहीं समझोगी...बेरोजगारी शब्द का क्या मतलब  होता है...सिर्फ हम लड़के ही महसूस कर सकते हैं "घर में रिश्तेदार ,शादी की बात उठाने लगे थे पर उसने ममी-पापा से साफ़ कह दिया था कि दो साल नौकरी के बाद ही वो सोचेगी....और उन्होंने मान  ली थी उसकी बात.

पर नौकरी  मिले तो सही और जब अपोयेंटमेंट लेटर आया भी तो पहले उसका ही आया. उसे यह खबर पराग को देने की हिम्मत नहीं हुई. पराग को ही कहीं से पता चला,और उसने जब अपराधी स्वर में ;हाँ'कहा तो पराग ने बहुत ही जोश में बधाई दी. कोई व्यंग्य नहीं  किया,जैसा कि उसे डर  था. सारी इन्फौर्मेशन ली और उसे गुड़ लक कहा. पर उसके  बाद से ही वह कन्नी काटने लगा. अब वह नए शहर में आ गयी थी. पेईन्ग गेस्ट बनने से पहले, ऑफिस के गेस्ट हाउस में थी. पापा ने भी हज़ार रुपये का रिचार्ज भरवा दिया था, पैसे भी दिए थे, एकांत भी था, जितना चाहे बात कर सकती थी. पर पराग का मूड ही नहीं होता बात करने का. कभी शो नहीं करता पर बहाने बना कर फोन रख देता. वह समझती थी  उसकी मनःस्थिति.

कभी पूजा-पाठ नहीं किया, उसने  पर शाम को अक्सर ऑफिस से निकलते  ही के पास वाले मंदिर में जाने लगी थी, एक ही प्रार्थना  रहती  होठों पे..'किसी तरह पराग का अपोयेंटमेंट  लेटर आ जाए , भगवान'.. करीब तीन  महीने बाद ,जब पराग ने लगभग चीखते हुए खबर  दी कि उसे भी उसके शहर में ही नौकरी मिली है तो ऑफिस से जल्दी ही निकल गयी. मंदिर में हाथ जोड़ते ही उसकी आँखों से झर झर आँसू बह निकले.पहली बार जाना, भक्ति में भी कैसे आँसू निकल आते हैं.

जब से पराग आया सारे वीकेंड्स साथ ही गुजरने लगे. पर वही एक कैफे से दूसरे कैफे या फिर पार्क की बेंच या कोई मॉल या फिर कोई फिल्म. फिर भी कोई देखे ना देखे...आधे घंटे में ही उसे लगने  लगता सबकी नज़र उन दोनों पर ही है और वो पराग को ,वहाँ से उठने को मजबूर कर देती. अब इस नई मिली नौकरी ने या अजनबी शहर  के खुले माहौल ने या फिर इस नए उगे अहसास ने पराग को बेहद बेतकल्लुफ बना दिया था. हाथ तो उसका थामे ही रहता...कभी कंधे से घेर लेता...कभी बैठे बैठे कंधे पर सर टिका देता. पर उसकी झिझक नहीं टूटती , वो उसे परे धकेल देती और पराग नाराज़ हो जाता ,"किसी गाँव की लड़की जैसा बिहेव करती हो तुम"

"हाँ ,तो.... तुम्हे किसने रोका है....चुन लो कोई मेट्रो वाली..."

"ऑफिस में एक से एक चिक्स हैं, बिलकुल बौम्ब्शेल्स ...चैलेंज मत करना "

"चैलेंज ही सही....मेरी तरफ से आज़ाद हो.."..फिर हंस कर आगे  जोड़  देती..."क्या सोचा मेरे ऑफिस में कूल हैंडसम डूड्स नहीं हैं...दे दूँ लिफ्ट??"

और वह गंभीर हो जाता...."संभल कर रहना...यहाँ के लड़के बड़े फास्ट होते हैं...तुम्हे लगेगा तुम्हारी बहुत हेल्प कर रहें  हैं..लेकिन बिना मतलब के कोई कुछ नहीं करता ."

वो हंस देती.."रिलैक्स बाबा...इतनी बच्ची नहीं हूँ मैं..."

पराग की पजेसिवनेस कभी अच्छी भी लगती कभी, उसे खीझ  भी होती..किसी  सोशल नेटवर्क पर उसे अपनी सिंगल फोटो नहीं डालने  देता, कहता ..."तुम्हे इस साइबर वर्ल्ड के बारे में कुछ नहीं पता..."

उसे हंसी आ जाती ,वह बार बार भूल जाता है कि दोनों क्लासमेट रहें हैं...वो उसकी  जूनियर नहीं है..पर उसका इतना केयर करना उसे अच्छा भी लगता और वो उसकी पसंद के खिलाफ कुछ भी नहीं करती .एक कैफे की कॉफी उसे बहुत पसंद थी..पर वहाँ  लड़कों का एक ग्रुप रेगुलर था जो  अक्सर उसे घूरा करता. वो तो नज़रंदाज़ कर देती पर पराग असहज  हो जाता और फिर बैन ही कर दिया वहाँ जाना.

ऑफिस के कलीग्स... वहाँ की पोलिटिक्स, डिस्कस करते दिन बीत रहें थे. अभी खुद के भविष्य की  योजनाओं के बारे में बात करने का  ध्यान ही नहीं होता.  पहली बार हाथ में आए इतने पैसे...नई  मिली आज़ादी को भरपूर एन्जॉय कर रहें थे, दोनों .ऐसे में पराग के एक मौसेरे भाई का कॉल आया कि दूसरे शहर में एक बहुत अच्छी कम्पनी में उसका इंटरव्यू फिक्स कियाहै.

 जाते वक़्त थोड़ा आशंकित था,पर उसे वह जॉब मिल गयी. फोन पर तो जैसे ख़ुशी छलकी पड़ रही थी. उस से ज्यादा बात भी नहीं की,उसे घर-परिवार और दोस्तों से ये  ख़ुशी बांटनी थी. और उसे सब विस्तार से जानने की उत्कंठा हो रही थी.इसीलिए आज ऑफिस की छुट्टी कर रूम पर ही बुला लिया.
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उसके हाथ तेजी से चल रहें थे,पर काम ख़त्म ही नहीं हो रहा था. सबकुछ व्यवस्थित कर सफाई करने को झाड़ू उठाया ही था कि लैंड लेडी आ गयी. शायद सुबह नाश्ता देने आई , मौसी  ने जाकर उन्हें, उसके ऑफिस ना जाने की बात बता दी थी. यह तो उसने सोचा ही नहीं था. उसे काम  करते देख, वे हतप्रभ रह गयी, "अरे तुम बीमार हो ना...ये सब क्या कर रही हो?"

उसने धूल से अटे बालों को चेहरे से हटाते हुए किसी तरह कहा..."वो दवा ली ना, तो अब काफी ठीक लग रहा है...सोचा जरा कमरा साफ़ कर लूँ...बहुत गन्दा हो रहा था.."

"ओह..और मैने सोचा देख आऊं...कहीं डॉक्टर की जरूरत तो नहीं...चलो, अच्छा है..मुझे भी बाहर जाना है...अब निश्चिन्त से जा  सकूंगी...यू  सीम औलराईट नाउ"

"येस्स  आंटी...थैंक्स अलॉट "

"ये सब छोडो...मौसी  को बुला लेना एक दिन..हेल्प कर देगी ,सफाई में ...मैं शाम तक लौटूंगी"

"ओके आंटी...बाय "

"बाय ..बट यू मस्ट टेक रेस्ट ...."

'आई विल आंटी..डोंट वरी"

वो गयीं तो जान में जान आई उसकी और वो झाड़ू लिए ही गोल गोल घूम गयी...'यिप्पीsss..अब कोई सफाई नहीं देनी पड़ेगी उसे...आंटी तो है ही नहीं...'

फिर जो घड़ी पर नज़र गयी तो जल्दी जल्दी सफाई में जुट गयी. सब कुछ साफ़ कर दोनों बेड पर साफ़, चादर बिछा ,जब एक कोने में खड़े होकर पूरे कमरे को निहारा तो संतोष से भर गयी. कमरा एकदम किसी होटल के कमरे की तरह चमक रहा था. बस  रूम फ्रेशनर की भीनी भीनी खुशबू और एक ताजे फूलों के गुलदस्ते की कमी थी.

पर जब अच्छे से चादर टक किए बिस्तर पर नज़र गयी तो अजीब सी अनुभूति हुई ,एकदम इनवाईटिंग सा लग रहा था. उसने दौड़कर जल्दी से कुछ किताबें उठा कर बिस्तर पर डाल दीं ...फिर भी काफी जगह खाली थी...कबर्ड से अपना पर्स ला...एक तरफ गिरा कर  रख दिया और पर्स का जिप खोल..कुछ चीज़ें यूँ ही बिखेर कर रख दीं.

शीना के बिस्तर पर नज़र गयी तो अभी अभी इतनी मेहनत से  तह किए उसके कुछ कपड़े आलमारी से निकाल  कर रख दिए  और तकिये को लापरवाही से बीच  में डाल दिया ..और संतुष्ट हो गयी...'हाँ ,अब ठीक लग रहा है.'

जल्दी से नहाने को, बाथरूम में भागी...गीले बाल पीठ पर छितराए, कबर्ड से कपड़े ढूंढ रही थी,क्या पहने..सोचा..'चूड़ीदार  कुरता'पहन ले...फिर लगा ना..बड़ा घरेलू माहौल जैसा लगेगा. कपड़े ढूंढते वो टॉप हाथ में आ गयी,जिसे पराग के साथ ही ख़रीदा था. और इतनी फिटिंग टॉप पर पराग ने आपत्ति की थी, "अब कॉलेज में नहीं हो...ऑफिस में हो ,जरा सोबर कपड़े पहना करो.."

गुस्से में जबाब दे तो दिया था, "मुझे ज्यादा पता है....क्या पहनना है क्या नहीं "पर सोचने लगी थी,'पराग..तुम भी....तुम भी,बिलकुल आम लड़कों जैसे ही निकले. सब, बगल से जींस में गुजरती लड़की को पलट कर जरूर देखेंगे ,पर अपनी गर्लफ्रेंड एकदम सीधे सादे  कपड़ों में  चाहिए. एक मन हुआ वही पहन ले..फिर लगा...ना वो खुद ही  अनकम्फर्टेबल हो जाएगी...और बिना ज्यादा सोचे एक 'राउंड नेक'की टी शर्ट निकाल कर पहन ली.

अभी बाज़ार भी जाना था, पराग की फेवरेट चाइनीज़ पैक करवा कर  लाने. औरेंज जूस भी लेती आएगी. फ्रिज नहीं होना अखर,गया ..वरना उसकी फेवरेट ब्लैक करेंट आइसक्रीम भी ले आती. पूरी ट्रीट हो जाती ,पराग की

अभी बाज़ार में ही थी कि पराग का फोन आ गया, बस पहुँचने ही वाला है. जल्दी से घर की राह ली. अभी पांच मिनट भी ना बीते होंगे कि कंधे पर  एयर बैग लटकाए,पराग आ गया.बिखरे बाल, अन्क्रीज़ड शर्ट, बिलकुल कॉलेज वाला लापरवाह पराग लग रहा था,वरना आजकल तो फार्मल कपड़ों और चमचमाते जूतों में कोई और ही पराग दिखता था.

आकर धम्म से कुर्सी पर बैठ गया..."वाऊ... ग्रेट....इतने बड़े कमरे में बस दो जन रहते हो...हमलोग तो पांच टिक जाते....जरा पानी पिलाओ यार...रखा भी है या नहीं..."

और जब उसने मिनट्स की बोतल  पकडाई...तो मुस्कुरा पड़ा..."क्या बात है..एकदम मेहमान नवाजी हो रही है"

"मेहमाननवाज़ी कैसी...लम्बा सफ़र करके आ रहें हो....चाइनीज़ भी पैक करा कर ले आई हूँ "

"हम्म...ये सब तुम लड़कियों से हमलोग नहीं सीख सकते...हर चीज़ का ध्यान रहता है..."

"वो सब छोडो बताओ तो सही.... क्या हुआ..कैसा रहा..इंटरव्यू...एकदम से कैसे ज्वाइन करने को कह दिया..."

"अरे उन्हें जरूरत है भई....वेकेंसी है और फिर चन्दन भाई की रेकमेंडेशन ...बात कैसे नहीं बनती...."और उसने विस्तार से एक एक बात बतानी  शुरू की...पर हर लाइन के बाद...'ओह! मैने इस शहर में रहने का सपना देखा था....बस देखना अब दो साल में यू.एस. निकल  जाऊँगा . ...आगे बढ़ने के ,बहुत औपर्चुनीटीज़ हैं, वहाँ . फिर उसी शहर में चन्दन भाई भी हैं और पता है....वो मेरे सीनियर निखिल, रौशन और क्लासमेट....अवनीश,समित,कँवल...सब उसी शहर  में हैं...वी विल हैव अ ग्रेट टाइम ...देखना कितना मजा आएगा...खूब पार्टीज़ ,पिकनिक किया करेंगे सब मिल कर.
'एंड यू नो वाट....एकदम ऑफिस के सामने ही फ्रेंच क्लासेज़ ...मैने तो पता कर लिया है...वीक में दो दिन ,शाम ८ बजे की क्लास हैं...ऑफिस से सीधा वहाँ ....कब से मेरा  फ्रेंच सीखने का मन था..."बीच बीच में औरेंज जूस के घूँट भरते  जाता....उस से एक बार भी नहीं पूछा...उसे नहीं चाहिए..पर पूछना तो चाहिए आखिर इक बार. अभी बताती है उसे..और जब...बिलकुल थोड़ी सी बची थी उसने फिर से बॉटल मुहँ से लगाई तो वो बोल पड़ी..."अरे थोड़ा सा मेरे लिए भी रहने देना..."

तबतक तो बॉटल खाली हो चुकी थी...पराग ने खाली बॉटल हवा में लहराते हुए कहा.."सॉरी...ख़तम हो गयी...पहले बोलना था,ना "

"तुम्हे भी तो पूछना चाहिए था...एक बार....सारी ख़तम कर दी.."

"अब ये सब उम्मीद मुझसे मत  रखो...चाहिए तो साफ़ बोल दो..मैं अन्तर्यामी नहीं कि मन की बात समझ जाऊं..."

"समझनी  चाहिए...."उसे गुस्सा आ रहा था...जब से आया है...अपनी हांके जा रहा है...उसकी योजनाओं में वो तो कहीं शामिल है ही नहीं. उसका क्या होगा?....उनकी रिलेशनशिप का क्या होगा?...उसकी नौकरी तो यहाँ है.

और उसे थोड़ा और चिढाने को , शायद पराग ने बॉटल  बेड के नीचे लुढका दी...."पराग...."...वो गुस्से से चीख ही पड़ी..."ये तुम्हारा कमरा नहीं है.."

पता है..वरना इस चेयर पर बैठने की  पनिशमेंट क्यूँ भुगतता...बेड पे नहीं पसर गया होता अब तक ?? .क्या कबाड़ पसार कर रखा है बेड पर.....और हम लड़कों को कहती हो....क्या यार एक सोफा तक नहीं है...साथ बैठ तो सकते थे, कम से कम...वी शुड मेक मोस्ट ऑफ इट यार...ये बंद कमरा..."

 "शट  अप...."बीच में ही डपट दिया उसने.

उसकी इन बातों से उसे सचमुच डर लगने लगा था.

चुप रही तो...पराग ने मनाने की गरज से बोला..."ले आऊं क्या बाहर से औरेंज जूस?.....इतना मुहँ फुला लिया..."

"अरे नहीं....वो तो मैं बस तुम्हे चिढ़ा रही थी..."हंसी आ गयी उसे..."कब तक ज्वाइन करना है वहाँ....?"

"महीने भर का टाइम माँगा है मैने...यहाँ भी तो नोटिस देनी पड़ेगी....और अब पैरेंट्स से बात कर लो...ज्यादा देर नहीं करनी..तुम्हे भी वहीँ आना होगा..यार, इतना अच्छा पैकेज है..तुम ना भी करो नौकरी...तो चलेगा...आराम से कटेगी.."

"व्हाट डू यू मीन....नौकरी ना  करो ...मैने भी तुम्हारे जैसे ही मेहनत से पढाई की है..."

"ओके..बाबा...ओके..सॉरी..इट वाज़ जस्ट अ थॉट...तुम्हे क्या मुश्किल होगी नौकरी मिलने में...वेल क्वालिफाइड हो, वर्किंग इन अ टॉप कम्पनी., कॉन्वेंट एडुकेटेड ....फ्लुयेंट इंग्लिश है...और...और ख़ूबसूरत भी हो..."शैतानी से एक आंख दबा दी ,पराग ने ...और उसने पास से एक किताब उठा कर फेंक कर मारी उसे..."ये मेंटालिटी है तुम्हारी??"

"अरे जस्ट जोकिंग यार...समझा करो..बट सीरियसली....इन नो टाइम यू विल लैंड विद अ गुड़ जॉब.....बट पैरेंट्स से बात तो करनी  होगी,ना..मेरी तरफ से सब क्लियर है..बचपन से ही  पैरेंट्स मेंटली प्रिपेयर्ड  हैं...हमेशा कहते थे.."ये तो कभी भी किसी को मिलवाने ले आएगा...हमें इसके लिए लड़की नहीं ढूंढनी पड़ेगी."

"क्या बात करूँ मैं...तुमने प्रपोज़ तक तो किया नहीं अब तक...."उसने भी हंस कर माहौल  हल्का करने की कोशिश की.

"रियली??...करूँ प्रपोज़?...पर मेरा तरीका जरा जुदा होगा..."शरारत उतर आई थी उसकी नज़रों में और वह एकदम से खड़ी हो गयी..."अब सर्व करती हूँ......चाइनीज़ ठंढा हो जायेगा तो बिलकुल मजा नहीं आएगा..."

उसकी हडबडाहट पर हंस पड़ा,पराग.."चिल बेबी..यू विल बी सेफ..डोंट वरी.."

खाते हुए भी उसकी अपनी कहानी ही चलती रही...भविष्य की ढेरो योजनायें...क्या..क्या..कब..कब करना है. खाते ही वह उठ खड़ा  हुआ..."अब रूम पर जाकर सोऊंगा....बहुत थक गया हूँ..."

वह थोड़ी निराश हो गयी...अभी तो आधा दिन बाकी है...क्या करेगी वो...सोचा था...आज तो देर तक गप्पें मारेगी...लैंड लेडी का भी डर नहीं . पर वो नहीं कहेगी रुकने को...उसे उसका ख्याल नहीं कि अकेले वो क्या करेगी...तो वो क्यूँ ध्यान दिलाये.

पर जाते हुए ...अचानक दरवाजे  से पलट कर पराग ने उसे बाहों में ले लिया....इस अप्रत्याशित प्रेम प्रदर्शन के लिए वह तैयार नहीं थी .उसकी बॉडी बिलकुल स्टिफ हो गयी तो उसकी आँखों में देख मुस्कुराते हुए बोला..."इतने से डर गयी...अभी तो मैं बहुत कुछ करने वाला हूँ"...अब उसकी सांस भी रूकती सी लगी..तो हंस कर पराग ने उसे रिलीज़  कर दिया और बोला..."प्लीज़...अब तैयारी कर लो  तुम भी...मैं वहाँ अकेला नहीं रह पाऊंगा "

पराग के जाने के बाद कुछ देर तो वो वैसे ही निश्चल खड़ी  रही. उसकी गर्म साँसे अब तक कंधे पर महसूस हो रही थीं. एक स्ट्रोंग मैस्क्युलिन स्मेल ने घेर रखा था...सर भारी हो गया.... पानी की बोतल थामे ताज़ी हवा लेने को खिड़की के पास आ गयी. परदे सरका दिए.

ठंढी हवा से ,कुछ दिमाग क्लियर हुआ तो बहुत सारी बातें क्लियर होने लगीं......पराग बहुत खुश है....सपनो का शहर, अच्छी नौकरी, पुराने दोस्त, फ्रेंच क्लासेज़ ..पर इन  सबमे वो कहाँ है?...साथ रहने का सपना तो दोनों ने साथ देखा था पर यहाँ ,वो पराग के सपनो के साथ खड़ी थी और उसके सपने? उसकी ट्रेनिंग पीरियड पूरी हो गयी है और अब वो पे रौल पर आ गयी है. ऑफिस में एक जगह बना ली है और सब छोड़ वो एक अनिश्चितता की तरफ कदम बढ़ा दे? फिर से एक बार नई शुरुआत. और कह देना आसान है...मन लायक जॉब मिलती है क्या इतनी आसानी से?

एक ही  शहर में पराग की  जॉब के लिए रोज भगवान के सामने हाथ जोड़े थे. आज ऑफिस से छुट्टी ली, फ्रेंड से झूठ बोला, लैंड लेडी कहीं रूम खाली करने को ना कह दे...ये रिस्क लिया, सुबह से सफाई में जुटी है, उसकी फेवरेट डिश लेकर आई, उसकी पसंद के कपड़े पहने. उसकी सारी सोच की केंद्र में पराग था और पराग की सोच में? उसने तो एक बार पूछा भी नहीं कि वो, वहाँ जाना चाहती भी है या नहीं? उसकी तरफ से फैसला कर लिया. प्यार सम्पूर्ण समर्पण  मांगता है तो क्या बस उस से ही अपेक्षित है यह? कितनी आसानी से पराग ने कह दिया..."अच्छा पैकेज है,नौकरी ना करो तब भी चलेगा".. लड़की नौकरी तभी तक करे, जब तक आर्थिक रूप से सहायता की जरूरत हो. आर्थिक रूप से सक्षम होते ही, उसे बस 'वाल फ्लावर'ही बनना  है. उसकी पढ़ाई...उसकी क्षमताओं का क्या...त्याग की अपेक्षा बस उस से ही, क्यूँ? ..क्या बदल गया है. यह भी सदियों पुरानी परंपरा सा नहीं ,कि लड़की  सबकुछ छोड़ कर लड़के के साथ चल दे और उसके सपनो को ही अपना मान ले. क्यूंकि वो उसके बिना जी नहीं पायेगा...लेकिन वो तो कितनी चीज़ों के बिना नहीं जी पायेगा...फिर से सर पर भारीपन तारी होने लगा.

'विमेन एम्पावरमेंट 'का पक्षधर....नारी के सम्मान की बात करने वाला..घंटो 'विडो के कंडीशंस ', 'डोमेस्टिक वायलेंस'पर आग उगलने वाले शख्स को नारी मन की कितनी समझ है?

सुबह का सारा उत्साह कपूर की मानिंद उड़ चुका था. कंधे झूल आए. बेहद थका  सा महसूस करने लगी. खिड़की के बाहर तेज आंधी चलने  लगी थी. धूल के गुबार और सूखे पत्ते उड़ने लगे थे. उसने खिड़की बंद कर दी. पर मन  में चलती आंधी का क्या...उन्हें बंद करने को कपाट कहाँ से लाए.

(समाप्त )









हैप्पी बर्थडे ... मन का पाखी

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'मन का पाखी'ने एक वर्ष की उड़ान भर ली और अब तक थका हो...ऐसा महसूस तो होता नहीं. वैसे भी मन के पाखी को इस  ब्लॉग आकाश की खबर बहुत दिनों बाद चली. और गलती मेरी थी, पिछले 5 साल से नेट  पर सक्रिय हूँ पर हिंदी ब्लोग्स   के बारे में मालूम नहीं था. बस कभी कभार 'चवन्नी चैप'पढ़ लिया करती थी. एक बार वहाँ हिंदी फिल्मो से सम्बंधित किसी के संस्मरण पढ़े और मेरा भी मन हो आया कि अपने अनुभवों को कलमबद्ध करूँ. मैने भी अपने  संस्मरण लिख कर अजय(ब्रहमात्मज) भैयाको भेज दिए  (.हाँ, वे मेरे भैया भी हैं.) उन्हें पसंद आई और उन्होंने पोस्ट कर दी. उस पोस्ट पर काफी  कमेंट्स आए पर उस से ज्यादा लोगों ने  उन्हें फोन कर के बोला,कि 'बहुत अच्छा लिखा है.'मैने बेवकूफी भरा प्रश्न पूछ लिया कि "जब इतने लोगों को अच्छा लगा तो उन्होंने कमेंट्स क्यूँ नहीं लिखे?"और अजय भैया ने बताया "सबलोग कमेंट्स नहीं लिखते" (अब तो मैं भी यह बात बहुत अच्छी तरह जान गयी हूँ...इसलिए मेरे ब्लॉग के Silent Readers आप सबो का भी बहुत आभार,मेरा लिखा ,पढ़ते रहने के लिए:) )

अजय भैया ने मुझे अपना ब्लॉग बनाने की सलाह दे डाली . पर मैं  बहुत आशंकित थी. यूँ तो पहले भी मैं पत्रिकाओं में लिखती थी.पर लिखने और छपने के बीच एक एडिटर होता था. यहाँ खुद ही निर्णय लेना था,क्या लिखना है? पर अजय भैया रोज ही पूछने लगे थे. उन्हें ऑनलाइन देख मैं डर जाती. उन्हें पता था,मैने कहानियां लिख रखी हैं.कहने लगे कम से कम एक जगह एकत्रित  करने की सोच ही ब्लॉग बना डालो. और मैने ब्लॉग बना कर अपनी एक कहानी पोस्ट कर दी.,चंडीदत्त शुक्ल ,आशीष राय,रेखा श्रीवास्तव ,कुश, ममताये लोग पहली पोस्ट से ही मेरे ब्लॉग के पाठक  बन गए और लगातार उत्साहवर्द्धन  करते रहें. आप सबका शुक्रिया .

दूसरी पोस्ट पर भी कई नए लोगों के कमेंट्स आए.उसके बाद तो मुझमे आत्मविश्वास आ गया,और किसी भी विषय पर लिखने लगी. आज जब पुरानी पोस्ट पर नज़र डाली तो कुछ नाम देख हैरान रह गयी.उड़न तश्तरी , डिम्पल, निर्मला कपिला, रश्मि प्रभा,दिलीप कवठेकर, कमल शर्मा, प्रवीण शाह,  सुलभ सतरंगी, रंगनाथ सिंह, पंकज उपाध्याय, गिरीश बिल्लोरे, दर्पण शाह , अपूर्व, विजय कुमार सप्पति, शमा, अनिल कांत, रंजना भाटिया, जाकिर अली, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, नीरज गोस्वामी, सुरेश चिपलूनकर, डा. दरालये लोग शुरू से ही टिप्पणी देकर  मेरी हौसला  अफजाई करते रहें हैं ('जी'सबमे कॉमन है :))  आप सबो का शुक्रिया.

निर्मला जीने जब लिखा "तुम्हारी शैली बहुत प्रभावित करती है"और अगले कमेंट्स में कई लोगों ने उसका अनुमोदन किया तो मैने आश्चर्य से सोचा, "अच्छा ! मेरी कोई शैली भी है. "ऐसे हीदीपक मशाल ,अजय झा,राज भाटिया जी, विवेक रस्तोगी जी और कई लोगों ने कहा 'आपके लेखन में सहज प्रवाह  है"तो मन में संतोष हुआ. मुझे किसी भी लेख में सबसे ज्यादा उसका फ्लो पसंद आता है...और थोड़ा बहुत मेरे लिखने में भी आ गया है, अच्छा लगा,जान. नीरज गोस्वामी जीका ये कहना ,"आपके विचार बहुत स्पष्ट हैं"और गौतम राजरिशीका बार बार उल्लेखित करना कि "आप का विषय चयन अचंभित कर देता है '...हैरान कर देता, इतना कुछ दिख गया ,इनलोगों को मेरे लेखन में और मुझे कुछ पता ही नहीं था.

एक शाम  अमिताभ बच्चन के ब्लॉग में पढ़ा, कि वे मिडिया द्वारा ब्लॉग को महत्व नहीं दिए जाने से बहुत दुखी हैं और मैने एक पोस्ट लिख डाली  ,अमिताभ औरब्लॉग जगत का साझा दर्दउस पोस्ट पर काफी लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दीं अविनाश वाचस्पति, स्मित अजित गुप्ता, हरकीरत हकीर, गिरश बिल्लोरे, मुफलिस,रंजना ,शाहिद मिर्ज़ा शाहिद, कुलवंत हैप्पी,अर्क्जेश ,सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी,  दिगंबर नासावा, किशोर चौधरी,  डा.प्रवीण चोपड़ा,.इनमे से कुछ लोग तो  नियमित रूप से मेरी पोस्ट्स पढ़ते हैं. सबका आभार.

पर मैं हैरान थी, लोगों को मेरी पोस्ट के बारे में पता कैसे चल जाता है? अजय भैया के  कहने पर  मैने ब्लॉग वाणी पर रजिस्टर कर लिया था .पर ना मुझे वहाँ कुछ देखना आता था ना ही मैं कभी वहाँ 'लॉग इन'करती. ऐसे में  एक पोस्ट पर नमूदार हुए 'महफूज़ अली'. और गूगल  ने हमें दोस्त बना दिया.'हॉट  लिस्ट','चटका' ,वहाँ से दुसरो की पोस्ट पर कैसे जा सकते हैं, यह सब महफूज़ ने समझाया. महफूज़ की दोस्ती जिन्हें मिली है, उन्हें पता है कि सारी दुनिया आपके विरुद्ध हो जाए पर आप,महफूज़ को अपने साथ खड़ा पाएंगे. और महफूज़ अपने दोस्तों की कही किसी  बात का बुरा नहीं मानते. मैने दो,तीन बार किसी और की पोस्ट पर दिए ,महफूज़ के कमेन्ट पर  पब्लिकली बड़े कड़े शब्दों में आपत्ति प्रकट की है. महफूज़ की जगह कोई और होता तो मैं शब्दों में हेर-फेर कर माइल्ड बना देती.पर मुझे पता था,इस से महफूज़ से मेरी दोस्ती के इक्वेशन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा..और ऐसा ही हुआ. बस महफूज़,अपना उतावलापन जरा कम कर लो, और जल्दी से अपनी गृहस्थी बसा लो, अपने आप स्थिरता आ जाएगी.शुभकामनाएं.

महफूज़ने अदाऔर शिखाको मेरे ब्लॉग से परिचित करवाया. अदा से आंचलिक  भाषा में टिप्पणियों के आदान-प्रदान को मैने बहुत एन्जॉय किया. अदा, इतनी व्यस्त रहने के बावजूद,अपने दोस्तों की प्रशंसा कर उन्हें आसमान पर बिठाना , नव-वर्ष और जन्मदिन पर शुभकामनाएं देना नहीं भूलती. सीखने पड़ेंगे ये सारे गुण.

शिखाऔर मैं तो अक्सर इनविजिबल मोड में रहकर पोस्ट लिखते रहते हैं और  डिस्कस भी करते रहते हैं. कमियां भी बताते हैं और एक दुसरे को आश्वस्त भी करते हैं,"न एडिट की जरूरत नहीं,रहने दो"शिखा से जाना कि ये 'फौलोवर लिस्ट'और 'डैश बोर्ड'क्या बला है. उसकी बहुत अच्छी आदत है कोई भी कमेन्ट करे वो उन्हें थैंक्स बोलती है,उनका ब्लॉग चेक करती है,फौलो करती है और कमेन्ट भी कर आती है. मैं बहुत कोशिश करती हूँ ये सब सीखने की,पर मेरी  लम्बी किस्तों को टाइप करने की थकान और कुछ मेरा laid back  attitude  आड़े आ जाता है. (शिखा, बहुत कुछ जमा हो गया है तुमसे सीखने को :))

शिखा और अदा के साथ वाणी गीतऔर संगीता स्वरुपजी भी मेरा ब्लॉग पढने लगीं. ये लोग इतनी सारगर्भित टिप्पणी देती हैं कि मेरी पोस्ट इनकी टिप्पणियों के बिना अधूरी रहती है. वाणी बहुत ही अच्छी सहेली है और उसके बेबाक विचार और सुन्दर लेखन शैली की तो फैन हूँ मैं.

मैने ब्लॉग जगत में कई जगह बहसों में जम कर हिस्सा लियाऔर खुल कर अपने विचार रखे. शायद
यही देख, ,रचना जीने नारी ब्लॉगपर लिखने का निमंत्रण  दिया.और मैने वहाँ ,'मोनालिसा स्माइलफिल्म के बारे में लिखा,जो अब भी मेरे प्रिय पोस्ट में से एक हैं.एक पूरा सन्डे 'बेनामी  जी'के ब्लॉग पर बहस में व्यतीत  हुआ और मुझे पता भी नहीं था कि मेरी 'विवाह-संस्था'पर इतनी आस्था है. दूसरे पक्ष की वकालत ,'गिरिजेश राव जी, अमरेन्द्र त्रिपाठी, लवली गोस्वामी,दिव्या श्रीवास्तव जैसी शख्सियत कर रहें थे और मैं अकेले 'मोर्चा संभाले  थी. जब अंत में सबकी खिंचाई करने वाले, बेनामी जी ने कहा'आपकी सोच में एक सफाई है ,जो नमन मांगती है 'तो मेरा सन्डे बर्बाद होने का सारा मलाल चला गया. चिट्ठा चर्चा पर  भी अपनी असहमति जताने में मैने हिचक नहीं बरती.

पर चिट्ठा चर्चा ने एक बहुत ही प्यारी सहेली दी.'वंदना  अवस्थी दुबे' ,उस से बातें करते तो लगता है.'कॉलेज के नहीं स्कूल के दिन लौट आए हैं.बात बात पे कहती है,"विद्या कसम"जो मैने स्कूल के बाद अब तक नहीं सुना था .मेरे लेखन की सजग पाठक है और किसी भी कमी की तरफ तुरंत इंगित करती है. 'विद्या कसम' ,वंदना ऐसी ही पैनी नज़र रखना मेरे लिखे पर:)

पापा की सर्विस में उनकी पोस्टिंग के समय हुए कुछ रोचक (और भयावह भी ) घटनाओं पर लिखे संस्मरण और मुंबई की लोकल ट्रेन के संसमरण लोगों को खूब पसंद आए.चंडीदत्त जीने सलाह दी कि, "संस्मरण, शब्द चित्र और रेखा चित्र "पर ज्यादा कंसंट्रेट करूँ. शरद जीके आश्वासन पर ,डायरी में कैद अपनी कुछ  कविताएँ भी पोस्ट करने की हिम्मत कर डाली. बच्चों के लिएखेल की अनिवार्यता..... काउंसलिंग की आवश्यकताऔर बाल मजदूर की त्रासदी पर भी लिखे मेरे पोस्ट, पसंद आए सबको. कई लोगों ने  मुझे बच्चों से संबंधित विषयों पर लिखने की सलाह दी. विजय कुमार सपत्ति जी शिवकासीमें काम कर रहें बाल मजदूरों  की दशा  के बारे में पढ़कर इतने  द्रवित हो गए कि मुझसे'नुक्कड़ ब्लॉग'से जुड़ने का आग्रह किया ताकि मानस के मोती के जरिये , पोस्ट सब तक पहुँच सके. आप सबका आभार,मेरे लेखन पर इतनी बारीक नज़र रखने के लिए.

अलग-अलग  विषयों  पर लिखना जारी था औरममता कुमार (मेरी भाभी ) मुझसे पूछती रहतीं, "कहानी कब पोस्ट कर रही हैं?"प्रथम पोस्ट से अब तक की हर पोस्ट वे पढ़ती हैं और जहाँ सहमत ना हों,आपत्ति जताने से भी नहीं चूकती ,  इनके जैसे ही कुछ नॉन-ब्लॉगर सौरभ हूँका,आलोक, आदि कुछ अंग्रेजी पढने-लिखने -बोलने वाले लोग हैं पर मेरा लिखा बड़े शौक से पढ़ते हैं. शुक्रिया दोस्तों.

मैने कहानी की किस्तें डालनी  शुरू कर दीं.अब कई लोग नेट पर लम्बी कहानी पढने के आदी नहीं हैं. मैने भी दूसरे आलेखों  के लिए दूसरा ब्लॉग बना लिया.जिन्हें कहानियों का शौक था, बस  वे लोग ही इस ब्लॉग  पर आते रहें. पहले  लघु उपन्यास की  अंतिम किस्त परआचार्य सलिल जी ,डा.अमर कुमार जी, रवि रतलामी जी, ज्ञानदत्त पण्डे जी, ताऊ रामपुरिया जी, इन लोगों की टिप्पणी से पता चला ये लोग भी मेरा लिखा पढ़ रहें थे.

मेरे लेखन ने,आचार्य सलिल जी, ज्ञानदत्त जी, सारिका,आलोक, डा. अमर कुमार, डा.तरु ...... कई लोगों को  (शायद भावनाओ की रौ में)  दिग्गज साहित्यकारों के लेखन  और उनकी कृतियों  की याद दिला दी. शायद मैं सातवें आसमान पर पहुँच जाती पर चंडीदत्त  जी, शरद जी, शहरोज़ भाई, अनूप शुक्ल जी,राजेश उत्साही जी  की टिप्पणियों ने हमेशा धरातल पर रखा. इन लोगों ने मेरा उत्साहवर्धन भी कम नहीं किया. पर यदा-कदा बताते भी रहें कि,यहाँ शिल्प की  कमी है,या साहित्यिक शब्दों की कमी खलती है,वगैरह.

प्रारम्भ से जिन लोगों  ने मेरी पोस्ट्स पढनी शुरू की,अब तक अपना स्नेह बनाये रखा है . बाद में कुछ नए नाम भी शामिल हो गए.
प्रथम उपन्यास से वंदना गुप्ता, सतीश पंचम जी, हरि शर्मा जी, दीपक शुक्ल जी, मनु जी,मुदिता, पूनम, शुभम जैन,  विनोदकुमार पाण्डेय, अबयज खान,पाबला जीहर किस्त पर  साथ बने रहे. खुशदीप भाई ने तो मुझे सीरियल में स्क्रिप्ट लेखन की कोशिश की सलाह भी दे डाली.

दूसरे लघु उपन्यास से ,मुक्ति, संजीत त्रिपाठी, हिमांशु मोहनजीजुड़ गए और अपनी समीक्षात्मक  टिप्पणियों  से मेरी मेहनत  सार्थक करते रहें.अनूप शुक्ल जीने कुछ अंशों को बॉक्स  में उद्धृत करने की तकनीकी सलाह भी दी.पर मैं नाकाम रही. (अब उन्हें सलाह देने के लिए थैंक्यू बोलूं या मेरे अमल ना कर पाने के लिए सॉरी, समझ में नहीं आता :))

तीसरा लघु उपन्यास तो इन्हीं पाठकों के साथ ने लिखवा ली.साधना वैद्य जी और शोभना चौरे , इंदु पूरी जी, प्रवीण पाण्डेय जी, घुघूती बासूती जी  ने भी पढ़ा और  ख़ास नज़र रखी,इस उपन्यास पर.

पिछली दो कहानियों पर अली जी  की समीक्षात्मक टिप्पणी ने अपनी ही लिखी कहानी को समझने में मदद की. अभी और रोहित की संवेदनशीलता भी कहीं गहरे छू गयी.

एक उल्लेख और करना चाहूंगी, "पराग, तुम भी.."में पहली बार मैने अपने लेखन में थोड़ी बोल्डनेस दिखाई (अपने स्टैण्डर्ड से ) दरअसल दिखानी पड़ी क्यूंकि वो 2010 की कहानी है ,और आज लड़के-लड़की साथ मिलकर सिर्फ चाँद और फूल नहीं देखते. किसी ने मुझे आगाह भी किया कि ये ब्लॉग जगत है, ज्यादातर लोग , सिर्फ उन्हीं उद्धरणों को कोट करके अपनी प्रतिक्रिया देंगे. पर एक भी पाठक ने ऐसा नहीं किया और कहानी के मूल स्वरुप को ही समझने की कोशिश की. सच , मुझे गर्व हो आया,पाठकों पर. और ब्लॉग जगत से कोई शिकायत नहीं ,यहाँ काफी  अच्छे लोग हैं जो बहुत अच्छा लिखते हैं और प्रोत्साहित भी करते हैं,अच्छा लिखने को..

सभी पाठकों का बहुत बहुत शुक्रिया, जिनके साथ और उत्साहवर्द्धन ने इस एक साल की ब्लॉग यात्रा को इतना खुशनुमा बनाए रखा.

मन के पाखी की, स्वच्छंद विचरण की यही जिजीविषा बनी रहें और थकान,ऊब, निराशा उसके पास भी ना फटके...बस यही  कामना है.

कुछ ऐसी टिप्पणियाँ, जो बेहतर लिखने को उत्साहित करती हैं और जिम्मेवारी का अहसास भी 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल जी 
http://mankapakhi.blogspot.com/2009/10/blog-post_13.html 
ज्ञानदत पाण्डेय जी
http://mankapakhi.blogspot.com/2010/03/4.html
अविनाश वाचस्पति जी,
http://mankapakhi.blogspot.com/2010/02/blog-post_11.html 
खुशदीप भाई
http://mankapakhi.blogspot.com/2010/01/blog-post_30.html
शहरोज़ भाई
http://mankapakhi.blogspot.com/2009/12/blog-post_17.html
हिमांशु  मोहन जी,
http://mankapakhi.blogspot.com/2010/05/blog-post.html
प्रवीण शुक्ल प्रार्थी जी,
http://mankapakhi.blogspot.com/2009/12/blog-post_17.html

आज पढने के बदले सुन लें कहानी...."कशमकश"

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कुछ कहानियाँ ज़ेहन में चल रही हैं...बस उन्हें शब्दों में ढालने का समय नहीं मिल पा रहा....पर ये कहानी भी आप सबों के लिए नई ही होगी...यह मेरे ब्लॉग की पहली पोस्ट थी और इसे मैने आकशवाणी के लिए भी पढ़ा था. उसी की रेकॉर्डिंग निम्न लिंक पर सुन सकते हैं. समय सीमा के कारण रेडियो  के लिए कुछ एडिट करना पड़ा.

 

 चाहें तो सुन ले...या फिर इस लिंक पर पूरी कहानी पढ़ सकते हैं.
http://mankapakhi.blogspot.com/2009/09/blog-post.html      


चुभन, टूटते सपनो के किरचों की

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अपना तकिया,अपना बिस्तर अपनी  दीवारें...और अपना खाली-खाली  सा कमरा...जिसने पूरे चौबीस साल तक उसकी हंसी-ख़ुशी-गम -आँसू सब देखे थे. उसके ग़मज़दा होने पर  कभी पुचकार कर अंक में भर लेता , कभी शिकायत करता ,इतना बेतरतीब क्यूँ रखा है तो कभी सजाने संवारने पर मुस्कुरा उठता . पिछले पांच बरस से जब-जब अपने कमरे में आती है लगता है ,जैसे शिकायत  कर रही हो दीवारें...इतने दिनों बाद सुध ली? तकिये पर सर रखते ही लगा,उसी पुरानी खुशबू ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है. पलकें मुंदने लगी थीं.

पलकों को जगाये रखने की वजहें भी आज नहीं थीं. कहीं किचन में कुछ फ्रिज में रखना ...या दही का जमान डालना तो नहीं भूल गयी ?. दरवाजे के बाहर याद से थैली टांगा ना..नहीं तो दूधवाला वहीँ डोरमैट पर दूध के पैकेट्स डाल चलता बनेगा.. सब जगह की लाईट -फैन बंद किए या नहीं. सिलसिलेवार ढंग से सब याद कर, थका शरीर नींद के आगोश में तो चला जाता है पर सुकून  की नींद कहाँ नसीब, आर्यन को रात भर चादर उढाओ, और इतने एहतियात से कि जरा करवट बदलने  की आवाज़ भी ना हो...वरना सुनील का खीझा  स्वर सुनाई देगा,'दिन भर  खट कर आओ...और चैन की नींद भी नहीं नसीब'गुस्सा आ जाता उसे ,जैसे वह सारा दिन राजगद्दी पर आराम फरमा  रही हो. फिर रात भर रेंगते  हाथों के स्पर्श की आशंका तो बनी ही रहती . आज, आर्यन तो माँ के पास सोया है. और सुनील दौरे पर हैं. अच्छा हुआ सिम्मी की जिद पर रुक गयी. दिनों बाद पुरसुकून नींद मिलेगी उसे. इन आशंकाओं से परे क्या पता मीठे सपने भी आ जाएँ. आजकल तो सपने भी यही आते कि 'दरवाजा चेक नहीं किया और कोई घुस आया घर में' ...या..'दूध फ्रिज में रखना भूल गयी  और दूध फट गया .अब आर्यन रो रहा है.....सुनील चाय के लिए आवाजें लगा रहे  है ...क्या करे'.

अंतिम बार कब देखा था , कोई खुशनुमा सपना? वो फूलों से भरी घाटियाँ, बर्फ लदी चोटियाँ या फिर चांदनी रात में दूर तक जाती ठंढी,अकेली सड़क. सुन्दर सपनो की सोच कर ही मीठी सी मुस्कान फ़ैल गयी थी चेहरे पर. सचमुच वो यह सब सोच रही है या सच में सपना ही देख रही है.पलकें भारी होने लगीं  थीं कि सिम्मी की फुसफुसाहट सुनायी दी,"दीदी...दीदी...मुझे तुमसे कुछ बात करनी है"

"हम्म..."उसने आँखें नहीं खोलीं.

"दीदी..."सिम्मी ने फिर झकझोरा.

"सिम्मी प्लीज़...कल बता देना...सोने दे आज"

"ना आज.... अभी...."

"हम्म.. तेरी फिर से अनीता से अनबन हो गयी..."नींद थोड़ी थोड़ी खुलने लगी थी.

"ना ..."

"तो नया क्या होगा....वो नई सहेली...तेरा एडवांटेज ले रही है?...भाव देना बंद कर दे उसे...चल  अब सोने दे.."

"दीदी...तुम उठ कर बैठो ....और पूरी बात सुनो.."

"ओह फिर जरूर सेवेंथ  फ्लोर वाले अंकल को लिफ्ट में देख तुझे स्टेयरकेस  से जाना पड़ा"

"अब मैं नहीं डरती उनसे...अगर अब कभी बेटी बेटी कह कर कंधे पर हाथ रखा ना...तो ऐसी किक मारूंगी...कि परलोक ही सिधार जाएंगे"इतनी तेज़ आवाज़ में कहा,सिम्मी ने कि नींद पूरी तरह खुल गयी...पर आँखे खोलने का मन नहीं हो रहा था.

"तो बता ना..फिर क्या बात है..."

"तुम मुझे बताने भी दे रही हो....खुद ही अँधेरे में तीर फेंके जा रही हो "

"हम्म... गौट इट ...सब सहेलियाँ, जैसे ही  टाइम मिले  अपने बॉयफ्रेंड  से 'एस एम एस'चैटिंग में बिजी हो जाती हैं  और तू बोर होती रहती है...."अंतिम पासा फेंका..शायद यह सही हो और वह दो मिनट में उसे थोड़ा ज्ञान दे...वापस सोने चली जाए.पर आगे जो सिम्मी ने कहा..उस से तो आँखें अपनी पूरी चौड़ाई में खुल गयीं.

"नहीं...अब मैं बोर नहीं होती...क्यूंकि अब मेरा भी बॉयफ्रेंड  है..."सिम्मी  ने चहक कर कहा.

"आएँs..."उसने करवट बदल  ली उसकी तरफ...."कब हुआ ये.....कौन है.."

सिम्मी पलंग से कूद, धीरे से दबे पाँव जाकर दरवाजा सटा आई."मम्मी  तो बातें सुनती नहीं...सूंघ लेती है...उन्हें तो खुशबू आ जाती  है....बाप रे...कैसे जान लेती हैं सब..तुम कभी ऐसी माँ मत बनना...जरा भी प्रायवेसी नहीं..."

"सिम्मी, इस मेट्रो में दो दो लड़कियों को बड़ा करना मजाक है?...और वो भी तेरी जैसी  तेज तर्रार....बीस आँखें रखनी पड़ती हैं..."अब नींद को तिलांजलि दे ही दी थी उसने..."छोड़ वो सब, अब बता पूरा किस्सा..."

"बता तो दिया..."अब सिम्मी भाव खा रही थी.

"मेरी इतनी प्यारी नींद ख़राब कर बस तुझे एक लाइन में यही कहना था..."गुस्सा आ गया उसे.

"तो और क्या बोलूं..."लाली  छिटक आई थी सिम्मी के चेहरे पर...कुशन गोद में दबाये यूँ ही आगे पीछे झूल रही थी.

वो भी उठ बैठी..."कौन है ये..पहले ये बता "

"तुम उसे जानती हो.."

"नाम..."

"रोहन  "

"वो...रुमा आंटी का बेटा...??"अविश्वास हुआ था  उसे. वो कहीं से भी सिम्मी के मैच का नहीं था. सीधा-साधा. पास की बिल्डिंग में ही रहता था. बचपन में साथ खेला करता था. पर उसके साथ....सिम्मी के नहीं. सिम्मी तो तब छोटे में आती थी. उनका ग्रुप अलग हुआ करता था. रोहन कभी खेल में झगडा नहीं करता. क्रिकेट में कई बार आउट ना होने पर भी दूसरे को बैटिंग दे देता. झगडा सुलझाने को झूठ-मूठ को सॉरी भी बोल दिया करता. वह उसके स्वभाव को हमेशा  उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि से जोड़ती. रुमा आंटी डिवोरसी थीं. अकेले दम पर बड़ा किया उन्होंने रोहन को. उनकी कोई नौकरी भी नहीं थी. बस फ़्लैट अपना था. पर वो ट्यूशन लेतीं, क्रेच चलातीं, ग्रीटिंग्स कार्ड बनातीं, गिफ्ट बॉक्स भी बनातीं...और अचार ,चटनी, चकली भी. कभी दुकान पर बेचने भी नहीं गयीं,ना रोहन को इन्वॉल्व किया . आस-पास की औरतें ही खरीद लेतीं ये  सब और ऑर्डर भी दिया करतीं. माँ भी हमेशा उनसे ही अचार-चटनी लिया करती. उनकी तारीफ़ करते नहीं थकती. तारीफ़ तो वो रोहन की भी कम नहीं करतीं. बचपन में बर्थडे पार्टी में रोहन आया करता, पर हमेशा हेल्प करने को तत्पर. बाकी बच्चे शोर मचाते रहते यहाँ तक कि  वो भी सहेलियों से गप्पों में मशगूल रहती. माँ के दस बार बुलाने पर भी अनसुना कर देती और वहीँ रोहन...माँ के हाथों से ट्रे थाम लेता. प्लेटे लगाता ...इधर उधर गिरे ग्लास भी इकट्ठा कर डस्टबिन में डाल आता.

पार्टी के बाद भी माँ उसे रोहन का उदाहरण देतीं पर उसे कभी रोहन से इर्ष्या नहीं हुई या गुस्सा नहीं आया.वो था ही इतना शांत और हंसमुख कि उस से लड़ने का ख्याल भी नहीं आता. उस से दो क्लास नीचे था. यहाँ  दीदी कहने का रिवाज़ नहीं था पर उसपर हमेशा एक छोटे भाई जैसा प्यार ही आता,उसे. पर सिम्मी ये क्या कह रही है...ये सब बातें अपनी जगह हैं...और रिश्ते बनाना अपनी जगह ... रोहन का नाम सुनते ही एक सेकेण्ड में सारी बातें दिमाग में घूम गयीं.
भगवान करे ये बस सिम्मी का  पासिंग फेज़ ही हो और रोहन तो कहीं सिम्मी के डैशिंग इमेज  वाले खांचे में फिट भी नहीं बैठता. पूछ ही लिया.

"रोहन इज  नॉट योर  टाइप ऑफ गाइ....हाउ डिड यू  टु मीट"

"व्हाट डू यू मीन...नॉट माई टाइप...क्या है मेरा टाइप ?"सिम्मी तुनक उठी थी.

"अरे ...वो बस मूवी,पार्टी, डिस्को..बाइक-रेसिंग....तुझे तो यही सब पसंद हैं,ना...."

"दीदी मैं सोलह साल वाली सिम्मी  नहीं हूँ...ही इज सो...मैच्योर.. केयरिंग एन स्वीट टू....आजकल के लड़कों जैसा एटीच्यूड्स वाला नहीं है.."

"अरे,वाह ...बहुत पता है तुझे, आजकल के लड़कों की.."

"होगा क्यूँ नहीं....तुम्हारी तरह कॉलेज के बाद गृहस्थी बसा ली क्या...दीदी, सच यू डोंट नो ...वाट यू मिस्ड..."

"अब तू अपना पुराण मत शुरू कर....अभी बात तेरी हो रही है..."बीच में ही बात काट दी उसने..वो हमेशा डरती है...कब सिम्मी ये किस्सा  छेड़ बैठे. सिम्मी ने कभी उसका इतनी जल्दी शादी के बंधन में बंध जाना स्वीकार नहीं किया. हमेशा उसे दो बातें सुना जाती है. पर आज तो सिम्मी की बातें सुननी थीं..."अरे बता तो सही....दोस्ती कैसे हुई रोहन से..."

"हाँ ,पहले दोस्ती ही हुई....ऑफिस जाने की हमारी टाइमिंग एक ही थी.हम दोनों ही गेट के सामने वाली बस स्टॉप के क्यू में खड़े होते. पर अपने अपने कानों में हेडफोन लगाए. मुझे याद है...रोहन तुमलोगों के साथ खेलने बिल्डिंग में आया करता था...पर तब तुमलोग मुझे 'कच्चा लिम्बू'  कह के साथ नहीं खिलाते और जब मैं बड़ी हो गयी तो रोहन फूटबाल  खेलने दूसरे ग्राउंड पर जाने लगा . बस मैं जानती थी कि वो रुमा आंटी का लड़का है और वो जानता था,मैं डिम्पी की बहन हूँ....ना वो कुछ बात करता...ना मैं. फिर एक दिन बस नहीं आ रही थी मैं भी परेशान थी....उसने एक ऑटो रोका और मुझसे पूछा और फिर हम दोनों साथ गए, ऑटो में. उसके बाद रोज ही हमलोग  ऑटो शेयर करने लगे, स्टेशन तक. मुझे थोड़ा एक्स्ट्रा टाइम भी मिलने लगा. वो ऑटो  लेकर मेरी गेट तक आता. बस वहीँ से बात चीत  शुरू हुई....फिर कभी कभी  शाम को भी साथ आने लगे...एंड देन कॉफी. एन मूवी....एन यू नो ना...."

आगे बताने से सिम्मी हिचकिचा रही थी...बड़ी बहन कितनी भी सहेली जैसी हो...पर बड़ी बहन ही होती है और वो तो उस से पांच साल बड़ी थी...उसने भी गंभीरता से कहा.."या कैन गेस...बट रियली आर यू गाईज़ सीरियस?"

"डोंट नो..."सिम्मी ने कंधे उचका दिए तो उसे गुस्सा आ गया..."ओह! तो ये तेरा टी.पी. है "

"नहीं दी...वी आर रियली सीरियस...नहीं तो तुम्हे नहीं बताती...एक साल हो गया हमें मिले...बट कमिट हाल में किया है"

"सिम्मी...तुझे सब पता है,ना..रोहन के बारे में...पापा कभी मानेंगे ?

"तुमसे ज्यादा पता है...तुमसे क्या ..किसी से भी ज्यादा पता है...और पापा से मैं नहीं डरती...वे मेरी ज़िन्दगी का फैसला नहीं करेंगे .."

"इतना आसान नहीं हैं...पर वो तो बाद की बात है...पहले तुमलोग तो गंभीर हो जाओ एक दूसरे के प्रति...वन इयर इज टू शॉर्ट,अ पीरियड टु नो एनीवन.....गिव  सम मोर टाइम टु योर रिलेशनशिप ...पर सिम्मी प्लीज़ इसे टाइम पास की तरह मत लेना...सब सोच-समझ कर...कमिटेड हो तभी आगे बढ़ना...उस बेचारे ने बहुत दुख देखे हैं,बचपन से...उसे हर्ट मत करना "

"यू नो दी..रोहन को नफरत है...इस बेचारे शब्द से....उसे बहुत गुस्सा आता है कि लोग उसे बेचारागी की नज़र से क्यूँ देखते हैं...बता रहा था एक दिन...उसने तो कुछ भी अलग महसूस नहीं किया...सब बच्चों की तरह ही स्कूल जाता,खेलता...बर्थडे पार्टी में जाता...फ्रेंड्स को अपने घर बुलाता...और फिर यहाँ कितनो के डैडी इन्वोल्व रहते हैं,बेटे की ज़िन्दगी में. शिप पर काम करने वाले, आठ महीने नहीं रहते घर पर...क्या अलग  है उसका घर उनलोगों  से? फिर भी लोग सिम्पैथी दिखाते हैं....हाँ वो अपनी माँ को लेकर वरीड रहता है..तुम्हे पता है...उसने कितनी कोशिश की है, अपने ममी-पापा को नज़दीक लाने की..."

"अच्छा...उसका अपने डैडी से कम्युनिकेशन है??...उनके बारे में तो कितने रयूमर्स  थे कि वे गल्फ में हैं या शायद स्टेट्स में...कभी फोन नहीं करते...कोई पैसा नहीं भेजते.."

"हाँ फोन नहीं करते..पैसे नहीं  भेजते....पर इसी शहर  में रहते हैं...अपनी बहन के पास...ये फ़्लैट उसकी ममी के नाम करके अपने कर्त्तव्य  की इतिश्री समझ ली...रोहन तो बहुत छोटा था...उसे पता  भी नहीं कि क्या प्रोबलम थी ममी-पापा के बीच....पर जब उसके बोर्ड का रिजल्ट आया तो उसके डैडी ने फोन किया था...और उसे लंच के लिए ले गए थे....रोहन के मन में कटुता नहीं है,अपने डैडी  को लेकर...और इसका श्रेय वो अपनी ममी को देता है...उसके बाद से ही उसने कोशिश शुरू कर दी...घर पर गणपति की पूजा भी रखी  और इसी बहाने अपने डैडी को जबरदस्ती घर आने पर मजबूर किया...उसने बहुत कोशिश की, दी..ममी से डैडी के बर्थडे पर विश करवाया...डैडी को ममी के बर्थडे पर फोन करने को कहा...लेकिन पता नहीं...उसकी बुआ ने क्या कान भर रखे हैं...आखिर उसके डैडी, सारे पैसे अपनी बहन  के बच्चों पर ही तो खर्च करते हैं...पर यह बात उसके डैडी को समझ नहीं आती...रोहन जितना कहता उसके ममी-डैडी उसका मन रखने को कर लेते..बट एक्चुअली दे आर ड्रीफटेड अपार्ट ...एक दो साल के बाद रोहन ने भी कोशिश छोड़ दी...एंड यू नो दी...नाउ हिज़ डैडी वांट्स टू रिटर्न....अब खुद अपने मन से अक्सर फोन करते हैं..."

"हाँ..क्यूँ नहीं...अब बुढापे में सेवा जो करवानी होगी...अब कौन पूछेगा,उन्हें बहन के यहाँ..."उसका मन तिक्त हो आया था...इसी शहर में रहकर एक बार सुध नहीं ली ,अपने बीवी बच्चे  की. रुमा आंटी की मेहनत देखी है उसने...सुबह पांच बजे से रात के बारह बजे तक वो खटती रहतीं...रोहन की देखभाल के लिए नौकरी भी नहीं की उन्होंने और घर से ही सब सम्भाला.

"एग्जैक्टली दी..यही बात है...पर रोहन कहता है...आखिर फादर हैं...उनकी देखभाल तो उसी  की जिम्मेवारी है....बुआ मुहँ फेर लेंगी,तो वे कहाँ जाएंगे....पर कहता है,अपनी ममी को मजबूर नहीं करेगा...उनकी सेवा के लिए..."

"ही  रियली इज अ नाइस गाइ...तू आजकल बड़ी समझदारहो गयी है.. फिर हंस कर जोड़ा..."पर तेरे मुहँ से इतनी समझदारी की बातें...शोभा नहीं देतीं..तू तो लड़ती-झगड़ती ही अच्छी लगती है...अच्छा चेंज लाया है..इस रोहन की कंपनी ने ...अब कैसा दिखता है...मैने  तो कब लास्ट देखा था उसे...याद भी  नहीं.."

"तुम्हारी दुनिया...बस जीजू..और आर्यन हो गए हैं....उनके आगे-पीछे घूमना...और बस उनकी ही बातें करना...तुम्हे बाकी दुनिया से कोई मतलब भी है??"विद्रूपता से कहा, सिम्मी ने.

"सिम्मी...तू फिर शुरू हो गयी...बात रोहन की हो रही है...बता ना..कैसा दिखाता है अब..

"एकदम 'टी.डी.एच'...."सिम्मी मुस्कुरा रही थी.

"ओए.. होए.. 'टी.डी.एच'.....तो वो गोरा-चिट्टा लड़का...अब काला हो गया..."

"ना..फेयर तो अब भी है...लो..थिंक ऑफ द डेविल  एन डेविल इज हियर...आज तो घर आने में उसे ज्यादा ही देर हो गयी है.." .सिम्मी के मोबाइल का मेसेज टोन बज उठा था.

"इस वक़्त घर आता है वो...??"

"हाँ...जॉब के साथ...पार्ट टाइम एम.बी.ए. कर रहा है..लेट नाईट क्लास होती हैं....पर मुझे गुडनाईट कहे बिना नहीं सोता..."सिम्मी मुस्कुराते हुए ...मेसेज टाइप करने में लगी थी.

"हाँ...नींद कैसे आएगी,उसे ...चल अब तू अपनी 'एस.एम.एस'चैटिंग कर...मैं चली  सोने..."

सिम्मी  ने भी मुस्कुराते हुए तकिया खींच दूसरी तरफ करवट बदल ली थी.

सिम्मी का राज़ सुन जाने कैसी अनजानी ख़ुशी भर गयी थी मन में. चेहरे से मुस्कान मिट नहीं रही थी. दिल की धड़कने बढ़ गयी थीं...'माई लिल सिस इज इन लव'...इतनी बड़ी हो गयी है, छुटकी. अब. उसपर एक बड़ी जिम्मेवारी आ गयी है. सिम्मी की खुशियाँ अब उस पर निर्भर  हैं...मम्मी -पापा को उसे ही मनाना होगा...फिर सर झटक दिया...एक मन कहता,अभी दोनों को शादी का फैसला तो करने दे...फिर दूसरा मन कहता, जब कमिट कर लिया है तो अगला कदम शादी ही तो होगा...पता नहीं क्या क्या सोच रही थी कि सिम्मी ने मोबाइल हेडबोर्ड  पर रखा...और 'गुडनाईट दी'..कहती सिमट कर सो गयी.

उसने करवट बदल ,उसके चेहरे पर भरपूर नज़र डाली. सिम्मी का चहरा दमक रहा था और एक शांतिपूर्ण  स्मित  थी होठों  पर. उसके चेहरे की दमक और होठों की स्मित कायम रखना अब उसकी जिम्मेवारी है.सिम्मी तो सो गयी...पर वो ना जाने कब तक इन्ही सपनो में डूबती उतराती,जागती रही.

(क्रमशः )

चुभन, टूटते सपनो के किरचों की ( कहानी -२)

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(छोटी बहन सिम्मी ने ,एक लड़के रोहन से अपने प्रेम की बात बतायी थी. रोहन , अपनी माँ के साथ अकेले रहता था..उसके माता-पिता का डिवोर्स हो चुका था. )
 

गतांक से आगे 

आर्यन को ले, घर लौट आई थी पर पूरे  समय उसके दिमाग में सिम्मी और रोहन के रिश्ते ही छाये रहते . चाहे जो हो,वो अपनी बहन की खुशियाँ नहीं बिखरने देगी. खुद तो कभी प्यार जाना नहीं. माँ का इतना सख्त अनुशासन था . कॉलेज में कदम रखते  ही उसे बिठाकर एक घंटे लेक्चर  और ढेर सारी हिदायतें दी थीं. हर वाक्य के अंत में होता, 'तुम्हारी एक छोटी बहन भी है...तुम्हारी किसी भी हरकत का असर उस पर भी होगा."और वो पूरे समय  एक आदर्श बड़ी बहन का रोल निभाती रही और छोटी बहन ने ही गुल खिला दिए. माँ की उलझन वो समझती थी. उन्हें उसके माध्यम से अड़ोसी-पड़ोसी रिश्तेदारों सबको यह दिखाना था कि उन्होंने कितनी अच्छी परवरिश की है. जब भी छुट्टियों में अपने शहर जातीं...सब हिदायतें देते..'बड़े शहर में रहती हो जरा,लड़कियों पर ध्यान रखा करो...ऐसा ना हो बाद में रोना पड़े"और माँ का सख्त शिकंजा जरा और मजबूती से कस जाता.

वह भी डरी डरी सी ही रहती, कॉलेज में उस  मनीष ने कितनी बार करीब  आने की कोशिश की..असाईन्मेंट्स  के बहाने...बुक्स के बहाने. उसे भी घुंघराले बालों वाला, लम्बा -पतला...बेपरवाह चाल वाला ,मनीष अच्छा लगता,  पर वो अपनी सहेली संजना से ही  चिपकी रहती. आखिरकार  बाद में सुना उसका नाम 'आइस बेबी'रख छोड़ा है उसने. जिस दिन वो नहीं आती, संजना बताती...सारा दिन कहते रहता..'कितनी गर्मी है आज...वो 'आइस बेबी'भी तो नहीं आई.'फिर भी उसकी हिम्मत नहीं हुई. जब अपने नेटिव प्लेस की कजिन्स को देखती तो लगता छोटे शहर में रहकर भी वे ज्यादा आज़ाद हैं. छत पर अपनी सहेलियों से लड़कों की ऐसी ऐसी बातें करतीं कि वो दंग रह जाती. पर वो तो फ़्लैट में रहती थी और उसपर मम्मी के खड़े कान  और सतर्क नज़र. कॉलेज का भी सारा टाइम टेबल उन्हें पता होता. दस मिनट भी लेट हो जाती तो सौ सवालों  के जबाब देने पड़ते. बस कॉलेज बंक कर के कैंटीन और गार्डेन में टाइम पास किया है. इस से ज्यादा तफरीह नहीं की कभी.

फिर भी सोचती, चलो कॉलेज के बाद जॉब करेगी ,तब तो अपनी मर्जी की मालिक होगी.पर पापा को किसी ने सुनील का रिश्ता बताया और फिर चट मंगनी पट ब्याह . वैसे सिम्मी उसपर चुपचाप गाय जैसे सर झुका कर शादी कर लेने का इलज़ाम लगाती है .पर बात वो नहीं थी...उसने डरते-डरते ही सही, पर विरोध किया था. और तब पापा ने बड़े प्यार से समझाया था. संयोग से इसी  शहर का लड़का है...वो अपने शहर मे ही रहेगी. शादी के बाद भी आगे पढ़ना चाहे ..कोर्स करना चाहे..नौकरी... जो चाहे कर सकती है. दो साल  बाद पता नहीं किसी  दूसरे शहर  का लड़का मिले...तो उसे जाना पड़ेगा.आखिर दो-चार -पांच साल बाद शादी तो करनी  ही है. एक बार सुनील से मिल ले..ना अच्छा लगे तो ना कर दे और वे मान लेंगे.

सुनील उसे बहुत सुलझे हुए लगे. और हैन्डसम,वेल मैनर्ड भी ( सिम्मी कहती है, तुमने उसके पहले किसी लड़के को नजर भर देखा कहाँ था, पहला लड़का देखा और दिल हार गयी.) उसकी आगे पढने की चाह नौकरी की ख्वाहिश सबमे हामी भर दी. और वह तो ख़ुशी से नाच उठी. सुनील से शादी की ज्यादा ख़ुशी थी या माँ के सख्त अनुशासन से निकल जाने की वो तय नहीं कर पाती. पर सारे मंसूबे धरे रह गए.एक साल बाद ही आर्यन आ गया और अब तो बस उसकी  दुनिया ,आर्यन ही है.

उसकी ज़िन्दगी तो एक बनी बनायी लीक पर चलती रही...पर सिम्मी ने विद्रोह कर दिया था....उसने मम्मी-पापा से साफ़ कह दिया था, वो दीदी की तरह पढ़ाकू नहीं और उसे ज्यादा पढने का शौक भी नहीं...ग्रेजुएशन के बाद नौकरी करेगी और कुछ साल तक शादी नहीं करेगी. पापा कितना मना कर रह गए थे, एम.बी.ए. कर ले...कोई अच्छा सा कोर्स कर ले ...पर उसकी ना तो ना...खुद ही वेकेंसी पता कर इंटरव्यूज़ के लिए जाती और एक अच्छी सी जॉब भी मिल गयी, उसे.

उसने भी हर कदम पर सिम्मी का साथ दिया था, कपड़ों के चयन की बात हो, या फ्रेंड्स के साथ देर रात न्यू ईयर पार्टी या गरबा में जाने की बात...हर बार वो माँ से उसके लिए लड़ पड़ती. जो कुछ, खुद नहीं जिया, सिम्मी के माध्यम से जीने की कोशिश थी,शायद. माँ ने उसे जींस पहनने से तो नहीं रोका..पर टी.शर्ट या कुर्ती लम्बी सी ढीली ढाली होनी चाहिए थी. माँ उसे खुद ही शॉपिंग  के लिए लेकर जातीं.और ओल्ड फैशंड कपड़े खरीदवा देतीं. हद्द  तो तब हो गयी थी,जब एक बार बारिश में उसके कपड़े नहीं सूखे थे और माँ ने बाकी कपड़े...प्रेस में दे दिए थे. माँ ने जबरदस्ती अपना सलवार कुरता पहनने पर मजबूर कर दिया था. उसके  आना-कानी करने पर डांट लगाई थी कि वो कॉलेज पढने के लिए जाती है या फैशन शो में भाग लेने. टेस्ट था इसलिए वो बंक भी नहीं कर सकी. सारा दिन मनीष की नज़रों से बचती  रही थी. पर उसने देख ही लिया और उसके ऊँचे गले और बेफिटिंग वाले कपड़ों को देख..'आइस बेबी'से बदल कर उसका नाम 'मुगले-आज़म'रख दिया था. घर पे आकर कितना रोई थी और सबने सोचा था, टेस्ट खराब हो गया है.

शायद इसी का बदला लेने को, सिम्मी के कॉलेज में जाते ही खुद उसे लेकर लिंकिंग रोड गयी थी और ढेर सारे तंग...छोटे टॉप्स खरीदवा दिए थे.माँ कुछ कहतीं..उसके पहले खुद ही कह दिया था....'मुझे तो मुगले-आजम के जमाने के कपड़े पहना ,  भेजती थी कॉलेज...अब इसे तो आज में जीने दो...."माँ के चेहरे का बदलता रंग देख..थोड़ा अपराधी मह्सूस  किया था और आगे जोड़ दिया.."ये इतनी दुबली-पतली है,इस पर अच्छे लगेंगे ये कपड़े"और मन ही मन कहा था.."मैं कौन सी मोटी थी...मुझपर क्या अच्छे नहीं लगते?? " . सुनील कोई टोका-टोकी नहीं करते...पूरी आजादी थी ,जो चाहे पहने ,पर आर्यन के जन्म के बाद खुद ही मन मसोस  कर रह जाती. जब किसी शॉप में शॉपकीपर  उसकी नाप के कपड़े के लिए अलग काउंटर पर भेज देता तो उसी वक़्त प्रण कर लेती, अब कल से ही जिम और डाइटिंग शुरू. पर यह प्रण बस रास्ते तक ही रहता घर आकर भूल ही जाती कि ऐसा कुछ सोचा भी था.अब कोई मोटिवेशन भी तो नहीं था.

माँ भी सिम्मी से उतनी सख्ती से पेश नहीं आतीं...शायद उन्हें संतोष हो गया था ,'एक बेटी को तो पारंपरिक  ढंग से पढ़ा-लिखा कर शादी कर दी'अब उनकी परवरिश पर कोई ऊँगली नहीं उठा सकता. फिर भी रोहन से शादी की बात तो माँ भी ना मानें,चाहें रुमा आंटी उनकी कितनी ही अजीज़  हों. और पापा का तो सवाल ही नहीं उठता. उनकी तो साहनुभूति भी नहीं थी,रुमा आंटी के साथ. माँ के ,जिक्र करने पर अक्सर कह देते.."क्या पता, क्या बात थी,एक घर भी नहीं संभाल सकी. एक औरत का इतना इगो रखना अच्छा नहीं."  एक महिला सुचारू रूप से घर चला रही है, अकेले दम पर ,बच्चे की परवरिश कर रही है. शायद उनके पुरुष दर्प को यह बात आहत करती थी. फिर रोहन के पास अच्छी क्वालिफिकेशन भी नहीं थी. पापा भले  ही बरसों से महानगर में रह रहें हों.पर अभी भी डॉक्टर,इंजनियर, क्लास वन गवर्नमेंट ऑफिसर्स से आगे उनकी सोच नहीं जाती. सुनील का  भी आइ.आइ.टी. से होना उन्हें लट्टू कर गया था

उसे ही सब करना होगा.अगर माँ-पापा नहीं माने तो कोर्ट मैरेज करवा देगी,उनकी. विटनेस की जगह हस्ताक्षर करने की बात सोच ही रोमांचित हो उठती . आर्य समाज मंदिर में फेरे भी करवाने होंगे. पर इन सबके पहले सुनील को मनाना होगा. वे मम्मी -पापा के खिलाफ साथ देने को तैयार होंगे? ना तो ना सही...वो तो पूरा साथ देगी,उनका. फिर एक अपराध बोध भर आता मन में. क्या गुजरेगी, मम्मी- पापा  पर....छोटी लड़की उनकी मर्जी के खिलाफ शादी कर रही है और बड़ी बेटी साथ दे रही है...पर  कोई चारा भी तो नहीं...अब समय  के साथ नहीं बदलेंगे तो यह दुख तो सहना ही पड़ेगा...  रुमा आंटी के ना करने का तो सवाल ही नहीं. रोहन की ख़ुशी,उनकी ख़ुशी है. और अब तो रोहन से मिल भी चुकी है.बहुत पसंद आया था उसे.

सिम्मी ने ही एक दिन पूछा,'रोहन से मिलोगी ?..मैने उसे  दिया है कि तुम्हे सब मालूम है.'उसने घर बुलाना चाहा ,दोनों को तो सिम्मी ने मना कर दिया..'ये सब झंझट मत पालो...तुम किचन में खटना शुरू  कर दोगी...ऐसे ही कहीं साथ में कॉफी पीते हैं."

"पर आर्यन..."

"क्या दीदी...कभी...तो उसके बिना भी कुछ सोच लिया करो...इतनी औरतें...बच्चों को छोड़कर बाहर जाती हैं या नहीं...मम्मी के पास...छोडो..या नेबर या  किसी फ्रेंड के यहाँ...ये सब तुम जानो....फिर मुझे बता दो...किस दिन का प्लान है."

माँ के पास ही छोड़ना ठीक लगा...आराम से जितनी देर चाहे रुक सकती है. सिम्मी के साथ शॉपिंग का बहाना बनाया कि वो ऑफिस से थोड़ा जल्दी निकल  आएगी. उस दिन बड़े यत्न से तैयार हुई. ढूंढ ढाढ   कर एक फैशनेबल टॉप और जींस निकाला. बाल खुले छोड़े. मस्कारा और आई लाइनर भी ट्राई करने की कोशिश की पर इतने दिन नहीं यूज़ करने से ड्राई हो  गए थे सब. ट्रेंडी ज्वेलरी भी निकाले...और जैसे खुद को ही आइने में पहचान नहीं पायी.

आर्यन ने भी उसे गौर से देखा और एक हाथ कमर पर रख  एकदम मवाली की तरह बोला...'ओ  मम्मा ...तुम कित्ती ब्यूटीफुल लग रही हो..."और फिर सब  किरकिरा कर दिया,यह कह कर ,""एकदम मेरी 'मिस डे 'टीचर जैसी."पूत के पाँव पालने में...अभी से टीचर्स को गौर से देखना शुरू कर दिया है. सोचा  उसने.

माँ भी एकबार चौंकी.फिर बोलीं...'हम्म तो दोनों बहने आज एन्जॉय  करने जा रही हैं"

थोड़ा झिझकी वो,"अब सिम्मी के साथ जाना है..पता है,ना..जरा सा ढीली-ढाली रही तो बीच बाज़ार में ही डांट देगी मुझे"

"उस लड़की से तो भगवान बचाए...कैंची की तरह जुबान चलती है...पर तू बहुत अच्छी लग रही है, ऐसी ही रहा कर.."

गुस्सा आ गया उसे,मन ही मन कहा..."हाँ...जब अच्छी लगती थी तो पहनने  नहीं दिया...और अब ना  समय मिलता है .ना कपड़े फिट आते हैं...ना सजने-संवारने की चाह तो कहती हो..ऐसे ही रहा कर..."

जल्दी से बाहर निकली,पहला मौका था जब यूँ आर्यन के बिना...बाहर जा रही थी. कॉफी शॉप तो दूर किसी रेस्टोरेंट में जाना भी बंद हो गया था. एक बार आर्यन ने वेटर के प्लेट रखते ही चम्मच उठा खट से प्लेट पर मारा और प्लेट टूट गयी. और एक बार तो टेबल पर चढ़ डांस करने की कोशिश करने लगा. सारे लोग देख रहें थे. उसे तो उतना बुरा नहीं लगा, सबके बच्चे इस उम्र में ऐसा ही करते  हैं.पर सुनील काफी एम्बैरेस्ड हो गए थे और बिलकुल बंद कर दिया था,बाहर जाना...अब सिर्फ वे लोग गार्डेन में जाते या किसी 'बीच'पर. वहाँ जाने के लिए क्या तैयार होना? बहुत दिनों बाद ये मौका आया था.

कार में खुद को अकेले पाकर एक अलग ही अनुभूति हुई. हालांकि आर्यन  के लिए ही गाड़ी चलानी सीखी. वरना सुनील तो कितनी बार कहते, 'मैं ट्रेन से जाता हूँ,कार पड़ी रहती है,सीख लो'. पर अंदर छुपी भीरु लड़की ने हिम्मत नहीं की. फिर एक बार सिग्नल पे इतना धुंआ था  कि आर्यन का तो गला चोक होते-होते बचा. ऐसी खांसी उठी कि चार घंटे हॉस्पिटल में रखना पड़ा. ऑक्सीजन दी गयी तब वो ठीक  हुआ. सुनील बहुत बरसे ,"हफ्ते में दस दिन, अपनी  माँ के यहाँ जाना तो छूटेगा नहीं...बच्चे पर तो रहम करो...गाड़ी पड़ी रहती  है पर नहीं चलानी ...तुम्हे तो किसी गाँव में होना चाहिए था " (उनका गुस्सा देख, ध्यान भी नहीं दिलाया कि हफ्ते में दस नहीं, सात दिन होते हैं ) उसके बाद से ही हिम्मत कर गाड़ी चलानी सीखी.....वो अलग बात है कि ,वीकेंड्स पर सुनील का अधिकार रहता है कार पर और उनको हज़ार अदृश्य आवाजें सुनायी देने लगती हैं...शिकायत जारी रहती  है....'कार का ये खराब हो गया है..वो ख़राब हो गया है'. और जब वो चलाती तो वे सारी आवाजें गायब हो जाती हैं, शायद अगले वीकेंड्स तक और अब तो आदत ऐसी खराब हो गयी है  कि जरा 'धनिया पत्ता'भी लेना  हों तो गाड़ी लेकर ही जाती है ..हालाँकि, इसीलिए 'वेईंग  स्केल'  पर नंबर भी बढ़ते जा रहें हैं. पर आज तो इतने दिनों बाद हलके  मूड में है और  मौसम भी साथ दे रहा था. बादल छाये थे और हल्की हवा चल रही थी...मन हुआ ए.सी.बंद कर शीशे नीचे कर दे...फिर सोचा ..एक तो बाल खराब हो जाएंगे और फिर बाहर की सारी चिल्ल-पों भी अंदर आयेगी.सिग्नल पर बच्चों की भीड़  टूट पड़ेगी, सो अलग.. ना यही ठीक है. और ऍफ़.एम. का वो चैनल लगाया जहाँ सिर्फ नए गाने आते थे.....मन  ही मन कहा..'अंदर बाहर सब से वन  शुड फील यंग'....इतनी आज़ादी महसूस  हो रही थी कि मन हो रहा था...ये सफ़र ख़त्म ही ना हो..लौंग ड्राइव पर चली जाए. उलटी दिशा में जाने से ट्रैफिक भी नहीं था. गाना सुनते , कुछ गुनगुनाते स्टीयरिंग व्हील पर ही उँगलियों से ताल देते खुद में ही मगन थी कि मोबाइल बज उठा. देखा,सिम्मी का ही फोन था..पर उठाया नहीं..सामने ही कॉन्स्टेबल नज़र आ रहा  था...अगर फाइन ठोक दी तो अभी से सपनो की दुनिया से धरातल पर आ जाएगी.

पर सिम्मी के फोन ने धरातल पर ला ही दिया था...वो पहुँच गयी थी और उसका इंतज़ार कर रही थी. कार की स्पीड बढ़ा दी...कॉफी शॉप पर तो  पहुँच गयी.पर पार्किंग की झंझट .यही एक वजह है कि ऑटो से आना ही जमता है. काफी दूर जाकर ही पार्क किया और दूरी देखकर सोच में पड़ गयी. ऐसा रास्ता और उसकी हाई हील की सैंडल. कम से कम ये तो नहीं पहनती. उसने पूरी छूटी कसर निकालने की कोशिश की और अब फंस गयी. आदत भी छूट गयी थी.मन ही मन प्रार्थना की,रहम करना ईश्वर..सब संभाल लेना.

बाहर ही सिम्मी एक हैंडसम लड़के के साथ खड़ी  थी.ये रोहन इतना लम्बा कब हो गया? उसे तो गोरा,चिकना चुपड़ा चेहरा ही याद था पर फूटबाल खेल खेल  कर धूप ने अच्छा tan कर दिया था उसके स्किन को..उसपर वो rugged look . फौर्मल्स ही पहने थे.पर कमीज़ पैंट से बाहर  निकली हुई थी और शर्ट की बाहँ ऊपर तक मोड रखी थी. एक हाथ जेब में डाले लापरवाही से खड़ा था. सिम्मी ने ठीक ही कहा  था, टी.डी.एच. स्वभाव,मैनर्स की बात तो अलग...लडकियाँ तो इस रूप पर ही मर मिटें.

सिम्मी की आँखे फ़ैल गयी उसे देखते ही और होंठ गोल हो गए. शुक्र हुआ उसने सीटी नहीं बजायी. (घर मे तो बजा ही देती है.) उसने उसे आँखे दिखाईं और "हलो रोहन"...कहती आगे बढ़ गयी. रोहन बड़े अपनेपन से मिला. उनकी पुरानी जान-पहचान की लौ जैसे जल उठी. वे लोग बिल्डिंग में साथ मिलकर खेले जानेवाले दिनों की बात करने लगे. वो कई लड़कों के बारे पूछने लगी...'अभी क्या कर रहें हैं..कहाँ हैं'...सिम्मी ही थोड़ी उपेक्षित सी हो गयी थी और इसे, उस से पहले गौर किया रोहन ने..."क्या ऑर्डर किया जाए सिम्मी?"फिर खुद ही बोला..."इसकी तो फेवरेट है ब्राउनी और कोल्ड कॉफी ..आप क्या लेंगी दीदी?"

उसके दीदी कहने पर सिम्मी और वे दोनों चौंकी..पर रोहन की नज़रें मेन्यू कार्ड पर थीं...पर उसे कुछ आभास हो गया...नज़रें हटा कर उनकी तरफ देखा और समझ गया. मुस्कुरा कर बोला,"दिन में बत्तीस बार तो दीदी... दीदी... सिम्मी के मुहँ से सुनता हूँ....तो मैने भी कह दिया...होप नो ऑब्जेक्शन?"

सिम्मी जैसे चिल्ला   पड़ी.."ऑब्जेक्शन??...अब तो तुम्हारे सात खून भी माफ़ होंगे,  किसी ने दीदी कहा इन्हें  और हमेशा के लिए गुडबुक्स में गोल्डेन लेटर्ज़ में नाम दर्ज. मुझसे भी ज्यादा भाव मिलेगा तुम्हे..."

"ऐसा नहीं है....प्लान करके नहीं....पर अगर अपनेआप मुहँ से निकल आए तो अच्छा लगता है... यू  कैन कॉल मी दीदी....वुड लव इट...एक्चुअली..तुम  हमेशा से छोटे भाई से ही लगते थे.."

तभी  सिम्मी ने हलके से मेज़ थपथपाई ...'हलो...ये म्युचुअल एडमायरेशन सोसाइटी से बाहर निकलो तुमलोग...मैं भी यहाँ हूँ.."

और रोहन ने इतनी प्यार भरी नज़र डाली सिम्मी पर कि उसने एक छोटी सी प्रार्थना  बोल डाली मन ही मन.."हे ईश्वर इन आँखों का प्यार यथावत कायम रखना हम्मेशा"

कॉफी के घूँट भरते  इतनी बेतकल्लुफी से बातचीत होती रही कि लगा, तीन पुराने दोस्त मिल बैठे हों. दोनों का व्यवहार बिलकुल संयत  था. ऐसे जैसे भी रहते हों..पर उसके सामने बड़े सलीके से बैठे थे. बस बीच-बीच में स्नेह से नहलाती ,रोहन की नज़रें...ठहर जातीं,सिम्मी पर और  सिम्मी सल्लज मुस्कान के साथ बाहर देखने लगती. उसने अनदेखा सा कर दिया वरना बेमतलब दोनों कॉन्शस हो उठते.

जब बिल देने की बारी आई तो रोहन ने अपने लम्बे हाथों से बिल उठा कर एकदम ऊपर कर लिया...."ना..इट्स अ मैन जॉब...नो वे..  एम नॉट गोइंग टु लेट यू  पे....सवाल  ही नहीं उठता..."

"रोहन मैं बड़ी हूँ...तुम दोनों से..."

"अरे दीदी छोडो,ना...मुझे आइसक्रीम खिला देना, नैचुरल्स में.. बस..."

"अच्छा  मुझे क्यूँ नहीं फिर..."रोहन था..

"हा हा...फिर ठीक है...तुम दोनों ही खा लेना,बाबा "उसने भी बिल छीनने की कोशिश छोड़ दी.

बाहर निकली तो सिम्मी बोल पड़ी..."आज तो ट्रेन के धक्के नहीं खाने पड़ेंगे...दीदी तुम अक्सर आ जाया करो,ना...रोहन आज क्लास छोड़ो..चलो..कार की  सवारी मिल रही है..."

"ना..क्लास तो नहीं छोड़ सकता...ओके दी..मिलते हैं फिर...बाय दी..बाय सिमी.."

और वह सड़क पार कर  हाथ हिलाता चला गया. सिम्मी देर तक देखती रही  उसे. जब उसने उसके  कंधे पर हाथ रख  कहा, "चलें.."तो शर्माती हुई जल्दी जल्दी  कदम बढाने लगी. फिर बोली.."आज तो क्या लग रही हो तुम....मेरे बॉयफ्रेंड  से मिलने आई थी या अपने..."

"मैं तो अपने छोटे भाई से मिलने आई थी..."

"अहा...बड़ा छोटा भाई...बट दीदी यू आर लुकिंग सो प्रिटी..कितनी बार कहा....जरा अपनी तरफ ध्यान दो..."

"सब यही कह रहें हैं....जैसे पहले मैं कोई घसियारिन   लगती थी..."गुस्सा आ गया था,उसे. इतने बुरे तरीके से तो नहीं रहती थी.

जरा जोर से ही कार का दरवाजा खोल कर अंदर बैठी तो सिम्मी हंसने लगी.."कहाँ कहाँ से ये सारे वर्ड्स याद रखती हो..घसियारिन ..हा हा "

जब वो गुस्से में मुहँ फुलाए रही ...तो सिमी ने बिलकुल उसके ड्राइवर की  नकाल उतारी.."कबी बी गुस्से में गाड़ी नई  चलाने का...भूल गयी उस मराठी ड्राइवर का लेसन...."

वो भी हंस पड़ी..."क्या करूँ ..आर्यन तक ने यही कहा....अब जरा ढंग से रहना  पड़ेगा..."

"अच्छा दी..रोहन कैसा लगा?."....सिम्मी ने थोड़ा गंभीर होते हुए पूछा .

"डैम कूल.....क्या लुक्स हैं....क्या आवाज़..एन क्या पर्सनैलिटी...सोचा ही नहीं था वो पिद्दी सा लड़का.....इतने हैंडसम डूड में बदल  जायेगा...और उस पे इतने माइल्ड मैनर्स वाला.....स्वीट बॉय     यू  लकी रे..."

"हाँ और रोहन लकी नहीं है..."सिमी तुनक उठी थी

"है ना...डिम्पी की बहन जो मिली है उसे...'हंस पड़ी थी, वो पर फिर गंभीर हो  गयी. ,"तुम दोनों सच्ची सीरियस हो ना...क्यूंकि आगे की राह बहुत मुश्किल भरी है...मम्मी-पापा दोनों नहीं मानने वाले"

"आई  नो दी....पर क्या करें..."

"हम्म ..पर दोनों जॉब में हो...एंड एट राईट एज....तो देरी कैसी..बतादे ममी  को...टाइम लगेगा उन्हें मनाने में."

"ना दी..अभी रोहन को एम.बी.ए. कम्प्लीट करना है...फिर वो जॉब चेंज करेगा..तब जाकर सेटल होने की सोचेगा..."

"तू भी कर ले एम.बी..ए तब तक...और फुल टाइम कर...पापा तो कब से पीछे हैं....जॉब भी छोड़ दे."

"हाँ...रोहन भी कहता रहता है...पर पढना पड़ेगा, ना...'सिम्मी ने रुआंसी होकर कहा.

"हाँ वो तो पड़ेगा..."हंसी  आ गई थी उसे...आज भी एकदम छोटी बच्ची  सा जी चुराती है पढ़ाई से.

"हम्म.... तो तुमलोग रोज मिलते हो...?? "

"जाते बस साथ हैं...आने का तो कुछ फिक्स नहीं रहता ,ना...और वीकेंड्स में तो बस रोहन को सोना अच्छा लगता है...फिर मम्मी के सौ सवाल....मेरा भी उस दिन ड्रेस-आप होने का मन नहीं होता....टी.और ट्रैक पैंट में ही सारा दिन निकाल देती हूँ.....कम ही मिलते हैं वीकेंड्स पे....बस यही ऑफिस से  कभी जल्दी निकल  पाए तो..."

"हम्म...देन नो खतरा...वैसे होप यू नो, योर  लिमिट्स ....यू  नो, ना..... वाट  आइ मीन..."जरा उसे टीज़ करने की सोची.

"दीदीss...."..एकदम से धक्का दे दिया...सिम्मी ने और उसके हाथों में स्टीयरिंग डगमगा उठा. जल्दी से ब्रेक पर पैर रखा...तो पीछे से कई गाड़ियां हॉर्न बजा उठीं...

"सिम्मी मरवाएगी क्या ....वो तो स्पीड ज्यादा नहीं है....नहीं तो क्या हो जाता आज....इडियट है तू बिलकुल..."

"तो तुम क्यूँ ऐसी बातें करती हो....ड्राइविंग पे कंसंट्रेट करो, ना..."

"अरे बड़ी बहन हूँ ना..फ़र्ज़ बनता है...सही रास्ता दिखाने का."

"दुनिया को जानने   के मामले में तुम कहीं छोटी हो मुझसे...अपनी छोटी सी दुनिया में महफूज़...जरा बाहर निकालो..तो देखो कदम कदम पर क्या मुश्किलें आती हैं..."

"ओके... मैडम जी....अब आप अपने भाषण मोड में मत आइये........ अब मम्मी को क्या कहेंगे....शॉपिंग तो कुछ की नहीं...कुछ ले लें क्या...यूँ ही दिखाने को ."

"अरे चिल दी...मेरे सर पे डाल देना सब कि इसने बीस कपड़े ट्राई किए और इसे एक भी पसंद नहीं आई .और मुझे भी कुछ लेने नहीं दिया.......मम्मी मान  जाएँगी"

"तू ना रग-रग से वाकिफ हो गयी है...."हंस पड़ी वो...

"हे शsशss  दी..क्या गाना आ रहा है..."और वो साथ-साथ गुनगुनाने लगी...

"आजकल बड़े  रोमैंटिक गाने पसंद आ रहें हैं तुझे...या चैटिंग  पे कंसंट्रेट करना है?....तब से तेरी मोबाइल की टीं टीं  सुन रही हूँ "

"पूछ रहा था..."होप... दीदी इज नॉट डिसएपोयेंटेड "...मैने लिख दिया.."शी इज लट्टू ओवर यू"हा हा ठीक लिखा ,ना...ओह तुम्हारी बातों में वो स्टेंज़ा निकल गया...तुम भी ना दी..अब सुनने दो ये गाना ..मेरा फेवरेट  है"

सिम्मी ने फिर होठों पर ऊँगली रख 'शsशs 'का इशारा किया और आँखें बंद कर गाने में डूब गयी..."

वो भी चुप हो गाना सुनने लगी...उसे ये मौके नहीं मिले तो क्या..एन्जॉय करने दे उसे. ये लम्हे,ये अहसास, पता नहीं उसकी ज़िन्दगी में फिर कभी आयें या नहीं.

दिमाग अब घर की तरफ दौड़ रहा था...पता नहीं आर्यन कहीं तंग ना कर रहा हो मम्मी को. एकाध घंटे तो वे एन्जॉय करती हैं फिर थक जाती हैं. आदत भी नहीं रही. परेशान हो जाती हैं बिलकुल. इसी वजह से ज्यादा देर छोड़ती भी नहीं वो आर्यन को,उनके पास. पर आज तो मजबूरी थी. सब ठीक हो वहाँ ...वरना देखेंगी इतनी देर में उनलोगों ने कुछ खरीदा नहीं तो बुरी तरह चिडचिड़ा जायेंगी. सारे मूड का कबाड़ा हो जायेगा.
(क्रमशः )

चुभन, टूटते सपनो के किरचों की ( कहानी --समापन किस्त )

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आर्यन के टेस्ट चल रहें हैं..सुबह से उसे पोएम रटवा कर परेशान. अब शरारत से या सचमुच पर हर  बार वो एक लाइन गलत बोल जाता. वो डाँटती तो , कभी मुहँ फुला लेता...और कभी अड़ के बैठ जाता...अब पोएम सुनाएगा ही नहीं. फिर खुद ही चॉकलेट देकर...गोद में लेकर बहलाना पड़ता. खुद पर ही झुंझला उठती , सबकुछ समझते हुए भी वह उस अंधी दौड़ में क्यूँ शामिल हो रही है ? अगर बेटे को 'ए प्लस'की जगह 'सी'  ही आ गया तो क्या पहाड़ टूट जायेगा. अभी चार साल का छोटा सा बच्चा है. ताजिंदगी तो हर घड़ी खुद को उसे कड़े अनुशासन में बंध प्रूव करते ही रहना है. पर फिर टीचर की चमकती आँखें याद आ जातीं, जब वो सारे पेरेंट्स के सामने आर्यन की तारीफ़ करती, और सबकी प्रशंसात्मक निगाहों का केंद्र बन वह, अपनी सारी खीझ, झुंझलाहट भूल जाती.

बच्चों का मासूम बचपन छीन, उन्हें तोतारटंत बनाने  की शुरुआत किसने की थी? इस समाज  के नियम आखिर कौन बनाता है.? खुद समाज के ही लोग ना...फिर खुद ही ये उलजुलूल  नियम बना,उसका पालन शुरू  कर देते हैं. आज बुरी तरह खीझ रहा था उसका मन. उसका मन था, तीन साल के बाद ही उसे स्कूल भेजेगी..पर आस-पास के पेरेंट्स  ने  डेढ़ साल से ही प्ले स्कूल में भेजना शुरू कर दिया. फिर पार्क में... सोशल गैदरिंग में सब पूछते, "किस प्ले स्कूल में जाता है. "और उसके यह कहने पर कि "अभी कहीं नहीं जाता "सब ऐसे आश्चर्य और उपहास से देखते, जैसे वो  अभी अभी बस किसी बीहड़ गाँव से उठ कर आ गयी हो. कितनी महिलायें तो उसे नसीहत देने लगतीं, "सोशल बिहेवियर  सीखेगा...दोस्त बनाना सीखेगा". और आर्यन की किसी छोटी सी शैतानी पर भी उसे ऐसे देखती जैसे कहती  हों, "कहा था ना..प्ले स्कूल में डालो"उसका मन होता कह दे..."प्ले स्कूल से और चार बदमाशियां सीख कर आयेगा.

लोगों की  बातों से इतना अपसेट रहने लगी थी .रोज ही सुनील से शिकायत करती...'आज इन्होने ऐसा कहा...वैसा कहा.."सुनील कहने लगे..तुम्हारे इस मूड का असर बच्चे पर भी पड़ेगा..इस डिप्रेशन में आने से तो अच्छा है, उसे दो घंटे के लिए स्कूल ही भेज दिया करो. पड़ोस के बच्चों को देख आर्यन  भी जिद करने लगा था, "इछ्कूल  जाऊँगा'फिर उसे लगा , कहीं इसमें हीन भावना ना आने लगे, चलो..अब माहौल के अनुकूल  ही तो चलना पड़ेगा. और उसने मन मार कर ढाई साल में उसे स्कूल भेज दिया. और उसके बाद से रेस शुरू हो गयी. पढ़ाई तो कुछ नहीं है. पर इतनी  छोटी उम्र में 'रंगों'फलों, सब्जियों, रिश्तों के नाम याद रखना क्या पढ़ाई से कम है? और अब चार साल  में  तो बाकायदा, पोएम,गिनती, छोटे छोटे शब्द , ड्राइंग-क्राफ्ट सब शुरू हो गए हैं. और इन सबमे 'ए प्लस'लाने की होड़ भी. बच्चे से ज्यादा पेरेंट्स के बीच.

सुबह से सारा काम छोड़ आर्यन में ही लगी थी. अब जल्दी-जल्दी सारे काम निबटा ले .आर्यन के स्कूल से आते ही खिला कर सुला देगी और फिर ड्राइंग की प्रैक्टिस भी करानी है. बुरी तरह थक जाती है. सब आर्यन के मूड पर निर्भर करता है. मूड हो तो एक बार में बना लेगा, ना हो तो मजा है जो एक मिनट बैठ भी जाए. आजकल सिम्मी-रोहन की शादी के प्लान्स बनाना भी छूट  गया था..पूरे समय आर्यन  के टेस्ट की टेंशन ही चलती रहित दिमाग में.
सारी बिखरी चीज़ें उठा कर संभाल कर रख रही थी कि फोन बज उठा. अब ये एक और मुसीबत. इस समय जो भी फोन करता है, गप्प के मूड में होता है और उसके पास जरा भी वक्त नहीं. मम्मी का नंबर दिखा , उनके कुछ बोलने से पहले ही बोल उठी,

"आर्यन के टेस्ट चल रहें हैं...सारा घर बिखरा पड़ा है...ढेरो काम पड़े हैं....उसके आने से पहले सब ख़त्म करना है...बोलो कैसे फोन किया "

"ओह! फिर तो तुम नहीं आ सकोगी ,ना...सोच रही थी जरा घर आ जाती तो कुछ आराम से डिस्कस करना था "

"क्या .."सोचा शायद यही होगा, "बाई बहुत तंग कर रही है...पुरानी है,ईमानदार है...पर इतनी छुट्टियां करती है निकालूं या रहने दूँ"या फिर होगा..."फलां की शादी में क्या भेजूं...उन्होंने तो तुम्हारी शादी में बड़ी साधारण सी साड़ी दी थी...देने को साधारण ही दे दूँ..पर देखने वाले क्या कहेंगे,  हम बड़े शहरों वाले से लोग उम्मीद रखते हैं.."ये सब बातें ममी के लिए बड़े गंभीर मसले होते थे...वो उनका रुख भांप वही कह देती और वे खुश हो जातीं. पर आज तो ये सब सुनने का  कोई मूड नहीं.

पर मम्मी  बोलीं, "ठीक है...रहने दो..बाद में बात करेंगे...असल  में सिम्मी के लिए एक रिश्ता आया है "

"माँ अब वो ज़माना नहीं है...कि तुम सिम्मी के रिश्ते के लिए मुझसे पूछोगी...पहले सिम्मी से पूछा??"

"दरअसल...मुझे और तेरे पापा को नहीं जंच रहा ..पर सिम्मी को पसंद है"

"क्या sssss ...."उसके हाथ से फोन नहीं छूटा यही गनीमत है .

"अरे इसमें इतना चौंकने की क्या बात है....दो साल  हो गए उसे नौकरी करते ...अब शादी का सोचना होगा ना.."

"पर सिम्मी ने 'हाँ'.. कहा...??"...उसने शब्दों को यथासंभव संयत रखते हुए कहा.

"हाँ...उसे प्रपोज़ल  ठीक लगा....आजकल के बच्चे..तुम्हे पता है ना...उनकी सोच अलग होती है...तुम भी आज की ही हो...पर इन सबसे अलग हो. "

"माँ एक फोन आ रहा है...मैं बाद में फोन करती हूँ..."कह कर फोन काट दिया और तुरंत सिम्मी को मिलाया

"हाय  दी....."उसकी चहक भरी आवाज़ सुनते ही पारा चढ़ गया.और सीधा पूछ लिया,
 "तेरा रोहन से झगडा हो गया है? ब्रेक अप हो गया और मुझे बताया भी नहीं??....यहाँ मैं....सारा दिन सोचती रहती हूँ...तेरी शादी कैसे करवाऊं...और तू है.."हर शब्द के साथ स्वर तेज होता जा रहा था...

"दीदी...दीदी...होल्ड ऑन प्लीज़....और इतनी तेज़ आवाज़ में मत बोलो..मुझे अपनी सीट से उठ कर आना पड़ा...तुम तो चिल्ला ही रही हो....कोई झगडा नहीं हुआ...तुम्हे सब बताउंगी,आराम से .."सिम्मी धीरे धीरे फुसफुसा आकर बोल रही थी.

पर वो कुछ सुनने के मूड में नहीं थी..."क्या बताएगी....और अब तक क्यूँ नहीं बताया....मैं बेवकूफ की तरह तुम दोनों के बारे में सोचती रहती हूँ..."

"दीदी अभी बहुत काम है....तुम घर आ जाओ...बात करते हैं..मैं जा रही हूँ....काम करने"कह कर फोन काट दिया, उसने.

दो मिनट ठगी सी खड़ी रह गयी....अच्छा तमाशा है, जब चाहो अपने जीवन में शामिल कर लो, जब चाहे मक्खी की तरह निकाल  कर फेंक दो. दुबारा फोन  मिला ये सब कहने का मन हुआ...पर वो जानती है सिम्मी ने साइलेंट पर रख दिया होगा, मोबाइल और अब नहीं उठाएगी.

माँ को ही फोन लगा कर कहा, "शाम को आती हूँ ...आर्यन को लेकर"

बुरी तरह परेशान हो रही थी...काम करने की गति भी कम हो गयी. किसी तरह , काम निबटाए और आर्यन के आते ही उसे खाना खिला.मम्मी के यहाँ चलने की तैयारी कर ली...आने दो ड्राइंग में 'सी 'या 'डी'अभी उसे सारी बात जाननी जरूरी थी. वह सोने को बेचैन हो रहा था पर उसे कार में जबरदस्ती डाला...सीट बेल्ट से बंधे  आर्यन का सर बार-बार इधर-उधर लुढ़क रहा था. दया  भी आ रही थी...एक नज़र सड़क पर..एक नज़र आर्यन पर रखते किसी तरह, घर पहुंची. (अब भी खुद से मायका नहीं निकलता...घर ही आता है जुबान पर)

माँ देख हैरान  रह गयीं, "अरे शाम को आनेवाली थी ,ना..इस बेचारे को नींद में ही उठा लाई...ओह.."..वे आर्यन को गोद में ले सुलाने चली गयीं.

जब उसे अच्छे से थपकी दे..चादर उढ़ा...लौटीं तो उसने निढाल स्वर में पूछा..."अब बताओ शुरू से...क्या बात है"

"पर तू खुद भी बहुत थकी हुई लग रही है....थोड़ा आराम कर ले...फिर बात करते हैं "

"मैं ठीक हूँ...शुरू से बताओ....."सोफे पर अधलेटी हो कहा. माँ को क्या पता, यहाँ..थकान शारीरिक नहीं मानसिक है.

"वो मिसेज शौरी हैं ना...फ्लोरेंस   बिल्डिंग वाली...वे एक दोपहर  आई थीं, और अपनी बहन के बेटे के लिए सिम्मी का रिश्ता मांगने लगीं...सब तो ठीक है...पर लड़का मर्चेंट नेवी में है...यह बात मुझे और तेरे पापा को नहीं जम रही...हमने तो ना का ही सोच लिया था  ,पर यूँ ही सिम्मी से जिक्र किया तो कहने लगी.. क्या बुरा है.... "

"सिम्मी ने कहा ये..."विश्वास नहीं हो रहा था उसे, जरूर इसकी रोहन से लड़ाई हो गयी है. और रिबाउंड में यह दूसरे रिश्तों में बंधने की सोच रही है...कितने फ्रेंड्स का देख चुकी है,जैसे ही एक रिश्ता टूटता है...तुरंत ही बिना ज्यादा सोचे-समझे तुरंत ही दूसरे रिश्ते बना शादी भी कर लेते हैं.

"हाँ उसने ही सारी जानकारी जुटाई...मिसेज़ शौरी का लड़का विवेक ,सिम्मी के फेसबुक में फ्रेंड्स लिस्ट में है...और वो नितिन , विवेक के फ्रेंड्स लिस्ट में...विवेक के प्रोफाइल से जाकर उसके एल्बम देखे सिम्मी ने और बस तब से उसकी आँखे चौंधियाई हुई हैं...उसका आलिशान फ़्लैट...बड़ी सी गाड़ी...और उसके फौरेन ट्रिप  के फोटो..."

वो  यह सब तो सुन ही रही थी...साथ ही सोच रही थी, मम्मी कितनी सहजता  से फेसबुक, प्रोफाइल, फ्रेंड्स लिस्ट की बात कर रही हैं....सिम्मी के सान्निध्य में इन सारी चीज़ों से परिचित हो गयी हैं....और एक वो है...मम्मी से भी ज्यादा आउटडेटेड हो गयी है...बस नर्सरी राईम्स  और पिक्चर बुक में ही उलझी रहती है.

सिम्मी को दो बार मेसेज भेजा ...'जल्दी आओ'

कुछ समझ नहीं पा  रही थी. आखिर सिम्मी -रोहन के बीच क्या हो गया. मम्मी बता रही थीं...पापा  को भी यह रिश्ता पसंद नहीं..शिप्पीज़ के बारे में बहुत सारी बातें सुनी हैं...शराब पीते हैं...बहुत सारी बुरी आदतों के शिकार होते हैं...और उन्हें तो नहीं ही पसंद.....बेटी को अकेले  रहना पड़ेगा...अकेले घर संभालना पड़ेगा. हमेशा किसी की छत्रछाया में रहने वाली  माँ को यह सब गवारा होता भी नहीं. वह आधे मन से सब सुन रही थी....सिम्मी से बात करने की बेचैनी हो रही थी.

आर्यन उठ कर आ गया...उसकी ड्राइंग बुक..कलर पेन्सिल्स सब लेकर आई थी, पर मन नहीं हो रहा था, प्रैक्टिस करवाने का...वह भी उनींदा सा था..दूध का ग्लास सामने पड़ा था और वह ,शांत  सा बैठा था कि  कॉल बेल बजी और सिम्मी को देखते ही हज़ार वाट की मुस्कान छा गयी, चेहरे पर ...बिजली सा दौड़ा उसकी तरफ. सिम्मी ने भी..'मेरा राजा बेटा'...कहते उसे गोद में उठा...गोल-गोल घूमना शुरू कर दिया. यही सब आर्यन को  अच्छा लगता है...फिर दोनों छुक छुक रेल गाड़ी बना....पूरे फ़्लैट में घूमते रहें...वो गंभीर बनी बैठी रही..आखिर..सिम्मी ने ही पूछा..."ये दीदी को क्या हुआ है?"

"पता नहीं कुछ तबियत ठीक  नहीं लग रही इसकी..मना किया...फिर भी चली आई...."मम्मी ने चिंतित  हो, कहा.

सिम्मी भी गंभीर हो गयी...उसे पता चल गया...दीदी क्यूँ चुप है.

थोड़ी देर को उसका चेहरा म्लान हुआ फिर आर्यन के साथ खेलने लगी...आखिर उसने ही गुस्से में बोला, "आर्यन दूध ख़त्म करो.."

 सिम्मी ने ही डरने की एक्टिंग की "चलो..चलो...भागो यहाँ से..मम्मी गुच्छा है..."और दूध का ग्लास ले बालकनी में चली गयी.

दूध ख़तम करवा कर खाली  ग्लास लिए, सिम्मी आई..."देखो बता दो..मम्मा को, मैं कितना राजा बेटा हूँ ..सारा दूध फिनिच कर लिया ..."

उसने मम्मी से कहा, "मम्मी....आर्यन को गार्डेन में ले जाओ..."

"अरे, उसे प्रैक्टिस नहीं करवाएगी...उसके ड्राइंग का एग्जाम है ना कल"

"नहीं..मूड नहीं है..."

मम्मी उसे अबूझ सी देखती रहीं....क्या हो गया है उसे.

"आर्यन...नानी के साथ  जाओ गार्डेन में..."

"मुज्झे नहीं जानाssss...मैं मासी के साथ ट्रेन ट्रेन खेलूँगा...."आर्यन ने जिद की.

उसने उसे गोद में उठाया और हाथ पैर पटकते आर्यन  को लिफ्ट तक ले आई...मम्मी भी साथ चली आयीं...चीखते -चिल्लाते आर्यन  को उसने लिफ्ट में खड़ा कर, लिफ्ट बाहर से बंद कर दी ...मम्मी  ने उसे गोद में उठा पुचकारते हुए ग्राउंड  का बटन प्रेस कर दिया...पर उनके चेहरे से गुस्सा साफ़ झलक रहा था. उन्हें इस बात का क्या इलहाम कि वो किस कशमकश से गुजर रही है. आर्यन तो झूला देखते ही तुरंत बहल जाएगा...मम्मी को भी उनकी सारी सहेलियाँ मिल जाएँ तो अच्छा...घंटा- दो घंटा वो लोग नीचे ही रहें ताकि...वो आराम से बात कर सके सिम्मी  से.

लौटी तो सिम्मी ने छूटते ही कहा...."बच्चे पर क्यूँ गुस्सा निकाल  रही हो..."

"क्या करूँ तो....तुम तो ऐसे एक्टिंग कर रही हो जैसे....कुछ हुआ ही नहीं..."चिल्ला ही पड़ी जैसे वो...

"रिलैक्स दी...इतनी परेशान क्यूँ हो..."

वो भी शांत हो सोफे पर बैठ गयी..."सिम्मी क्या है ये सब..."

"हम्म....क्या पूछना है तुम्हे....पेश हूँ, तुम्हारे दरबार में...दागो..सवालों की गोली.."कुछ नाटकीयता से कहा उसने.

"सिम्मी ये सब एक्टिंग रहने दे....और बता..रोहन से झगड़ा हुआ....?"

"ना.."

"फिर इस रिश्ते के लिए हाँ...कैसे कह  दी?"

"हाँ... कहाँ..कहा है ??"

"पर  कंसीडर तो कर रही है ना..."

"कुछ सोचा नहीं दी...समझ नहीं आ रहा...मैं अभी का नहीं...पांच साल बाद का सोच रही हूँ...क्या हमारे रिश्ते इतने ही ख़ूबसूरत रह जाएंगे. क्या यही तस्वीर रहेगी रिश्तों की....लगता है सब कुछ बदल  जाएगा....वह ऑफिस से आकर किसी बात पर चिल्लाएगा...मैं किसी और बात पर झल्लाउंगी  और वजह कुछ और होगी. ...सब कुछ इतना रोज़ी रोज़ी नहीं रहेगा....उसपर से तुम्हारे  और मम्मी के रहने की वजह से मुझे घर का कुछ काम भी नहीं आता. रोहन क्या मुझपर नहीं चिल्लाएगा...उसकी मॉम इतनी एफिशिएंट हैं..."

"ये सब इतनी गंभीर बातें नहीं हैं....वैस भी खुद पर पड़ती  है..तभी सब सीखते हैं..तू भी सीख लेगी..."

"बात सिर्फ वही नहीं दी...किसी भी मैरिड कपल को देखो..पांच साल बाद बताया नहीं जा सकता कि   उनकी अरेंज्ड मैरेज है या लव मैरेज ...सब एक से दिखते हैं...वही एक दूसरे से, एक सी शिकायतें....एक से झगडे....एक से समझौते...जो ज्यादातर लेडीज़ को ही करने पड़ते हैं...चाहे उसने लव मैरेज की हो  या अरेंज्ड...फिर जब बाद में समझौते करने ही हैं...तो अभी क्यूँ नहीं..? "

"यानि कि तुमने फैसला  कर लिया है? "

"फैसला तो एज सच कुछ नहीं किया...एक्चुअली..एम सो कन्फ्यूज्ड.."

"हम्म...जब प्यार में सोचना..समझना पड़ जाए तो क्या कहा जाए..."

"दी..मैं तुम्हारी तरह भावुक नहीं हूँ....रियलिस्टिक वे में सोचती हूँ...रोहन के साथ लाइफ बहुत टफ नज़र आती है...सारी ज़िन्दगी निकल जायेगी..पैसे जोड़ते...एक बड़ा फ़्लैट ले लें..गाड़ी ले लें..वेकेशन ट्रिप पर जाएँ...हर चीज़ के लिए सोचना पड़ेगा....दोनों, दिन रात पसीना  बहायेंगे....फिर भी पूरा नहीं पड़ेगा..."

"तो ये तो तू पहले से जानती थी...कि पापा हर हाल में रोहन से ज्यादा कमाने वाला ही ढूंढेंगे...फिर क्यूँ कदम बढ़ाया ..."

"ये कभी नहीं सोचा था...इतना, ज्यादा .......सिम्मी कुछ कहते कहते रुक गयी..."

"हाँ हाँ कह दे....सोचा था जीजू जैसा ही कोई ढूंढेंगे......"

"दी..तुम पर्सनली क्यूँ ले रही हो....वी  ऑल नो...जीजू अर्न्स सो वेल.."

"पर हमारा...पौश कॉलोनी में घर तो नहीं है..फौरेन ट्रिप्स पर तो नहीं जाते..बी.एम.डबल्यू. तो नहीं है...
"ही ही  दी.....बी.एम.डबल्यू तो उसके पास भी नहीं है...".सिम्मी खी खी कर हंसने लगी...

"सिम्मी तुझे सिर्फ पैसे की चमक दिख रही है....क्या सारा सुख पैसों से ही  मिल जाएगा...उन घरों में परेशानी... फ्रस्ट्रेशन...झगडे .. नहीं होते?

"वो रहेगा कहाँ...झगडे करने के लिए...वो तो शिप पर होगा "

"यू आर सो मीन....फिर रोहन का दिल क्यूँ तोडा...तुझे शुरू में ही कहा था....सोच समझ कर ही आगे बढ़ना"
"
दी..ऐसा भी कुछ नहीं है...आजकल सब मेंटली प्रिपेयर्ड रहते हैं...नहीं वर्क आउट हुआ रिलेशनशिप... तो टाटा बाई बाई...कोई देवदास नहीं बनता...एक्चुअली..कभी भी नहीं बनते थे ..नहीं तो इतने  सालो से एक ही देवदास का नाम क्यूँ लिया जा रहा है....दस-बीस-सौ देवदास क्यूँ नही हुए?...और रोहन भी इतना  कोई आइडियल लड़का नहीं है...आजकल का है..सबकी अपनी कमियाँ  हैं...उसने भी मुझे ही गर्लफ्रेंड क्यूँ चुना...स्मार्ट कॉन्फिडेंट लड़की..सबको चाहिए ताकि दोस्तों में धाक जम सके...वरना उस निधि को क्यूँ  एवोयाड करता रहता है..बेचारी कितना केयर करती है इसका...रोज़ एस.एम.एस करती है....अपनी सारी बातें शेयर करती है...रोहन के बर्थडे पर इतने सुन्दर गिफ्ट देती है....रोहन भी ये सब एन्जॉय करता है...कितनी बार कहा...'उसे ऐसी झूठी आशाएं मत दिलाओ...वो तुमसे प्यार करती है''...तो हंस कर उड़ा देता है कि वो डम्ब है...उसे डम्ब लगती है क्यूंकि...सीधी साधी सी है...फील सो बैड समटाइम्स ."

"बट रोहन लव्स यू...इसलिए उसे भाव नहीं देता..."

"तो फिर साफ़-साफ़ उस से कह क्यूँ नहीं देता....उसे मेरे बारे में बताता क्यूँ नहीं...रोहन भी इतना सीधा  नहीं है...जितना दिखता है..इगो कूट कूट कर भरा हुआ है...मेरा सेल एक बार घर पे छूट गया था...दो बार कॉल किया...मैने नहीं उठाया तो बस नाराज़ हो गया कि मैं उसे इग्नोर कर रही हूँ....वहीँ मैं...एक बार उसका फोन नहीं लग रहा  था...उसके कितने दोस्तों को फोन कर डाला ..ऑफिस  में फोन किया...आखिर उसको ढूंढ ही निकाला...और इसने कोई एफर्ट नहीं लिया, मेरे बारे में पता करने का......दी, हम लडकियाँ सेंटीमेंटल होती हैं...इन्हें सारी ज़िन्दगी मान लेती हैं...जबकि  ये लोग हमें अपनी ज़िन्दगी का बस एक पार्ट ही समझते हैं..

"पता नहीं तेरी बातें..मेरी समझ  में नहीं आतीं...मैने तुम दोनों को साथ देखा है.....और तुम्हारी आँखों में एक दूसरे के लिए स्नेह भी...

"हम्म...जो दिन गुजरे..अच्छे थे..नो डाउट....पर इसकी गारंटी नहीं कि हमेशा अच्छे ही रहेंगे..."
"
"गारंटी किस चीज़ की है...एक शिप्पी के साथ लाइफ कितनी टफ होती है...पता है...?..सब कुछ अकेले संभालना पड़ता है...छः से आठ महीने तो वो शिप पर रहेगा.."

"साथ में सेल करने को तो मिलेगा, ना...वो पेरिस...स्विट्ज़रलैंड...वेनिस...वाऊ...कभी सोचा भी नहीं था..देख पाउंगी...रोहन के साथ तो दस साल में बहुत हुआ तो सिंगापुर और मॉरिशस से ज्यादा के सपने भी नहीं देख सकती."

"इट्स सो डिस्गस्टिंग...कितनी मेटेरियालिसटीक  है तू...बाद  का नहीं सोचती...अकेले गृहस्थी संभालनी पड़ेगी...बच्चे आ जाएंगे तो सेल कर पाएगी...सब अकेले देखना पड़ेगा."

"अब ये सब फंडे मुझे मत दो...तुम क्या अकेले नहीं संभालती सब..? यहाँ की सारी औरतें..अकेले ही तो ढोती हैं..गृहस्थी का बोझ...मुझे इतना गुस्सा आया था...जब तुम लेबर रूम में  दर्द से छटपटा रही थी...और जीजू किसी दूसरे शहर में मुस्कुरा कर मीटिंग अटेंड कर रहें थे...मैं सोच रही थी...अभी खबर सुन कर लड्डू बाँट देंगे..लो मैं बाप बन गया...और मिल जाएगा  बेटे को उनका नाम. क्या फर्क पड़ता है....पति सात समंदर दूर  हो..या सात सौ किलोमीटर दूर...पास तो नहीं होता,ना.."
"वे लोग बीवी-बच्चों   के लिए ही तो करते हैं ये सब..."

"अब उनकी जुबान भी मत बोलो...सब समझौता है.....औरतें खुद को धोखा देती हैं...ये सोच...जो मैं खुली आँखों से स्वीकार करना चाहती हूँ...दीदी तुम नहीं समझोगी..एक सिक्योर्ड घर से दूसरे सिक्योर्ड घर में चली गयी हो...ज़िन्दगी सिर्फ, गुलज़ार की नज्मे और जगजीत की गज़लें नहीं हैं दी...और ये फूल,खुशबू, चाँद की बातें भी तभी अच्छी लगती हैं...जब रोटी-कपड़ा-मकान की फ़िक्र ना हो..."
"हम्म....तो ये मुझ पर व्यंग्य है.."
"ऑफ कोर्स नॉट...बस तुम्हे नेकेड ट्रुथ दिखाना चाह रही हूँ..."

"इट्स नॉट नेकेड ट्रुथ...तुम्हारा सच है ये....और आधा सच....आज भी  लोग हैं...प्यार, विश्वास और ईमानदारी पर मर-मिटने वाले..."

"मैने कब कहा नहीं हैं...होंगे इमोशनल फूल्स...पर मैं नहीं बनना चाहती..."

"इट्स गुड़...सिम्मी..कि तूने इतनी जल्दी ही फैसला ले लिया...और उसकी ज़िन्दगी से निकल आई...तुम दोनों एक दूसरे के लिए नहीं बने थे....और तुम्हे क्या लगता है...इस शिप्पी गाइ ने तुम्हे क्यूँ पसंद किया....उसे भी एक ख़ूबसूरत स्मार्ट बोल्ड...बीवी चाहिए बस...जो उसकी अनुपस्थिति में उसके पैसों का.... उसके घर का अच्छी तरह ख़याल रख सके.."

"आइ नो..मैं किसी मुगालते में नहीं हूँ...उसने मेरे फेसबुक प्रोफाइल्स पर मेरे अपडेट्स पढ़कर और मेरे फ़ोटोज़ देखकर ही प्रपोज़ल भेजा है..विवेक बता रहा था...सो इट्स गिव एन टेक...मैं ये नाइन टु फाइव जॉब छोड़ एक बढ़िया सा बुटिक खोल लूंगी...अपना काम होगा...आराम की ज़िन्दगी...पति सारे समय सर पे नहीं बैठा होगा...और जब आएगा...तब भी मेरे पीछे ही घूमेगा,...यू नो ना..इन शिप्पिज़ का कोई सोशल सर्कल नहीं बन पाता...जहाँ बीवी ले जाए...वहीँ जाएंगे...सो नो टेंशन.
"हम्म तो अब क्या बोलूं...जब तूने इतनी दूर तक सोच लिया है...जो सोच तू तेरी ज़िन्दगी है,ये

"थैंक्स  दी..मुझे ये डिसीज़न लेने में हेल्प करने में...तुम्हे सारे तर्क देते देते...खुद को भी समझा  लिया. "

बिलकुल थक गयी थी, वो.... लगा मीलों दौड़ कर आई हो...अब थोड़ी देर अकेले रहना चाहती थी...बोली,"चलो..जाकर आर्यन को ले आऊं...अब जाना भी होगा..."

"सॉरी दी..यू  आर हर्ट.....कैन सी दैट.....बट एम हेल्पलेस...हमारा ज़िन्दगी को देखने  का नजरिया बिलकुल अलग है...'

"तू बस खुश रहें...मुझे और क्या चाहिए.."

थके कदमो से बाहर निकल आई....मन में भी यही कहा...'आज इसे पैसों की चमक में ही असली ख़ुशी लग रही है...कल कहीं इन्हीं पैसों से भाग...योगा, मेडिटेशन, विपासना में मन की शान्ति ढूँढती ना फिरे.'

खुद पर भी गुस्सा आ रहा था...उसे जो सब नहीं मिला..इनके माध्यम से पूरा करने की कोशिश क्यूँ कर रही थी...यह सिम्मी की  ज़िन्दगी थी..उसके सपने थे...पर देख वो रही थी...और तभी जब ये सपने टूटे तो उसकी किरचें चुभ कर उसका ह्रदय लहू-लुहान किए जा रही थीं. हताश सी लिफ्ट का बटन प्रेस कर दिया और सोचती रही..काश कोई परिचित चेहरा ना मिले और थोड़ी देर अकेली बैठ वो इन चुभती किरचों को निकाल सके.

(समाप्त )

( आपलोगों को सॉरी भी बोल दूँ..एक तो इस किस्त  को पोस्ट करने में इतनी देर हो गयी...और फिर मॉडरेशन भी लगाना पड़ा...इस असुविधा के लिए सचमुच खेद है ,पर मजबूरी थी.  कुछ  विचारों  की असहमति की वजह से एक पुराने पाठक ने  अलग-अलग फेक प्रोफाइल बना पहले तो मुझे विधर्मी , धर्म विशेष की अनुयायी वगैरह  कहा.जब कमेन्ट नहीं पब्लिश किए तो उनकी  अंतर्दृष्टि अचानक जाग गयी और उन्हें अब मेरा लिखा, वाहियात,घटिया और सस्ता लगने लगा...जैसे किसी सस्ती पत्रिका ,मनोहर कहानियाँ से कॉपी किया गया हो. समय के साथ विचार भी परिवर्तनशील होते हैं. कोई बात नहीं...और उन्हें विचारों  की अभिव्यक्ति की भी पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए .पर अपनी सही प्रोफाइल के साथ कहने की हिम्मत होनी चाहिए. लाइव ट्रैफिक से ही उनकी सही प्रोफाइल का अंदाज़ा हो गया था क्यूंकि कमेन्ट और ब्लॉग विजिट का समय एक ही था. फिर एक शुभचिंतक ने आइ.पी एड्रेस ट्रेस करके  भी उनका सही नाम-पता बता दिया.

उन्हें सबसे ज्यादा शिकायत थी कि किसी ने अपनी साईट पर मेरा परिचय 'साहित्यकार 'कह कर कैसे दिया? अब क्या जबाब दूँ इसका?..आज ही 'स्वाभिमान टाइम्स'में मेरे आलेख के साथ मेरे परिचय में 'साहित्यकार'लिखा है. :) (कटिंग साइड बार में लगा दी है ) .अब ये मुझसे पूछकर तो नहीं लिखते...:) यह उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  है.

एक अपील है...फेक प्रोफाइल वालों के आरोपों ,प्रश्नों का मैं कोई उत्तर नहीं दूंगी...यह मेरी कहानियों का ब्लॉग है और इसकी sanctity  मैं बनाए रखना चाहती हूँ )

कहानी 'छोटी भाभी'की

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इन  दिनों व्यस्तता कुछ ऐसी चल रही है कि कहानी के इतने प्लॉट्स दिमाग में होते हुए भी...उन्हें विस्तार देने का मौका नहीं  मिल पा रहा...और ख्याल आया...कहानी सुनवाई तो जा ही सकती है. ये कहानी भी आकशवाणी से प्रसारित हुई थी. इसे ब्लॉग पर भी पोस्ट कर  चुकी हूँ  "होठों से आँखों तक का सफ़र "..शीर्षक  से.....  दोनों कहानियों में थोड़ा बहुत अंतर ..रेडियो के समय सीमा के कारण नज़र  आ सकता है

तो मुलाहिजा फरमाएं :) 


कच्चे बखिए से रिश्ते

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( इस कहानी की शुरूआती पंक्तियाँ आपलोगों को कहीं पढ़ी हुई लगेंगी.  अब उस कविता से ये कहानी निकल कर आई या फिर इस कहानी से वो  कविता...ये निर्णय आप करें :) )

ताला खोल,थके कदमो से...घर के अंदर प्रवेश किया...बत्ती  जलाने का भी मन नहीं हुआ..खिड़की के बाहर फैली उदास शाम, जैसे  उसके  मूड को रिफ्लेक्ट कर रही थी...या शायद उसके मन की उदासी ही खिड़की के बाहर फ़ैल कर पसर गयी थी...अच्छा था, आज घर में वो अकेली थी..जबरदस्ती मुस्कुराने का नाटक करने की जहमत पल्ले  नहीं थी....बच्चे अपनी बुआ  के पास गए थे और पति दौरे पर.  जबरदस्ती कोई बात नहीं करनी थी....दिखाना नहीं था कि सब नॉर्मल  है...आज वह जी भर कर अपनी उदासी को जी सकती थी...कब  मिलता है ज़िन्दगी में ऐसा मौका कि अपनी मनस्थिति को बिना कोई मुखौटा लगाए सच्चाई से जिया जा सके. अचानक मोबाइल का ध्यान आ गया...डर लगा, उसके अकेले रहने पर पति से लेकर बच्चे..ननदें...सब फोन करके अपनी उदासी को जीने के मुश्किल से मिले ये पल....कहीं छीन ना लें..और उसे वापस उसी चहकती आवाज में बतियाना पड़े...कि 'चिंता ना करो सब ठीक है'..मोबाइल साइलेंट पर रख,दराज़ में रख दिया. लैंडलाइन का रिसीवर भी उतार कर रख दिया...ख्याल आया कॉफी के साथ ये उदासी एन्जॉय  की जाए....कॉफी में दूध भी नहीं डाली...सारे कॉम्बिनेशन सही होने चाहिए...धूसर सी शाम...अँधेरा कमरा ...ये उदास मन और काली  कॉफी.

कॉफी का मग थामे खिड़की तक चली आई....शाम के उजास को अब अँधेरे का दैत्य जैसे लीलता जा रहा था...और दूर के दृश्य उसके पेट में समाते जा रहें थे. दैत्य ने उसकी खिड़की के नीचे भी झपट्टा मार थोड़ी सी बची उजास हड़प ली. और उसके इस कृत्य से नाराज़ हो जैसे सारे उजाले छुप गए..शहर  की बिजली चली गयी थी. घुप्प अँधेरा फैला था...उसकी नज़र आकाश की तरफ गयी..आकाश में तारों ...अभी कुछ ही देर में पूरी महफ़िल सज जाएगी और सारे तारे जग-मग करने लगेंगे. क्या ये तारे हमेशा ही इतनी ख़ुशी से चमकते रहते हैं या कभी उदास भी होते हैं. इन्ही तारों में से एक उसकी सहेली भी तो होगी...पर वो उसे उदास देख क्या कभी खुश हो सकती है?

रूपा से उसकी टेलीपैथी इतनी अच्छी थी कि उसके अंतर्मन के सात पर्दों में छुपी उदासी की हल्की सी रेखा भी उससे  नहीं  छुप पाती थी. वो कहती थी.."अरे नहीं....सब ठीक है..इट्स फाइन....मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता"तो रूपा गंभीर हो कहती.."अगर कहना पड़े ना..इट्स फाइन..मुझे फर्क नहीं पड़ता  इसका मतलब है...फर्क पड़ता है....बताओ ना ..क्या हुआ "और कितनी  भी कोशिश करती बात टालने की आखिर उसे रूपा को सब बताना ही पड़ता और फिर दोनों मिलकर उस वाकये  की शल्यचिकित्सा  कर डालतीं. उसका मन हल्का हो जाता . पर आज उसका दुख बांटना तो दूर समझनेवाला भी कोई नहीं था .

रूपा कोई उसकी बचपन की सहेली नहीं थी. रूपा के पिता और उसके पिता की पोस्टिंग एक ही जगह हुई थी और वे दोनों अपने-अपने मायके आई हुई थीं...उन्ही दिनों रूपा से मुलाकात हुई थी .जल्दी ही यह पहचान एक गहरी दोस्ती में बदल  गयी...जैसे कोई पूर्वजनम का नाता हो.  मुलाकात तो कम ही होती पर फोन से कॉन्टैक्ट बना रहता. दोनों बच्चों सा किलकती हमेशा एक दूसरे के शहर आ मिलने का जुगाड़ बनातीं पर वह कारगर नहीं हो पाता. रूपा शिकायत करती,कितना अच्छा होता तेरी जगह मेरे पति की तरह तेरे पति भी प्रोफ़ेसर होते और फिर हम गर्मी की  लम्बी छुट्टियां साथ बिताते. ईश्वर ने उसकी उनके एक ही शहर में रहने की पुकार सुनी तो सही पर गिने-चुने दिनों के लिए.

उसके कॉलेज में फिजिक्स  के प्रोफ़ेसर की जरूरत थी और उसने हिचकते हुए रूपा को फोन मिलाया क्या उसके पति इस शहर के कॉलेज में ज्वाइन करेंगे? रूपा तो खबर सुनते ही उछल पड़ी..."क्यूँ नहीं करेंगे....बड़े शहर का बड़ा कॉलेज है.इस कस्बे के कॉलेज से तो हर हाल में अच्छा. हमारी दोस्ती की बात तो जाने दे..पर इनके  कैरियर के लिए भी बहुत  अच्छा है."
वह अक्सर कॉलेज के डिबेट्स..एक्स्ट्रा करिकुलर  एक्टिविटीज़ कंडक्ट किया करती  थी,जिस से प्रिंसिपल से थोड़ी जान-पहचान हो गयी  थी और थोड़ी अनौपचारिकता भी. इसका ही फायदा उठाया और रूपा के पति वीरेंद्र  की सिफारिश कर डाली. प्रिंसिपल तुरंत मान गए. वीरेंद्र  का बायोडेटा भी इम्प्रेसिव ही था. बढ़िया कॉलेज. और बढ़िया पर्सेंटेज और वीरेंद्र   जोशी  ने उसका  कॉलेज ज्वाइन कर लिया.

उसने रूपा को नए शहर में गृहस्थी बसाने में पूरी सहायता की ..घर पर खाने  को भी बुलाया .उसके पति से भी मुलाकात हुई. उसे शरीफ से ही लगे. मितभाषी और थोड़े बोरिंग भी. पर उसने सोचा कौन सी मुलाकात होनी है...वो इतिहास पढ़ाती है...जबकि वे फिजिक्स ..अलग फैकल्टी अलग बिल्डिंग....कभी कुछ सन्देश देना भी हो तो सोच कर जाना पड़ेगा. पर वो यहीं गलत साबित हो गयी. वीरेंद्र  अक्सर उसके डिपार्टमेंट  में आ जाते. शुरू में तो उसे लगा ..अभी किसी और से परिचय नहीं है..दोस्त नहीं बने हैं..इसीलिए आ जाते हैं और शायद...अपनी पत्नी की सहेली को हलो कहना फ़र्ज़ भी समझते हों. पर धीरे धीरे उसे नागवार  गुजरने लगा. खासकर इसलिए कि कोई बात ही नहीं होती करने को. वो ज्यादातर रूपा और उसके बेटे अक्षय की ही बात करती. वे भी खुश खुश दोनों  विषय में कुछ ना कुछ बताते रहते. उसे लगता चलो कितने भी बोरिंग हों..उसकी सहेली का तो अच्छी तरह ख्याल रखते हैं. और उसकी सहेली खुश है तो अपनी सहेली के लिए उसके बोरिंग पति को झेल लेना उसका भी फ़र्ज़ है. वह रूपा को सरप्राइज़ देने के उन्हें नए नए गुर बताती.

रूपा का बर्थडे आ रहा था और उसने वीरेंद्र  को बताया क़ि आप उसे एक रेस्टोरेंट में ले जाइए और उसके मैनेजर से पहले ही बात कर लीजिये क़ि वो कुछ देर बाद उनकी टेबल पर जलती हुई मोमबत्ती के साथ एक केक भेजे और 'हैप्पी  बर्थडे"का म्यूजिक बजाए . और मैने ये आइडिया दिया है..ये बिलकुल मत बताइयेगा ".वीरेंद्र  ने ठीक ऐसा ही किया और दूसरे दिन सुबह सुबह रूपा का फोन आया. ख़ुशी उसकी आवाज़ से छलकी पड़ रही थी, 'ये मेरे लाइफ का सबसे यादगार  बर्थडे था. इसका थोड़ा श्रेय  तुम्हे भी जाता है..तुमने हमें इस बड़े शहर में आने का मौका दिया..उस छोटे से शहर में तो एक ढंग का रेस्टोरेंट भी नहीं था फिर वीरेंद्र  को ये सब पता भी नहीं था . यहीं किसी से सुना होगा उन्होंने.."वो मन ही मन मुस्कराती उसकी ख़ुशी में शामिल होती रही. रूपा खुश है...उसे और क्या चाहिए. इस बार तो वीरेंद्र  ने अच्छी एक्टिंग कर ली.रूपा को पता नहीं लगने दिया क़ि उसने बताया था सब. पर तीज  के वक्त वे भूल  कर बैठे .
उसने यूँ ही पूछ लिया.."कल तीज है..आप रूपा के लिए कुछ ले जा रहें हैं ?"

"मुझे तो ध्यान ही नहीं,  कल तीज है...और क्या ले जाऊं..."

"अरे! वो आपके लिए सारा दिन भूखी रहेगी और आप उसके लिए कुछ नहीं करेंगे??...उससे पूछिए,उसे क्या चाहिए उसे शॉपिंग के लिए लेकर जाइए...आपकी क्लास तो ख़त्म हो चुकी है...बस देर किस बात की...अभी ही घर की  तरफ निकल लीजिये"

वीरेंद्र के चले जाने के बाद उसने लम्बी सांस ली....आज तो एक ही पत्थर से दो शिकार किए , अपनी सहेली को भी खुश कर दिया और वीरेंद्र  से भी जान छुड़ा ली."

पर शायद वीरेंद्र , रूपा के दरवाज़ा खोलते ही उस से पूछ बैठे ..."कल तीज है ना..कुछ लेना है मार्केट से?..चलो इसीलिए जल्दी आ गया हूँ "

और रूपा समझ गयी क़ि उसने ही बताया है...बाद में उसने उस से पूछा..तो वो बिलकुल नकार गयी.

"नहीं मुझे क्या पता..बेचारे ने इतना ख्याल रखा तुम्हारा...और तू  शक कर रही है..नॉट फेयर..."

रूपा हंस पड़ी."नहीं बताना तो मत बता..पर एक गाना याद आ रहा है..'होठों पे सच्चाई रहती  है..जहाँ दिल में सफाई रहती है...."

आज भी वो गाना जब बजता है तो उस से सुना नहीं जाता वो टी.वी. बंद कर देती है...बच्चे भी आश्चर्य करते हैं...'इतना अच्छा गाना तो है.तुम्हारे जमाने का...तुम्हे तो ऐसे रोने वाले गाने ही पसंद है...क्यूँ बंद कर दिया.."

वो बहाने बना देती है..."आजकल कहाँ किसी के होठो पे सच्चाई और दिल में सफाई होती है..इतना झूठा गाना नहीं सुना जाता..."सच बता भी दे तो कोई भी उसके दुख को उस गहराई से महसूस नहीं कर पायेगा..क्या फायदा बोलने का .

वीरेंद्र  तो नियमित आते रहते पर रूपा से उसकी बात नहीं हो पा रही थी...रूपा  जब कॉल करती तो वो  क्लास में होती या कहीं और .... जब वो कॉल करती तो..रूपा नहीं उठाती..कभी किचन..बाथरूम या फिर कभी सब्जी लाने गयी होती तो कभी बेटे को स्कूल छोड़ने. वीरेंद्र  ने भी शिकायत की कि रूपा परेशान है, उस से बात नहीं हो पा रही . जब उसने कहा कि वो तो फोन करती है घर पर रूपा फोन ही नहीं उठाती..तो वीरेंद्र  तुरंत बोले, "मेरे मोबाइल पर कर लीजिये..मैं जाकर दे दूंगा.."उसे उन्हें नंबर देना गवारा नहीं हुआ...कॉलेज में उनकी कंपनी क्या कम झेलनी पड़ती है कि अब फोन पर भी झेले. उसने मुस्कुरा कर बहाने बना दिए.."रूपा को ही एक मोबाइल लाकर दे दीजिये ना...रूपा बाहर भी जाएगी तो उसका फोन उठा सकती है..या फिर उसका नंबर देख कॉल बैक तो करेगी.

दो दिन बाद ही वीरेंद्र  ने बताया कि रूपा के लिए मोबाइल ले दिया है..अब आप अपना नंबर दे दीजिये..उसने कहा.."ना आप रूपा का नंबर दीजिये..मैं उसे फोन करके सरप्राइज़ कर दूंगी..."
ओके  कह कर उन्होंने नंबर भी दे दिया उसने सेव तो कर लिया..पर घर गयी तो आदतन ,लैंड लाइन  ही खटका डाला. रूपा ने बताया वो दो दिन बाद ही हफ्ते भर के लिए सापरिवार कोई शादी अटेंड करने ससुराल  जा रही है.

वीरेंद्र  भी छुट्टी ले चले गए . कुछ दिन तक कोई खबर नहीं आई . वह समझ रही थी, रूपा रिश्तेदारों  में बिजी होगी...वापस शहर आते ही फोन करेगी. पर पता नहीं क्या इंट्यूशन हुआ ,एक शाम  यूँ ही कॉल कर बैठी..दो मिनट के लिए ही सही....बात कर लेगी. पर रूपा ने ना तो फोन उठाया ना ही कॉल बैक किया. उसे आश्चर्य हुआ,अगले दो दिन में उसने कई कॉल कर डाले पर रिंग होता रहा. फोन नहीं उठाया उसने. उसका कॉल भी नहीं आया तो उसे आश्चर्य हुआ.पता था, बिजी होगी..फिर भी एक बार भी फोन ना उठाये ऐसी क्या व्यस्तता..उसके बाद अक्सर ही वो कई कॉल कर डालती पर नतीजा वही..नो रिस्पौंस सोचा ,लगता है..रिश्तेदारों में ज्यादा ही व्यस्त है..पर कुछ दिन बाद जो खबर आई  वो तो सबका दिल दहला गयी. अब रूपा किसी भी व्यस्तता से छुट्टी पा चुकी थी..एक भीषण बस एक्सीडेंट में अपने बेटे के साथ इस लोक को विदा कह चुकी थी. वीरेंद्र  को कई फ्रैक्चर्स थे पर ज़िन्दगी को कोई खतरा  नहीं था. आखिर रूपा ने उनकी लम्बी ज़िन्दगी के लिए व्रत जो रखे थे और सफल हुई थी उसकी पूजा.

उसके दुख का कोई ठिकाना नहीं था पर वीरेंद्र  के दुख के सामने उसका दुख नगण्य था. कॉलेज के काफी लोग   मिलकर  उनके शहर हॉस्पिटल में देखने गए थे. वीरेंद्र  ने एक भी बात नहीं की  बस शून्य आँखों से छत देखते रहें थे. उसका कलेजा मुहँ को आ गया था. वीरेंद्र  के स्वस्थ होने की प्रार्थना करती रहती पर साथ ही सोचती हॉस्पिटल से निकल वे वापस  कैसे सामन्य ज़िन्दगी जी पाएंगे. उसके दुख की सीमा नहीं थी.

इस हादसे के करीब दो महीने बाद.... कॉलेज से आ कपड़े समेट रही थी कि उसका मोबाइल बज उठा..देखा..'रूपा कॉलिंग'वो तो जड़ हो गयी...उसने नंबर डिलीट ही नहीं किया था. समझ गयी वीरेंद्र  होंगे दूसरे एंड पर .किसी तरह कांपते हाथो से फोन उठाया. वीरेंद्र  की आवाज़ आई..'इस नंबर से बहुत सारे मिस्ड कॉल थे इस सेल पर"उसका गला भर  आया...किसी तरह रुंधे हुए स्वर में बताया.."वीरेंद्र  जी....मैं हूँ ....सरिता  "और वीरेंद्र  दहाड़ मार रो पड़े..उसकी भी सिसकियाँ बंध गयीं. उस दिन तो कुछ भी बात नहीं हो पायी..."ये क्या हो गया सरिता जी.."..बस बार बार यही कहते रहें..."आपकी सहेली मुझे छोड़कर चली गयी.."

वीरेंद्र  हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो घर आ गए थे .पर अभी पूर्ण स्वस्थ होना बाकी था. अब अक्सर  वीरेंद्र  के फोन आने लगे....वो उन्हें अपनी शक्ति भर ढाढस   बताती रहती . हमेशा निराशावादी बातें करते .."अब क्या करूँगा जीकर...कैसी नौकरी...अब रिजायीन कर दूंगा ..किसके लिए पैसे कमाना है.."वो उन्हें समझाती रहती..वही सैकड़ों बार कही बातें दुहराती रहती.."जानेवाला तो चला गया...अब जीना तो पड़ेगा..वगैरह ..वगैरह "

उनके दुख से वह  भी दुखी हो जाती...समझ नहीं पाती..उन स्मृतियों से भरे  घर में अब वो किस तरह रह  सकेंगे...उसे लगता ,शायद वही अपने  माता-पिता के पास ही वे रह जाएँ...किसी ना किसी कॉलेज में नौकरी उन्हें मिल ही जायेगी. पर जब एक महीने बाद उन्होंने कहा कि वे उसी कॉलेज में ज्वाइन करने आ रहें हैं तो बहुत आश्चर्य हुआ उसे. पर फिर सोचा ,आखिर उन्हें नई ज़िन्दगी भी तो शुरू करनी होगी...इतनी बढ़िया नौकरी क्यूँ कुर्बान करें. शुरू में दसेक दिनों तक माता-पिता साथ आए थे पर फिर अपनी जगह छोड़ उनका मन नहीं लगा...और वे वापस चले गए...अब वीरेंद्र  नितांत अकेले थे अपने घर में..सोच कर उसकी रूह काँप जाती ,'हर तरफ यादें बिखरी पड़ी होंगी..कैसे रह पाते होंगे..

अब भी वीरेंद्र  खाली पीरियड होते ही उसके डिपार्टमेंट में चले आते. अब तो सबकी सहानुभूति थी उनके साथ. वह भी  पूरी कोशिश करती कि उनका दुख बांटने की कोशिश करे..पर मुश्किल थी, कैसे.??.'संवाद अब भी उनके बीच नहीं हो पाता और अब तो कुछ विषय भी प्रतिबंधित हो गए थे..पहले रूपा की... उनके बेटे की कितनी बातें कर लेती  थी..अब ध्यान रखती की गलती से भी उनका नाम ना आ जाए ,उसकी जुबान पर. अपने बच्चों की ही पढ़ाई की स्कूल की  बातें किया करती थी  ..पर अब अपने बच्चों  का भी नाम नहीं लेती कि कहीं उन्हें अपने बेटे की याद ना आ जाए.

वीरेंद्र  बताते रात भर वे सो नहीं पाते हैं...और उनकी स्थिति  वो समझ सकती थी. उसने सुझाया
"योगा किया कीजिये ..मन भी शांत होगा और नींद भी समय पर आ  जाएगी"

"पर सुबह उठूँ कैसे...चार-पांच बजे सुबह तो नींद आती है.."

"बस एकाध दिन कोशिश कर उठ  जाइए..फिर बॉडी क्लॉक सेट हो जायेगा और जल्दी नींद आ जाया करेगी."

"नहीं हो पाता कितना भी कोशिश करता हूँ..नींद नहीं खुलती "

"ठीक है..मैं उठा दिया करुँगी.."और वह सुबह बच्चों के लिए टिफिन  बनाने  उठती और किचन से उन्हें फोन करके उठाया करती कि कहीं पति ना जाग जाएँ. पति कितने भी उदार थे ..वीरेंद्र  से सहानुभूति भी थी...पर सुबह -सुबह अपनी  बीवी का किसी और को फोन करके जगाना भी नागवार ना गुजरे..ये अपेक्षा उनके मेल इगो से कुछ ज्यादा हो जाती.

चार-पांच दिनों बाद ही उनकी आदत बन गयी और वे अपने आप जल्दी उठने लगे और सोने भी लगे. उसने भी फिर ना तो पूछा ना ही फोन किया. सोचा,उसने तो अपना कर्तव्य निभाया अब आगे वे जाने.

परन्तु अब धीरे-धीरे उनकी कंपनी असह्य होने लगी थी क्यूंकि बात करते पता चलता उनके विचार किसी बिंदु पर नहीं मिलते. राजनीतिक,सामाजिक, किसी विषय पर वे एक तरह नहीं सोचते. किताबो की बात करने की कोशिश करती तो यहाँ भी पसंद बिलकुल अलग थी..उन्हें आधुनिक,नया लेखन बिलकुल पसंद नहीं था . फिल्मे, क्रिकेट, अखबारों की गॉसिप में उनकी कोई रूचि नहीं थी. बड़े शुष्क किस्म के इन्सान थे. और मुश्किल थी कि वे एक सीमा तक असहिष्णु थे. उन्हें लगता जो उन्हें पसंद वो दूसरे को कैसे पसंद  नहीं आ सकता??.वो मजाक में बात टाल भी देती पर बहस पर उतारू हो जाते. और मुश्किल ये कि वे नए दोस्त भी नहीं बनाते. उनके डिपार्टमेंट के लोगो ने दोस्ती का हाथ बढाया...क्लास के बाद कहीं चलने के लिए पूछ लेते. उस से जिक्र करते तो वह भी उत्साह  बढ़ाती ,"आपको जाना चाहिए था...ऐसे ही  तो लोगो से जान-पहचान होगी"

पर वे पुराना राग ले बैठ जाते.."नहीं मुझे क्या करना है..दोस्ती करके..मेरा जी उचट गया है, दुनिया से ..मैं तो बस कॉलेज आता हूँ..पढाता हूँ..घर चला जाता हूँ...मुझे नहीं दिलचस्पी,किसी से दोस्ती करने में ...कहीं आने-जाने में  "कुछ प्रोफेसर्स  इनके परिचितों के दोस्त, रिश्तेदार ही निकल आए...एक जनाब...उनके कजिन के क्लासमेट थे...एक उनके चाचा के पड़ोसी .उसे लगा अब तो कम से कम पुराने परिचितों के हवाले ही उनके करीब जाएंगे...उसने हुलस कर पूछा .."ये तो बड़ी अच्छी बात है...अब तो आप उनसे कितनी सारी पुरानी बातें शेयर कर सकते हैं"

लेकिन फिर.."ना मुझे कोई इंटरेस्ट नहीं....मुझे नहीं करनी कोई बात .."उनके ठंढे से जबाब ने उसके सारे उत्साह पर पानी फेर दिया.
(क्रमशः)

कच्चे बखिए से रिश्ते (समापन किस्त )

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(सरिता,अपनी सहेली के पति को अपने कॉलेज में ही लेक्चरर के पद पर नियुक्त करवाने में सहायता करती है. कुछ ही दिनों बाद उसकी सहेली की मृत्यु हो जाती है और उसके पति वीरेंद्र, कॉलेज में ज्यादातर समय ,सरिता के डिपार्टमेंट में बिताने लगते  हैं. पर सरिता को वीरेंद्र की कम्पनी रास नहीं आती फिर भी वह सहानुभूतिवश , उन्हें यह अहसास नहीं होने देती.)


गतांक से आगे

मुश्किल ये थी कि वीरेंद्र फिजिक्स  के प्रोफ़ेसर थे .और साइंस के अधिकतम छात्र, कोचिंग क्लास जाया करते लिहाजा..बहुत कम छात्र ही नियमित क्लास अटेंड किया करते.वीरेंद्र  भी  क्लास  में बीस मिनट बाद जाते और दस मिनट पहले निकल आते. कोई जिम्मेवारी  भी नहीं थी. वो कहती भी, "जो बच्चे..क्लास में ,बैठते हैं..शायद वे क्लोचिंग क्लास नहीं अफोर्ड कर पाते हैं..उन्हें ही मन से पढाया करिये .पर वे  गुस्से में बोल उठते,
"वे लोग  ऐसे भी नहीं पढने वाले...बहुत कमजोर हैं,पढने में ....साइंस  उनसे चलेगी नहीं..फेल होने वालो के उपर क्यूँ  मेहनत करूँ.."वह सोचती, तब तो दुगुनी मेहनत करनी चाहिए. पर सहेली के पति का ख्याल कर कुछ बोलती नहीं.
वीरेंद्र की निराशावादी बातें उसे परेशान कर देतीं...पर लिहाजवश वो कुछ भी ,रूडली नहीं बोल पाती. यूँ भी साइंस में नोट्स बनाने की जरूरत नहीं पड़ती. समय ही समय होता उनके पास. जबकि उसे सैकड़ो काम होते...नोट्स बनाने होते. लाइब्रेरी जाना होता..अपने साथी प्रोफेसर्स के साथ विचार-विमर्श..बहस भी नहीं हो पाती. सबसे जैसे वो कटती जा रही थी. वीरेंद्र की उपस्थिति से सब कन्नी काटने लगते और किसी बहाने उठ कर चले जाते.वीरेंद्र  को यूँ भी जिस से भी उसकी दो बातें हो जाती ...थोड़ी मित्रता होती....वे लोग  पसंद नहीं आते. मिस्टर जुनेजा को फोटोग्राफी का बेतरह शौक था...वे हमेशा कैमरा अपने पास रखते. उसकी भी फोटोग्राफी और पेंटिंग सीखने की दिली तमन्ना थी पर अवसर नहीं मिल पाया..नहीं सीख पायी..और अब तो जी के सौ जंजाल थे . उसका वह शौक अनुकूल,हवा,पानी खाद के अभाव में मृतप्राय हो गया था . जुनेजा  जी के खींचे चित्र देख जैसे  उसमे नव-जीवन संचार हो उठता . वे भी नई  तस्वीरें अपलोड करते ही उसे कंप्यूटर लैब में बुला ले जाते. कर्टसीवश वीरेंद्र को भी  बुला ले गए वे. पर वीरेंद्र ने इतनी आलोचना की "ये भी कोई तस्वीरें है..कीड़े-मकोड़ों की...टूटी झोपडी...गन्दी बस्ती की..फोटो तो सुन्दर दृश्यों के लेने चाहिए. "ढलते-सूरज, नदी-झरने झील की. "वो उनसे बहस नहीं करती .बात बदल देती.

अंग्रेजी के एक युवा प्रोफ़ेसर मिस्टर कुमार से उसका किताबो का आदान-प्रदान खूब होता. कई बार खड़े-खड़े ही किसी पुस्तक के किसी कैरेक्टर पर घंटो चर्चा हो जाती. पर मिस्टर कुमार एक विशेष विचारधारा को मानेवाले थे. वीरेंद्र, इस बात को मुद्दा बना उस से बहस कर बैठते .वह कितना भी कहती.."वो उनके विचार है...उसे उस से क्या लेना-देना...वो तो इतर विषय पर बात करती है."उस वक्त कुछ नहीं कहते,पर मौका ढूंढ अक्सर कह बैठते.."वो ये कह रहा था...उसे ऐसा कहते सुना मैने...मुझे बिलकुल नहीं पसंद "परेशान हो गयी थी वह. कॉलेज का कोई भी प्रोफ़ेसर उन्हें अच्छा नहीं लगता...खासकर अगर उनसे उसकी  अच्छी पहचान हो. वह उनकी मनःस्थिति समझती थी...वे परेशान थे, और इस तरीके ही अपनी खीझ ,फ्रस्ट्रेशन निकालना चाहते थे.  पर वो क्या करे. अपनी परिस्थिति से समझौते की कोशिश उन्हें खुद ही करनी थी. वे एक परिपक्व उम्र के इंसान थे. वो बस उनका साथ दे सकती थी,जिसकी वह भरसक कोशिश कर रही थी. पर इसके एवज में उसे अपना मानसिक संतुलन बनाये रखना कठिन हो जाता. घर, पति,बच्चे ,कॉलेज की हज़ारो जिम्मेदारियां और उस पर से वीरेंद्र का यह अनर्गल प्रलाप. वह एकदम से किनारा भी नहीं कर सकती थी. इस शहर में वही एकमात्र वीरेंद्र की परिचित थी और वीरेंद्र दूसरे लोगो से मिलने-जुलने, दोस्त बनाने को उत्सुक भी नहीं दिखते. उसने समय के सहारे खुद को छोड़ दिया था.

इन सबका कोई हल नज़र नहीं आ रहा था और ऐसे में टाइम-टेबल में बदलाव, उसके लिए एक सुखद बयार लेकर  आया. अब टाइम-टेबल कुछ ऐसा बना था जिसमे उसकी सहेली, कृष्णा और उसे एक साथ ऑफ पीरियड मिलते. उसे सुकून मिल गया.  वीरेंद्र तो उसे खाली  देखते आ ही जाएंगे ,इतना उसे पता था पर कम से कम कृष्णा  का साथ तो रहेगा. अब सब, इतना बोझिल तो नहीं होगा. उसने कृष्णा  से परिचय  करवाया और आश्चर्य...किसी से दोस्ती नहीं करनेवाले वीरेंद्र ने लपक कर उस से दोस्ती का हाथ बढाया. उसे सुकून मिला..चलो कुछ बोझ तो बँटा. शुरू में तो कृष्णा  भी उसपर  झल्लाई रहती..."कहाँ से उसके सर पर बिठा दिया..कितना अच्छा वे दोनों हंसी-मजाक दुनिया भर की बातें किया करते थे.'वीरेंद्र की  उपस्थिति थोड़ी असहज बना देती.  पर धीरे-धीरे उसने नोटिस किया.....वीरेंद्र, कृष्णा से काफी बातें करने लगे.

वैसे भी  कॉलेज फेस्टिवल्स अब नजदीक आ रहें थे और तमाम तरह के कम्पीटीशन होने वाले थे. हमेशा की तरह प्रिंसिपल ने उसे बुलाकर कई चीज़ों का इंचार्ज बना दिया था. डिबेट का पूरा कार्यक्रम उसे देखना था. फेस्टिवल के अलग-अलग डिपार्टमेंट्स के हेड भी स्टूडेंट्स  में से उसे ही नियुक्त करने थे . उसे काफी काम होता. डिपार्टमेंट में भी वो आती तो ढेर सारे पेपर वर्क करती  रहती. वीरेंद्र पहले की तरह कुर्सी खींच ...बैठ जाते और कोई ना कोई टॉपिक  शुरू  करने की कोशिश करते. वह भरसक प्रयास करती की उनकी बातो को ध्यान से सुने पर अब उसे  समय ही नहीं मिलता  और ये भी सोचती अब वे नितांत अकेले भी नहीं...कृष्णा से तो उनकी बात-चीत होती ही रहती है. हाँ-हूँ में जबाब देती तो वे चिढ कर उठ जाते. कभी उनके  यूँ अचानक उठ कर चले जाने पर बुरा भी लगता पर वो मजबूर थी.

कृष्णा भी जब भी अकेले में मिलती, कहती "क्या मुसीबत है,जैसे वे घड़ी देखते होते हैं...क्लास ख़त्म कर ,जैसे ही रजिस्टर रख कर जरा सा दम लो और पहुँच जाते हैं, 'नमस्ते कृष्णा  जी..कैसी हैं आप?'अब रोज भला कैसी होउंगी मैं...अच्छी मुसीबत, गले  डाल दी है तुमने "

"अरे,बेचारे अकेले हैं...थोड़ा झेल लो..मैने क्या कम झेला है इतने दिनों...फिर मिलकर उनकी शादी करवा देते हैं...अपनी नई पत्नी के साथ फोन पे चिपके रहेंगे ..हमें छुटकारा मिल जायेगा.."..हंस पड़तीं दोनों

"हाँ, ये ठीक रहेगा..जल्दी करो कुछ...वरना हम अपनी  बातें तो कर ही नहीं पाते.".... ये सच था कृष्णा और उसकी कितनी सारी गर्लिश टॉक अब  वीरेंद्र की  उपस्थिति के चलते गए दिनों की बात हो गयीं  थीं. कितने ही दिन हो गए और उन दोनों ने स्टुडेंट्स की बातें भी नहीं शेयर कीं. आजकल के स्टुडेंट्स,में गुरु-शिष्य वाली  भावना का लेशमात्र नहीं था. एक तो उनकी कच्ची  उम्र और उसपर अनुशासन का अभाव और फिल्मो,टी.वी. के प्रभाव ने काफी उच्छृंखलबना दिया था, छात्रों को.  महिला लेक्चरर्स की तो मुसीबत ही थी. कभी कोई लड़का लेक्चर के दौरान एकटक चेहरे पर देखता रहता. कुछ उसे कहा भी नहीं जा सकता. कह देता,"मैं तो ध्यान से सुन रहा हूँ"कभी कॉपी करेक्शन को दें तो उसमे हीरो हिरोइन की तस्वीरें या फिर कोई मनचला सा गीत लिखा होता. एकाध बार तो क्लास से बाहर निकलते  ही लड़कों  ने मोबाइल से तस्वीर भी खींच ली. डांटने पर बेशर्मी से कह देते ,"मैडम आप अच्छी लगती  हैं"एकाध बार उनके मोबाइल भी सीज किए पर कुछ दिन बाद खुद ही जाकर लौटाना पड़ा, महंगे मोबाइल्स थे..पता नहीं पैरेंट्स ने कितने खून पसीने की कमाई लगा दी होगी और ये आज के ढीठ बच्चे ,वापस मांगने भी नहीं आते. पर ये सब सत्र की शुरुआत में ही होता..धीरे- धीरे  जैसे टीचर-स्टुडेंट्स एक दूसरे को समझने लगते और एक रिश्ता सा बन जाता...फिर तो अपनी कितनी सारी समस्याएं  भी लेकर आते, जिसे वो और कृष्णा आपस में डिस्कस कर सुलझाने की कोशिश करते. पर अब  वीरेंद्र के सामने ये सब बातें करना मुश्किल हो गया था.

उसकी व्यस्तता बढती ही जा रही थी. अभी भी वीरेंद्र नियमित उसके डिपार्टमेंट में आते उसे नमस्ते जरूर कहते..दो मिनट बैठते..पर फिर विषय के अभाव में बात आगे नहीं बढती...'आज गर्मी है... 'लगता है बारिश होगी'...'आज तो मौसम अच्छा लग रहा  है..'बस..इसके आगे कुछ सूझता ही नहीं...
उस दिन भी सोच ही रही थी कि अगला वाक्य क्या कहे कि वीरेंद्र बोले..."कृष्णा जी नज़र नहीं आ रहीं....ये पत्रिका उनके यहाँ से लाई थी...लौटानी थी"

"कृष्णा के यहाँ से ?? "वो कुछ समझी नहीं.

"हाँ, वो बताया था ना आपको, एक मामा भी इसी शहर में हैं...वे कृष्णा जी के घर के पास ही रहते हैं...जब उनसे मिलने जाता हूँ...तो कृष्णा जी के यहाँ भी चला जाता हूँ."

"अच्छा....हाँ,मामाजी की बात तो आपने बतायी थी...कृष्णा के यहाँ की नही..."
"बस पांच-दस मिनट तो बैठता हूँ...क्या बताना  इसमें.."

"ओके .."कहने को तो उसने कह दिया...पर सोचती रही...एक-एक बात बताते हैं...और ये बात गोल कर गए...और कृष्णा ने भी नहीं बताया कुछ...जबकि  वीरेंद्रसे सम्बंधित तो हर बात बताती है...शिकायत ही सही...जिक्र तो रोज उनका  हो ही जाता है.
और करीब दो महीने बाद  जाकर, कृष्णा ने  एकदम कैजुअली कहा.."उस दिन वीरेंद्र घर आए तो बता रहे थे उनका कुक अब तक नहीं लौटा  गाँव से""
"वो तुम्हारे घर भी  जाते हैं?"
"अरे..कभी कभार...वो भी दस- पंद्रह  मिनट के लिए.."
"पर तुमने कभी बताया नहीं..."
"इसमें बताने जैसा क्या..था..."
"हाँ ये भी है......."कह तो दिया उसने पर सोचती रह गयी...वे दोनों   तो कॉलेज से सम्बंधित हर घटना का जिक्र एक दूसरे से जरूर करते थे. किसी प्रोफ़ेसर ने उसे लिफ्ट देने की  पेशकश की...या पहली बार हलो कहा...या किसी ने काम्प्लीमेंट  दिए....छोटी से छोटी कोई बात बताना नहीं भूलती पर वीरेंद्र  के घर पर आने वाली  बात, बतानी  उसने जरूरी नहीं समझी.

उसकी व्यस्तता बढती जा रही थी...और वीरेंद्र की नाराज़गी  भी. सारे खाली पीरियड्स ...स्टुडेंट्स के साथ मीटिंग्स...फेस्टिवल की तैयारियों  में निकल  जाते. डिपार्टमेंट में बैठना भी बहुत कम हो गया था उसका. कभी जाती तो देखती....वीरेंद्र, कृष्णा के पास की कुर्सी पर बैठे हैं. कभी कभी तो उसके हलो को भी नज़रअंदाज़  कर जाते. कृष्णा जरूर पूछती..."कितना बिजी रहने लगी हो.."
"अरे... पूछो मत...बस ये फेस्टिवल निकल जाए...तो चैन मिले."
"नहीं पसन्द, तो करती क्यूँ हैं... इतना काम..."अब वीरेंद्र फूटते
"करना पड़ता है...किसी को तो करना पड़ेगा ही ना...एंड आइ  एन्जॉय डूइंग इट "
"फिर शिकायत मत किया कीजिये...जरा विद्रूपता से कहा उन्होंने....उसे बुरा तो बहुत लगा...पर कुछ कह नहीं पायी "
ऐसा अक्सर लोग  कह जाते हैं...मनपसंद काम करने से भी थकान तो होती है...लेकिन लोग  उसके विषय में एक शब्द सुनना नहीं पसंद करते...अगर अपनी इच्छानुसार कोई काम करो तो फिर होठ  सी लो..दर्द पी लो...जुबान पे कुछ ना लाओ..वरना सुनने को मिलेगा..."किसने कहा ,करने को .

मन खिन्न हो आया. आजकल वीरेंद्र सिर्फ उसे इरिटेट करनेवाली  बाते ही किया करते थे. अक्सर सोचती..ये कृष्णा से उनकी इतनी कैसे बनने लगी?.आखिर किन विषयो पर बात करते हैं.?.क्यूंकि वीरेंद्र के पास तो कोई विषय ही नहीं थे और उसे लगता था ,कृष्णा बिलकुल उस जैसी थी......पर शायद दोनों की वेवलेंथ मिलती हो...एक जैसी पसंद नापसंद हो...

वीरेंद्र जरा थे भी भोंदू किस्म के  ..छोटे से कस्बे से ,कभी महिलाओं से ज़िन्दगी में बात की नहीं...और यहाँ पत्नी की सहेली की वजह से मिले अवसर का खूब  फायदा उठा रहे थे. प्रैक्टिकल क्लासेज़ में उनकी उपस्थिति अनिवार्य थी. पर वो भी लैब असिस्टेंट के भरोसे छोड़, यहाँ जमे रहते. उनसे सहानुभूति वश कोई सवाल नहीं करता. पर साइंस फैकल्टी के लोग उसे  ही सुना जाते, "अपने काम को तो सीरियसली लेना चाहिए ..आखिर रोटी वहीँ से मिलती है."उन्हें लगता,उसकी सिफारिश पर वीरेंद्र को यह लेक्चररशिप मिली है,तो कुछ जिम्मेवारी उसकी भी बनती है.
  वह क्या कह  सकती थी ? अब वीरेंद्र के बैठने की जगह भी बदल  गयी थी. पहले वे उसकी दायीं तरफ बैठते थे...कृष्णा से परिचय करवाया तो दोनों के बीच की कुर्सी पर बैठने लगे..अब देखती , कृष्णा की बायीं  तरफ  बैठते हैं...वो डिपार्टमेंट में आती ही कम...और जब आती भी तो देखती...साइकोलोजी वाली नीलिमा और संस्कृत पढ़ाने वाली शकुंतला जी भी बैठी हैं...और गप्पो के दौर चल रहें हैं...मुस्कराहट आ जाती,उसके  चेहरे पर...दोस्त बनाने से अरुचि रखनेवाले वीरेंद्र को महिला दोस्त बनाने से कोई परहेज नहीं था.

अब पता नहीं क्यूँ ,अपने डिपार्टमेंट में जा कर बैठना ,उसे अच्छा नहीं लगता. उनकी गप्पे चलती रहतीं... इंट्रूडरजैसा लगता. उसने स्टाफरूम में बैठना शुरू कर दिया. यहाँ ज्यादातर..इंग्लिश,हिंदी,, जोग्रोफी वाले प्रोफ़ेसर बैठते थे. पर सुखद आश्चर्य हुआ उसे ,पहले क्यूँ नहीं आई, इनके सान्निध्य में. बड़े नौलेजेबल लोंग थे. किसी किताब की यूँ मीमांसा करते कि वो मुग्ध सुनती रह जाती. बात-बात पे कोटेशन्स..गीता, रामायण..उपनिषदों से उद्धरण ...रोज ही कुछ नया सीखने को मिलता. स्वस्थ बहस भी होती..कभी-कभी तीखी भी पर एक दूसरे के विचारों का सम्मान करते सब. अपने विचार दूसरे पर थोपने की कोशिश नहीं करते.

फिर भी उसे अपने डिपार्टमेंट में तो जाना ही पड़ता. कृष्णा एक औपचारिक 'हलो'कहती.वीरेंद्र, अगर होते तो वो भी नहीं कहते. दूसरी तरफ देखते रहते. कभी सामने पड़ गए...तो वो 'नमस्ते'कह देती..और वे सिर्फ सर हिला कर चले जाते. अजीब लगता उसे. पर सोचने की फुरसत कहाँ थी..अब डिबेट्स के इनिशियल राउंड शुरू हो गए थे. उसमे पूरी तरह मुब्तिला थी वो. कभी- कभी उसकी क्लास भी छूट जाती. पर ऐसा तो हर वर्ष होता...वो बाद में एक्स्ट्रा क्लास ले सिलेबस पूरा कर देती.पर उसके कानो में कुछ  अजीब सी बात पड़ी...जब केमिस्ट्री  की रीमा कपूर ने कहा, '"वीरेंद्र जी  आपके मित्र हैं ना..."
"हाँ..क्यूँ.."
"कुछ नाराज़ हैं क्या आपसे...?"
"नहीं तो..क्या हुआ.."उसे लग तो रहा  था,पर वो दुसरो के सामने क्यूँ स्वीकारे ये सब. 
"पता नहीं...कल आपको बहुत क्रिटीसाईज  कर रहें थे...कह रहें थे...'ये क्या बात हुई..क्लास में इतना शोर हो रहा है..कॉलेज में तो पढाना पहला धर्म होना चाहिए...ये डिबेट्स वगैरह ,सब तो ऑफ टाइम में होना चाहिए....आपकी सहेली  भी वहीँ थीं..."

"हम्म...होगा कुछ...मैं बात कर लूंगी ..चलूँ अभी...कुछ काम है "वो ज्यादा बढ़ावा  नहीं देना चाहती थी.

फिर तो अक्सर ही कोई ना कोई कह जाता...'वीरेंद्र जी इतना नाराज़ क्यूँ हैं,आपसे...आपके पढ़ाने के तरीके की बड़ी बुराई कर रहें थे कि उनकी क्लास में कितना शोर होता है..स्टुडेंट-टीचर का रिलेशन पता ही नहीं चलता...वे बहुत फ्रेंडली हो जाती हैं...स्टुडेंट के मन में हमेशा टीचर का डर होना चाहिए...और कृष्णा जी की बड़ी तारीफ़ कर रहें थे कि कितनी शान्ति होती है क्लास में...कोई शोर-शराबा नहीं...टीचर तो ऐसी होनी चाहिए"

"अब इसमें क्या कहा जाए...उन्हें कृष्णा का पढ़ाना अच्छा लगता होगा.."कह कर वो बात ख़त्म कर देती.

कृष्णा और उसका पढ़ाने का ढंग अलग  था . कृष्णा नोट्स बना कर ले जाती. क्लास में पढ़कर थोड़ा एक्सप्लेन कर चली आती.  स्टुडेंट्स खुश होते,बना बनाया नोट्स मिल जाता. जिसे रटकर वे परीक्षा में अच्छे नंबर ले आएँ. जबकि वो कोशिश करती कि बिना किसी नोट्स के पढाये...और विषय समझाने की कोशिश करे कि क्लास में ही कुछ तो उनके दिमाग में रह जाए. इस चक्कर में काफी सवाल जबाब होते और बाहर वालो  को लगता शोर हो रहा है.पर और किसी ने तो कभी शिकायत नहीं की.पता नहीं वीरेंद्र को उस से क्या प्रॉब्लम  हो गयी है. शायद उन्हें लगा वो जान-बूझकर इग्नोर कर रही है. पर सबकुछ तो सामने ही था .वो वीरेंद्र से तो  कुछ भी नहीं पूछ्नेवाली ..इतना कुछ किया है उनके  लिए ,उसका सिला जब वे ,ये दे रहें हैं ,तो क्या बच जाता है पूछने को. उनकी मर्जी.

पर उसने  कृष्णा से इसकी चर्चा करने की सोची.

कृष्णा ने छूटते  ही कहा.."क्या पता तुमलोगों के बीच क्या मिसअंडरस्टैंडिंग है . वीरेंद्र जी बहुत हर्ट हैं"

"अच्छा इसीलिए सब जगह मेरी बुराई करते चल  रहें हैं....और सब तो तुम्हारे सामने ही है ना...कैसी मिसअंडरस्टैंडिंग??...तुम्हे तो सब पता है, मैं बिजी रहने लगीहूँ.....उनसे ज्यादा बात नहीं कर पाती, अब "मन कसैला हो आया उसका. उसकी  इतने दिनों की सहेली भी बात समझने की कोशिश नहीं कर रही .

"अब मुझे क्या पता....तुम दोनों के बीच क्या हुआ है...कह रहे थे, सरिता जी अब बात नहीं करतीं...."

"अरे, तुम्हारे सामने तो कितनी बार हलो कहा है...और उन्होंने जबाब भी नहीं दिया...अजीब बात है...हाँ,बाद में मैने भी छोड़ दिया...मैं भी इतनी फालतू नहीं"

"अब मुझे क्या पता....और मुझे क्या मतलब इन सब बातों से....ये तुम दोनों के बीच की बात है....पर वे बहुत हर्ट हैं  "

"हम्म..ठीक  है जाने दो.."वो समझ गयी, जब वीरेंद्र उसकी प्रशंसा के पुल बांधते फिर रहें हैं तो उसे उनका कोई दोष कैसे नज़र आएगा. चाशनी का ड्रम ही सामने उंडेल दिया गया हो तो पैर तो वहीँ चिपक जाएंगे ना.

एक दिन क्लास लेकर निकली ही थी कि प्यून बुलाने आया..."प्रिंसिपल साहब ने आपको अपने ऑफिस में बुलाया है"

चौंक गयी वो.."अब तो फेस्टिवल ख़तम हो गए...अब कौन सा काम आ पड़ा"

प्रिंसिपल बड़े इत्मीनान में दिखे ,उसे बिठाया ,इधर-उधर की बातें करने लगे ....वो समझ नहीं पा रही थी उनके बुलाने का प्रयोजन क्या है...फिर अचानक उन्होंने पूछा, "आपकी किसी से कोई नाराज़गी कोई बहस हुई है क्या...?"

हम्म तो ये बात है..पर इन तक वीरेंद्र की बात किसने पहुंचाई होगी ?

उसे नकारात्मक सर हिलाते देख उन्होंने कहा.."ऐसी कोई सीरियस बात नहीं... एक इमेल आया है...उसमे आपके खिलाफ काफी बातें कही गयीं है...मैं  सोचने लगा, आप तो इतनी डेडिकेटेड हैं अपने काम के प्रति...किसे शिकायत होगी...कोई पारिवारिक दुश्मनी  तो नहीं...किसी से?"

पर मन काँप गया ,उसका.."कैसी बुराई...क्या कहा गया है?"

"खुद देख लीजिये....आइ डी  भी फेक सा ही लगता है कुछ 'वी'से है ."...कहते उन्होंने लैपटॉप उसकी तरफ कर दिया....एक नज़र देखा उसने, बचकानी बातें थीं..."सरिता तो प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने लायक भी नहीं....उन्हें कॉलेज में कैसे रख लिया आपने..पढ़ाने से ज्यादा उनका मन दूसरी चीज़ों में लगता है...वगैरह..वगैरह..."इतनी गलत अंग्रेजी लिखी थी कि उसे पढने में भी वितृष्णा सी हो रही थी. इस गलत अंग्रेजी और 'वी'  के इनिशियल ने उसका शक यकीन में बदल  दिया..ये वीरेंद्र ही थे..पर उसने कुछ कहा नहीं.

उसे विचार मग्न देख, प्रिंसिपल ने आश्वस्त किया.."इतनी चिंता की बात नहीं..मैने सिर्फ इसलिए बता दिया कि आप  सावधान हो जाएँ....क्या पता, आप जिन्हें दोस्त समझ रही हों...उनमे से ही कोई हो"..उनका अनुभव बोल रहा था.

"थैंक्यू सो मच सर...अगर और इमेल्स आएँ तो बताएं...फिर कोई एक्शन लेना पड़ेगा.."

"हाँ वो तो मैं खुद ही पता लगा लूँगा...बस आपको सावधान करने को यह बताया..."

फिर से  थैंक्स कहती वो बाहर चली आई....मन हो रहा था 'कंप्यूटर लैब में जाकर एकबार अपना मेल भी चेक कर ले...क्या पता उसे भी कुछ भला-बुरा कहा हो. पर वो लास्ट पीरियड था. क्लास रूम्स बंद होने शुरू हो गए थे. शैलेश टूर पर गए हुए थे ,वरना रात में उनके लैप टॉप पर ही चेक कर लेती...

अगर ये वीरेंद्र ही हैं..पर उनके सिवा और कौन होगा...तो कितनी बड़ी गलती की  उसने, उनसे  लैपटॉप खरीदने की सलाह देकर.....वीरेंद्र बिलकुल तैयार नहीं थे..."मुझे क्या काम...मुझे इसकी क्या जरूरत"
उसने समझाया था.."अकेलेपन का बढ़िया साथी है"...कहकर  इंटरनेट के सारे गुण उनके सामने गा डाले थे.

उन्हें कुछ नहीं आता था..उसे भी ज्यादा कहाँ पता था...पर उसने कम्प्यूटर टीचर 'करण दोषी 'से अपनी पहचान  का फायदा उठाया. कॉलेज फेस्टिवल के समय, स्पौन्सर्स से इमेल के  आदान-प्रदान का भार,उसने करण दोषी  पर ही डाल रखा था. हंसमुख और कर्मठ लड़का था, अपने ऑफिशियल काम से कितने ही इतर काम करने को हमेशा तैयार रहता था. वीरेंद्र  ने लैप टॉप  के उपयोग  की सारी जटिलताएं उस से सीख लीं, थीं.
दूसरे दिन पहला क्लास लेकर आई ही थी कि मिस्टर जुनेजा...भागते हुए उसके पास आए..."चलिए जरा आपको कुछ दिखाना है.."

उसने सोचा..."तस्वीरें होंगी...पर उन्होंने अपना मेल बॉक्स खोला...और वही मेल उनके इन्बौक्स में भी पड़ा था "
उसने बताया , कि प्रिंसिपल को भी ऐसा मेल भेजा जा चुका है...."कौन हो सकता है?"...उन्होंने पूछा...
"क्या पता..."
उसके जबाब पर वो खुद ही बोले..."मुझे तो वीरेंद्र साहब ही लगते हैं...आजकल नाराज़ चल रहे हैं आपसे..जिधर देखो..आपके गुण गाते चलते हैं.."
"अच्छा...आपको भी  पता चल गया..".हंस पड़ी वो..
"हम अपनी तस्वीरों की दुनिया में रहते हैं..पर यहाँ की खबर  हमें भी होती है..आपकी शान में कसीदे तो पढ़ते ही रहते हैं...और दूसरी महिला लेक्चरर्स के सामने तो जैसे अगरबत्ती, धूप जला,बस दंडवत को तैयार."
"ह्म्म्म..." 
"वो ठीक है...उनकी अपनी मर्जी...पर जरूरी है कि एक की  बुराई करके ही दूसरे की तारीफ़ की जाए?"
"यही तो मैं सोचती हूँ.....ठीक है...मेरे सारे काम में त्रुटियाँ हैं...पर उन्हें  क्या फर्क पड़ रहा है...मुझे मेरे हाल पर छोड़ दें,ना "
"तब मजा नहीं ना...जबतक दूसरों के लिए गाए  आरती -भजन आपके कानो में ना पड़ें..क्या मजा उनका...घंटी की टुनटुनाहट तेज करनी ही पड़ती  है..."मुस्कुराते हुए कहा मिस्टर जुनेजा ने.

उसे जोर की हंसी आ गयी...मिस्टर जुनेजा आगे बोले, "फ़िक्र ना करें....अगर ये फेक मेल भेजने वाली, हरकत जारी रही तो कुछ किया जाएगा."
"फ़िक्र कैसी....अगर वे नहीं संभले तो  तो असलियत तो सामने आ ही जायेगी "

और यही हुआ..धीरे-धीरे जो भी नेट पर सक्रिय थे ..सबके पास वो इमेल और उसके साथ ही उस जैसे कई इमेल्स पहुँचने लगे. पता नहीं कहाँ से सबके इमेल आइ.डी. भी पता कर लिए थे...उसने सोचा, 'दूसरा कोई काम तो है नहीं. खाली  दिमाग शैतान का घर...करे भी क्या. कोई जुगत लगाई होगी '

उसे भी इमेल्स  मिलते .पर वो तो डर कर घर पर चेक भी नहीं करती अगर शैलेश ने देख लिया तो फिर तूफ़ान मचा देंगे. वे चुप नहीं बैठने वाले. तुरंत ही आइ.पी. एड्रेस पता कर एक्शन ले डालते..और बेकार का कॉलेज में एक चर्चा का विषय बन जाता. सोच में पड़ गयी वह....घर से बाहर निकल कर काम करने वाली औरतों को कितना कुछ सहना पड़ता है..कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है...और उसे वे  'मजबूर'घर में भी शेयर नहीं कर पातीं.

शायद उसकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया ना देख . वीरेंद्र की हताशा बढती गयी और उन्होंने करण दोषी को भी ऐसे मेल भेज दिए .करण तुरंत हरकत में आ गया... पच्चीस  साल का लड़का...जोश से भरा...कुछ नया करने को मिला. सीधा उसके पास आया...किसकी हरकत हो सकती है??...और उसने अपना शक बता दिया...वो तुरंत काम में लग गया.
क्लास लेकर निकल ही रही थी कि शकुंतला जी मिल गयीं....उनका फिर से वही प्रश्न.."वीरेंद्र जी  इतने  नाराज़ क्यूँ है आपसे..."

अब कहाँ से लाए वो कोई वजह...जो थी फिर से दुहरा दी. तभी पीछे से करण ने जोर से आवाज़ दी...."सरिता मैडम"

उसके कदम रूक गए.....शकुंतला जी को देख  कर थोड़ा हिचकिचाया..पर उसने कहा.."ये सब जानती हैं...बोलो क्या पता चला?"

"मैडम ये वही वीरेंद्र जोशी हैं ना ...उन्होंने अपनी  आइ.डी. मेरे सामने ही तो  बनाई थी...आप ही तो लेकर आयीं थीं...उन्हें.....दोनों आइ. डी . का आइ.पी.एड्रेस एक ही है..."
"ओह्ह.."बस इतना ही बोल पायी...शक तो उसे था ही...पर प्रमाण मिल जाने पर सच में एक बार चौंक गयी..शकुंतला जी के चेहरे पर भी आश्चर्य के भाव थे.

उसे चुप देख..करण बोल  पड़ा.
"ये क्या तरीका है...अगर नाराज़ हैं....कोई शिकायत है  तो सामने से बोलो ना.... यूँ फेक आइ.डी. बना कर पीछे से वार क्यूँ....मुझे तो बहुत गुस्सा आ रहा है.."

"बस बस...काबू  रखो गुस्से पर ...ये सब चलता रहता है....और थैंक्यू सो मच...इतना बड़ा काम किया आपने....चलो अपनी क्लास देखो..बाद में बात करते हैं.

शकुंतला जी ने सब सुना....पर बोला कुछ नहीं....उसने ही कहा..."देखिए बिना किसी बात के ...कितनी बात बढ़ गयी "

"अब क्या कहा जाए...गलत तो है ही ये सब "  बस इतना ही कहा उन्होंने. पर उसे संतोष था उनके सामने करण ने यह बात बतायी...अब तो कृष्णा,नीलिमा सबको पता चल जायेगा और उन्हें विश्वास भी करना पड़ेगा.

पर सबके ठंढे रिस्पौंस पर उसे बड़ा दुख हुआ. कृष्णा से भी उसे खुद  ही कहना पड़ा..."सुना ना तुमने....वो फेक इमेल वाले वीरेंद्र ही थे..."

"हाँ....जो भी हुआ बहुत गलत हुआ..."बस इतना ही कहा उसने.

वीरेंद्र  का उसके डिपार्टमेंट में आना बदस्तूर जारी था. अब सबको इमेल वाली  बात मालूम हो गयी थी..अकेले में सब इसकी निंदा कर गए थे पर वीरेंद्र से उसी गर्मजोशी से मिलते. हर्षल को भी देखती...बड़े प्यार से दूर से पुकारता..'कैसे हैं.. वीरेंद्र  स्साब"ऐसा लगता जैसे सब विशेष चेष्टा कर यह दिखाने को आमादा हैं कि उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता...

एक दिन स्टाफरूम में कोई नहीं था .... यही सब सोचते ,यूँ ही चुप सी बैठी थी. नज़र खिड़की के अंदर आ गए बोगनवेलिया के लतरों पर जमी थीं. मिस्टर कुमार के आने का  उसे पता ही नहीं चला...
"क्या हुआ भाई..यहाँ यूँ खामोशी से क्यूँ  बैठी हैं...आज ब्रश-वर्श  नहीं किया क्या.."
"मतलब.."वो अबूझ सा देखती रही
तो फिर बोले,"ओह! लगता है ब्रश करने गयी तो दाँत सिंक में ही गिरा आयीं...इसीलिए नहीं दिख रहें "
हंस पड़ी वो..."ओह, अब समझी...कैसी भूलभुलैया भरी बातें करते हैं..आप भी"
"हाँ... आप ऐसी ही हंसती हुई अच्छी लगती हैं..पर हुआ क्या..ऐसा मूड क्यूँ है आज.."
"कुछ ख़ास नहीं"
"अब बता भी दीजिये "
"आपने मेरी तारीफ़ में कसीदे नहीं सुने क्या...कोई मेरी तारीफ़ में पुलिंदे लिखे जा रहा है.."
"ना..वरना मैं भी कुछ अपनी तरफ से जोड़ देता...कौन हैं ये भलामानुष"
अब वो चुप नहीं रह सकी...और सब बता दिया कि कैसे वीरेंद्र हर जगह उसकी बुराई करते फिर रहें हैं..कैसे फेक इमेल भेज रहे हैं..सबको"
"पर वे तो आपके मित्र थे,ना..हुआ क्या "
"बताया ना...कहने को तो कुछ  भी नहीं हुआ"
"ओके... मैं बात करता हूँ "
"नोsssss    वेsss "..वो जैसे चिल्ला ही पड़ी.
"अरे..मैं अपने तरीके  से बात करूँगा..."
"नहीं प्लीज़.. कुमार....आप रहने दीजिये.."वो घबरा गयी थी..."क्यूँ जिक्र किया आपसे "
"मैं इधर आ रहा था तो उन्हें साइंस डिपार्टमेंट की तरफ जाते देखा है....बीच रास्ते में ही पकड़ता हूँ..वरना वे अकेले नहीं मिलेंगे...डोंट वरी....मैं  बड़े तरीके से बात करूँगा"
और  कुमार तो यह जा वह जा...वे थे ही इतने जल्दबाज .
वह मायूस सी बैठी रह गयी....यह क्या कर दिया उसने ...पता नहीं कुमार क्या बात करें और वीरेंद्र  क्या समझे कि उसने भेजा है...अब क्या कर सकती थी.एकदम उदास सी बैठी थी कि दस मिनट बाद ही कुमार वापस आ गए. वो गुस्से में भरी बैठी थी. पर कुमार तो हँसते हुए बगल की कुर्सी पर जैसे ढह से गए  और पेट पकड़ कर हंसने लगे.
उसने घूर कर देखा तो बोले, "बताता हूँ...."और फिर हंसने लगे .
उसका घूरना जारी रहा तो किसी तरह हंसी रोक बोले, "शांत देवी..शांत ..पर आप ये बताइये इन जनाब से आपकी दोस्ती कैसे हो गयी."
"कहाँ की दोस्ती...आपने ना कुछ सुना ना कुछ जाना और चल दिए...महान बनने..कहा क्या आपने उनसे?"
"मैने इतना ही पूछा कि आपको सरिता जी से क्या प्रॉब्लम है...आप उनको यूँ क्रिटीसाईज  क्यूँ करते फिर रहें हैं...तो वे तो ..वे तो..".कुमार फिर हंसने लगे....फिर हंसी थाम कर बोले ..."सॉरी टू से ..पर वे तो बिलकुल औरतों की तरह बात करते हैं...नाक फुला कर कहने लगे, 'सरिता जी ने मेरा अपमान किया है...मैने कहा ..'तो उनसे जाकर  क्लियर कीजिये...यूँ दुसरो से उनकी बुराई करने का और ये फेक मेल भेजने का क्या मतलब ...तो बोले 'मैंने किसी से कोई बुराई नहीं की ..बल्कि उन्होंने मेरी इन्सल्ट की है...मैं बहुत हर्ट हूँ...हा...हा.. ही इज नॉट वर्थ इट...यु आर बेटर ऑफ हिम...शुक्र मनाइए  जान छूटी..

"मैने हर्ट किया है.....कैसे भला....पूछा नहीं,आपने??"..आवाज़ तेज हो गयी थी,उसकी.

"अरे पूछना क्या...वे खुद ही भरे बैठे थे...कहने लगे...मुझे इग्नोर करती हैं....मुझे एवोयेड करती है...ये बहुत अपमानजनक है मेरे लिए...यही सब कह रहें थे....बाप रे..कैसे गाँव की औरतों की तरह नखरे के साथ बोलते हैं....मैं तो पांच मिनट ना झेल पाऊं ऐसे आदमी को...आपकी इनसे दोस्ती कैसे हो गयी...कई बार आपके डिपार्टमेंट में बैठे देखा है ,इन्हें .."

"इसीलिए तो कह रही थी..आपको कुछ पता नहीं...वे मेरे दोस्त नहीं उनकी पत्नी मेरी सहेली थी.."फिर उसने सारी कहानी बतायी.

तो कुमार हाथ झटक कर बोले ..."बस आपका काम ख़त्म हुआ...आपने अपना कर्तव्य निभाया.इसे यहीं  छोड़ दीजिये और जरा भी चिंता मत कीजिये...आपको पूरा कॉलेज  ज्यादा अच्छी तरह जानता है..वो भोंपू लेकर भी चिल्लाये ना..कोई असर नहीं होने वाला...चाय पीनी है..खूब मीठी सी ...यू विल फील बेटर "

"ना एम आलरेडी फिलिंग बेटर आफ्टर टाकिंग टु यू ..थैंक्स.अ मिलियन ."
'एनिटायीम..बस आप ब्रश करने जाएँ तो ध्यान रखें ..दाँत सिंक में ना गिरा दें..."और दोनों जोर से  हंस पड़े.
***
कुमार से बात करके सचमुच बड़ा हल्का हो आया मन. सच में इतनी तरजीह देने की क्या जरूरत...कितने दिन बोलेंगे. ये बस एक अटेंशन सीकर बेहवियर है. निगेटिव तरीके से ध्यान खींचने की कोशिश . वो कुछ रेस्पौंड ही नहीं करेगी तो खुद ही चुप हो जाएंगे और दोस्ती का क्या..शायद उसकी भूमिका यहीं तक थी...कृष्णा और वीरेंद्र की दोस्ती करवाने के लिए ही ईश्वर ने उसे चुना था. वीरेंद्र को यहाँ स्थापित करवाने और सबसे परिचय करवाने तक की जिम्मेवारी ही उसकी थी. . और अब उसकी जिम्मेवारी पूरी हुई,बस....कैसा गम.

फेस्टिवल  भी अब समाप्ति की ओर  था. सारे इवेंट्स अच्छी तरह संपन्न हो रहें थे. बीच-बीच में हल्की-फुलकी  गड़बड़ियां भी होती  रहीं . डिबेट्स में दूसरे कॉलेज के आए स्टुडेंट्स ने बड़ा हंगामा किया . उसके कॉलेज के सारे डिबेटर्स  को हूट कर दिया. फोर्थ इयर की ज्योति को इतनी अच्छी तरह तैयार किया था . गोल्ड मेडल कहीं जानेवाला नहीं था.पर उन लडको को देखते  ही वह घबरा गयी. काफी कुछ तो भूल ही गयी...जो बोला वो भी डर-डर के. सबको अच्छा नहीं लगा, उसके कॉलेज में आकर दूसरे कॉलेज के बच्चे मेडल  ले गए.पर अब क्या किया जा सकता है.

ऐसे ही  फैन्सी ड्रेस कम्पीटीशन का उसने और फिलौसोफी की मंजुला ने नया कांसेप्ट सोचा था. कोई स्टेज नहीं बनाया...कॉलेज कैम्पस में ही तरह-तरह के वेश धरे स्टुडेंट्स आते रहें. प्रिंसिपल ने दो पीरियड ऑफ देकर इस इवेंट को और्गनाइज़ करने की अनुमति दी थी.पर बच्चो  ने इतना एन्जॉय किया कि दो पीरियड की अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी क्लास में नहीं गए. कैम्पस  में ही ही हाहा  करते रहें. जिन प्रोफेसर्स  की क्लास थी..उनलोगों ने थोड़ी नाराज़गी जताई...हालांकि एन्जॉय उनलोगों  ने भी कम नहीं किया.

आज अंतिम दिन था और प्राइज़ डिस्ट्रीब्यूशन  भी था. प्रिंसिपल ने प्रोग्राम की समाप्ति पर उसका अलग से उल्लेख कर उसे धन्यवाद कहा और भूरी-भूरी  प्रशंसा  की. वो तो इतना असहज महसूस कर रही थी कि सर भी नहीं उठा पायी.

सब अच्छी तरह संपन्न हो जाने के बाद अब जी-जान से छूटी पढ़ाई में जुटी थी. पूरे दिन लाइब्रेरी में या स्टाफ-रूम में बैठे नोट्स तैयार करती रहती. उस दिन क्लास ख़त्म हो जाने के बाद मंजुला ने मार्केट चलने का इसरार किया. उसे कुछ शॉपिंग करनी थी. वो बोली, "ठीक है चलो..जरा ये नोट्स और किताबें मैं डिपार्टमेंट में अपने लॉकर  में रख आऊं. "

डिपार्टमेंट तक पहुंची कि उसे ख्याल  आया, "अरे मोबाइल तो ..मेज पर ही छूट गया "
उसने मंजुला को अपना बैग ,,किताबे थमायी  और तेज कदमो से वापस लौट पड़ी. जब मोबाइल लेकर आई तो देखा, मंजुला दरवाजे के पास ही गंभीर मुद्रा में खड़ी है , उसने पूछा..तो उसे होठो पे अंगुली रख चुप हो सुनने का इशारा किया .

अंदर वीरेंद्र  की आवाज गूँज रही थी.."पता नहीं लोगो ने सरिता जी को इतना सर क्यूँ चढ़ा रखा है...किस बात की तारीफ़ कर रहें थे प्रिंसिपल...बटरिंग करती होंगी प्रिंसिपल की...पहले तो सारी जिम्मेवारी दे दी उन्हें...उन्हें ही क्यूँ??..और लोग  नहीं हैं, कॉलेज में...कृष्णा जी हैं...नीलिमा जी हैं..इतने एफिशिएंट लोंग हैं...कितना हंगामा मचा रहा..पूरे प्रोग्राम के दौरान...डिबेट का मेडल दूसरे कॉलेज वाले ले गए...फैन्सी ड्रेस वाले दिन देखा...कोई डिसिप्लीन  ही नहीं..कृष्णा जी एकदम शान्ति से सुचारू रूप से सब करवातीं. सरिता जी को ना तो पढ़ाने का ढंग है..ना क्लास में शान्ति रखने का.....एक काम भी उनका सही नहीं होता..फिर भी लोगो  को देखिए बिना वजह की तारीफ़ करते रहते हैं..."

"अरे जमाना ऐसा ही है....वीरेंद्र  जी"किसने कहा..ये देखने को कमरे के अंदर झाँका तो पाया, वहाँ  तो उसके सारे ही तथाकथित दोस्त भरे पड़े हैं..कृष्णा, शकुंतला जी, नीलिमा तो हमेशा की तरह थी हीं पर उसे आश्चर्य हुआ , मनीषा दी को देख. वे उसकी बड़ी दीदी की सहेली  थीं....उनसे घर जैसा रिश्ता था. हमेशा, उसे मेरी छोटी बहन कह लाड़ लगाती रहतीं. वे भी चुपचाप वीरेंद्र का ये अनर्गल  प्रलाप सुन रही थीं. एक शब्द नहीं कहा उन्होंने कुछ. भले ही ना कहतीं..पर कम से कम वहाँ से हट तो सकती थीं. यह सब सुनने की क्या मजबूरी थी,उनकी? उतना ही आश्चर्य हर्षल को देख भी हुआ. नया -नया उसके हिस्ट्री डिपार्टमेंट  आया था. उसे दीदी कहते उसकी जुबान नहीं थकती . उसका सबसे बड़ा खैरख्वाह बनता था .इतना एग्रेसिव था ,किसी से भी लड़ पड़ने को तैयार. कितनी बार रोका था उसे. और यहाँ, वह भी सब चुपचाप सुन रहा  था.

उसकी आँखे झलझला  आई थीं. मंजुला ने महसूस किया और उसका हाथ पकड़ कर बोली.."चलो..यहाँ से चलते हैं"
उसके लाख मना करने पर भी उसे शॉपिंग  के लिए ले गयी..."अरे मूड ठीक होगा..घर जाओगी तो यही सब सोचते बैठोगी. घर पर कोई है भी नहीं...कि ध्यान बंटेगा..चलो मेरे साथ."

  हँसते-बतियाते..ढेर सारी शॉपिंग की....उसे भी लगा ..अब वो नॉर्मल  है सब भूल गयी है. पर घर की तरफ आते ही जैसे बाँध  की पानी की मानिंद  उन बातों का सैलाब उमड़ पड़ा....और थके-बोझिल कदमो से उसने दरवाज़ा खोल अंदर कदम रखा.

खिड़की के पास खड़ी ...उन्ही बातों के बहाव के साथ मन हिचकोले ले रहा  था .बिजली अभी तक नहीं आई थी.लगता था कुछ मेजर ब्रेकडाउन हो गया है. बाहर फैला घना अँधेरा उसके अंदर भी फैलता जा रहा था. सामने शर्मा जी के बंगले का चौकीदार अपनी लाठी ठक-ठक करता हुआ गेट के पास बैठ गया था.अब पता था वो ऊँची वाल्यूम में अपना ट्रांजिस्टर ऑन करेगा. और अगले ही पल फिजा को गुंजाते हुए  स्वरलहरियां फ़ैल गयीं..गाना बज रहा था,

"कसमे वादे प्यार वफ़ा
सब बातें हैं बातों का क्या
कोई किसी का नहीं
ये रिश्ते नाते हैं, नातों का क्या"

वो ऐसे चौंक उठी जैसे उसकी  ही चोरी पकड़ ली हो किसी ने...उसके मनोभाव का इन गाना प्ले करने वालों  को कैसे चल गया? क्या सचमुच ऐसी ही है दुनिया...ये रिश्ते-नाते क्या कच्चे बखिए से हैं...बिन प्रयास के ही उधड़ जाते हैं. कैसे किसी पर विश्वास करे....हर चेहरे के अंदर एक चेहरा है...जबतक नकाब पड़ी रहें तभी तक दुनिया ख़ूबसूरत है...उसे लगता था ..सबकुछ देख -जान चुकी है...अब कुछ भी बाकी नहीं..दुनिया के हर पैंतरे से वाकिफ है वह... पर इतना  कुछ देखने के बाद भी कितन कुछ अनदेखा -असमझा बाकी रह जाता है...

अनायास ही उसकी नज़र आकाश की तरफ उठ गयी. सुदूर कोने में एक मध्यम सा तारा था . उसकी नज़र पड़ते ही झिलमिलाया ,लगा उसने आँखे झिपझिपा कर हामी भरी हो.

आखिर कब तक ??

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{सबसे पहले तो क्षमाप्राथी हूँ ,पाठकों...बहुत दिनों बाद कोई कहानी लिखी है...जबकि महीनो पहले खुद से और आप सबसे, एक लम्बी कहानी  लिखने का वायदा भी किया था...कहानी रोज ही दस्तक देती है...पर दूसरे ब्लॉग ने कुछ इतना व्यस्त कर रखा है...कि लिख ही नहीं पा रही. वो तो भला हो आकाशवाणी वालों का कि तकाज़ा कर के कहानी लिखवा ही लेते हैं और unedited version जो पहले पन्नो में ही दबी रह जाती थी..अब यहाँ पोस्ट कर सकती हूँ....अग्रिम शुक्रिया, सबका :) }

वह घर में सबसे छोटी थी...तितली की तरह सबके आस-पास मंडराती हुई...चिड़िया की तरह फुदक कर कभी घर के अंदर आती तो कभी बाहर. घर वालों की  ही नहीं...पड़ोसियों की भी प्यारी. उसके  कॉलेज से घर आते ही शर्मा चाची अक्सर कभी गरम हलवे , कभी गरम पोहे की प्लेट भेज देतीं. जब पूछती, "आपको कैसे पता चल जाता है....मैं घर आ गयी??"...

"अरे तेरे पंचम सुर के आलाप से पता  चल जाता है...जितनी  देर घर में तू होती है...तेरे गाने की मीठी आवाज़ आती  रहती है."

"एक दिन धोबी भी आ जायेगा ...अपने गधों को ढूंढते हुए "....ये उस से दो साल  बड़े भाई की आवाज़ थी.

"भैया sss."कह कर झपटी तो उसकी चोटी आ गयी  भैया के हाथो में...."बोल और झपटेगी ..कटखनी बिल्ली...."वह उसकी  चोटी थोड़ी और खींचता और वो चिल्ला पड़ती.."माँ sss "

माँ की आवाज़ सुनते ही भैया चोटी छोड़...किताब में आँखे गड़ा लेता....शर्मा चाची के बच्चे बड़े थे और नौकरी पर दूसरे शहर चले गए थे...उन्हें उन सबकी ये शरारत बड़ी अच्छी  लगती...माँ दोनों को डाँटती तो शर्मा चाची  ,उन्हें समझातीं..."जाने दो..शिवानी की माँ रौनक बनी रहती है..एक दिन मेरे जैसे तरसोगी कि लड़ने को ही सही बच्चे पास तो होते"....और वो भैया को जीभ चिढ़ा कर भागती तो भैया  फिर से किताबे फेंक उसके पीछे  भागता....माँ सर पे हाथ रख लेतीं..."ओह!!  कोई किसी से कम नहीं "

भैया हमेशा  चिढ़ता-खिझाता रहता पर उसे कॉलेज के लिए देर होती तो बाइक से झट कॉलेज छोड़ आता. रात में उसके साथ बैठकर उसे मैथ्स समझाता. अगर भैया की पेन उसके हाथों गुम हो गयी तो पापा जी  से शिकायत कर देता. पापा की यूँ तो वो सबसे लाडली थी पर न्याय करने के लिए पापा उसे झूठ-मूठ का भी डांट देते तो भैया को ही बुरा लग जाता , फिर उसके लिए चॉकलेट जरूर लेकर आता.

दीदी तो जैसे उसकी फ्रेंड-फिलौस्फार-गाइड ही थी...बचपन से उसके किताबो पर कवर लगा देना...उसकी किताबों की  रैक ठीक कर देना ....अपने दुपट्टे से ,उसकी गुड़िया की  सुन्दर साड़ी बना  देना . होमवर्क में मदद करना. उसकी शैतानियों को हमेशा छुपाना...दीदी ये सारा कुछ उसके लिए करती.  सहेली  से लड़ाई हो जाए तो आँसू भी दीदी ही पोछती.
 
बुआ जब भी यहाँ आती...माँ को समझाती..."भाभी  इसे भी  कुछ रसोई का काम सिखाओ  कल को पराये घर जाएगी...क्या कहेंगे सब...कि घर वालों ने कुछ सिखाया ही नहीं है. खानदान का नाम कटवा देगी,लड़की"

माँ, बुआ  की बात रखने को उसे किचन में भेज देती...और दीदी को आवाज़ लगाती "शिवानी!  आज सारा काम गुड़िया से ही करवाना "

उसका अच्छा भला नाम था स्नेहा, पर सब गुड़िया ही कहते...जब दोस्त उसे चिढाते तो उसे बहुत गुस्सा आता पर घर वालों को कौन समझाये...कॉलेज  में पढनेवाली लड़की को भी गुड़िया ही बुलाते. वो किचन में जाती तो जरूर पर दरवाजे की ओट में नॉवेल  पढ़ती रहती और दीदी भी मुस्कुरा कर कुछ नहीं कहती...बल्कि माँ की आहट सुनते  ही उसे आगाह कर देती और वो झूठ-मूठ बर्तन उठाने-रखने लगती. माँ को कुछ दाल में काला नज़र आता ,वो उसे अविश्वास से देखती तो वो पलट कर पूछती.."क्या हुआ.....तुमने कहा ना...किचन में काम करो..तो कर रही  हूँ....कल  क्लास टेस्ट है...इतना पढना है पर जाने दो, कम नंबर आए तो क्या....किचन का काम सीखना ज्यादा जरूरी है...आखिर खानदान की नाक का सवाल है "

माँ कहती.."अच्छा बाबा जा....बहुत काम कर लिया...जा तू पढ़ ,मैं शिवानी का हाथ बटाती हूँ "

वो चुपके से  नॉवेल उठा...दीदी की तरफ  एक मुस्कराहट फेंक भाग जाती .

दीदी की शादी हो गयी तो जैसे उसपर प्यार न्योछावर करनेवाले एक और जन की बढ़ोत्तरी  हो गयी. जीजाजी  की कोई छोटी बहन नहीं थी...वे अपनी छोटी बहन का सारा शौक उसके जरिये ही पूरी करते. अब कॉलेज में सहेलियाँ, उसका नया बैग....नई सैंडल....नई ड्रेस सब हैरानी से देखतीं और वो इतरा  कर कहती.."मेरे जीजाजी  लाए हैं...बम्बई  से  "

***

अभी बी.ए. पास किया कि बुआ एक रिश्ता ले आयीं...."बड़े अच्छे  लोग हैं...लड़का अफसर है....ज्यादा मांग नहीं उनकी...बस देखे-भाले  घर की लड़की चाहते हैं...मुझसे बरसों का परिचय है. मैने गुड़िया की बात चलाई तो झट मान गए "

पिता जी को लगता था...अभी बहुत छोटी है...भैया उसे और आगे पढ़ने देने और किसी नौकरी के बाद ही, शादी के पक्ष में था...पर बुआ, पिताजी से बड़ी थीं...माँ की तरह पाला था...पिताजी की एक ना चली ,उनके सामने .
दीदी की तो शादी होते ही जैसे यह घर पराया हो गया था...यहाँ के मामलो में वह मुहँ नहीं खोलती...उसने जब थोड़ा डरते हुए  हुए दीदी को फोन किया

"दीदी वहाँ,  सबसे बड़ी हो जाउंगी मैं...कैसे सम्भालूंगी...??"

"संभालना क्या है...कोई छोटे बच्चे थोड़े ही हैं वे सब....अच्छा साथ रहेगा....खुश रहेगी तू...यहाँ पर  देख तेरे जीजाजी  ऑफिस चले जाते हैं..तो सारा दिन मैं अकेले पड़ी रहती हूँ...ज्वाइंट   फॅमिली में समय अच्छा कट जाता है "

दीदी के समझाने पर उसके मन का डर भी जाता रहा. कहीं ये भी लग रहा था...क्या रौब होगी..बड़ी भाभी बनेगी वह ..यहाँ तो सबसे छोटा समझ सब बस लाड़-प्यार ही लुटाते हैं...कोई गंभीरता से लेता ही नहीं.  
 पर ससुराल वालों की गंभीरता का अंदाजा उसे एंगेजमेंट से ही होने लगा. पास में बैठे अजनबी ने जैसे बस एक उचटती नज़र डाली उस पर. वरना कई कजिन्स को देख चुकी थी...लड़के जैसे बात करने के बहाने ही ढूंढते रहते.

शादी के रस्मो में भी होने वाले पति को गंभीर मुखमुद्रा में ही देखा. सहेलियों को ज्यादा मजाक करने की हिम्मत भी नहीं  हुई.

माँ ने समझाया था...ससुराल में जल्दी से उठ कर चाय बना देना....यहाँ की तरह आठ बजे तक मत सोती रहना. उसे भी दिखाना था...वह अपने घर की छोटी-लाडली है तो क्या जिम्मेवारियाँ संभालना  खूब आता है,उसे. सुबह ही उठ, नहा-धो किचन में पहुँच गयी. चाय बना कर ट्रे लेकर निकल  ही रही थी कि सासू माँ ने टोक दिया..."बहू पल्ला रखो सर पर "

अब थोड़ी देर वो इसी में उलझी रही..पल्लू  रख जैसे ही  ट्रे थामे, पल्लू  गिर जाए. फिर से पल्लू संभाले...सासू माँ गौर से ये सब देखती रहीं पर कहा नहीं कि 'रहने दो'...आखिरकार उसने पल्लू ठुड्डी से दबाया और किसी तरह, आगे बढ़ी तो लगे कि साड़ी अभी पाँव में उलझ जायेगी और वो गिर जाएगी...किसी तरह मैनेज किया. ससुर जी के सामने ट्रे रखी...सोचा ससुर जी खुश हो जाएंगे...और दो घड़ी पास बैठा बातें करेंगे ...पर उन्होंने अखबार हटा कर एक बार देखा और फिर अखबार में नज़रें गड़ा लीं....जब उसने बड़ी नम्रता से पूछा, "चीनी कितनी चम्मच?"सपाट स्वर में उत्तर मिला.."एक चम्मच "

वह निराश सी बाहर चली आई. फिर भी, कोशिश नहीं छोड़ी....खाने के समय पास खड़ी रहती..पूछती रहती ..."और सब्जी दूँ...रायता दूँ..".कोई ना कोई बात शुरू कर देती..आज गर्मी बहुत है...आपको ऑफिस से आते वक्त ज्यादा ट्रैफिक तो नहीं मिला....एक दिन ससुर जी ने रूखे स्वर में कह दिया..."जो चाहिए कह दूंगा...प्लीज़ डोंट डिस्टर्ब..."शायद ससुर जी को अपने रूटीन में बदलाव पसंद ना था. वे घर में किसी से भी बहुत कम बातें किया करते  थे.

ससुर जी की ही आदत उनके बड़े बेटे को भी थी....घर में सिर्फ खाने-कपड़े से ही मतलब था....दोनों बाप-बेटे टी.वी. पर समाचार देखते और जैसे ही सासू जी के सीरियल देखने  का वक्त होता....दोनों उठकर अपने-अपने कमरे में चले जाते. वह असमंजस में पड़ जाती..पति के साथ,कमरे में बैठे  या सासू माँ के साथ सीरियल देखे. पति तो अपने लैप टॉप पर दफ्तर का कोई काम लिए बैठे होते...वह कमरे...ड्राइंग  रूम और किचन का चक्कर लगाती रहती.

शादी से पहले ,इतनी खुश थी....हमउम्र देवर और ननदें हैं...बढ़िया वक्त कटेगा....उसने सोचा ननद की कोई बहन नहीं वो सार प्यार उंडेल देगी...पर ननद कॉलेज से सीधी अपने कमरे में जाती और सेल फोन से चिपक जाती. एकाध बार उसने जबदस्ती कमरे में जा बात करने की कोशिश भी की ..तो ननद ने बड़े अनमने भाव से उत्तर दिया....और वो पलट कर दरवाजे तक भी नहीं पहुंची थी कि  ननद पीठ फेरे...किसी को फोन पे कह रही थी..."अरे भाभी थीं...कॉलेज से आओ नहीं कि बहाने से आ जाती हैं कमरे में....इत्मीनान से फोन पे बात भी ना कर सको..."

उसने ननद से दोस्ती बढाने की कोशिश छोड़ ही दी...उसे लगा था, देवर हमेशा भाभियों के प्यारे होते हैं...एक दिन देवर अपने दोस्त के साथ सिनेमा देखने गए थे. सास और पति के मना करने के बावजूद वो उसका इंतज़ार करती रही...ड्राइंग रूम में चैनल बदल कर समय काटती रही...देवर ने अपनी चाबी से दरवाज़ा खोला...और उसे ड्राइंगरूम में देख एक मिनट के लिए हेडफोन निकाला और पूछा..."अरे भाभी नींद नहीं आ रही आपको...या भैया से लड़ाई हो गयी...हाँ "और फिर से हेडफोन कान में लगाए गाने पर झूमता सर हिलाता अपने कमरे में चला गया.

उसने ही  कमरे के दरवाजे पर जाकर पूछा, "खाना गरम करती हूँ....जल्दी से हाथ मुहँ धोकर आ जाइए..."
"ओह! क्या भाभी....आप कितनी ओल्ड फैशंड हैं....मुझे खाना होगा...तो माइक्रोवेव में गरम कर लूँगा..वैसे अक्सर मैं खाना खा कर ही आता हूँ...गुड़ नाईट भाभी एंड  थैंक्स फॉर आस्किंग .."..कह कर वापस हेडफोन लगा...झूमना शुरू कर दिया.

इस घर का  रंग-ढंग अलग सा था...सब एक छत के नीचे रहते थे...पर सबकी दुनिया अलग थी...वो सबकी दुनिया में कदम रखने  की कोशिश करती...पर दरवाज़ा बंद पाती...और फिर बंद दरवाजे से टकरा बार-बार उसका मन लहु-लुहान हो जाता.

पति को घूमने -फिरने का शौक  नहीं था...उनका देखा-जाना अपना शहर था...कोई उत्साह नहीं रहता ,कहीं जाने का. शुरू-शुरू में वो ही जिद कर बाहर जाने पर मजबूर करती. पति बड़े बेमन से, गंभीर चेहरा  बनाए साथ हो लेते ....पर हर जगह कोई ना कोई परिचित मिल जाता और फिर तो पति की मुखमुद्रा बिलकुल बदल  जाती..इतने गर्मजोशी से मिलते और बातों का वो सिलसिला शुरू होता कि उसकी उपस्थिति ही भूल  जाते. धीरे-धीरे बाहर घूमने जाने का उसका सारा उत्साह ठंढा पड़ गया.

बस एक सहारा दीदी और सहेलियों के फोन का रहता..फोन पर बात करते वो अपने आस-पास का  पूरा परिवेश भूल, जाती..लगता वही कॉलेज का लॉन है या फिर घर की छत. ऐसे ही एक दिन देर तक बातें की थी दीदी से...दीदी ने उन्हें बम्बई बुलाया था और पतिदेव ने भी हामी भर दी थी...मन इतना खुश-खुश था...बाथरूम में देर तक गुनगुनाते हुए नहाती रही....बाहर निकली तब भी गीले बालों को झटकते गाना जारी रहा....कुछ  देर बाद जब लम्बे बाल पीछे की तरफ फेंक सामने देखा तो दरवाजे पर खड़े पति गौर से देख रहे थे. एक सल्लज मुस्कान फ़ैल गयी उसके चहरे पर...ये ध्यान भी आया, यहाँ  आकर तो वह गाना ही भूल गयी है...पति ने पहली बार उसका गाना सुना है...शायद अभी आकर बाहों में भर लेंगे और कहेंगे, "कितनी मीठी आवाज़ है तुम्हारी...हरदम क्यूँ नहीं गाती?" .इंतज़ार में जैसे साँसे भी रुक गयी थीं...पर कोई आहट नहीं हुई..नज़रें उठा कर देखा तो पति अखबार उठा कुर्सी की तरफ जा रहे थे...उसे अपनी तरफ देखता पाकर बोले..."इतनी जोर से गा रही हो...बगल के कमरे में ही माँ- पापा हैं ...कुछ तो सोचा करो..."और अखबार फैला लिया सामने. मन तो हुआ, वो भी पैर पटकती हुई  बाहर चली जाए. पर फिर सोचा..आज इतवार है और दिन बस शुरू ही हुआ है..सारा दिन अबोला रह जाएगा. किसी तरह आँसू ज़ज्ब करते हुए , स्वर को सामान्य बनाते हुए , पूछा..."दीदी ने बुलाया है....आपने भी हाँ कहा..कब चलेंगे ?"

"छुट्टी कहाँ है??...इतना काम है दफ्तर में...कैसे जा सकता हूँ??...अब वो , हाँ तो कहना ही पड़ता है...बाद में कोई बहाना  बना देंगे "और कहते अखबार में डूब गए.

वो जैसे आसमान से गिरी....कितनी खुश थी  वह... कितनी ही योजनायें बना डालीं . अब अपने आँसू रोकना मुश्किल हो गया. किचन में जाकर ढेर सारे प्याज काट डाले. सास ने आश्चर्य से पूछा..."इतने सारे प्याज??"
ऑंखें नाक पोंछते हुए इतना ही कहा..."हाँ, आज सोचा आलू दोप्याज़ा बना दूँ  "

***
 उसने तय कर लिया, अगर घर वालों  की अपनी दुनिया है तो वो भी अपनी अलग दुनिया बसा लेगी और खुश रहेगी,उसमे. और खाली वक्त में अखबारों के कॉलम देखने  लगी..या तो नौकरी करेगी या फिर कोई बढ़िया सा कोर्स. अभी यह तलाश जारी ही थी  कि माँ बनने की खुशखबरी मिली. लगा  अब घर का माहौल बदल  जाएगा.
नन्हे बेटे की किलकारी ने घर में रौनक तो ला दी. पर उसकी दिनचर्या में ज्यादा बदलाव  नहीं आया , बल्कि  नई जिम्मेवारियाँ और शुमार हो गयीं. बेटे को तो सब खूब खिलाते...सार दिन घर का कोई ना कोई सदस्य गोद में उठाये फिरता. पर काम सारा उसके जिम्मे था..."स्नेहा जरा,इसके कपड़े बदल  दो "  दूध  का टाइम  हो गया है..दूध पिला दो."..."लगता  है नींद आ रही है..सुला दो.."वो नींद में ही उसके पास आता. कभी-कभी उसे लगने लगता कहीं बड़ा होकर ये ना सोचे माँ सिर्फ काम के लिए ही होती है..और बाकी सबलोग साथ खेलने को.

मितभाषी पति भी बेटे के साथ खूब खेलते....एक दिन प्रैम  खरीद कर ले आए ,वो  बहुत खुश हुई...अब
प्रैममें बेटे को लिटा..दोनों पति-पत्नी पार्क में उसे घुमाने के लिए ले जाया करेंगे. लेकिन दूसरे दिन  ही पति ने ऑफिस से आते ही जल्दी से कपड़े बदले...और बोले...'इसे तैयार कर दो..जरा मैं घुमा कर ले  आता हूँ "
 

वो मन मसोस कर रह गयी. 'हाँ..उसे तो किचन देखना है...वो कैसे जा  सकती है??' 

***
जब देवर की भी शादी तय हो गयी तो सबसे ज्यादा ख़ुशी उसे ही हुई ...एक सहेली मिल जाएगी उसे...वो भी तो दूसरे घर से आएगी...यहाँ के तौर-तरीके से अनभिग्य . तय कर लिया ,उसे वो कभी अकेलापन  नहीं महसूस होने देगी.

पर उसने पाया ...देवरानी ने तो कोई कोशिश ही नहीं की इस घर में घुलने-मिलने की. पहले दिन ही
इतनी देर तक सोती रही कि सासू जी को ननद को भेजना पड़ा,उसे जगाने . और जब उसे नहा धोकर नाश्ते के लिए बाहर आने के लिए कहा गया तो कह दिया..."अभी तो तैयार होने में बहुत समय लगेगा...दोनों जन का नाश्ता कमरे में ही भिजवा दी जाए."ननद पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गयी...."मेरे हाथों भेजने की सोचना भी मत "

सासू जी ने असहाय हो  उसकी तरफ देखा तो वो भाग कर कामवाली को बुला लाई...शुक्र है, उसने उसे अतिरिक्त पैसे का वायदा कर दिन भर  के लिए रोक लिया था......वरना उसे ही सेवा में हाज़िर होना पड़ता.
देवरानी ने बाद में भी कभी जल्दी उठने की कोशिश नहीं की..बल्कि उसे ही कहती.."आप कैसे इतनी जल्दी उठ जाती हैं....मेरी तो आँख ही नहीं खुलती"क्या बताये वो...'मायके में वो भी देर तक सोया करती थी."

देवर के ऑफिस जाने के बाद ही वो नहा धोकर बाहर आती....सासू माँ को कुछ टोकने का मौका ही नहीं मिलता और तब तक किचन का सारा काम सिमट गया होता. थोड़ी देर इधर-उधर घूम फिर अपने कमरे मे चली जाती. अपने कपड़े -जेवर -चूड़ियाँ सम्हालती  रहती. कमरे को सजाती रहती. सास-ननदें भी तारीफ़  करतीं. 'कितने सुंदर ढंग से सजा कर अपना कमरा रखती है'
वो इशारा समझ जाती...पर कह  नहीं पाती कि 'मैं तो सारा घर ही संभालती रहती थी...अपने कमरे की बारी ही नहीं आती '

देवरानी दिन में सो जाती और सोकर उठते ही तैयार होना शुरू कर देती. देवर ऑफिस से आ बमुश्किल चाय पीते और पत्नीश्री को लेकर घूमने निकल  जाते. सास भी स्नेह से निहारते हुए कहतीं, "एकदम राम-सीता सी जोड़ी है...दोनों के ही एक से शौक, निलय घूमने-फिरने का शौक़ीन....बहू भी वैसी ही मिली है....निशांत तो  अपना भोले राम है...उसे कभी भी घूमने -फिरने का शौक नहीं रहा "

उनके शौक ना होने की  वजह से वो कितना घुटती रही...इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता.

देवरानी किसी दिन घूमने नहीं जाती और किचन में आ कभी सब्जी बना देती तो पूरे घर में शोर हो जाता...खाने की टेबल पर सासू जी इंगित करतीं.."आज तो सब्जी ,छोटी बहू ने बनाई है...."और हमेशा मौन रहकर खाना खाने वाले ससुर जी...भी बोल पड़ते, "अच्छाss थोड़ी और दो...बहुत बढ़िया बनी है..."पतिदेव को लगता ,उन्हें भी हाँ में हाँ मिलानी चाहिए...वे भी स्वाद लेते हुए बोलते..."सचमुच बहुत बढ़िया बनी है..."देवर इस प्रशंसा पर ऐसे फूलते, जैसे उनकी ही तारीफ़ हो रही हो.

***

आज वो बेटे को थपकते-थपकते  खुद भी लेट गयी थी...पर नींद आँखों से कोसों दूर थी...शारीरिक थकान से ज्यादा मानसिक  थकान थी, शायद. वह अपने  दिन याद कर रही थी,जब नई-नई इस घर में आई थी...सबके आस-पास मंडराती रहती पर कोई नोटिस भी नहीं लेता बल्कि अक्सर उपेक्षा ही झेलनी पड़ती और आज यही देवरानी....अपने कमरे में ही बनी रहती है...तो पति -ससुर सब पूछ लेते हैं....'अंकिता नहीं दिख रही...उसकी तबियत तो ठीक है...?"

उस से तो किसी ने नहीं पूछा, कभी...पर उसने कभी मौका ही नहीं दिया...बुखार में भी गोलियाँ ले कर काम में लगी रहती. क्या ये ठीक किया ??
मायके में किसी ने  उसे कभी सामने बिठा कर नहीं समझाया पर उम्र की सीढियां पार करते हुए, कहानियों में, धर्मग्रंथों में पढ़कर.....फिल्मो में देखकर..अपनी दादी-नानी-बुआ-मौसी-माँ को देखकर यह  अहसास अपने आप मन में घर करता गया कि लड़की को त्याग करना चाहिए...अपनी इच्छा के ऊपर दूसरों की इच्छा सर्वोपरि  रखनी चाहिए...सबको खुश रखना चाहिए...सारा दुख हँसते-हँसते सह जाना चाहिए....ससुराल के नियम-कायदे बिना ना-नुकुर के अपना लेने चाहिए.  और उसने इन सबमे कुछ ज्यादा ही  बहादुरी दिखाई...खुद आगे बढ़कर सारे काम अपने ऊपर ले लिए...और अब दो साल  में तो ससुर जी की दवाई....सासू जी की धूप -अगरबत्ती...ननद का डियो...देवर की जींस...पति की तो कोई भी  चीज़ अगर ना मिले तो सब एक ही पुकार लगाते हैं....और वो भी दौड़-दौड़ कर सबकी जरूरतें पूरी करती रहती है.

 पर इन सबमे उसकी स्थिति उस अदृश्य  हवा की तरह हो गयी ...जिसके बिना कोई जी नहीं सकता...सबको उसकी जरूरत है. पर हवा  दिखाई नहीं देती... हवा के लिए कुछ करने की जरूरत नहीं महसूस होती.....उसका ख्याल रखने की जरूरत नहीं पड़ती...ना ही उसकी अहमियत समझ में आती है. क्यूंकि वो तो हमेशा अपने आस-पास बनी हुई है.

खुद को  मिटा कर वह इस घर में इस तरह घुल-मिल गयी है कि उसका कोई अस्तित्व ही नहीं बचा....आज जब अंकिता अलग-थलग बनी हुई है तो सब उसका अस्तित्व महसूस तो कर रहे हैं. क्या जग की यही रीत है??...सामने झुके लोगों की ही उपेक्षा की जाती है. और अगर  कोई आपकी ही उपेक्षा करने लगे तब जाकर उसका अस्तित्व महसूस होता है.

अचानक घड़ी पर जो नज़र गयी तो देखा पांच बज गए हैं...एकदम से हडबडा कर उठ बैठी....अभी तो पानी आनेवाला होगा...सब जगह उसे पानी स्टोर करना है. घर में आते ही उसने ये काम सासू जी से अपने हाथों में ले लिया था. दौड़-दौड़ कर किचन बाथरूम...सब जगह पानी भरती और ये जिम्मेवारी उस पर आ पड़ी. ननद और सासू दोनों अपने अपने कमरे में आराम करती रहतीं और पानी आने के समय का ख्याल उसे ही रखना  पड़ता. सोचती..चलो,सासू जी ने तो इतने वर्षों तक ये सब किया है..ननद तो छोटी है...कॉलेज से थकी हुई आई है...ये सब उसे ही करना चाहिए.

पर अब तो घर में देवरानी भी है . वो भी कर सकती है...और वो दुबारा लेट गयी...जाने दो आज देखती है....कोई और उठता  है या नहीं,पानी भरने...अगर कोई पानी नहीं भरता तो होने दो थोड़ी मुश्किल...कह देगी, उसकी आँख लग गयी....आखिर वो भी इंसान ही है...कोई मशीन नहीं.

और फिर 'आहान'को तैयार कर पति के आने से पहले ही पार्क में ले जायेगी...कह देगी...रो रहा था...बहलाने को ले गयी...जब पति को नहीं महसूस होता कि ऑफिस से आकर कुछ समय पत्नी के साथ बिताएं तो वो ही क्यूँ पानी का ग्लास और चाय का कप  पकडाने को इंतज़ार करती रहे. खुद से लेकर पानी पी सकते हैं. बहन, माँ, अंकिता...कोई भी चाय बना कर दे सकती  है. चाहें तो बाद में पार्क में आ सकते हैं. और ना तो ना सही....अब उसे थोड़ा समय खुद के लिए भी निकालना  ही होगा...वरना उसका वजूद ही मिटता जा रहा है ....वो सिर्फ किसी की बेटी-बहू-माँ बन कर ही रह जायेगी.

यह फैसला करते ही एकदम हल्का हो आया मन और सालों बाद भुला हुआ सा पसंदीदा गीत होठों पर आ गया...गुनगुना उठी...
 

अजीब दास्ताँ है ये...कहाँ शुरू कहाँ ख़तम
ये मंजिलें हैं कौन सी...ना वो समझ सके...ना हम

हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी...

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उसकी दुकान नाव्या  के कॉलेज के रास्ते में थी. एक दिन, वो  केमिस्ट्री प्रैक्टिकल की किताब लेने पहुंची तो पाया ,अरे!! ये तो हुबहू उसके एक पसंदीदा कलाकार सा दिखता  है. पर उसके विपरीत बेहद संजीदा. एक पुस्तक पर झुका था. नाव्या को देख भी उस शख्स का चेहरा निर्विकार सा ही रहा. अपने सहायक को पुस्तक निकालने के लिए कहकर, पुनः अपनी किताब पर झुक गया. नज़रें झुकाए-झुकाए ही पैसे लिए और बाकी पैसे काउंटर पर रख दिए. उसे कहीं झटका सा लगा. इस छोटे से शहर में उसकी 'होंडा सीटी' ही बहुत रुतबा जमा जाती थी और उस पर उसकी खूबसूरती की कोई अवहेलना कर सकता था,भला. इसके बाद भी जतन से संवारा गया सुरुचिपूर्ण रूप किसी की भी आँखों को झपकने में कुछ समय लगा ही देता था. प्रोफेसर्स तक एटेंडस लेते वक़्त एक नज़र उस पर जरूर डाल लेते. उसे भी उन सबकी इस आदत की खूब खबर थी...और वो 'येस सर'बोलते ही अदा से सर घुमा...खिड़की के बाहर देखने लगती या फिर झुक कर किसी सहेली से बातें करने लगती. किसी भी दुकान पर उसकी कार रुकती और दुकान वालों में हड़बोंग मच जाती...."ये देखिए मैडम बिलकुल आज ही आया है....आपके लिए ही रख  छोड़ा था...किसी को दिखाया तक नहीं...बस आपके लिए  ही है"

और ये मिटटी का माधो!!....निगाहें चुरा कर देखा..कौन सी किताब है ऐसी भला...जिसने उसकी निगाहें इस तरह चस्पां कर रखी हैं. जरूर कोई जासूसी नॉवेल होगा ...लेकिन पाया कि वो  तो बिजनेस मैनेजमेंट की कोई बोरिंग सी किताब थी. तो फिर??...वो चौंकी..हुहँ तो ये बात  है...उसे नज़रंदाज़ कर रहा है....ठीक है..देखती है वो भी...और हर चार दिन बाद उसके रैक में कोई नई किताब नज़र आने लगती ... एक सहूलियत यह भी थी कि उसकी  दुकान में कोर्स बुक से अलग, दूसरी किताबें भी थीं. वैसे जब उसे कुछ  नहीं सूझता तो डिक्शनरी ही खरीद कर ले आती. अब उसके जेब खर्च का बड़ा हिस्सा किताबों पर ही खर्च होने लगा...पर वो चिकना घड़ा...चिकना घड़ा ही बना रहा. वही किताबों पर झुकी, काली घुंघराली लम्बी पलकें...(सोचती किसी लड़की की ऐसी पलकें होतीं  तो ना जाने कितने गीत लिख दिए होते किसी ने, उस पर ....और कितना समय लगाती वो उन्हें काजल की रेखाओं से संवारने में ) और ख़ुदा ना खास्ते कभी उसके हाथों में किताब नहीं होती तो सामने सड़क पर देखते हुए...गंभीरता से जबाब देता. वो जरा रौब से बोलती..."ये किताब नहीं है..?"

"नहीं..."...एक सपाट सा स्वर आता.

इधर उधर नज़रें घुमा खीझ भरे स्वर में बोलती..."अजीब बात है.....इतनी सारी किताबें हैं...पर जो मैं ढूंढ रही हूँ...वो नहीं है..."

उसकी इन बातों पर भी वह कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करता. जैसे उसका कोई सरोकार नहीं है,इन सबसे. भावहीन चेहरा लिए सामने देखता रहता. अपमानित सी ..बात संभालने को वो किसी और किताब का नाम पूछ बैठती....यदि वो किताब होती,..तो अपने सहायक को आवाज़ दे ,निकालने को कहता...या फिर वैसे ही सामने नज़रें जमाये कहता.,.."नहीं है"

कभी कभी दिनों तक नहीं जाती. सोचती...'देखती हूँ..इतने दिनों बाद जाने पर कोई भाव तो उसके चेहरे पर दिखने चाहिए. उल्लासित सी सीढियों पर अपनी पेन्सिल हील जोरों से खटखटाती .....चौंक कर देखेगा..तो आँखों में अनायास आए भाव जरूर पकड़ में आ जायेंगे. आहट सुन,चौंकता तो जरूर पर आँखें उसी गहरी उदासी में डूबी हुई सी लगतीं. ..जैसे इस दुनिया का वासी नहीं है,वह...उसे कोई सरोकार नहीं,अपने आस-पास से...सब कुछ एक असम्पृक्त भाव से देखता हुआ. लेकिन वह भी हार नहीं मानने वाली...उसे इस दुनिया में वापस लौटने को मजबूर करके रहेगी....हालांकि अब बुरी तरह ऊब चुकी थी वो..हर हफ्ते एक नई किताब लाती और जोर से पलंग पर पटक देती....मानो इन किताबों का ही कुसूर हो...इतने दिन उसके आस-पास रहकर भी उसे कुछ नहीं सिखा सके. मन ही मन खीझ उठती...'सोचता होगा...देखें कबतक आती है?....देखते रहो बच्चू .. चाहूँ..तो तुम्हारी सारी दुकान खरीद लूँ...समझते क्या हो...शाहर के सबसे अमीर लोगों में से एक हैं. डैडी....'

लेकिन ये अमीरी ही तो अभिशाप है उसके लिए...डैडी से तो खैर उनके व्यस्त समय का एक टुकड़ा पाने की चाह भी आकाशकुसुम सी है..पर माँ!!...अगर डैडी को दोनों हाथों से धन बटोरने का शौक था तो माँ को लुटाने का. जाने कितनी ही सामाजिक संस्थाओं की सदस्या  या अध्यक्षा  थीं माँ....हमेशा कोई ना कोई कार्यक्रम चलता रहता...आज नेत्र चिकित्सा का शिविर लगा है...तो कल बालिकाओं की शिक्षा  सम्बन्धी...,माँ बढ़-चढ़ कर सबमे हिस्सा लेतीं...उसे कहीं अच्छा भी लगता...'माँ..सिर्फ साड़ियों-जेवरों और पार्टियों में ना उलझ कर अपने समय का सार्थक उपयोग कर रही हैं.'पर उसके हिस्से का समय भी इन सब कार्यक्रमों की भेंट चढ़ जाता ....ये कसक उसके मन में बनी रहती. 

वह माता-पिता के बीच पेंडुलम सी डोलती रहती. डैडी के सामने कभी पड़ जाती तो डैडी पूछ बैठते..."कुछ चाहिए बेटे...पैसे हैं?? मैं...( कलकता,दिल्ली,बैंगलोर ) जा रहा हूँ...कुछ मंगवाना है वहाँ से.."

"नहीं डैडी...कुछ नहीं चाहिए..."वो मीठी सी मुस्कराहट के साथ कह देती...पर  मन तिक्त हो जाता....ये नहीं कह पाती...'डैडी थोड़ा सा आपका समय चाहिए...आपके साथ अखबार की ख़बरें डिस्कस करनी है....कॉमेडी शो देखकर हँसना है....साथ में बगीचे में पानी देना है...सुबह की भीगी घास पर टहलते  हुए..या छत पर ठंडी हवा के झोंको के साथ....आपसे, आपके स्कूल-कॉलेज..आपके बचपन...के किस्से सुनने हैं.."और ये सब सोचते रोष उमड़ आता...डैडी बस सोचते हैं..'रुपये दे दिया...उनकी जिम्मेवारी ख़तम....जी में आता जितने भी पैसे हैं पास में...दे मारे फर्श पर...क्या करेगी वो रुपयों का...बड़े शहर में होती तो शायद इनके सहारे ही कुछ झूठी हंसी-मुस्कुराहटें ही खरीदने की कोशिश करती...कितना कहा..'हॉस्टल में रहकर पढूंगी'..लेकिन नहीं..इकलौती लाडली बेटी को कैसे दूर रखेंगे भला...दूर??..क्या दूरी सिर्फ मीलों ..किलोमीटर में ही नापी जाती हैं....हज़ारों किलोमीटर दूर विदेश में बसे उसके दोस्त जितना करीब हैं उसके...एक ही छत के नीचे रहते ये परम स्नेहिल माता-पिता हैं??
माँ ...बगल के कमरे से जिनकी साँसें भी सुन सकती हैं...वो माँ ही कितने करीब हैं उसके? अनाथाश्रम में  कितनी ही बिन माँ की बच्चियों के हर सुख-दुख का ख्याल रखती हैं...पर उनकी अपनी बेटी किस अकेलेपन से जूझती है..इसका ख्याल कभी आता है,उनके मन में? .......महीनो....जो घंटों-दिनों-हफ़्तों की शक्लों में खींचते चले जाते हैं...जब भी नज़र पड़े...माँ का एक ही सवाल होता....."खाना खाया"...चाहे दिन के तीन बज रहे हों या  रात के ग्यारह...और वो मारे गुस्से के दो-दो दिन सिर्फ कड़वी कॉफी पर काट देती.
कभी-कभी बड़ी विह्वलता से सोचती...काश! उसके भी कोई भाई-बहन होता तो शायद इस घर में रहना उसके लिए आसान हो जाता. पर फिर सोचती...कितनी स्वार्थी है वह...उस बेचारे को भी तो यही सब भुगतना पड़ता.

कोई सच्ची दोस्त भी तो नहीं बनती उसकी.....कहने को तो ढेरों सहेलियाँ उसे घेरे रहती हैं...उसकी हर बात पे हंसी की लहरें मचल; पड़ती हैं. पर असलियत उसे पता है..सबके बीच उसकी सबसे अच्छी सहेली दिखाने की होड़ लगी होती है.. सब चापलूसी भरे स्वर में उसकी हाँ में हाँ मिलाती उसके आगे-पीछे घूमती रहती हैं. स्टेटस की बात छोड़ भी दें तो उसके मानसिक स्तर तक भी पहुंचन सबके लिए मुमकिन नहीं....अधिकांश लडकियाँ पढ़ाई को टाईमपास की तरह लेतीं....किसी ऊँचे ओहदे  पर कार्यरत लड़के को पाने के लिए एक डिग्री लेने की चाह में थी, उनकी  ये पढ़ाई. कुछ पढ़ाई में गंभीरता से रूचि लेने वाली थीं भीं तो वे बस किताबी कीड़ा ही थीं. उन्हें बाहर की दुनिया की कोई खबर नहीं होती . जबकि उसे दुनिया की हर गतिविधि में रूचि थी...और ऐसे में बड़ी शिद्दत से याद आती कृतिका...बस इंटर में ही उसका साथ था. दो साल के लिए उसके पिता का ट्रांसफर इसी शहर में हुआ था. कृतिका बिलकुल उस जैसी थी...किताबें पढना...गज़लें सुनना..फिल्मे देखना...और पढ़ाई भी करना...कृतिका के साथ ने ही उसे उसकी अपनी  हंसी से परिचय कराया...उसे पता ही नहीं था..इतना खुलकर हंस सकती है वो. 

उसकी निर्झर सी हंसी देख कृतिका....छेड़ जाती..."बस औरों के सामने ना हँसना यूँ...चारो तरफ से छन-छन की आवाजें आने लगेंगी.."

वो अबूझ सी भृकुटी चढ़ा पूछती ,तो कृतिका कह उठती...'दिलों के टूटने की आवाज़ स्टुपिड.."

'हह..दिल होते हैं आजकल  लोगो के पास...जो टूटें.."

"समय आने पर पता चलेगा..मैम..और तब पूछूंगी.."

कृतिका के साथ समय पंख लगा कर उड़ जाता..पर पता नहीं था...उन पंखों की गति इतनी तेज़ थी कि वो उनके साथ के समय को ही उड़ा कर ले जाएगा. कृतिका चली गयी....कुछ दिनों तक..फोन...इंटरनेट के सहारे दोस्ती बनी रही...पर समय के साथ कृतिका को नए दोस्त मिल गए....उसका उत्साह वैसा ही बना रहता..पर कृतिका की ओर से ठंढेपन का अहसास होता और सारे तार तोड़ लिए उसने...नहीं चाहिए किसी की हमदर्दी भरी दोस्ती....उसके पास अकेलापन है....लेकिन है तो है...वो जबरदस्ती तो किसी को बाँध कर नहीं रख सकती. वह बराबर जमीन पर ही मिलना चाहती है ,किसी से....ना चाहती है कि एक सीढ़ी भी नीची रहे...ना ही एक सीढ़ी ऊपर रहने की ही कोई ख्वाईश है. 

जाने क्यूँ ,आज बड़ी तीव्रता से  याद आ रहा था, सब कुछ....गले के नीचे कुछ चिपचिपाहट  सी लगी. सर उठा कर तकिये पर हाथ फेरा....ओह!! ना जाने कब से आँसू बह-बह कर तकिया गिला कर रहे थे.

झटके से उठी और सीधा शॉवर  के नीचे जाकर खड़ी हो गयी. देर तक ठंढे  पानी कि बौछारें पड़ती रहीं...तब दिमाग कुछ सोचने समझने लायक हुआ...ओह! तो अब घुटन इतनी बढ़ गयी है कि ये आँसू हमराह हो गए हैं,अब उसके. अब तक ..गाहे-बगाहे..ऐसे ख्याल आते तो रहे  हैं पर एक अनाम गुस्सा ही पलता रहता  भीतर. जी में आता...सब तोड़-फोड़ डाले...तहस नहस कर दे...वे किताबें...वो फूल दान...वो सी डी...पर इस तरह असहाय होकर कभी रोई तो नहीं. फिर आज क्यूँ...क्यूँ आखिर....कहीं उस किताबवाले की बेरुखी ने तो असर नहीं कर डाला...और सर झटक डाला,उसने...'नॉनसेंस..इट्स औल रब्बिश......ही कैन गो टू हेल...उसकी परवाह करेगी वो??..उस जैसे छोटे आदमी की??... उसे बहुत शान है क्या....कि सबसे बड़ी दुकान उसकी ही  है, इस शहर में.....और उस पर 'एच .पी. शाही'. जैसी नामी गिरामी हस्ती की बेटी यूँ दौड़ दौड़ कर आती है. हुंह! माइ फुट!..अब एक बार भी नहीं जायेगी...बहुत जरूरी हुआ तो किसी फ्रेंड के मार्फ़त मंगवा लेगी...ना हो..ड्राइवर से मंगवा लेगी, पर पैर नहीं रखेगी उसकी दुकान पर.

चैटर्जी सर ने ऑर्गेनिक केमिस्ट्री में टी. शर्मा की किताब लेने को कहा...उस दुकान के सामने पहुंचते ही...वो यंत्रवत ड्राइवर से  बोल उठी...."यहाँ रोकना जरा..." 
दरवाजे के हैंडल पर हाथ रखा ही था कि याद आया..."उसे तो नहीं जाना ना.."
हाथ हटा लिया..."ना ड्राइवर से ही मंगवा लेती है"

लेकिन ड्राइवर क्या जानने गया..."ऑर्गेनिक या फिजिकल केमिस्ट्री..कहीं उसे बेवकूफ बनाने को दूसरी पुस्तक पकड़ा दी तो?...गाड़ी तो पहचान ही गया होगा...और एक ही झटके से गाड़ी से उतर कर जोर से दरवाज़ा बंद कर दिया...."हुंह ! वो क्यूँ परवाह करे किसी की ..."

और खटाखट सीढियां चढ़, हाथ बांधे, चेहरे पर अतिव्यस्तता का मुखौटा लगाए, पूरी गंभीरता से बोली..."टी शर्मा की  ऑर्गेनिक केमिस्ट्री है क्या?"

वह किताबों के बीच कुछ ढूंढ रहा था....हलके से चौंक कर मुडा...पल-भर को निगाहें मिलीं....ओफ्फ़!! किस कदर उदास हैं ये आँखें....ये बस जन्म से ऐसी ही हैं...या इनके पीछे कोई कहानी छुपी हुई है. किसका सीना ना चाक कर दे ..उदासी के गह्वर में डूबी ये आँखें..चेहरे पर बच्चों सी मासूमियत...और आँखें ऐसीं जैसे ना जाने कितने वसंत देख चुकी हों ...और आज तक बस खोया ही खोया हो. उसकी तनी हुई नसें थोड़ी ढीली पड़ने लगीं कि ख्याल आया उसे तो नाराज़गी दिखानी है...फिर से अकड़ कर सीधी खड़ी हो गयी.

वह कुछ क्षणों तक होठों को तर्जनी से थपथपाता रहा, फिर बड़ी नम्रता से बोला...."आsssप एक मिनट ठहरें....मैं बगल से मंगवा दे रहा हूँ. "अरे ये क्या सचमुच टेलीपैथी का कोई अस्तित्व है?....इसे कैसे खबर हो गयी...उसके मूड की...आज तक तो कभी इतनी रियायत नज़र नहीं आई. 'नहीं'शब्द छोड़कर आज तक दूसरा सुना ही नहीं...और आज तो ये पूरा वाक्य बोल गया. अगर किताब होती तो उसे से नहीं..दुकान में काम करने वाले लड़कों से कहता....निकाल कर देने को...और नहीं होती तो सिर्फ एक 'सपाट'नहीं .
उसके चेहरे की  कठोरता कम पड़ने लगी लेकिन उसने जल्दी से फिर से वही सख्त भाव ओढ़ लिए और कड़क कर पूछा, "देर लगेगी?"

"नहीं..नहीं.."उसने फिर बड़ी नम्रता से सर हिलाकर कहा..जैसे किसी दूसरे जहां से बोल रहा हो..."बिलकुल पास ही है...रामेश्वर देखना तो चौधरी बुक डिपो में हो शायद....थी मेरे पास भी..पर ख़त्म हो गयी..."वैसे ही होठों को तर्जनी से थपथपाता अपनी जगह खड़ा रहा...ना तो उसने  कोई किताब उठायी ना ही खुद को कहीं और व्यस्त किया.

उसका सारा तनाव ढीला पड़ गया....हल्का सा दीवार का सहारा लिए पीठ टिका दी....हाथ...सामने कौर्निस पर रखा और तुरंत ही समेट लिए..क्या पता...सोचे अपने लम्बे-लम्बे पेंटेड नाखून दिखा रही है..."
(क्रमशः) 

हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी. ..(2)

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( नाव्या कॉलेज में पढनेवाली एक धनाढ्य पिता की पुत्री है....ख़ूबसूरत है....पढ़ने में अव्वल है....किन्तु अकेलापन उसका साथी है. सबकी प्रशंसात्मक नज़रों की आदी नाव्या को एक किताब के दुकानवाले की अपने प्रति उदासीनता सोच में डाल देती है) 


चैटर्जी सर ने ऑर्गेनिक केमिस्ट्री में टी. शर्मा की किताब लेने को कहा...उस दुकान के सामने पहुंचते ही...वो यंत्रवत ड्राइवर से  बोल उठी...."यहाँ रोकना जरा..." 
दरवाजे के हैंडल पर हाथ रखा ही था कि याद आया..."उसे तो नहीं जाना ना.."
हाथ हटा लिया..."ना ड्राइवर से ही मंगवा लेती है"

लेकिन ड्राइवर क्या जानने गया..."ऑर्गेनिक या फिजिकल केमिस्ट्री..कहीं उसे बेवकूफ बनाने को दूसरी पुस्तक पकड़ा दी तो?...गाड़ी तो पहचान ही गया होगा...और एक ही झटके से गाड़ी से उतर कर जोर से दरवाज़ा बंद कर दिया...."हुंह ! वो क्यूँ परवाह करे किसी की ..."

और खटाखट सीढियां चढ़, हाथ बांधे, चेहरे पर अतिव्यस्तता का मुखौटा लगाए, पूरी गंभीरता से बोली..."टी शर्मा की  ऑर्गेनिक केमिस्ट्री है क्या?"



वह किताबों के बीच कुछ ढूंढ रहा था....हलके से चौंक कर मुडा...पल-भर को निगाहें मिलीं....ओफ्फ़!! किस कदर उदास हैं ये आँखें....ये बस जन्म से ऐसी ही हैं...या इनके पीछे कोई कहानी छुपी हुई है. किसका सीना ना चाक कर दे ..उदासी के गह्वर में डूबी ये आँखें..चेहरे पर बच्चों सी मासूमियत...और आँखें ऐसीं जैसे ना जाने कितने वसंत देख चुकी हों ...और आज तक बस खोया ही खोया हो. उसकी तनी हुई नसें थोड़ी ढीली पड़ने लगीं कि ख्याल आया उसे तो नाराज़गी दिखानी है...फिर से अकड़ कर सीधी खड़ी हो गयी.


वह कुछ क्षणों तक होठों को तर्जनी से थपथपाता रहा, फिर बड़ी नम्रता से बोला...."आsssप एक मिनट ठहरें....मैं बगल से मंगवा दे रहा हूँ. "अरे ये क्या सचमुच टेलीपैथी का कोई अस्तित्व है?....इसे कैसे खबर हो गयी...उसके मूड की...आज तक तो कभी इतनी रियायत नज़र नहीं आई. 'नहीं'शब्द छोड़कर आज तक दूसरा सुना ही नहीं...और आज तो ये पूरा वाक्य बोल गया. अगर किताब होती तो उसे से नहीं..दुकान में काम करने वाले लड़कों से कहता....निकाल कर देने को...और नहीं होती तो सिर्फ एक 'सपाट'नहीं .
उसके चेहरे की  कठोरता कम पड़ने लगी लेकिन उसने जल्दी से फिर से वही सख्त भाव ओढ़ लिए और कड़क कर पूछा, "देर लगेगी?"

"नहीं..नहीं.."उसने फिर बड़ी नम्रता से सर हिलाकर कहा..जैसे किसी दूसरे जहां से बोल रहा हो..."बिलकुल पास ही है...रामेश्वर देखना तो चौधरी बुक डिपो में हो शायद....थी मेरे पास भी..पर ख़त्म हो गयी..."वैसे ही होठों को तर्जनी से थपथपाता अपनी जगह खड़ा रहा...ना तो उसने  कोई किताब उठायी ना ही खुद को कहीं और व्यस्त किया.

उसका सारा तनाव ढीला पड़ गया....हल्का सा दीवार का सहारा लिए पीठ टिका दी....हाथ...सामने कौर्निस पर रखा और तुरंत ही समेट लिए..क्या पता...सोचे अपने लम्बे-लम्बे पेंटेड नाखून दिखा रही है..."

वो वैसे ही दीवार से पीठ टिकाये....छत से घूमते पंखे को देखती रही...और वो सामने सड़क पर नज़रें जमाये खड़ा रहा...लगा,जैसे आस-पास के  सारे दृश्य पिघल कर रंग-बिरंगे लहरों में तब्दील हो उनके चारों तरफ चक्कर काट रहे हैं ..और दोनों ही अपने-अपने वृत्त में घिरे...ठिठके से खड़े हैं...उसके सहायक ने आकर जैसे उन लहरों को छू दिया और लहरें स्थिर हो गयीं...सबकुछ अपनी जगह वापस लौट आया...वे दोनों भी.

उसने बिना कुछ बोले ...झुक कर किताब उसकी तरफ बढाया और नाव्या ने  बिना कीमत पूछे...पांच सौ का नोट काउंटर पर रख दिया...उसने चेंज वापस काउंटर पर रखा और दराज़ में झुक कर कुछ ढूँढता रहा. नाव्या पैसे उठाकर गिनने लगी..तो उसने आँखें ऊपर उठाईं और बड़ी आश्चर्य भरी भरपूर निगाह  डाली, उसके चेहरे पर. 
आज तक कभी,लौटाए पैसे वह गिनती नहीं थी...आरक्त चेहरे से पैसे और किताबें समेट वह दौड़ती हुई सीढियां उतर गयी. लगा, पीछे उसकी आँखें हंस रही हैं.

रोज़ गाड़ी उसके दुकान के सामने से गुजरती...पर जैसे उसे अब जाने में संकोच सा होता....अब तक जिन नज़रों में  अपनी पहचान देखना चाहती थी...अब जैसे उन्ही नज़रों से आँखें चुराने लगी थी...फिर भी एक बार नज़र उसकी तरफ उठ  ही जाती...कभी, बस उसके घुंघराले बाल नज़र आते...कभी उसकी चौड़ी  पीठ तो कभी बस एक हाथ...जिसमे झूलते कड़े को देख,एक अव्यक्त चिढ से भर उठती...पता नहीं...सुसंस्कृत लोगों में भी ये चवन्नीछाप बनने की लालसा क्यूँ बनी रहती है...होगा फैशन..पर उसे नहीं पसंद...और जब उसे नहीं पसंद तो उसे पसंद आने वालों को उसकी पसंद का ख्याल तो रखना चाहिए....और जैसे  खुद की चोरी ही पकड़ लेती...उसकी पसंद??..फिर अपने ऐसे किसी ख़याल से बचने को  घबरा कर....किसी पत्रिका के पन्ने पलटने लगती. 

पर अब पत्रिकओं से भी दूरी बढानी थी...इम्तहान निकट आ रहे थे. अपनी फर्स्ट पोजीशन बरकरार रखने को मेहनत तो करनी ही पड़ती थी. कभी-कभी सोचती,अच्छा होता वो पढ़ने में बिलकुल फिसड्डी होती ,फिर शायद माँ या डैडी कुछ ध्यान देते. कितना अच्छा लगता, उसे ले चिंतित हो बातें करते उसके विषय में...माँ घर पर रहने की कोशिश करतीं...ताकि वो ध्यान से पढ़ाई करे. पापा अपने दोस्तों से उसके गिरते मार्क्स की चिंता करते...लेकिन क्या करे....अब जानबूझकर तो फेल नहीं हुआ जा सकता. कभी भूले-भटके कोई अंकल-आंटी, उसकी पढ़ाई के विषय में पूछ लेते तो माँ-डैडी दोनों एक स्वर में कहते..":अरे! हमें कभी फ़िक्र नहीं करनी पड़ी....बिटिया शुरू से ही तेज है,पढ़ने में...फर्स्ट आती रही है,हमेशा" 

इम्तहान के दिनों में वो सब कुछ भूल जाती...गीतों-ग़ज़लों-फिल्मो के सी डी धूल खाते रहते....किताबें उदास सी एक दूसरे से सिमटी शेल्फ में कैद रहतीं...और उसके कमरे में टेबल से लेकर बिस्तर...खिड़की ..जमीन हर जगह पन्ने ही पन्ने बिखरे होते. हाँ, कभी-कभी..उन पन्नों के बीच ही कोई आकृति उभर आती...तो कभी कोई आंसर याद करते वक्त , अचानक लगता किसी ने आश्चर्य से उसे देखा है...कभी याद  करके लिखे डेफिनिशंस को दुबारा पढ़ती तो कहीं कहीं लिखा हुआ पाती...'मिटटी का माधो"और एक गहरी मुस्कराहट छा जाती चेहरे पर....और किसी को ख्यालों में ही मुहँ चिढ़ा उठती..."हाँ! पत्थर बनेंगे...ये नहीं मालूम कि निर्मल झरना भी तो पत्थरों के बीच  से ही निकलता है."

पेपर आशानुकूल ही जा रहे थे...अंतिम पेपर देकर लौट रही थी...परीक्षा ख़त्म होने की ख़ुशी भी थी और मन कुछ उदास सा भी था.... क्या करेगी अब इन खाली-खाली लम्बे  दिन और रातों का. तभी एक छोटा सा बच्चा, सड़क पार करते  ट्रैफिक में बुरी तरह से घिर गया  और जो ड्राइवर ने उसे बचाने के लिए अचानक ब्रेक मारी तो पीछे से आती हुई कार बुरी तरह टकरा गयी उसकी कार से. उसे बस इतना याद रहा कि वो उछल सी पड़ी..और सर बड़ी जोर से दरवाजे से टकराया...फिर क्या हुआ उसे कुछ याद नहीं. थोड़ी देर बाद लगा किसी ने सर के नीचे हाथ लगा, उठाया है उसे....मुश्किल से तन्द्रिल आँखें खोलने की कोशिश की ....सब धुंधला सा नज़र आया.....पर ये गालों पर पानी सा क्या फिसल रहा है...आँसू....लाल-लाल आँसू...और फिर उसकी आँखें मुंद गयीं.

जब होश आया तो खुद को एक बिस्तर पर लेटा हुआ पाया...ऐसा लगा...बड़ी दूर कुछ लोग बातें कर रहे हैं...बड़ी हल्की सी आवाज़ आ रही थी. हाथ उठाना चाहा...लेकिन हाथों ने कहा मानने से इनकार कर दिया. आँखें खोलने की कोशिश की तो लगा मन- मन  भर के बोझ रखे हों पलकों पर. बड़े जोरों की  प्यास महसूस हुई. सर में भयंकर दर्द हो रहा था...पानी माँगने  की कोशिश की  पर गले से कोई स्वर नहीं निकला. सारी शक्ति लगाकर आँखें खोलीं..पर दूसरे ही पल फिर आँखें मुंद गयीं. लगा, जैसे कोई झुका है, उसपर. बालों पर सहलाहट सी महसूस हुई. धीरे-धीरे फिर से आँखें खोलने की कोशिश की.  पलकों की झिरी से देखा...जाना -पहचान चेहरा लग रहा था ....पर याद नहीं आ रहा. दिमाग पर जोर डाला लेकिन थक गयी. 

अचानक वे आँखें आयीं नज़रों की हद में और कुछ याद आया....आँखें...उदास आँखें...किसकी...मि... मि ...मिटटी के माधो की...और एकबारगी ही पलकें पूरी लम्बाई में खुल गयीं. हाँ, उसपर झुका चेहरा 'मिटटी के माधो'का ही था...लेकिन आज ना आँखें खोयी खोयी सी थीं और ना ही उदास...बल्कि बड़ी व्यग्रता झलक रही थी उनमे. चपल मछलियों सी पुतलियाँ ...उन झील सी आँखों में इधर से उधर तैर रही थीं.

उसे होश आया देख, कुछ ठहराव आया उनमे. एक तरलता झलकी और स्निधता फ़ैल गयी..चेहरे पर...हाथ उसके सर पर थे.."कैसा लग रहा है?"सुन तो नहीं पायी सोचती है..यही पूछा होगा. और एकदम से प्यास याद आ गयी. सूखे होठों पर जीभ फेर कर कर कहा...'.पाsssssss नी......पाssssssss नी 'पर शायद आवाज़ बहुत धीमी थी..उसे सुनाई नहीं दी.....वह सुनने को  झुका.. उसने फिर दुहराया.....'.पाsssssss नी.'पर वो सुन नहीं पाया...और अचानक ढेर सारे घुंघराले बाल छा गए उसके चेहरे पर.... उसके कान उसके होठों से मुश्किल से दो इंच की दूरी पर थे.  दूसरे ही क्षण वो तेजी उठ गया...'नर्स..नर्स...पानी.." 

"होश... आ गया? .."एक पतली सी पर तेज आवाज़ आई. और फिर तो कई अजनबी चेहरों ने उसे घेर लिया. उन चेहरों में नवीन अंकल भी थे और नवीन अंकल पर नज़र पड़ते ही डैडी याद आए और फिर माँ.... बंद पलकों पर मोटी-मोटी बूंदें उभर आयीं..'माँ..माँ...डैडी..कहाँ हैं आपलोग?...ये क्या हो गया...मैं यहाँ  कैसे पहुँच गयी...ये लोग कौन हैं...?"..'सवालों के झंझावात उसे झकझोरे जा रहे थे.

नवीन अंकल उसके सर पर हाथ फेर रहे थे.."आँखें खोलो बेटे...अब कैसा लग रहा है?'

"म्माँ...माँ....डैडी...बुला दीजिये उन्हें..."

"वे लोग आते ही होंगे..दोनों लोगो को खबर कर दी गयी है...आपके पापा जो भी पहली फ्लाईट मिलेगी...उस से आ रहे हैं...माँ, पास के गाँव में गयी हुई थीं... बस पहुँच ही रही होंगी....लीजिये पानी पी लीजिये.."एक गूंजती सी आवाज़ एक सांस में सब कह गयी....

आँखें खोल,आवाज़ के मालिक को देखने का यत्न किया तो उसके शर्ट का गहरा लाल रंग आँखों में चुभ गया. घबरा कर आँखें बंद कर लीं. 

"लीजिये... पानी पी लीजिये...."फिर वही आवाज़...हाथ भी उसी का होगा.

कराहती हुई...उसने सर हिला .."नईssssss.....माँ को बुला दीजिये..." 

"पी लो बेटे...माँ बस आ ही रही हैं...."नवीन अंकल का स्नेहिल स्वर उभरा.

उसने जिद से सर हिला दिया...'नईssss"

आँखें जरूर इधर-उधर भटकीं...पर सूनी ही रहीं...सर घुमा देखना चाहा . पर पट्टियों से बंधा सर हिला भी नहीं. रोष उभर आया उसे...ये मिटटी का माधो..सचमुच मिटटी का माधो ही है...ये अनजान लोग तीमारदारी में जुटे हैं और वो खुद किधर है? इन्हें ही कहा था उसने पानी पिलाने को??...पर इस से ज्यादा तनाव दिमाग बर्दाश्त नहीं कर पाया...निढाल सी पड़ गयी. गहरी क्लान्ति छा गयी...थकी पलकें मुंदने लगीं...ह्रदय अतल गहराइयों में डूबने लगा...और जब अंकल ने कहा..".मुहँ खोलो बेटे..."तो उसने ऑटोमेटीकली  मुहँ खोल दिए...इतने में ही इतना थक गयी थी....दो घूँट पानी पीते ही फिर से सो गयी. 
***
बहुत दिनों का भुला हुआ स्पर्श....सर पर गालों पर....हाथों पर महसूस हुआ...और उसने हडबडाकर आँखें खोल दीं..माँ उसपर झुकी हुई थीं...आँखें सुर्ख लाल लग रही थीं. उस से आँखें मिलते ही पलकों पर आँचल रख दूर हट गयीं. पर हाथों का स्पर्श वैसा ही बना रहा...तो ये हाथ किसके हैं...दूसरी तरफ नज़रें घुमाईं...तो पाया डैडी की डबडबाई  सी आँखें उस पर ही टिकी हैं....एक आवेग सा उमड़ा और वो बिलकुल पांच वर्ष की नन्ही सी नाव्या बन फूट पड़ी...."डैडी...ओह.. डैडी...." 

डैडी की  आँखें भी छलकने को हुईं पर रोक लिया खुद  को.."ना बच्चा ना....हम सब यहाँ हैं ना...सब ठीक हो जाएगा..."

माँ भी पास आ गयीं..."रोते नहीं बेटा...जल्दी ही ठीक हो जाओगी....भगवान का लाख-लाख शुक्र, ज्यादा सीरियस कुछ नहीं है"

"पर हुआ क्या...मैं यहाँ कैसे आ गयी.....मुझे तो कुछ भी नहीं याद.....मेरी तो आँख खुलती है..और मैं सो जाती हूँ ...तुमलोग भी कब आए पता ही नहीं चला...जाने कब तक सोती रही मैं..."उसने कुछ शिकायती लहजे  में कहा.

"कार का एक्सीडेंट हो गया बेटे...पर भगवान ने बचा लिया..ज्यादा चोट नहीं आई "

"और रमण अंकल?...वे कैसे हैं..."अब उसे ड्राइवर का ख्याल आया.

"वो भी ठीक है.......इसी हॉस्पिटल में है.."
 "थैंक गौड'.. वे  ठीक हैं.."कहकर उसने आँखें मूँद लीं......मम्मी-पापा उसकी बेड के दोनों तरफ कुर्सियों पर बैठे  थे...डैडी का हाथ उसके सर पर  था और माँ उसके हाथ सहला रही थीं. उनकी ये छवि बूँद-बूँद महसूसने की कोशिश कर रही थी...पिछली बार कब हुआ था ऐसा?... कब उसके बेड के आस-पास माँ और डैडी दोनों जन थे?...याद करने पर भी याद नहीं आ रहा. वो सर का भारीपन...हाथ-पैरों पर जगह-जगह लगी खरोंचे....पैरों पर कसकर बाँधा हुआ क्रेप बैन्डेज़
...वो सारे कष्ट थोड़ी देर को भूल ही गयी. ..हे भगवान! इस क्षण को अनंतकाल के लिए स्थिर कर दो...ओह! उसका एक्सीडेंट...दो साल..चार साल...छः साल.. पहले ही क्यूँ ना हुआ...यूँ माँ-डैडी सब छोड़  उसके पास चले आते.

किसी की धीमी पदचाप कमरे में आई और डैडी अभ्यर्थना में उठ खड़े हुए , बोले..
"बेटा.. भगवान की असीम कृपा  तो है ही...पर थैंक्स  इनका भी करो..."और उन्होंने एक युवक के कंधे पर हाथ रख...उसे आगे किया..."बेटे ये हैं..रीतेश...ये ही तुम्हे समय पर हॉस्पिटल  ले आए....और तब से देखभाल कर रहे हैं...नवीन अंकल  भी पता चलते ही आ गए फिर भी सारी जिम्मेवारी इन्होने ही उठायी.."

आगंतुक की  आँखों में गहरी आत्मीयता झलक रही थी...और आँखों  में हल्का स्मित. मुस्कुरा पड़ी वो..सिरचढ़ी  छोटी सी बच्ची की तरह इठला कर बोली...."मैं तो जानती हूँ, इन्हें...अग्रवाल बुक डिपो इनकी ही तो है...कई बार किताबें ली हैं,वहाँ से..."माँ ने होठों पर ऊँगली रख दी.."धीरे नाव्या...और ज्यादा मत बोलो...कमजोरी और बढ़ेगी" 

कमजोरी?? अब कमजोरी का उसके रास्ते में क्या काम....इतना उत्साह तो उसे कभी महसूस नहीं हुआ...इतनी ख़ुशी तो उसे कभी नहीं मिली....अगर इन पट्टियों  ने ना जकड़ा हुआ होता तो अभी उठ कर....क्या करती?..हाँ, क्या करती?...पता नहीं..पर कुछ करती तो जरूर. अभी तो बस उसकी आँखों को ही पूरी अभिव्यक्ति की इजाज़त थी...शरीर इस लायक नहीं था कि हिले-डुले भी..और बोलने पर कभी माँ तो कभी डैडी टोक ही देते. 

वह डैडी के पास खड़ा एकटक नज़रें जमाये था उसके चेहरे पर...एक स्निग्ध तरलता फैली थी चेहरे पर और इतनी मुखर आँखें ,उसने तो नहीं देखीं कभी. उसने भी फीकी सी मुस्कान सजा रखी थी होठों पर...लेकिन अपने एपियरेंस पर उसे बड़ी कोफ़्त हो रही थी...ये माथे पर बंधी बड़ी सी पट्टी...ना जाने, चेहरा  कैसा लग रहा है...कितनी अजीब सी दिख रही होगी वो. 

माँ-डैडी बार-बार अपनी कृतज्ञता प्रगट कर रहे थे और वो विनम्रता से दुहरा हुआ जा रहा था.."ऐसा कुछ ख़ास नहीं किया मैने...मेरी जगह कोई भी होता...तो यही करता...बस संयोग कहिए कि...मैं वहाँ तुरंत पहुँच गया.."

"वो सब ठीक है बेटा..पर जो भी करता हम तो उसके ही एहसानमंद हो जाते...अभी तो तुम्हारे ही हैं"

पता चला..पास ही उसका घर है...माँ से कह रहा था...कुछ भी जरूरत हो तो तुरंत बता दिया करें....माँ ने भी ने बार-बार कहा..."मिलते रहना बेटा...मेरी बेटी की जान तो तुमने ही बचाई है..इसे हम कभी नहीं भूलेंगे"

शायद डैडी और माँ की इन बातों से वो बहुत ही असहज महसूस कर रहा था...बार-बार कभी हाथ पीछे की तरफ बांधता...तो कभी बालों को हाथ लगाता...कभी इस पैर पर शरीर का वजन डालता... तो कभी उस पैर पर....और इन बातों से  बचने को ही शायद बाहर जाने को उद्धत हो उठा..."अच्छा आंटी..चलता हूँ...किसी चीज़ की भी जरूरत हो...तो प्लीज़ संकोच मत कीजियेगा...बिलकुल दो कदम पर ही मेरा घर है. कल फिर आऊंगा..."और झुक कर माँ-डैडी को उसने हाथ जोड़ दिए. एक मुस्कान उसकी तरफ उछाला जिसे पलकें झपका कर उसने लपक लिया और वो दरवाजे से बाहर हो गया.

रितेश के जाने के थोड़ी ही देर बाद डा. समीर आ गए...हाँ! उस लाल शर्ट वाले का यही नाम था. छः फुट लम्बा कद...इकहरा शरीर..गूंजती सी आवाज़ और उस पर चेहरे पर धूप खिली मुस्कान. ओह! एक डॉक्टर का ऐसा व्यक्तित्व...तभी उसकी एक पुकार पर कई-कई नर्सें यूँ दौड़ी चली आती हैं....किन उपायों से  बचता होगा...अरे ,बचना क्या...भरपूर जिंदगी जीता होगा....वो यही सब सोच रही थी और डा. समीर उसकी फ़ाइल पर नज़रें जमाये...नर्स से उसके हाल-चाल का ब्यौरा ले रहे थे. थोड़ी देर बाद फ़ाइल नर्स को थमा और उसे कुछ निर्देश दे ...डैडी की तरफ मुड़े ...डैडी से हाथ मिला कर अपना परिचय दिया..फिर माँ की तरफ देख मुस्कराए "आप ज्यादा चिंता ना करें...ज्यादातर तो सुपरफिशियल इन्जरीज़ ही हैं....पैर में थोड़ा स्प्रेन है...और माथे पर कुछ स्टिचेज़ लगाने पड़े हैं...इन्हें  बुखार भी है...तो देखते हैं.,..कितनी जल्दी हम इन्हें छुट्टी दे सकते हैं..."

फिर उसकी तरफ मुड़े..."सो... हाउ आर यू फीलिंग नाउ ?"

अपने सूखे होठों पर जीभ फेरकर इतना ही कह पायी.."फाइन"..डर लगा...कुछ दर्द बताएगी..तो कहीं नर्स को कोई इंजेक्शन लगाने को ना कह दें.

"या..या....यू हैव टु बी.....हमारी हॉस्पिटल में जो हैं आप....बेस्ट इन द सीटी...."डा. समीर ने उसकी नब्ज़ देखी...आँखें देखी...जीभ दिखाने को कहा...वो यंत्रवत करती रही...और अंदर अंदर डरती भी रही....शायद  उसका डर पढ़ लिया उन आँखों ने...और उसे सहज  करने को...उसकी माँ की तरफ मुड़ कर पूछा..."किस क्लास में पढ़ती हैं ये"

"कॉलेज में है...बी-ए फाइनल का एग्जाम दिया है....आज लास्ट पेपर था"

"क्याsssss " ....... नाटकीय सी मुद्रा अपनाई उन्होंने..."मुझे तो लगा..किसी प्राइमरी स्कूल में हैं...जिस तरह से सुबह जिद कर रही थीं...."माँ को बुलाओ..पानी नहीं पीना...ओह!! परेशान  कर दिया था....और जरा सा पैर क्या मुडा हुआ था..'फ्रैक्चर..फ्रैक्चर...डा. मेरा पैर फ्रैक्चर हो गया है'..चिल्लाए  जा रही थी"..ऐसे मुहँ बना कर कहा कि
माँ-डैडी के होठों पर भी एक स्मित-रेखा खिंच गयी.

"फ्रैक्चर वाली बात कब कही मैने...??"..गुस्से में चिल्ला सी ही पड़ी....भूल गयी कि अभी इसी डा. से कितना डर रही थी वो.

"मैम यू डोंट नो...कितनी परेशानी हो रही थी, हमें ..आपको संभालने में....एक तो माँ के नाम की जिद...और दूसरे...आपका यूँ पैनिक होना...आधी बेहोशी में थीं आप....और फ्रैक्चर भी हो गया तो क्या...ठीक नहीं होता क्या वो"..हंस दिया वह.

"मुझे फ्रैक्चर नहीं चाहिए..."..उसने नाक फुला कर कहा.

"लाइक यू हैव च्योयास ..बट लकी यू आर....नहीं हुआ फ्रैक्चर... अब आराम कीजिए...ज्यादा एग्ज़र्शन ठीक नहीं....फिर नर्स की तरफ  मुड़ कर कहा...मेक श्योर...ये जल्दी दवा लेकर सो जाएँ..."

माँ-डैडी को आँखों में ही,सर हिला कर  'ओके' कहा...और उस पर बिना एक नज़र डाले बाहर हो गया. 

रुआंसी हो गयी वो..सच्ची सचमुच उसे बच्ची ही समझता है.
(क्रमशः )

हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी. ..(3)

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(नाव्या का एक्सीडेंट हो जाता है...और उसे हॉस्पिटल लेकर रितेश नामक एक युवक आता है...जिसकी किताबों की दुकान से वो किताबें लिया करती थी पर रितेश की आँखों में उसके लिए कोई पहचान नहीं उभरती थी. )


दूसरे दिन से ही जैसे जैसे लोगो को पता चलता गया...लोगो का हुजूम उसके अस्पताल के कमरे में जमा होता गया. सुबह से डैडी के दोस्तों का...रिश्तेदारों का जमघट लगा रहा...ऑफिस जाने से पहले...सब लोग हॉस्पिटल का एक चक्कर लगाते जा रहे थे....माँ रटे-रटाये से सारे वाकये दुहराए जा रही थी...और बार-बार भगवान का शुक्र अदा कर रही थी...साथ में रितेश का जिक्र भी जरूर कर जाती....और वो होठों पर अनायास आए ,मुस्कान को...जबरन छुपाने की कोशिश में लग जाती..कहीं किसी की नज़र ना पड़ जाए.

ग्यारह बजे के बाद से....माँ की सहेलियों...पास-दूर के रिश्तेदार महिलाओं....पापा के दोस्त की पत्नियों का आना शुरू हो गया. खीझ होने लगी उसे....यहाँ विजिटिंग आवर्स के नियम भी तो नहीं...कि लोग-बाग़ बस समय पर ही आएँ....बीच बीच में नर्स सबको बाहर कर देती....पर उनलोगों के सामने...नाश्ता करना -खाना सब भी बड़ा अजीब लगता. कई बार तो वो आँखें मूंदें सोने का बहाना करती रहती. पर फिर देखती...वो तो उपेक्षित सी ही पड़ी है...दो-दो तीन के ग्रुप में आंटियां आतीं और माँ के साथ गप्प में मशगूल हो जातीं. बस मुश्किल से पांच मिनट उसकी बात होती...फिर दुनिया जहान के किस्से....और वो थोड़ी देर तो ओह-आह करती,फिर भी कोई ध्यान नहीं देता...तो माँ से झूठ-मूठ को कभी पानी पिलाने के लिए कहती,तो कभी चादर ठीक कर देने को.

तीन बज रहे थे....अभी कोई नहीं था, कमरे में. माँ भी पास के कॉट पर लेटी हुई थीं....शायद उन्हें नींद आ गयी थी...बहुत ही हलके खर्राटे गूँज रहे थे...माँ आराम से सो भी तो नहीं पा रहीं. उसे नींद नहीं आ रही थी...यूँ देर तक सीधे लेटे  रहना बहुत ही कष्टकर लग रहा था. पता नहीं और कितने दिन लग जायेंगे ठीक होने में...अच्छी भली मुसीबत हो गयी...फिर सोचती चलो जाने दो...उसे थोड़ी सी चोट ही आई....कुछ असुविधा हो रही है..पर वो बच्चा तो बच गया....कहीं उसे कुछ हो जाता तो क्या वो पूरी जिंदगी चैन की नींद सो पाती?...पता नहीं कितना बड़ा बच्चा था...कौन था...उसने तो बस होश आने के बाद लोगो की बातों से जाना...पर उसके बच जाने की सोच एक सुकून सा महसूस हुआ और दर्द कम होता सा लगा. 
तभी, कमरे का पर्दा हटा कर किसी ने झाँका....हाथों में छोटा सा गुलाबों का गुलदस्ता था. पहले तो फूलों पर ही नज़र पड़ी...फिर नज़रें ऊपर कीं...तो देखा..रितेश था. कमरे में ऐसी खामोशी और हल्का सा अँधेरा देख वो असमंजस सा दरवाजे पर ही खड़ा था. उसने ही हाथों से थोड़ी चादर सरकाई...और कहा.."आ जाइए..मैं जाग ही रही हूँ"

दबे कदमो से उसके बिस्तर के पास आया और झिझकते हुए से गुलदस्ता थमा...एक धीमा सा 'हाय 'कहा.

वो भी फूल थामते हुए..प्रत्युत्तर में बस.."थैंक्स" ही कह पायी. फूल बगल में रखते हुए उसने कुर्सी की तरफ बैठने का इशारा किया.
'ना ठीक हूँ मैं.".. कहते हुए...उसने बेड के सिरहाने की तरफ हाथ टिकाया..और पूछा.."अब कैसी हैं आप?"

उसका इतना निकट होना, अजीब सा लग रह था.....बहुत ही असहज महसूस कर रही थी..कहा, "ठीक हूँ" 

अब दोनों ही चुप थे. दीवारें शांत....परदे खींचे हुए थे...कमरे में घड़ी भी नहीं थी...कि उसकी टिक-टिक ही कम से कम इस सन्नाटे में कॉमा ..फुलस्टॉप  लगाती रहे. अपनी साँसों की आवाज़ भी सुन पा रही थी ,एक बार लगा......कहीं रितेश को भी तो नहीं सुनायी पड़ रही हैं...और धीमी कर ली साँसें....थोड़ी देर यूँ ही चुप्पी छाई  रही..शायद उसे भी समझ नहीं आ रहा था...क्या बोले..क्या पूछे....आखिरकार उसने ही गला साफ़ करते हुए कहा, "आप प्लीज़ बैठिये ना....यूँ खड़े क्यूँ हैं"

उसने भी उसकी बात मान..एकदम धीमे से बड़े एहतियात से कुर्सी खिसका कर उसके बेड के करीब लाने की कोशिश की . पर इतनी धीमी आवाज़ ने भी माँ की झपकी में खलल डाल दी..और वे हडबडा कर उठ बैठीं...फिर रितेश को देखते ही जैसे खिल  गयीं...."अरे तुम कब आए... बेटा?"

अरे वाह...'बेटा'का संबोधन..बस एक ही मुलाकात में...मन ही मन चौंकी वो..पर माँ के उठ जाने से जैसे दोनों को राहत मिल गयी....रितेश के चेहरे पर भी एक चौड़ी मुस्कान खींच गयी.."बस आंटी अभी आया ही था...आपको जगा दिया ना....आप आराम कीजिए ना प्लीज़...थक गयी होंगी  "

शुक्र है..माँ ने उसकी बात नहीं सुनी..वर्ना फिर दोनों अकेले पड़ जाते..और फिर बात क्या करते..."अरे नहीं...बैठे-बैठे क्या थकना..."बोलीं माँ.

"तुम तो बस हमारे लिए जैसे भगवान के दूत ही बन कर आए हो...."

"ओह! आंटी....फिर मत शुरू कीजिए....कोई भी मेरी जगह होता...तो यही करता.."

"अरे नहीं बेटे...मैने ज़माना देखा है...लोग मजमा लगाए खड़े होते हैं...ऐसा नहीं कि कुछ करना नहीं चाहते...पर आगे कौन बढे...कैसे क्या करे...ये लोगो की समझ में नहीं आता...क्विक डिसीज़न बहत जरूरी होता है...और वो तुमने किया..तो तुम्हे श्रेय तो मिलना ही चाहिए"

"क्या कहते हैं डा. ...कोई गंभीर चोट तो नहीं.."रितेश ने एकदम से बात बदल दी.
'गंभीर तो नहीं बता रहे..पर इसका बुखार नहीं जा रहा....शायद एक दो दिन लगे संभलने में...पूरा शरीर हिल गया ना..अंदर तक दहल गयी होगी...समय तो लगेगा ही"
लो फिर उसे सब भूल गए...यहाँ सब आते हैं,उसे देखने...पर उसे ही भूल जाते हैं...फिर से उसने अपनी तरफ ध्यान खींचने  को जोर से कहा.."माँ...ये फूल उधर टेबल पर रख दो ना..चुभ रहे हैं.."

"फूल भी...चुभ रहे हैं?...."एक शैतानी भरी मुस्कराहट के साथ रितेश ने धीमे से कहा...अच्छा तो ये मिटटी का माधो नहीं है...बोलना भी आता है...इसे..

"और क्या..यहाँ पास में पड़ा हुआ.....अनकम्फर्टेबल लग रहा है ना...और फिर मुरझा भी तो जायंगे.."और उनके बीच की जमी बर्फ पिघल गयी....

रितेश मुस्कुरा कर चुप हो गया.

माँ ने फूल लेकर टेबल पर रख दिया..."अरे बेटा...इस  फॉरमेलिटी की क्या जरूरत थी...." ..ये माँ भी ना....जैसे उनके लिए लेकर आया है...पहली बार तो जिंदगी में किसी ने उसे फूल दिए हैं...और फिर रुआंसी हो गयी...'वो भी हॉस्पिटल में.."

"वो तो आंटी बस ऐसे ही..." 

"अच्छा बताओ बेटा.. क्या करते हो....?"..माँ तो सब भूल जाती हैं..... बताया तो था कि किताबो की दुकान है उसकी.

"आंटी मैने...सिविल सर्विसेज़ का इम्तहान दिया है..रिटेन तो क्वालीफाई कर गया हूँ...अभी इंटरव्यू बाकी  हैं"

उसने एकदम से मुड कर उसे देखा....और रितेश ने भी उसी पल उसकी तरफ देखा...आँखें मिलीं...और जैसे आँखों में ही बात हो गयी..जैसे उसकी आँखों ने कहा हो.....'अच्छा! मैं तो तुम्हे...किताब की दुकान वाला समझती थी"...और रितेश की आँखों ने जबाब दिया हो.."मुझे पता था...तुम मुझे एक दुकानदार ही समझ रही थी.."

फिर उसने नज़र सामने कर ली...रितेश ने भी माँ की तरफ चेहरा घुमा लिया और जैसे उसकी जिज्ञासा पूरी तरह शांत करने के लिए बोला..."ये मेरे चाचा जी की किताबों की दुकान है...चाचा इन दिनों कुछ बीमार हैं...तो मैं आजकल दुकान पर बैठता हूँ...किताबों की दुकान में ज्यादा भीड़ तो होती नहीं...सो बैठ कर पढता रहता हूँ.."


"बहुत बढ़िया बेटा...तुम्हारे इतने अच्छे कर्म  हैं....तुम जरूर कामयाब होगे...दिल से मेरी दुआ है..तुम सफल हो जाओ."


"बस आंटी...बड़ों की दुआ चाहिए और क्या..."

फिर दरवाजे पर खटखट हुई...और जीवन काका हाथों में बास्केट लिए अंदर  आए..."कैसी हो बिटिया...कैसा चेहरा मुरझा गया है...ताज़ा जूस निकाल कर लाया हूँ..तुम्हारे लिए..पी लो..तबियत हरी  हो जायेगी"
और वो बास्केट से फ्लास्क निकालने लगे...मालकिन आपके लिए थर्मस में चाय भी लाया हूँ.."


"हाँ मैं सोच ही रही थी कि अब आपको आ जाना चाहिए.."

"अरे हम तो मुला घड़ी ही देखत रहे...लछमी भी गैस अगोर कर ही बैठी थी..चाय बनाने  को.."
"नाव्या... तुम जूस पी लो..फिर हमलोग चाय पीते हैं.."
"अभी नहीं..."
"अब यहाँ हॉस्पिटल में नखरे नहीं...जब जो दिया जाए....खा लिया करो.."..माँ ने सख्ती से कहा.
"अच्छा तो ये नखरे भी करती हैं..."रितेश दबी हुई मुस्कान के साथ बोला..
"अरे पूछो मत....जब भी खाने के लिए पूछो....सिर्फ एक ना..."..माँ अपनी ही धुन में बोले जा रही थीं.

मन हुआ बोले..'माँ खाना छोड़कर तुमने आजतक और किसी चीज़ के लिए पूछा है,कभी....वो भी चुपचाप खा लेती...तो फिर कोई संवाद ही नहीं होता,हमारे बीच....इस ना...और तुम्हारी डांट के साथ दो चार जुमले तो हमारे बीच बोले जाते कम से कम.

उसे यूँ सोच में डूबे देख..रितेश बोल पड़ा..."जूस पीने से इतना क्यूँ डर रही हैं..एम श्योर..कोई करेले का जूस नहीं होगा.."

"यक..सुन कर ही मुहँ कड़वा हो गया...कैसे पीते हैं लोग.."इतने सहज रूप से बात हो रही थी...लगा ही नहीं अभी कुछ समय पहले दोनों...शब्दों के अभाव में छत और दीवारें तक रहे थे.

रितेश ने बेड ऊपर करने में माँ की सहायता की...वो संकोच से गडी जा रही थी...अधलेटे होकर उसने जूस का ग्लास थाम लिया और जीवन काका से उनलोगों के लिए चाय निकालने के लिए कहा..

'अच्छा बिटिया."..कह कर वो बढे ही थे कि माँ ने जरा जोर से ही कहा.."ना पहले तुम जूस ख़त्म करो...फिर हम चाय पियेंगे"

"माँ, बीमार हूँ, मैं ...और तुम इतना डांट कर  बात कर रही हो....प्यार से बोलो ना....":उसने झूठे गुस्से से थोड़ा ठुनक कर कहा...

"ओहो!! मेरी रानी बेटी..जूस पी लो.. "..माँ ने इतनी नाटकीयता से कहा...कि वो और रितेश साथ ही हंस पड़े...माँ भी हंसने लगी.

और उसी वक़्त डा. समीर ने कमरे में ये कहते प्रवेश किया..."क्या बात है...सीम्स माइ पेशेंट इज डूइंग वेल..गुड़..गुड़.."

समीर को देखते  ही वो सहम कर चुप हो गयी और नज़रें झुका ली...

"ये क्या बात हुई...आप इतना डर क्यूँ जाती हैं...आज इसीलिए मैं राउंड पर निकलने से पहले यहाँ आया...इस तरह डरती रहेंगी तो हमारी दवा असर नहीं करेंगी...और फिर ज्यादा दिन रहना पड़ेगा यहाँ"

"नहीं...मुझे दवाइयां...इंजेक्शन...हॉस्पिटल..डॉक्टर..सबसे बहुत डर लगता है"....डर सचमुच उसकी आवाज़ में उतर आया था.

"हा हा...ओके ओके..."कहते गले में पड़ा स्टेथोस्कोप डा. समीर ने उतार कर हाथों में नीचे ले लिया..."अब तो नहीं दिखता मैं डा.?...ठीक है?"

उनकी इस हरकत पर उसके होठो पर मुस्कराहट आ गयी....

"दैट्स  लाइक अ गुड़ गर्ल ...डॉक्टर भी इंसान ही हैं....हमेशा इंजेक्शन ही नहीं लगाते रहते"

"चाय लेंगे ..डॉक्टर साब.."..माँ ने पूछा...जीवन काका ने चाय प्यालों में निकाल ली थी.

डा.समीर माँ की तरफ मुड़े...और थर्मस और प्याले पर नज़र पड़ते ही..बोल उठे.."अरे वाह!! घर की चाय...क्यूँ नहीं...घर की बनी किसी चीज़ को मैं कभी ना नहीं कहता...सालों से घर से बाहर हूँ..कप में चाय पीने की आदत ही जाती रही.."

रितेश ने मना कर दिया...तो माँ से पहले...डा.समीर ही बोल पड़े..."अरे हमारा साथ दीजिये..आंटी, इतने प्यार से पूछ रही हैं...क्यूँ काका चाय है ना सबके लिए"

"अरे बहुत है ,सर ..पाँच कप से ज्याद ही  होगा...हमको पता था...हॉस्पिटल  में तो लोग मिलने को आते ही रहते हैं..तो मालकिन,अकेले कैसे पियेंगी....ए ही सोच थर्मस भर कर लाए हैं.."जीवन काका किसी को भी इज्जत देने के लिए सर कह कर बुलाते थे...और इस पर वह उनकी बहुत खिंचाई करती थी..पर अभी चुप रही.

"तब तो मैं एक कप और पिऊंगा..."डा-समीर ने हँसते हुए कहा...और वो हैरान रह गयी...शायद रोज़ इतने लोगो के   संपर्क   ने इतना बेतकल्लुफ बना दिया है, इन्हें...या फिर ये उनके स्वभाव में शामिल है...इनकी तो बातों से ही मरीज़ की आधी बीमारी दूर हो जाती होगी.इतनी आत्मीयता से अजनबियों से भी बाते करते हैं... उसका भी डर धीरे-धीरे जाता महसूस हुआ.

चाय पीते...डा. समीर ने रितेश से पूछा.."और आप कैसे हैं?...उस दिन तो आपकी  घबराहट देख लग रहा था....हॉस्पिटल में एक बेड आपके नाम भी करनी होगी हमें.."


"ओह! मैं बुरी तरह हिल गया था....इस तरह एक्सीडेंट..खून..देखने का पहला मौका था...ड्राइवर और इन्हें दोनों को इस हालत में देख बहुत घबरा गया था...वो तो आप डॉक्टर लोग तय करते हैं कि चोट कितनी गहरी है...खून बहता देख..हमारी तो हालत खराब हो जाती है"

"हाँ...और खासकर जब अपनों का हो.." ..समीर आगे कुछ और कहते कि माँ बोल पड़ी..."ना डॉक्टर साब...इन जैसे लोगो से ही इंसानियत पर विश्वास बना रहता है...ये तो नाव्या को जानते भी नहीं थे...फिर भी इतना किया हम सबके लिए"

हठात ही रितेश और उसकी नज़रें मिल गयीं...'क्या सचमुच वे एक-दूसरे को नहीं जानते थे...हल्की सी मुस्कराहट जैसे आँखों में ही तैर गयीं...और दोनों ने अपनी निगाहें लौटा लीं.

"पहले तो आप....मुझे ये डॉक्टर साब बोलना बंद कीजिए...कोई जब ऐसा कहता है तो खुद ही मेरे हाथ बालों पर चले जाते हैं..लगता है..जरूर बाल  पक गए हैं और बुड्ढा दिखने लगा हूँ..."और फिर कप रख रितेश की तरफ हाथ बढाया..."इट्स रियली कमेंडेबल  दोस्त....दोस्त कह सकता हूँ ना...मुस्कुरा कर जरा सा रुके..फिर गर्मजोशी से उसका हाथ हिलाते हुए बोले," आप जैसे लोगो की बड़ी जरूरत है...आपलोग हमारा काम आसान कर देते हैं...ऐसे में समय की बड़ी कीमत होती है..और अक्सर डॉक्टर्स   के पास एक्सीडेंट केसेज़ लाने में लोग इतना टाइम  वेस्ट कर देते हैं कि...हमें दुगुनी मेहनत करनी पड़ती है और पेशेंट को रिकवर होने में भी काफी समय लग जाता है...इट्स रियली नाइस टु नो यू"

"अब भागना होगा आंटी..थैंक्स फॉर द लवली टी....पर चाय तो काका ने बनाई हैं ना....धन्यवाद काका.."
काका ने अभिभूत होकर हाथ जोड़ दिए..

"एंड यू ट्राई टु बी अ गुड गर्ल..तंग ना किया करें आंटी को...नर्स बता रही थी...आप दवा लेने में बड़ी नखरे  करती हैं...और इंजेक्शन में तो बच्चों सा शोर मचाती हैं"

"हैं, भी तो इतनी सारी...बड़ी-बड़ी सी ...निगली ही नहीं जाती.."उसने मुहँ बनाया.

"सिर्फ इंजेक्शन चलेगा...?"हंस कर बोला...और फिर एकदम गंभीर हो गया..."देखिए...वूंड हील करने के लिए, दवा  तो सारी की सारी लेनी पड़ेंगी और इंजेक्शन भी....ओके...अच्छा चलूँ..."माँ और रितेश की तरफ हाथ हिलाया...और चला गया. 

अपने नाम के अनुरूप ही खुशबू के एक झोंके सा  आया और सबके मन पर अपनी उपस्थिति दर्ज कर चला गया. इतने कम समय में ही उसने कमरे में उपस्थित चारो लोगो से बातें की..सबको समान महत्त्व  दिया...हम्म सीखना पड़ेगा ये सब..

"अच्छा लड़का है..."माँ थीं..

"या..नाइस चैप एंड अ वेरी गुड डॉक्टर...उस दिन मैने इन्हें देखा...इतनी अच्छी तरह सब संभाला...यु आर इन सेफ हैंड्स...."...रितेश उसकी तरफ मुड कर बोला...और वो सोचने लगी..इन दो दिनों में उसकी दुनिया कितनी बदल गयी....अपनी साँसों के  के लिए वो इन दो अजनबियों की कर्ज़दार हो गयी. 

इन्ही ख्यालों में गुम थी कि हैरान-परेशान सी...नीना, प्रियंका, अर्चना कमरे में दाखिल हुईं. तीनो एक साथ बोल रही थीं.."अरे क्या हुआ...कब हुआ..कैसे हुआ.....मुझे तो आज पता चला....इतनी परेशान  हो गयी...मैं"  वो मन ही मन मुस्कुरा उठी..फिर से तीनो में होड़ शुरू हो गयी कि किसे उसकी सबसे ज्यादा चिंता है...माँ ही बता रही थीं...वो थक सी गयी थी....उसने माँ को कहा...लेटना चाहती है...जरा नीचे कर दे बेड. रितेश ने ही आगे बढ़ कर किया और फिर वहीँ से.."चलता हूँ आंटी..फिर आऊंगा...और उसकी तरफ आँखे झुका कर बाय कहा....और चला गया.

चैन की सांस ली,उसने..अभी उसकी सहेलियाँ आपस में ही उलझी थीं..रितेश को उन्होंने उसका कोई रिश्तेदार समझ लिया..अगर पूछताछ शुरू करतीं  तो फिर उसे जबाब देते नहीं बनता. और उन्हें उसे छेड़ने का एक बहाना मिल जाता. पर पता नहीं  उसका बात करने का मन नहीं हो रहा था...रितेश..डा. समीर की बातें....बार-बार रिप्ले हो रही थीं...मन में...और उसने आँखें  मूँद लीं...माँ ने कहा...काफी देर से बैठी थी..लगता है...थक गयी हैं. सहेलियाँ आपस में ही बातें करती ताहीं..और फिर आने का वायदा कर चली गयीं.
(क्रमशः)

हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी (समापन किस्त)

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(नाव्या का एक्सीडेंट हो जाता है...रितेश उसे हॉस्पिटल लेकर आता है...हॉस्पिटल में जिंदादिल डा. समीर से उसकी मुलाक़ात होती है)

 सीनियर डॉक्टर राउंड पर आते और वो आस लगाए बैठी होती..शायद उसे       छुट्टी दे दें....लेकिन उसका डिस्चार्ज होना टलता जा रहा था...कुछ इसमें डैडी का भी योगदान था...सुबह वे डॉक्टर के राउंड के समय जरूर उपस्थित होते और कहते..."जितने नियम से हॉस्पिटल  में खाना -पीना, रेस्ट, दवाएं...सब समय  पर हो जाता है.. घर में संभव ही नहीं....यहाँ सुबह सात बजे ब्रेकफास्ट के साथ दवाइयां भी दे दी जाती हैं...घर में ये दस के पहले तो उठेंगी नहीं...और फिर देर रात तक टी.वी. देखना...अपनी मनमानी करना...ना डॉक्टर, आप जब तक बिलकुल इत्मीनान ना हो जाएँ...इसे डिस्चार्ज करने की जल्दी ना करें..."

"पर माँ को कितनी तकलीफ होती है...वे तो घर पे आराम कर सकती हैं..."उसे सच में माँ के लिए बहुत बुरा लगता था..बिचारी एक पतले से कॉट पर सोती थीं...करवट लेने में भी डर लगे.

पर माँ तुरंत बोल पड़ीं.."ना ना मुझे कोई तकलीफ नहीं..."

डॉक्टर हंस पड़े..."डोंट वरी बेटा...हम तुम्हे जरूरत से ज्यादा यहाँ नहीं रखेंगे....बस जल्दी ही छुट्टी दे देंगे..."

रुआंसी हो गयी वो....अपना कमरा अपना बिस्तर बहुत मिस कर रही थी....वैसे मन नहीं  लग रहा था ऐसा नहीं था...बल्कि एक उपलब्धि सा ही लग रहा था...ये एक्सीडेंट....माँ-डैडी का इतना प्यार...रितेश और समीर का इतना सुखदाई साथ. जिंदगी का रूप हमेशा ऐसा ही रहे तो कितना अच्छा हो. यूँ ही...डैडी दिन में कुछ घंटे जरूर उसके साथ बिताएं...माँ खाने के साथ-साथ उसकी हर चीज़ का ख्याल रखे. रितेश ऐसे ही उसके लिए फूल लाता रहे और डा. समीर उन फूलों पर हाथ फेर..'क्वाईट लवली...'कहते हुए दुनिया जहान  की बातें करते रहें.

पर दुनिया में हर ख़ुशी के साथ एक 'प्राइस टैग'लगा होता है...इन सारे सुखद पलों की कीमत उसे हॉस्पिटल के बेड पर पड़े रहकर चुकानी पड़ रही थी.

रितेश के मितभाषी होने और कुछ खोये-खोये सा अपने में ही गुम रहने से, उसे सपनो में जीने वाला बिलकुल सीधा-सादा लड़का समझती थी...पर जमाने की नब्ज़ पर उसकी पकड़ ढीली नहीं थी...जब माँ ने कहा..."मुझे फूल बेहद पसंद है....पहले तो माली को हिदायत दे रखी थी....रोज ताजे फूल ही ड्राइंगरूम में रखा करे...पर अब तो इधर-उधर के कामो  से फुरसत ही नहीं मिलती...कि इन सबकी  तरफ नज़र भी करूँ."(माँ हमेशा..अपनी समाज-सेवा को इधर-उधर के काम कहकर गौण कर देतीं...उसके टोकने पर माँ का कहना था,लोग कहीं ये ना समझें की उन्होंने पैसे और समय होने की वजह से एक फैशन की तरह समाज-सेवा अपनाया हो...शुरुआत भले ही माँ ने समय काटने के लिए किया हो..पर अब वे पूरी तरह इसमें रम गयीं थीं.)

और रितेश सीधा फूल लाकर माँ के हाथों में ही थमा देता.

"अरे रोज़ क्यूँ लाते हो...ये कैसी फोर्मलिटी है?'

"नहीं आंटी... हमारे पिछवाड़े बहुत ही सुन्दर बाग़ है फूलों का..अपने बगीचे के ही फूल हैं..."

उसने हंसी छुपा ली...."हूँssss खूब!! ...जाने कितने पैसे खर्च कर चुके होगे फूलों पर...अपने घर के गुलाब, रोज़ रोज़  कोई यूँ लम्बे डंठल के साथ तोड़ता है??....माँ ने ध्यान नहीं दिया..वर्ना वे भी समझ जातीं .

पर रितेश था बहुत ही शांत किस्म का....आते ही एक हलके से स्मित के साथ पूछता..."कैसी हैं?"...और इन दो शब्दों के कहने के ढंग में ही सारे उद्गार सिमट आते. फिर कुर्सी खींच कर साथ लाई  किताबें-पत्रिकाएं  दिखाने लगता .उसे पढ़ने से सबलोग मना करते  कि आँखों पर जोर पड़ेगा...ये जिम्मा रितेश ने ले लिया था..कहता, दोपहर वो बिलकुल खाली रहता है...वो जबतक बैठता...माँ एक चक्कर बाज़ार का या घर का लगा आतीं. 

 उसने एक दिन पूछ लिया.."आपकी कविताओं में रूचि है?'

"हाँ.. हाँ..बिलकुल.. बहुत  पढ़ती हूँ..."उसने कहने को कह दिया.

"अरे वाह...बच्चों सा खिल उठा उसका चेहरा..."मैं आपको बहुत ही अच्छी-अच्छी कविताएँ पढ़ कर सुनाऊंगा..."वो तो बाद में जाना उसने... कविताओं में तो उसकी जान बसती थी.

भाव-भरी आवाज़ में वो कविता दर कविता पढता चला जाता...बिलकुल कविता में डूब ही जाता...अंदर से महसूस करते हुए पढता वह...और अब उसे रितेश की उदास आँखों का रहस्य पता चला...कविता पढ़ते वक़्त..कविता के अंदर का सारा दर्द वो जैसे सोख लेता...और वही दर्द उसकी आँखों में तैरते तैरते जम जाता,जैसे.

वह तो कविता से ज्यादा...उसके स्वर के चढ़ते उतार-चढ़ाव ..आवाजों का कम्पन...चेहरे पर आते-जाते भाव ही देखती रहती. आँखों में कभी स्निग्ध तरलता छाती...कभी गहरी उदासी...कभी व्यंग्य भरी तिलमिलाहट तो कभी अनचीन्ही सी छटपटाहट.कभी-कभी वो कविता पर ध्यान  नहीं भी देती..पर रितेश की धारदार एकाग्रता वैसी ही बनी रहती. 

एक दिन कुछ कविताएँ सुना रहा था...हठात नज़रें उठाईं और मुस्कुरा कर  पूछा...."कैसी लगीं..?"सकपका गयी वह..वो ख़ास ध्यान से सुन तो रही थी नहीं...वो तो रितेश की नुकीली  ठुड्ढी...तीखी नाक...जुड़ी भवें..और लम्बी घुंघराली पलकें ही निरख रही थी...क्या था कविता में...ध्यान ही नहीं दिया..चुप रही तो रितेश ने कुछ रस्यमय ढंग से मुस्कुरा कर पूछा..."बताइए तो सही...कैसी थीं कविताएँ?"तो चौंक गयी वो.

उसने हाथ बढ़ा दिए..."दीजिये,  एक बार खुद से पढूंगी..."

उसने एकदम से दूर हटा ली किताब..."अँs हाँs...इतना बेवकूफ नहीं मैं..."बेतरह नटखटपन कस गया चेहरे पर और उसने किताबों के बीच से कुछ कागज़ निकाल एहतियात से अपनी जेब में रख लिए..."

अच्छाss तो ये उसकी खुद की लिखी हुईं थीं....तभी इतना  मुस्कुरा कर पूछ रहा था...ओह! क्या मूर्खता की उसने , जरा  भी ध्यान नहीं...क्या था कविता में...बड़े आग्रह से बोली.."प्लीज़ एक बार दो ना....सिर्फ एक बार पढ़ कर दे दूंगी..."ध्यान भी नहीं रहा...कैसे 'आप'से 'तुम'पर आ गयी.

"जीssss   नहीं...ऐसा खतरा नहीं मोल ले सकता....जब तक पढ़ रहा था...तभी डर लग रहा था..पता नहीं क्या सोचो तुम...ये काफी पहले लिखी थी मैने, हाँs..."वो भी सहजता से बिना ध्यान दिए तुम पर आ गया...पर इसका मतलब...जरूर कविता में कुछ बात थी...वर्ना बहुत पहले लिखी थी की सफाई  क्यूँ देता? हाथ बढ़ा कर उसने कुर्सी की बाहँ पर रख दिया.."प्लीज़ रितेश...दे दो ना..एक बार देने में क्या जाता है...बस एक नज़र देख कर...वापस कर दूंगी.."

"नोss वेss...अच्छा ये सुनो...क्या कविता है...एकदम अलग सी...और इतनी वास्तविक कि लगेगा कवि की आँखे कैसे देख लेती हैं ये सब.."कहता कुर्सी की दूसरी बाहँ से सट सा गया.

रोष हो आया उसे...एकदम से हाथ खींच लिया...अगर उंगलियाँ भूले से,उसे  छू भी जातीं तो जाने क़यामत आ जाती....अछूत है क्या वह?

 "मुझे नहीं सुनना कविता-फविता.."..कह सीधा लेट आँखें बंद कर लीं.

"नाराज़ हो गयीं...?"शहद  भरा स्वर उभरा 

"नहीं, नाराज़ क्यूँ होने लगी...इसका हक़ तो सिर्फ आपलोगों को है..."विद्रूपता से कह.. दूसरी तरफ करवट बदल ली उसने..जाने क्यूँ आँखें भर आयीं.

"नाव्याss... "रितेश ने एकदम से कुर्सी छोड़ दी...और पलंग के किनारे हाथ रख झुका ही था कि कमरे के बाहर माँ और डा. समीर का सम्मिलित स्वर सुनायी दिया...एकदम से सीधा खड़ा हो...सीने पर हाथ बाँध लिए उसने.

"सोयी है क्या...."माँ ने पूछा..

"पता नहीं..शायद"

"कुछ तकलीफ तो नहीं थी,उसे??..ऐसे कैसे सो गयी ??"माँ के स्वर में चिंता  थी.

"वो मैं...कुछ  पढ़ कर सुना रहा था..शायद सुनते-सुनते सो गयी..."

"ओहो!!..अब कविताएँ सुनाओगे तो कोई सो ही जाएगा ना...."समीर ने हँसते हुए कहा...."और आपने देखा भी नहीं कि सुनने वाला सुन रहा है या नहीं...क्या यार....इतना डूबे रहते हो किताबो में...ये किताबें बस सपनीली दुनिया में ले जाने का काम करती हैं...तभी तो लोग सुनते-सुनते सो जाते हैं....सच्चाई का अंश भी नहीं होता, इनमे.."

"ऐसा नहीं है डॉक्टर...."

"अरे बस ऐसा ही है...अब देखो..ये कविताएँ...कुछ भी कल्पना कर लेते हैं कवि..."

"अच्छा आंटी अब तो आप आ गयी हैं..चलूँ...मैं?"रितेश था. 

उसने गौर किया था...रितेश कभी बहस में नहीं पड़ता...बात बदल कर निकल जाता है या फिर चुपचाप सुन लेता है. रितेश की जगह वो होती..तो अभी डा. समीर से इतनी बहस करती कि वे राउंड पर जाना भी भूल जाते..और फिर कभी किताबों को कल्पना की उड़ान कहने की  हिम्मत ना करते.

पर उसने तो सोने का बहाना किया हुआ था...सो उसे मन मसोस कर रह जाना पड़ा.

अचानक माँ  को कुछ याद आया..."हे भगवान...मैने फल लिए और थैला तो वहीँ छोड़ दिया....अब फिर से जाना पड़ेगा...पर नाव्या पीछे से जाग गयी तो...कहीं उसे कोई जरूरत ना पड़ जाए.."वे असमंजस में थीं. 

"कोई बात नहीं आंटी...अभी तो मैं थोड़ी देर खाली हूँ....मैं यहीं बैठता हूँ...आप आराम से हो आइये....मैं भी जरा देखूं तो दोस्त तुम्हारी किताबो में है क्या...पलटता हूँ थोड़ी देर.."

"बस मुश्किल से पंद्रह मिनट लगेंगे...आओ रितेश..तुम्हे भी रास्ते में छोड़ दूंगी.."कहती माँ..रितेश के साथ ही निकल गयीं. शायद जाते हुए रितेश ने पलट कर देखा हो...कि वो उठ कर उसे बाय कहती है या नहीं...पर वो सोने का बहाना कर  पड़ी रही...थोड़ी डोज़ दे देनी चाहिए इन लोगों को..समझते हैं कदमो में ही बिछे जा रहे हैं. 

उनके जाते ही...समीर ने कुर्सी खिसकाई बैठने को...और वो चौंक कर जगने का अभिनय करती उठ बैठी.

"ओह! जगा दिया ना आपको...सो सॉरी..."डा. समीर सचमुच अफ़सोस से भर उठे.

"नहीं..नहीं...कोई बात नहीं...माँ आयीं नहीं अभी तक ?"

"आयीं तो थीं..पर फल उन्होंने दुकान पर ही छोड़ दिए थे सो वापस लेने गयी हैं...और वो कवि साहब भी चले गए उनके साथ...जिनकी कविता सुनते-सुनते आप सो गयी थीं....हा हा.."समीर ने जोर का ठहाका लगाया.

ख़ास उसे भी नहीं समझ नहीं आती कविताएँ..पर समीर का यूँ उपहास उड़ाना उसे अखर गया,बोली ..."वो मैं थक गयी थी,इसलिए  सो गयी थी...कविताएँ तो मुझे भी पसंद हैं..."

"अब आप, बना लो बहाने...."वो फिर हंसा.

"नहीं सच में...मुझे गीत संगीत सब बहुत पसंद है....अच्छा कल रात कोई बड़ी अच्छी गिटार बजा रहा था...काफी देर तक सुनती रही मैं..."

"सपने में?..."समीर ने चिढाया तो सचमुच चिढ उठी वह.

जी ss नहींss..कल रात के ग्यारह बजे के करीब..मैने समय भी देखा...मुझे नींद ही नहीं आई देर तक.."

"होगा कोइ  सिरफिरा...चले आते हैं लोगों की नींद खराब करने..."

"अच्छा तो फिर कोई रियाज़ ही ना करे...म्युज़िक के नाम पर शोर मचाना बुरा है..पर इसमें क्या बुराई है....अच्छा संगीत सुकून ही देता है.."

"शरीफ लोगों के ये सब शौक नहीं होते..जो जिंदगी में कुछ नहीं करता वो गिटार टुनटुनाता  रहता है...ऐसा मैं नहीं बड़े-बुजुर्ग कहते हैं.."समीर उसे चिढाने पर आमादा था.

"पर मानते तो आप भी हैं,ना...मशीनी इंसान हैं आपलोग...गीत-संगीत...कहानियाँ किताबें...सब बेकार हैं आपकी नज़रों में...आपलोगों की दुनिया बस इस हॉस्पिटल तक ही सीमित है...माना कि आपलोग....जीवनदान देते हैं...लोगो को राहत पहुंचाते हैं पर इसके बाहर  भी कभी-कभार देख लेना चाहिए...इन इंजेक्शन-दवाइयों से परे भी एक दुनिया है..."..कहते उसने आँखें  बंद कर लीं...कानों में गिटार  टुनटुना  उठा.

"अच्छा लगा आपको "...स्वर बदला हुआ लगा, आँखें खोल देखा तो समीर दूसरी तरफ देखने लगा.

"और क्या..पर आपको  क्या..आपके लिए तो सब समय की बर्बादी ही है ना..."पता नहीं क्यूँ उसे बहुत खीझ हो रही थी.

समीर ने बड़ी आहत नज़रों से देखा,उसे. चेहरा संजीदा हो गया था....अब अपने में लौटी वह...ये क्या हो गया है उसे...रितेश का गुस्सा वो समीर पर क्यूँ निकाल रही है. माँ -डैडी आभार से दबे रहते हैं..इतनी केयर करता है उसकी और वो है कि बिना किसी वजह के झल्लाए जा रही है. स्वर में यथासाध्य मुलायमियत लाकर बोली, : "पास से ही आवाज़ आ रही थी.....लग रहा था ,हॉस्पिटल कैम्पस  में ही कोई बजा रहा था......आपको अंदाज़ा है..कौन बजा रहा होगा.."

"नाss..नहीं पता...."और समीर तड़ाक से उठ गया...शायद वो बुरा मान   गया था...."मुझे एक पेशेंट को देखने जाना है..चलता हूँ.."और बिना उस पर नज़र डाले लम्बे-लम्बे डग भरता बाहर निकल गया. 'ओह!!! दीज़ बॉयज़...'सर पकड़ लिया उसने...

ये तो बाद में पता चला, वह सिरफिरा और कोई नहीं समीर ही था. 

***
सुबह डा. राउंड पर आए और बोले अब वो घर जा सकती है....ख़ुशी से मन खिल उठा पर दूसरे ही पल बुझ भी गया...घर तो जा रही है पर वहाँ  रितेश,समीर से मुलाकात नहीं हो पाएगी...इन आठ दिनों में उनके साथ की इतनी आदत पड़ गयी थी कि अभी से उनकी कमी खलने लगी थी. माँ को याद दिलाया..'माँ रितेश शायद मिलने आए... उसे फोन करके बता दो..."

रितेश ने माँ को अपना नंबर दिया था कि जब भी जरूरत पड़े फोन कर लें. माँ ने कहा...'अच्छा याद दिलाया...अभी उसे फोन कर बता  देती हूँ.."

वो निराश हो गयी...उसे लगा था,माँ कहेंगी..."लो ,तुम ही कह दो...और उसे दो बातें करने का मौका मिल जाएगा...पर सामान सहेजती माँ ने इस तरह से सोचा ही नहीं. वो रुआंसी हो खिड़की के बाहर देखने लगी...जहां पेडों की पत्तियाँ  हवा से हलके-हलके डोल रही थीं...मानो उसे बाय कह रही हों.

डा. समीर मिलने आए थे. हमेशा की तरह उसी जोश और जल्दबाजी में थे... सौ हिदायतें उसके लिए और माँ के लिए भी....आज उसे उनकी किसी बात पर गुस्सा नहीं आ रहा था...बस उनके चेहरे पर ही नज़रें जमाये चुपचाप सब सुन रही थी...समीर को भी आश्चर्य हुआ...टोक ही दिया..."अभी से घर की यादों में गुम हो गयीं...मैं क्या कह रहा हूँ...कुछ सुन भी रही हैं??...हाँ! भाई....सबलोग आते हैं चले जाते हैं...हमारा तो यही घर-बार है...हम कहाँ जा सकते हैं..."

वो प्रत्युत्तर में सिर्फ मुस्कुरा दी तो डा. समीर भी गंभीर हो आए और बहाने से बाहर चले गए.

रास्ते में ,माँ ने बताया एक रात पहले ही एक मेहमान भी घर पर आया हुआ है. डैडी के एक मित्र के सुपुत्र. नया-नया चार्ज लिया है किसी कंपनी में . जब तक उसके रहने का इंतजाम नहीं हो जाता .घर पर ही रहेगा. खीझ हो आई उसे. एक तो सर पर बंधे इस बड़े से बैन्डेज़ के साथ उसे किसी के सामने जाने में बहुत ही अजीब लग रहा था...दूसरे घर में किसी अजनबी की उपस्थिति भी असहज कर रही थी., अब ये बचपन से अकेले रहने की वजह से था या कुछ  और पर अपने घर में ज्यादा भीड़-भाड़ उसे अच्छी नहीं लगती. रिश्ते  के हम-उम्र भाई-बहन भी आते तो कुछ दिन  तो उसे अच्छा लगता पर फिर अपनी आज़ादी में खलल लगने लगता...सुन कर अनमनी सी हो गयी थी , माँ ने इसे लक्ष्य किया और बोलीं, "बाबा वो ऊपर वाले कमरे में रहेगा...आना-जाना भी बाहर सीढियों से होगा तो तुम्हे क्या परेशानी है.."

"क्यूँ ..टेरेस पर जाने में उसका कमरा नहीं पड़ेगा?..मैं क्या सिर्फ नीचे ही कैद रहूंगी.."

"वो सब बाद में, देखेंगे.....अभी तो ज्यादा घूमना-फिरना है नहीं तुम्हे..."माँ ने आश्वस्त किया..फिर भी थोड़ा असहज तो थी ही वह.

लेकिन किशोर बहुत ही सहज था...शाम को ऑफिस से आने के बाद,उस से मिलने आया...और पहले वाक्य में ही मुस्कुरा कर पूछा , "वेकेशन की ऐसी प्लानिंग तो मैने कहीं नहीं देखी....एग्जामिनेशन हॉल से सीधा हॉस्पिटल."

वो भी मुस्कुरा कर रह गयी....उसकी किताबों की आलमारी देख बोला,.."इतना पढ़ती हैं आप..बाप रे.."

"हाँ समय अच्छा कट जाता है और शौक भी है..."

"बढ़िया है..पर आप से संभल कर बात करना पड़ेगा..पता नहीं..कहाँ से क्या कोट कर दें.."

"निश्चंत रहिए मैं पढ़ कर भूल जाती हूँ.."
"ताकि दुबारा पढ़ने का स्कोप बना रहे..."..और दोनों ही इतने जोर से हंस पड़े कि कमरे में आती माँ एक पल को ठिठक सी गयीं. और उसकी तरफ गौर से देखा...अभी तो उस एकीशोर कि उपस्थिति इतनी नागवार गुजर रही थी और अभी हंस रही है उसके साथ...जरूर मन में कहा होगा..."ये लड़की भी ना.."

किशोर ज्यादा नीचे नहीं आता. उसका  खाना भी माँ ऊपर ही भिजवा देतीं....इतवार को भी वो देर तक सोता रहता...और ज्यादातर अपने कमरे में ही बना रहता...पर जब भी नीचे पापा से मिलने आता उससे मिलने भी जरूर आता और अपनी थोड़ी देर की उपस्थिति से ही एक खुशगवार...माहौल की छाप छोड़ जाता.

कितनी ही बार मोबाइल पर रितेश और समीर का नंबर निकाल घूरती रहती पर फोन करने की  हिम्मत नहीं कर पाती. आने के बाद बस एक-एक बार दोनों को शुक्रिया कहने के लिए फोन किया था....रितेश का शर्मीला चेहरा उसे फोन के पार से दिख रहा था...'हाँ' - 'ना'...में ही जबाब देता.,..और उसे अपना ख्याल रखने की हिदायत देता रहता...अजनबी सा उसने कहा..."आइये कभी.."
और अजनबी सा ही रितेश ने कहा .."हाँ जरूर..' और कह कर फोन रख दिया...थोड़ी देर वो घूरती रही फोन को...यही रितेश था जो पास बैठा घंटों उसे कविताएँ सुनाया करता था...पर फोन पर अभी आदत नहीं पड़ी थी...बस कभी कभी उसे कविता की सुन्दर पंक्तियाँ या शेर एस.एम.एस करता..और बदले में वो कुछ भारी भरकम से कोटेशंस  भेज देती..उसे कुछ सूझता ही नहीं...पर रितेश के खुद से टाइप किए मेसेज का इंतज़ार बना रहता. 

समीर के पास तो एस.एम.एस भेजने का वक़्त भी नहीं रहता....जब उसने फोन किया तब भी जाने कहाँ था और कितने लोगो से घिरा हुआ था...पर बात बड़े अपनेपन से किया बहुत ही सहजता से...'दवा ले रही है ना..खाना ठीक से खाती कि नहीं...समय पर सो जाती है ना...माँ कैसी हैं'..और फिर माँ से उसे घर के खाने ..चाय की याद आ गयी...उसके पास,तमाम बातें थीं करने को..पर  समय ही नहीं था...बोला, "करता हूँ फिर फोन..अभी तो भागना पड़ेगा..."

अब  समीर को  समय नहीं मिलता या उसे भी एक हिचक होती....वो समझ नहीं पाती. पर फोन उसका भी नहीं आता. अच्छा हुआ माँ ने ही एक दिन,कहा....तुम थोड़ी और ठीक हो जाओ...पट्टी  खुल जाए...सबकुछ खाने-पीने लगो तो समीर और रितेश को एक दिन खाने पर बुलाते हैं..दोनों ने बहुत ख्याल रखा...हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं."
और उस दिन से ही  जैसे वो दिन गिनने लगी... कब उसके माथे का बैन्डेज़ खुले.

और वो दिन आ ही गया....माथे का बैन्डेज़ खुल गया था...और इतने दिनों बाद....माँ ने श्यामली की सहायता से कुर्सी पर बैठा पीछे कर उसके बाल धो दिए थे. दिनों बाद खुले बालों से घिरा अपना चेहरा देखा तो जैसे खुद को ही पहचान नहीं पायी. रितेश समीर भी उसे देख, चौंके तो जरूर लेकिन दोनों की प्रतिक्रिया बहुत ही अलग सी रही....पहले रितेश आया...रितेश ने उसे पहले भी देखा था पर जैसे इस बार एक नई नज़र से देखा....और कुछ इस तरह उसे देखा कि उसने ही शर्मा कर आँखें झुका लीं.

उसे देखते  ही समीर के होंठ गोल हो गए...शुक्र है,उसने सीटी नहीं बजायी...पर हँसते हुए  बोला.."क्या बात है..आप सचमुच नाव्या ही हैं...या नाव्या की सहेली...मैं तो सच में कहीं और देखता तो पहचान नहीं पाता..."

"इतनी बुरी लग रही हूँ मैं..."

"थोड़ी सी..."..उसने मुस्कुरा कर दोनों उँगलियों से इशारा किया...

"हाँ! आपको लोग पेशेंट के रूप में ही अच्छे लगते हैं...हैं ना.."

उनकी बहस और आगे बढती कि माँ ने टोक दिया...."अरे बैठने तो दो पहले..फिर इत्मीनान से कर लेना  बहस...बहुत दिनों का कोटा बाकी है...बहुत अच्छा लग रहा है...बेटा..तुम दोनों को यहाँ  देख'

माँ ने किशोर को भी बुला लिया  था....डाइनिंग टेबल पर तो डैडी से ही सब ज्यादा बातें  करते रहे और माँ खिलाने-पिलाने में लगी रहीं. पर खाने के बाद जब सब लिविंग रूम में लौटे तो डैडी अपने  कमरे मे चले गए...माँ भी बस बीच-बीच में आती रहीं....ये तीनो भी एक दूसरे से अच्छी तरह घुल -मिल गए थे और तमाम विषयों पर बातें कर रहे थे...पर जब राजनीति पर बातें शुरू हुईं.. तो उसकी उपस्थिति जैसे भूल ही गए....आपस में ही उलझ गए...उसे गुस्सा आ गया....क्या वो नहीं पढ़ती अखबार?...वो नहीं देखती खबरे?...पर इन्हें लगता है..वो लड़की है तो उसकी क्या रूचि होगी...चर्चा कुछ और जोर पकड़ती कि समीर को एक कॉल आ गया...और रितेश भी उसके साथ ही उठ गया. बार-बार दोनों माँ  का शुक्रिया अदा कर रहे थे और माँ उन्हें फिर से आने का न्योता दे रही थीं. उनके जाते ही किशोर भी विदा लेकर चला गया और वो देर तक खिड़की के पास खड़ी ठंढी हवा के झोंके के साथ इस ख़ूबसूरत शाम के एक एक पल को दुबारा जीती रही.

अब फोन पर बातचीत का सिलसिला बढ़ गया...बीच की वो असहजता नहीं रही. रितेश किताबों की बातें करता और समीर अपने पेशेंट्स की...हॉस्पिटल की. पर इस से अलग कुछ और जैसे लबों तक आते आते छूट जाता...और वो चैन की सांस लेती. बातचीत में वे जरा सा पॉज़ लेते और उसका दिल धड़क जाता... डर जाती...'आगे क्या कहने वाले हैं...वो कैसे रिएक्ट करेगी...क्या जबाब देगी...पर फिर दोनों ही जैसे खुद संभल कर बात किसी और तरफ मोड देते.

एक दिन माँ ने सलाइयों पर अंगुलियाँ चलाते हुए पूछा, "ये किशोर कैसा लड़का है?"

"क्यूँ कुछ हुआ क्या....उसके पड़ोसियों  ने कुछ कहा क्या..."किशोर अब अपना मकान ले उसमे शिफ्ट हो चुका था. 

"अरे नहीं...."माँ आगे कुछ कहतीं कि  वो फिर से बोल पड़ी..."वही तो मैने सोचा तुमने ऐसा कैसे पूछा...इतना अच्छा सलीके वाला लड़का है...इतना कल्चर्ल्ड....ना बहुत गंभीर... ना ज्यादा बातूनी....और इतना क्वालिफाइड...कितनी कम उम्र में इतनी अच्छी पोस्ट कैसे मिल गयी उसे...बहुत ही अच्छा लड़का है,माँ..पर तुमने पूछा क्यूँ ऐसे??"

माँ जोरों से हंस पड़ी.."सच्ची आजकल तू कितना बोलने लगी है....मेरे पूछने का  मतलब  था..तुम्हे कैसा लगता है?"

"क्यूँ अच्छा है तो..अच्छा ही लगेगा ना...उसके यहाँ रहने की बात से थोड़ा मैं अनकम्फर्टेबल थी..पर फिर मिली तो बहुत ही सहज लगा मुझे...इतने अपनेपन से बात की"
"हम्म.....फिर तो ठीक है..."
"क्या ठीक है..."वो कुछ समझ नहीं पा रही थी.
"कुछ नहीं..."माँ ने हंस कर कहा...और एकदम से सब उसकी समझ में आ गया.
"माँsss ....साफ़-साफ़ बताओ...क्या बात है.."उसने गुस्से में भर कर कहा 

और माँ ने सब साफ़-साफ़ बता दिया...कि पापा और उनके मित्र दोनों की इच्छा है कि वे दोनों अब सिर्फ दोस्त ना रहकर एक रिश्ते में बंध जाएँ...वो लाख सर पटक कर रह गयी कि..ग्रेजुएशन से क्या  होता है....उसे आगे पढ़ाई करनी है...नौकरी करनी  है..तब जाकर शादी के बारे में सोचेगी. पर माँ के पास अपने तर्क थे..'तुम्हे पढ़ने से कौन रोक रहा है...जितनी मर्ज़ी हो पढो..पर इतना अच्छा लड़का हाथ से निकलने नहीं देना चाहते...जाना -सुना घर है..तुम्हारी भलाई ही सोच रहे हैं...पता नहीं दूसरा घर कैसा मिले.  डैडी और किशोर के पिता दोनों की ही यही इच्छा है....और सही समय भी है...कुछ ही दिनों में तुम्हारा रिजल्ट आ जायेगा,....ग्रैजुएट हो जाओगी.....लड़के की नौकरी लग गयी हैं...आखिर कितने दिन वे इंतज़ार करेंगे...उन्हें भी लड़कीवालों ने परेशान किया हुआ है...सुबह शाम लोगों का तांता लगा होता है....वे भी एक अच्छी जगह रिश्ता पक्का करके निश्चिन्त हो जाना चाहते हैं."

"तो उन्हें निश्चिन्त करने के लिए मैं बलि चढ़ जाऊं...??"

"कैसी बातें कर रही है...इसमें बलि जैसी क्या बात है...किशोर अच्छा लड़का है..तुमने खुद कहा है.."

"तो दुनिया में जितने अच्छे लड़के हैं..सब से शादी कर लूँ.."उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था.

"अब तुमसे डैडी  ही बात करेंगे ..मेरे वश का नहीं तुम्हारी उलटी-सीधी बातों का जबाब देना..."माँ ने अपना ब्रह्मास्त्र चला दिया और ऊन सलाई समेट कर वहाँ से चली गयीं. उसे पता है..डैडी से वो बहस नहीं कर पाएगी...और सर झुका कर उनका हर निर्णय स्वीकार कर लेगी.

आँसू छलक आए...'ये सब क्या हो रहा है.....इतने दिनों बाद जिंदगी इतनी प्यारी लग रही थी....माँ ज्यादातर उसके आस-पास ही रहतीं...बहुत कम बाहर जातीं...पापा भी उसके साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने की कोशिश करते...रितेश....समीर की दोस्ती....सब कुछ कितना सुहाना लग रहा था..पर किसकी नज़र लग गयी...और अब उसकी जिंदगी फिर कोई नया रुख लेने वाली थी. 

पर वो इतनी परेशान क्यूँ है...शादी से इनकार की वजह क्या सिर्फ  पढाई  ही  है...या कोई और बात है....क्या उसका मन कहीं और झुका हुआ है...पर वो क्या जाने...जितनी देर समीर से बातें होती है..लगता है,अनंत काल तक वो उस से बातें ही करती रहे...कभी ख़त्म ना हो उनकी बातें...पर फिर कब रितेश की छवि चुपके से पलकों पर आ कर बैठ जाती है..उसे पता भी नहीं चलता...लगता है रितेश के सिवा उसने और किसी को जाना ही नहीं....जानने की इच्छा भी नहीं.

और वो शादी से इनकार करे भी तो किस बिना पर. इन दोनों ने भी तो कभी अपनी भावनाओं  को शब्द नहीं दिए. क्या पता समीर सिर्फ उसे एक अच्छी दोस्त मानता हो...क्या पता रितेश सिर्फ औपचारिकता या कर्तव्य निभाता हो...पर उसकी आँखें जो कभी-कभी देख लेती हैं..उसपर कैसे अविश्वास करे. समीर की आँखों में जो कभी-कभी कौंध जाता है...वो सिर्फ दोस्त के लिए नहीं होता...रितेश जिन खोयी-खोयी निगाहों से देखता है..वे ये जता देती हैं कि  उसने और किसी को ऐसी निगाहों से नहीं देखा है. पर वो क्या करे??...ये मन की कैसी दुविधा है....रितेश की आँखों के मौन आमंत्रण को खूब पहचानती है वो..तो समीर के मुखर संदेश से भी बेखबर नहीं है. उसके कैशोर्य मन ने किसी के ह्रदय के समक्ष पूरी आस्था से आत्म समर्पण किया है तो वो रितेश का अंतर्मन ही है. लेकिन ये रितेश की छवि के आस-पास कैसी उद्दाम लहरें सी उठने लगती हैं और उसे परे धकेलता एक मुस्कुराता सा चेहरा सामने आ जाता है...जो निश्चय ही समीर का है और उसके होठों पर भी मुस्कराहट  आ जाती है. ..ऐसा क्यूँ...रितेश का ख्याल आते ही ह्रदय में एक टीस सी उठती है और दिल में गहरी उदासी सी छा जाती है. वहीँ समीर का ख्याल मात्र होठों पर हंसी ला देती है...सुकून दोनों दे जाते हैं दिल को..वो उदासी भी और ये मुस्कराहट भी.

क्या करे वह.....इन दोनों ने भी तो कभी ऐसा कुछ नहीं कहा कि इनकी भावनाओं से भी साक्षात्कार हो...यदि सिर्फ आँखों से ही काम चल जाता तो फिर भाषा का आविष्कार ही क्यूँ हुआ...किसलिए शब्दों का सहारा लिया गया...या क्या पता उन्हें सही वक़्त की तलाश हो.

मेज पर सर पटक-पटक कर रह जाती...क्या करे वह??....और वो कुछ नहीं कर सकी....बस एक सूत्र में बंधी किशोर के संग सात फेरे घूम लिए. और आज उसकी शादी की पार्टी में चुटकुले सुनाता..कहकहे लगाता ..चहरे पर अचानक छा जाने वाले बादलों को अपनी जानदार हंसी से उडाता समीर भी था और उदास आँखों में थोड़ी और विरानगी लिए फूलों के गुलदस्ते  थमाता रितेश भी था.

एक कोने में बने स्टेज पर औकेस्ट्रा    वाले तेज धुनें बजा-बजा कर थक गए थे....लड़के-लडकियाँ भी शायद नाच-नाच कर पस्त हो चुके थे और अब उसके  सिंगर ने शायद पार्टी में उपस्थित  बुजुर्गों का ख्याल कर तान छेड़ दी थी...


"कई बार यूँ भी  देखा है...
ये जो मन की सीमा रेखा है..
मन तोड़ने लगता है
अनजानी प्यास के पीछे...
अनजानी आस के पीछे...
मन दौड़ने लगता है..
राहों में...राहों में....जीवन की राहों में..

(समाप्त) 

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